विश्व मूलनिवासी अधिकार दिवस मात्र औपचारिकता दिन बन कर रह गई है?

वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 आदिवासी और पर्यावरण विरोधी करार दिया गया है

सुशान्त कुमार

 

हसदेव अरण्य में जमीनें लूटने की कार्यवाही जोरों पर है। मणिपुर में कुकी महिलाओं को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने के जरिए मानवता को कलंकित कर उत्पीडि़त किया गया, इसमें दो कुकी-आदिवासी महिलाओं को नग्न अवस्था में घुमाया गया और सैकड़ों पुरुषों की भीड़ महिलाओं की देह के साथ खिलवाड़ किया।

26 जूलाई को लोकसभा में पारित किए गए वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 आदिवासी और पर्यावरण विरोधी करार दिया गया है। नया वन संरक्षण संशोधन बिल कारपोरेट घरानों को वन भूमि उपलब्ध कराने के लिए मोदी सरकार द्वारा लाया गया आदिवासी विरोधी बिल बताया जा रहा है।

ये सभी घटनाएं आसन्न 9 अगस्त विश्व मूलनिवासी अधिकार दिवस के पहले घटित हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1993 में मूलनिवासी अधिकार दिवस पर प्रस्ताव लाया और 1994 नें इसे सभी देशों पर लागू किया। इनके मानवाधिकार को लेकर घोषणा पत्र का निर्माण भी हुआ आगे चलकर बहुत काम हुए लेकिन विश्व का स्वदेशी आज भी हासिए पर है।

हमारी सरकार की नीति शुरू से ही विरोध का रहा है, उनका कहना है कि देश में मूलनिवासी रहते ही नहीं हैं। ऐसा नहीं तो क्यों 1957 में संयुक्त राष्ट्र संघ के 107वें आईएलओ कन्वेन्शन में देश में आदिवासी होना बताकर 1989 में सम्पन्न 169वें आईएलओ में आखिरकार हमारे प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र संघ में क्यों कर कहते कि भारत में आदिवासी नहीं है।

भाजपा और अन्य राजनीतिक दल आज तक असफल

आज़ादी के बाद से ही हासिए में रह रहे लोगों कि आवाज मजबूती के साथ उठाने भाजपा और अन्य राजनीतिक दल आज तक असफल रहे हैं क्योंकि उन्होंनेे संविधान को कूड़ेदान में रख दिया है। इसी कड़ी में संविधान की 5वीं अनुसूची का कड़ाई से अनुपालन करने और जनजातीय समुदाय संबंधित अन्य मांगों के समर्थन में संसद सहित देश में विरोध प्रदर्शन हो रहा है।

आदिवासियों के लिए संविधान में 5वीं अनुसूची बनाई गई क्योंकि आदिवासी इलाके आज़ादी के पहले भी स्वतंत्र शासन से संचालित थे। वहां, अंग्रेज़ों का शासन-प्रशासन नहीं था। तब इन इलाकों को सानान्य नहीं माना जाता था। 1947 में आज़ादी के बाद जब 1950 में संविधान लागू हुआ तो इन क्षेत्रों को 5वीं और छठी अनुसूची में वर्गीकृत किया गया। जो पूर्णत: बहिष्कृत क्षेत्र थे उन्हें छठी अनुसूची में डाला गया। जिसमें पूर्वोत्तर के चार राज्य हैं- त्रिपुरा, मेघालय, असम और मिज़ोरम। 

5वीं और छठी अनुसूची क्षेत्र

अंग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। जहां जहां हस्तक्षेप किए वहां अंग्रेजों को आदिवासी विद्रोह का सामना करना पड़ा। उन्हीं क्षेत्रों को 5वीं अनुसूची में डाला गया। इसमें दस राज्य शामिल हैं, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश  और अब झारखंड और छत्तीसगढ़।

संविधान में 5वीं अनुसूची के निर्माण के समय तीन बातें स्पष्ट तौर पर कही गईं- सुरक्षा, संरक्षण और विकास यानी आदिवासियों को सुरक्षा तो देंगे ही, उनकी क्षेत्रीय संस्कृति का संरक्षण और विकास भी किया जाएगा, जिसमें उनकी  बोली, भाषा, रीति-रिवाज़ और परंपराएं शामिल हैं।

