हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई जी का जन्मशती वर्ष
प्रेमकुमार मणि10 अगस्त परसाई जी की पुण्यतिथि है. 1995 में उनका निधन हुआ था. 22 अगस्त 1924 को होशंगाबाद में जन्मे परसाई जी का जन्मशती वर्ष भी आरम्भ हो रहा है.

परसाई जी मेरे प्यारे लेखक हैं। हिंदी में वैसे लेखक कम ही हुए हैं। वह गुरुडम से रहित थे और जानते थे कि लेखक होना जिम्मेदार होना है, यह कोई जन्मजात महानता की बात नहीं है। बढ़ई, लोहार, कुम्हार, किसान की तरह ही लेखक भी होता है। उसमें सुर्खाब का पर लगा नहीं होता। उसे सामान्य मनुष्य की तरह जीना चाहिए। आम हिंदी लेखकों का कुलीन मिजाज उन्हें अपने लिए विशेषाधिकारों की दुराकांक्षा का मरीज बना देता है। इस धारा के सभी लेखक हाय-हाय करते हुए जीते हैं।
तुलसी से लेकर निराला तक में अपने आर्थिक दैन्य को लेकर छाती पीटने की यह लत आप देखेंगे। लेकिन कबीर, रैदास जैसे मिहनतक़श तबके के रचनाकारों में यह प्रवृति नहीं है। वे जूते गाँठ कर या चदरिया बुन कर कमा लेते थे और रूखा-सूखा खाकर भी उल्लास में जीते थे। आप उनकी कविताओं में भी उल्लास छलछलाते अंदाज़ में पाएंगे। ‘बाले ते ललात’ या ‘दुःख ही जीवन की कथा रही’ जैसे रुदन-पद वहां नहीं मिलेंगे। परसाई जी कबीर की परंपरा के लेखक थे।
अलमस्त, अक्खड और बेवाक! इसलिए आधुनिक हिंदी लेखकों में वह अलग-थलग दिखते थे। प्रेमचंद के प्रति उनके मन में सम्मान था और अपने जमाने के बीड़ी छाप धुरंधर लेखक मुक्तिबोध से दोस्ती। बाकि कंघी-चोटी मार्का हिंदी लेखकों को वह ठेंगे पर रखते थे, उनका जमकर मज़ाक उड़ाते थे।
परसाईजी से एक बार मिला। 1978 का साल था, जनवरी का महीना। हम कई मित्र छिंदवाड़ा के एक लेखक सम्मेलन से लौट रहे थे। जबलपुर में परसाई जी और ज्ञान जी से मिलना हमने तय किया था। ज्ञान जी से पहले भी मिल चुका था, लेकिन परसाई जी से कभी मिला न था। वह नेपियर टाउन नामक मोहल्ले में रहते हैं, यह जानता था। हमलोग नेपियर टाउन मोहल्ले में उन्हें ढूंढने लगे। एक पार्क में कुछ कमउम्र नौजवान बैडमिंटन खेल रहे थे। चिकनी-चुपड़ी जगह थी। हमलोगों ने नजदीक जाकर पूछा।
उनका खेल रुक गया और सीखी हुई सभ्य जुबान में उन्होंने क्वेरी की– “किस पद पर हैं? किस विभाग में हैं?” आदि। हमारे यह कहने पर कि वह लेखक हैं, वे गहरे उदास हो गए और मानो हम सब पर रहम करते हुए बतलाया– “नहीं, यह तो पॉश कॉलोनी है। यहां लेखक-वेखक नहीं रहते।” हमें थोड़ा गुस्सा आया, लेकिन उन बच्चों से उलझने का कोई मतलब नहीं था। हममें से किसी की बुद्धि जगी। उसने कहा परसाई जी यूनियन लीडर भी हैं।
गरीब तबके का कोई आदमी शायद उनका पता बता देगा। सड़क किनारे एक झोपड़ी में एक धोबी दम्पति कपड़े़ संभाल रहे थे। हमने उनसे पूछा। दोनों ने आपस में कुछ बात की और पुरुष बोला– “नेताजी उधर रहते हैं। मैं उन्हीं के घर जा रहा हूं।” हमलोग परेशान थे कि कैसी जगह आ गए। लेकिन फिर विचार किया कि कोई नेता होगा तो परसाई जी को जरूर जानता होगा। इसलिए कि वह अपनी लेखनी में नेताओं की खबर लेते रहते हैं।
इसी विचार को लिए हम उस धोबी बन्धु के पीछे-पीछे चले। एक संकरी गली मिली और नीम का एक गाछ। फिर एक छोटा-सा घर। बंद गली का आखिरी मकान था वह। एक छोटा-सा नामपट्ट दिखा ‘हरिशंकर परसाई’। हमारी बांछें खिल गईं। तो यही थे नेताजी। बस, यही था उनका घर या डेरा। कुछ ही क्षण बाद हम उस आधुनिक कबीर के पास मोढ़ों पर बैठे थे। परसाई जी तब बीमार थे, लेकिन हमें देख कर उनके चेहरे पर गालिबाना रौनक छा गई और फिर तो वह बात और मेजबानी में जुट गए।
चलते-चलते उनके लेखन की छोटी-छोटी दो बानगी रखना चाहूंगा। उनके साहित्य में इतना व्यंग्य है कि लोग उसे व्यंग्य-साहित्य ही कहने लगे हैं। लेकिन मुझे उनकी सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणियां बहुत पसंद हैं, (बल्कि कहूं उनसे ही प्रेरित हो मैं भी ऐसी टिप्पणियां खूब लिखता हूँ)। बानगी का यह हिस्सा परसाई रचनावली से लिया गया है।
उनके लेख ‘ऊंची जातियों के लिए आरक्षण’ का एक अंश-
मैंने कहा– शर्मा जी, सब कहीं रिजर्वेशन हो जाय तो कैसा रहे? ऊंची जातियों के लिए भी आरक्षण हो जाय। बलात्कार हरिजन स्त्रियों से होते हैं, क्यों नहीं, तीस फीसदी बलात्कार ऊंची जातियों की स्त्रियों से हो।'
“राम शम्बूक का सिर काटते रहे और द्रोणाचार्य एकलव्य का अंगूठा कटवाते रहे। इन लोगों को अछूत रखा, गंदी सेवाएं करायीं। जीवन स्तर गटर में डाल दिया। आत्म-सम्मान छीना। पशुवत इन से बुरा व्यवहार किया। इनके झोपड़े जलाये। इनकी स्त्रियों से बलात्कार किया। वे ऊपर उठते गए और इन्हें लात मार कर धकेलते गए। सदियों इनका शोषण हुआ है। इनके साथ अन्याय हुआ है। लोकतंत्र आया है तो इन्हें जीवन-सुधार की कुछ विशेष सुविधाएं दी जा रही हैं। इस पर देशव्यापी संकट खड़ी हो गई है। आरक्षण-विरोधी आंदोलन चल रहे हैं। आखिर ढिबरी और बिजली के बल्ब में बराबरी की स्पर्द्धा कैसे हो सकती है।”
और यह दूसरा ‘प्रधानमंत्रियों के बेटे’ का –
संजय कहते हैं– क्यों ममी, राजनीति में यह दायां और बायां क्या होता है? यह लेफ्ट और राइट क्या होता है? थोड़े ना-नुकुर के बाद माता जी ने सिखाया– “बेटे, दायां और बायां सुभीते के लिए होते हैं। देख दाहिने हाथ से लिखा हुआ तो सब पहचान लेते हैं, अगर जनता को धोखा देना है, तो बाएं हाथ से लिखना चाहिए। समझा?”
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