5वीं अनुसूची में शासन और प्रशासन पर नियंत्रण की बात भी कही गई है। ऐसी व्यवस्था है कि इन क्षेत्रों का शासन-प्रशासन आदिवासियों के साथ मिलकर चलेगा।मतलब इन क्षेत्रों को 5वीं अनुसूची में एक तरह से विशेषाधिकार मिले, स्वशासन की व्यवस्था की गई। स्वशासन के लिए संविधान में ग्रामसभा को मान्यता दी गई है। जैसे कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग परंपराएं हैं।

इन प्राचीन कबीलाई व्यवस्थाओं में एक ढांचा था, कबीले का सरदार होता था, आपसी झगड़ों का निपटारा वे गांव में ही कर लेते थे। पुलिस थाना व्यवस्था तब नहीं होती थी। 5वीं अनुसूची में इसी व्यवस्था को ग्राम सभा के रूप में मान्यता दी और उसे ज़मीन बेचने और सरकारी अधिग्रहण संबंधी अधिकार दिए गए। अपनी भाषा, संस्कृति, पहनावा, रीति-रिवाज़ और बाज़ार की व्यवस्था तय करने का अधिकार मिला कि बाज़ार में क्या बिके, क्या न बिके? गांव चाहे कि शराब न बिके तो नहीं बिकेगी।

पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) क़ानून

नब्बे के दशक 1996 में 5वीं अनुसूची के परिदृश्य में पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) क़ानून बना। छत्तीसगढ़ में नियम भी बना लेकिन जमीनी स्तर पर टॉय ऑय फिस्स। 5वीं अनुसूची में ग्राम सभा पारिभाषित नहीं थी। ग्राम सभा के साथ-साथ पंचायती राज व्यवस्था को भी जोड़ा गया।

दोनों को गांव के विकास की जिम्मेदारी मिली। ये गांव की प्रशासनिक व्यवस्था हुई। जिले की प्रशासनिक व्यवस्था करने के लिए जिला स्वशासी परिषद को मान्यता दी। समस्या यहीं से है कि परिषद की बॉडी और नियमावली अब तक किसी राज्य ने नहीं बनाई कि उसमें कितने सदस्य हों, उनके काम क्या हों। 

यह परिषद स्वायत्त है, मतलब कि इसके पास वित्त का भी प्रबंधन हो।  संविधान के अनुच्छेद 275 में ट्राइबल सब-प्लान (टीएसपी) की व्यवस्था है, इसके तहत ऐसे क्षेत्रों के लिए अलग से बजटीय आवंटन होता है जिसका प्रयोग आदिवासियों के कल्याण और उनकी आर्थिक व सामाजिक बेहतरी के लिए होता है। जिला स्वशासी परिषद पैसा किस तहसील में, किस ब्लॉक में ख़र्च हो, यह तय करती है। 

जब परिषद ही नहीं बना तो स्वाभाविक है कि टीएसपी का पैसा कहीं न कहीं डायवर्ट किया जा रहा है। वहीं, स्वशासन की कल्पना करते हुए जिस ग्रामसभा की बात की गई, वर्तमान में उसके द्वारा लिए गए निर्णय को शासन स्वीकार ही नहीं करता है।अनुसुचित जाति, जनजातियों के लिए प्रमुख संविधानिक प्रावधान 

संविधानिक प्रावधान 

अनुच्छेद 14 - विधि के समक्ष समता-राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

अनुच्छेद 15 - धर्म, मूलवंश, जाति या स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।

अनुच्छेद 15 - (4) - शिक्षण संस्थाओं में (तकनीकी, इंजीनियर, मेडिकल समेत) जनजाति वर्गों के लिए प्रवेश हेतु स्थानों को आरक्षित किया है, ताकि उनका शैक्षणिक स्तर ऊंचा हो।

अनुच्छेद - 17 - इसके अंतर्गत जातिवाद को समाप्त करने का प्रावधान रखा गया है।

अनुच्छेद 23 - बेगार को प्रतिबंधित किया गया, गरीब होने के कारण जनजाति व्यक्ति बंधुआ मजदूर बनाते है। बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 उनकी पहचान, मुक्ति एवं पुनर्वास के लिए बना हुआ है।

अनुच्छेद 24 - 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे किसी खान, उघोग अथवा खतरे वाले रोजगार में नियोजित नहीं होंगे। यह भी इन्हीं कमजोर वर्गों के सामाजिक सुरक्षा हेतु है।

अनुच्छेद (25) (2) (बी) - सार्वजनिक हिन्दू धार्मिक संस्थाओं में प्रवेश की स्वतंत्रता।

अनुच्छेद - 29 - यह अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है, जनजातीय कल्याण की दृष्टि से यह प्रावधान भी विशेष महत्व रखता है क्योंकि देश के प्रमुख अल्पसंख्यक वर्गों में से जनजातियां भी प्रमुख है।

अनुच्छेद - 46 - अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य दुर्लभ वर्गो में शिक्षा और अर्थ संबंधी हितो की अभिवृद्धि।

अनुच्छेद - 243 (घ) - प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जनजाति के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे और इस प्रकार आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात उस पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या से यथाशक्य वही होगा जो उस पंचायत क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों को जनसंख्या का अनुपात उस क्षेत्र की कुल जनसंख्या से है।

अनुच्छेद - 243 - (न) - ग्राम स्तर, खंड एवं जिला स्तर पर जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में सदस्यों एवं जनजाति क्षेत्र में सरपंच, प्रधान एवं जिला प्रमुख के सभी पद जनजातियों के लिए आरक्षित किये गये हैं।

अनुच्छेद - 244 (1) - राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रो एवं जनजातियों के लिये निर्धारित प्रशानिक प्रावधानों को संविधान की पांचवी अनुसूची में निर्दिष्ट करने की व्यवस्था की गई है। 

अनुच्छेद - 244 (2) - छठी अनुसूची-असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्य के जनजाति क्षेत्र के प्रशासन के बारे में उपबंध।

अनुच्छेद - 275 - इसमें केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यों की जनजातीय कल्याण को बढ़ावा देने एवं इनके लिए प्रशासन की उचित वयवस्था करने के लिए विशेष धनराशी प्रदान करने की व्यवस्था है।

अनुच्छेद - 330 - लोकसभा में अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए स्थानों का आरक्षण।

अनुच्छेद - 332 - राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण।

अनुच्छेद - 335 - सेवाओं में पदों के लिए अनुचुचित जातियों वव जनजातियों के दावे।

अनुच्छेद - 338 - राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग।

अनुच्छेद - 339 - इसमें व्यवस्था की गई है कि संविधान लागू होने के दस वर्ष पश्चात अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातियों के विशेष प्रशासन की रिपोर्ट राष्ट्रपति के सम्मुख प्रस्तुत की जाए।

अनुच्छेद - 342 - इसमें राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वे राज्यों के राज्यपालों से विचार-विमर्श के बाद प्रत्येक राज्य के जनजातीय समुदायों में से अनुसूचित जनजातियां तय करे।

अनुच्छेद - 344 (1) - इसमें सलग्न पांचवी अनुसूची में राज्यपाल के लिए यह आवश्यक कर दिया गया है कि जब भी कहा जाए, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन की रिपोर्ट राष्ट्रपति को दे और उनका अनुदेश प्राप्त करें।

भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 47 में राज्य का यह कर्तव्य माना गया है कि जनजातियों की शिक्षा, उन्नति और हितों की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान दे।उत्तर से लेकर दक्षिण बस्तर तक बड़े कार्पोरेट को जमीन तथा खदान सौंपे जा रहे हैं।

5वीं अनुसूची और वनाधिकार क़ानून के अनुसार आदिवासी की ज़मीन ग़ैर आदिवासी को स्थानांतरित की ही नहीं जा सकती, फिर भी हज़ारों परिवार के संसाधन गैर आदिवासियोंं को सौंपा जा रहा है। हालांकि नान शेड्यूल एरिया में आदिवासियों को गैर कृषि जमीन बेचने में दिक्कत आ रही है।

विधान सभा चुनावों में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी

कांग्रेस और भाजपा कोई भी आदिवासियों के साथ नहीं हैं। कांग्रेस भी लंबे समय तक केंद्र और राज्य में सरकार में रही लेकिन आदिवासी तब भी ठगा गया। आगामी विधान सभा चुनावों में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

वनाधिकार क़ानून 2006  में दर्ज है कि कई सालों से जिस ज़मीन पर आदिवासी रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं, उनको ज़मीन के स्थायी पट्टा नहीं दिए जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में टाइगर रिज़र्व के नाम पर विस्थापन की योजना है। सरदार सरोवर बांध के नाम पर हज़ारों आदिवासी परिवार उजाड़ दिए व उनको पुनर्वास मिला, न ढंग से मुआवज़ा. ज़मीन तो गई ही, जंगल भी गया। उनकी संस्कृति, जनजातीय इतिहास सब नष्ट हो गया।

आदिवासी क्षेत्रों में ज़मीन के नीचे से सोना निकल रहा है, पेट्रोलियम पदार्थ की खोज हो रही है

आदिवासी को उठाकर शिविरों में रखा जा रहा है। आदिवासियों का भी अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है। उसे वहां से निकालकर पुनर्वास के नाम पर एक छोटी सी कोठरी थमा देते हैं। उनका जमीन संस्कृति, भाषा, सब-कुछ खत्म किया जा रहा है। आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। संविधान ने उनका संरक्षण करने के लिए उन्हें सरकार को सौंपा था।  

सरकार तो उलटा उनका ख़ात्मा कर रही है। आदिवासियों  की ज़मीन के नीचे अपार खनिज संपदा छिपी हुई है। आदिवासी क्षेत्रों में ज़मीन के नीचे से सोना निकल रहा है, पेट्रोलियम पदार्थ की खोज हो रही है। ज़मीन के वे मालिक हैं लेकिन उनकी मिल्कियत का हक़ उन्हें नहीं मिलता। कानून से उन्हें इन खनिजों का कुछ प्रतिशत हिस्सा मिलना चाहिए पर उनको वहां मज़दूर तक नहीं बनाया जा रहा। बस उनको भगाना चाहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का ही फैसला है कि जिसकी ज़मीन, उसका मालिकाना हक़. जिसका खनिज है, उसका मालिकाना है, वो नहीं दे रहे ना ही नौकरी ही मिलती है। आदिवासियों को कुछ नहीं मिलता, उनका वजूद पूरी तरह मिटाया जा रहा है। 5वीं अनुसूची में आदिवासी को जनजाति कहा गया है, उसमें देश के राष्ट्रपति को यह अधिकार दे दिया गया है कि वे किसी भी जाति को जनजाति में शामिल कर सकते हैं और किसी भी जनजाति को बाहर भी कर सकते हैं।

संविधान में जो आदिवासियों को कहा गया है कि आदिकाल से, प्राचीन काल से जो जुड़े हैं, उसमें किसी को शामिल करने और बाहर करने का कोई सवाल ही नहीं यही आगे जाकर देश में असंतोष पैदकर रहा है। सरकार एससी/एसटी समुदाय के लिए खूब योजनाएं ला रही हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर या बस्तर से भी और अंदर चले जाएं अंदरूनी इलाकों में विकास की सही स्थिति ज्ञात होती है कि वास्तव में कितना विकास हुआ?

...मतलब हड्डियां ऐसे मुड़ जाती हैं, कूबड़ बन जाता

वहां पीने का पानी नहीं है। बरसात में कई बार लोग नालों से पानी भरकर लाते हैं, गड्ढे खोदकर लाते हैं, वो गंदा पानी होता है। आरओ पानी तो वहां कोई नहीं पीता, कहीं नहीं मिलता। टंकियां तो बनीं, लेकिन सरकार पानी नहीं भरती। बोरिंग है लेकिन पानी नहीं।  राजनांदगांव के बोदाल में फ्लोराइड युक्त पानी आता है जो हड्डियों को खऱाब कर देता है। हड्डियां टेढ़ी हो जाती हैं। जवानी में लडक़े बूढ़े हो जाते हैं। मतलब हड्डियां ऐसे मुड़ जाती हैं, कूबड़ बन जाता है।

रिषद बने, बजटीय पैसा इसके ज़रिये ही बंटे और यही फैसला करे कि कौन-से अधिसूचित क्षेत्र में कितना पैसा इस्तेमाल होगा, शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य के क्षेत्र में। परिषद के सदस्य आदिवासी ही होंगे, लेकिन कितने सदस्य होंगे यह पता नहीं है क्योंकि नियमावली ही नहीं है। पेसा कानून के तहत ये नियमावली बननी चाहिए। सरकारी लागू कार्यक्रम फेल हैं।

जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी)

5वीं अनुसूची के तहत जनजतीय सलाहकार परिषद भी बनाई गई हैं। जनजातियों के उत्थान में उनका कैसा योगदान है? जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी) को राज्य स्तर पर मान्यता दी गई है। इसमें 20 सदस्य होंगे, दो तिहाई आदिवासी विधायक होंगे। पांच सदस्य कोई भी हो सकते हैं, जैसे कि समाज या सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता। इसका मुखिया भी आदिवासी हो। कमेटी आदिवासियों के विकास, सुरक्षा और संरक्षण के संबंध मे प्रदेश के राज्यपाल को रिपोर्ट करें। राज्यपाल का काम है कि वे इस रिपोर्ट को राष्ट्रपति को भेजें।

राष्ट्रपति जनजातीय समुदायों का अभिभावक

राष्ट्रपति को जनजातीय समुदायों का अभिभावक कहा गया है और उनकी निगरानी का जि़म्मा सौंपा गया है। राष्ट्रपति जब चाहे, तब राज्यपाल को आदेश देंगे कि उन्हें जनजातीय क्षेत्रों की रिपोर्ट चाहिए। नियम है कि 6 महीने या 3 महीने में वह रिपोर्ट मांगे, लेकिन ऐसा भी है कि अगर ज़रूरत हो तो कभी भी रिपोर्ट मांगी जा सकती है।

अब स्थिति देखिए- राष्ट्रपति ने आखिरी बार कब कब रिपोर्ट मांगी या जनजाति सलाहकार परिषद की बैठक कब-कब हुई, यह तक स्पष्ट नहीं है। किसी राज्य में बैठकें नहीं हो रही हैं। हुईं भी तो साल में कितने बार कोई ब्योरा नहीं है। 5वीं अनुसूची लागू तो है लेकिन उसके अनुपालन पर सवाल है। जैसे कि संबंधित किसी कलेक्टर से बात करते हैं तो जवाब होता है कि हमारे पास इससे संबंधित कोई गाइडलाइन नहीं है। इन अधिकारों को न्यायालय भी मान्यता नहीं देती है।

5वीं अनुसूची के अलग-अलग प्रावधान हैं जैसे कि पेसा क़ानून के लिए अधिसूचना चाहिए या ग्रामसभा के बारे में चाहिए तो राज्यपाल की जिम्मेदारी बनती है कि वो जारी करे कि इस सूची के इस अधिसूचित क्षेत में ये अधिकार हैं। जैसे कि अनुसूची में उल्लेखित है कि इन अनुसूचित क्षेत्र में सामान्य क़ानून लागू नहीं हो सकते या लागू हो भी सकते हैं। दोनों बाते हैं और परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। परस्थितियां क्या होंगी? यह नोटिस राज्यपाल को जारी करना होता है।

ऐसे में सामान्य क्षेत्रों की ही तरह इन क्षेत्रों को चलाया जा रहा है। जो योजनाएं अन्य क्षेत्रों में चल रही हैं, वही यहां हैं। लेकिन वास्तव में यहां के लिए विशेष योजना हो, जिन पर अलग से विचार हो, बिना किसी अधिसूचना जारी किए कैसे सामान्य क्षेत्रों की तरह व्यवहार हो रहा है। टीएसी, ग्राम सभा, डीएसी से सलाह ली जाए जो संवैधानिक बॉडी हैं।

आदिवासी क़ीमत तय करे और वे उन्हें बेचें

जंगल क्षेत्र में आदिवासी रह रहा है तो उनको जंगल क्षेत्र की जो भी वनोपज है जैसे ताड़ी, आम का पेड़ है, महुए का पेड़ या तेंदुपत्ता उस पर अधिकार मिले। सरकार और आदिवासी क़ीमत तय करे और वे उन्हें बेचें, पर ऐसा अब तक होता नहीं दिख रहा है। इन क्षेत्रों में घर लकड़ी के होते हैं।

स्वाभाविक है कि लकड़ी काटकर ही बनेंगे, लेकिन जब ये जंगल में लकड़ी काटने जाते हैं तो गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं और कई नेता मालिक मकबूजा में एक रूपए में सागौन का पेड़ काट लिए। वन में हज़ारों सालों से जो रह रहा है, उनका अधिकार होना चाहिए न कि वन विभाग का। घर बनाने के लिए भी लकड़ी नहीं दी जा रही तो कहां से लाई जाए। जल, जंगल और ज़मीन पर यह उसका अधिकार है, पर उसे मिलता नहीं।

जितने भी वन क्षेत्र हैं जनजातीय क्षेत्र में ही हैं। ग्रामीण क्षेत्र के पेड़ कट रहे हैं तो उस पर पहला हक़ ग्राम सभा का हो। लेकिन ग्राम सभा को कोई अधिकार नहीं दिया। सच यह है कि अशिक्षित आदिवासी को कई सारे बिलों के बारे में पता ही नहीं है और न ही उनके कथित नेता जानते हैं। राज्य और केंद्र सरकार समाज के पिछड़े तबकों के लिए कई योजनाएं बनाती हैं, घोषणाएं और वादे करती हैं, लेकिन ज़मीन पर असर होता नहीं दिख रहा। देखते हैं आयोग बनने के बाद क्या बजट में हेड और मंडल कमीशन लागू हो पाता है या नहीं।

आदिवासियों के नाम पर पेट्रोल पंप आवंटित हुए, लेकिन फायदा सामान्य वर्ग के लोग ले गए

योजनाएं आदिवासी के नाम पर बनती हैं, लेकिन उनका फायदा उसे नहीं मिलता। आदिवासियों के नाम पर दूसरों ने लाभ लिया? आदिवासियों के नाम पर पेट्रोल पंप आवंटित हुए, लेकिन फायदा सामान्य वर्ग के लोग ले गए।  5वीं अनुसूची में जितनी भी खदानें हैं, वे आदिवासियों को ही आवंटित होनी हैं, लेकिन सब सामान्य वर्ग के पास हैं।  लेकिन, कोई कानून ऐसा नहीं कि इन लोगों को स्पष्ट सज़ा का प्रावधान हो।

इसके लिए राज्य सरकार ज़िम्मेदार है। आदिवासी शिकायत इसलिए नहीं करता क्योंकि उसे मालूम ही नहीं है फला फला उनका अधिकार हैद्ध उनको अपने अधिकार पता नहीं हैं। योजनाएं बन रही हैं लेकिन फायदा नहीं पहुंच रहा और कहीं न कहीं सिस्टम ज़िम्मेदार है। समस्या ये भी है कि सरकार योजनाएं बनाती जरूर  है लेकिन जिनके लिए बनाई उनको ही जानकारी नहीं है।

सांसद विधायक को आदिवासियों से कोई मतलब नहीं

लगभग आदिवासी समुदाय से 47 सांसद और करीब 600 विधायक हैं। 5वीं अनुसूची से उन्हें कोई मतलब नहीं। आदिवासी राजनीति, धर्म, धर्मकोड और जाति तथा  वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 के नाम पर सवर्णों के तिजोरी में कैद हो चुकी है। सरकार, राष्ट्रपति, राज्यपाल, शासन-प्रशासन को कतार में अंतिम व्यक्ति के प्रति ईमानदार होना चाहिए था। अगर भ्रष्टाचार भी है तो जिम्मेदार सरकार है।

5वीं अनुसूची पूरी तरह लागू होती है तो जिला कलेक्टर के पास हर तीन महीनों और छह महीनों में ताज़ा अधिसूचना उपलब्ध होगा। इसमें ऐसा प्रावधान भी है कि इन क्षेत्रों में लोगों को रोजग़ार नहीं मिल रहा तो राज्यपाल अधिसूचना जारी करेगा कि फलां तहसील में 100 प्रतिशत आरक्षण लागू हो, जिससे कि वहां मौजूद हर नौकरी स्थानीय बेरोजग़ारों को ही मिलेगी, भले ही वे पांचवीं पास हों या दसवीं, उससे मतलब नहीं। उसे उसके स्तर का रोजगार मिलेगा। इससे पलायन रुकेगा।

वर्तमान में ग्रामीण रोजग़ार के लिए अन्य जिलों, तहसील यहां तक कि अन्य राज्यों में जाता है। जब 5वीं अनुसूची लागू होगी तो उसे गांव में ही रोजग़ार मिलेगा। भले ही गिट्टी भरने या तालाब खोदने का रोजग़ार मिले। अभी ज़मीन छीनने पर आदिवासी विरोध करता है तो सबसे पहले उसे नक्सली से जोडक़र सीधे जेल में डाल दिया जाता है जिससे आम जनता के बीच उनकी सहानुभूति ख़त्म हो जाती है। 

जनजातीय क्षेत्रों की जेलों में बंद क़ैदियों में 90 प्रतिशत आदिवासी हैं

लेकिन 5वीं अनुसूची के बाद जिला परिषद और ग्रामसभा फ़ैसला करेगी कि हमारे लोगों पर कौन सी धारा लगे, इसकी पुलिस में शिकायत होनी चाहिए या नहीं। गांव में ही मामलों का निपटारा होने लगा तो स्वाभाविक है कि उनके ऊपर अत्याचार कम हो जाएंगे। जनजातीय क्षेत्रों की जेलों में बंद क़ैदियों में 90 प्रतिशत आदिवासी हैं। आज आदिवासी अधिकारों से वंचित हैं और उनके अधिकारों पर बात करने वाले कारागाह में।


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