क्या आप जानते हैं 31 जुलाई को सफाई कामगार दिवस मनाया जाता है?

सफाई कामगार दिवस का इतिहास 

एस. आर. दारापुरी

 

31 जुलाई देश भर में ‘सफाई कामगार दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन दिल्ली, नागपुर और शिमला नगरपालिका में सफाई कामगारों को छुट्टी होती है। इस दिन सफाई कामगार इकट्ठा हो कर अपनी समस्यायों पर विचार विमर्श करते हैं और अपनी मांगें सामूहिक रूप से उठाते हैं।

सफाई कामगार दिवस का इतिहास

सफाई कामगार दिवस का इतिहास यह है कि 29 जुलाई, 1957 को दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी के सफाई कामगारों ने अपने वेतन तथा कुछ काम सम्बन्धी सुविधायों की मांग को लेकर हड़ताल शुरू की थी। उसी दिन केन्द्रीय सरकार के कामगारों की फेडरेशन ने भी हड़ताल करने की चेतावनी दी थी।

पंडित नेहरू उस समय भारत के प्रधान मंत्री थे। उन्होंने केन्द्रीय सरकार के कामगारों तथा सभी हड़ताल करने वालों को कड़े शब्दों में चेतावनी दी कि उनकी हड़ताल को सख्ती से दबा दिया जायेगा।

30 जुलाई को नई दिल्ली सफाई कर्मचारियों की हड़ताल शुरू हो गयी। नगरपालिका ने हड़ताल को तोडऩे के लिए बाहर से लोगों को भर्ती करके काम चलाने की कोशिश की। उधर सफाई कामगारों ने एक तरफ तो कूड़ा ले जाने वाली गाडिय़ों को नए भर्ती हुए कामगारों को काम करने के लिए जाने से रोका और दूसरी ओर काम करने वालों से जाति के नाम पर अपील की कि वे उनके संघर्ष को सफल बनायें।

हुमायूँ रोड, काका नगर, निजामुद्दीन आदि के करीब हड़ताली तथा नए भर्ती सफाई कामगारों की झडपें भी हुयीं। 31 जुलाई को दोपहर तीन बजे के करीब भंगी कालोनी रीडिंग रोड से नए भर्ती किये गए कामगारों को लारियों में ले जाने की कोशिश की गयी। सफाई कामगारों ने इसे रोकने की कोशिश की। पुलिस की सहायता से एक लारी निकाल ली गयी। परंतु जब दूसरी लारी निकली जाने लगी तो हड़ताल करने वाले कामगारों ने ज्यादा जोर से इस का विरोध किया।

पुलिस ने टिमलू नाम के एक कर्मचारी को बुरी तरह से पीटना शुरू किया। उस पर भीड़ उत्तेजित हो गयी और किसी ने पुलिस पर पत्थर फेंके। उस समय मौके पर मौजूद डिप्टी एस पी ने भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। बस्ती के लोगों का कहना है कि पुलिस ने बस्ती के अन्दर आ कर लोगों को मारा और गोलियां चलायीं। गोली चलाने के पहले न तो कोई लाठी चार्ज किया गया और न ही आंसू गैस ही छोड़ी गयी। कितनी गोलियां चलाई गयीं पता नहीं। पुलिस का कहना था कि 13 गोलियां चलायी गयीं।

इस गोली कांड में भूप सिंह नाम का एक नवयुवक मारा गया, जो कि सफाई कर्मचारी तो नहीं था परन्तु वहां पर मेहमानी में आया हुआ था। जो नगरपालिका सफाई कामगारों की 30 जुलाई तक कोई भी मांग मानने को तैयार नहीं थी, हड़ताल शुरू होने के बाद मानने को तैयार हो गयी।

हड़ताल के दौरान पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने और एक आदमी की मौत हो जाने के कारण सफाई कामगारों में गुस्सा और जोश बड़ा जो भयानक रूप ले सकता था। बहुत से लोगों ने हमदर्दी जताई और आहिस्ता आहिस्ता लोग इस घटना को भूलने लगे। 

भंगी कालोनी में रहने वाले कर्मचारी नौकरी खो जाने के डर से किसी भी गैर कांग्रेसी राजनीतिक पार्टी को नजदीक नहीं आने देते थे। उधर कर्मचारी इस घटना को भुलाना भी नहीं चाहते थे. वे गोली का शिकार हुए नौजवान भूप सिंह की मौत को अधिक महत्व देते थे। उस की मौत के कारणों को या शासकों के रवैये को नहीं। उनकी भावनायों को ध्यान में रखते हुए इस बस्ती में रहने वाले नेताओं ने भूप सिंह की बर्सी मनाने की प्रथा शुरू कर दी। 

1957 के बाद हर वर्ष पंचकुइआं रोड स्थित भंगी कालोनी में भूप सिंह शहीदी दिवस मनाया जाने लगा और भूप सिंह को इस आन्दोलन का हीरो बनाया जाने लगा। भूप सिंह की बड़ी सी तस्वीर बाल्मीकि मंदिर से जुड़े कमरे में लगायी गयी। इस मीटिंग में हर वर्ष भूप सिंह को श्रदांजलि पेश की जाती है।

भंगी झाड़ू छोड़ो का नारा किसने दिया?

बाबा साहेब आंबेडकर की बड़ी इच्छा थी कि समूचे भारत के सफाई कामगारों को एक मंच पर इकट्ठा किया जाये। उनकी एक देशव्यापी संस्था बनायी जाये जो उनके उत्थान और प्रगति के लिए संघर्ष करे और उन्हें गंदे पेशे तथा गुलामी से निकाल सके। उन्होंने 1942 से 1946 तक, जब वे वायसराय की एग्जीक्यूटिव कोंसिल के श्रम सदस्य थे, सफाई मजदूरों की समस्याओं के अध्ययन के लिए एक समिति भी बनायीं थी। दरअसल बाबा साहेब भंगियों से झाड़ू छुड़वाना चाहते थे और इसी लिए उन्होंने ‘भंगी झाड़ू छोड़ो’ का नारा भी दिया था। 

सफाई कामगारों पर सब से अधिक प्रभाव गाँधी जी, कांग्रेस और हिन्दू राजनेताओं और धार्मिक नेताओं का रहा है। उन्होंने एक ओर तो सफाई कर्मचारियों को बाबा साहेब के स्वतंत्र आन्दोलन से दूर रखा और दूसरी ओर उन्हें अनपढ़, पिछड़ा, निर्धन और असंगठित रखने का प्रयास किया है ताकि वे सदा के लिए हिंदुओं पर निर्भर रहें, असंगठित रहें और पाखाना साफ करने और कूड़ा ढोने का काम करते रहें। दूसरी ओर उनकी संस्थाओं को स्वतंत्र और मजबूत बनने से रोका. उनकी लगाम हमेशा कांग्रेसी हिन्दुओं के हाथ में रही है।

सफाई कामगारों में हमेशा से संगठन का अभाव रहा है क्योंकि बाल्मीकि या सुपच के नाम से समूचे भारत के सफाई कामगारों को एक मंच पर इकट्ठा नहीं किया जा सकता. ऐसा करने से उन में जातिगत टकराहट का भय रहता है। अत: सफाई कामगारों को बतौर ‘सफाई कामगार’ संगठित करना जरूरी है। इसी उद्देश्य से ‘आम्बेडकर मिशन सोसाइटी’ जिस की स्थापना श्री भगवान दास जी ने की थी, ने 1964 में यह तय किया कि मजदूर दिवस की तरह दिल्ली में भी ‘सफाई कामगार दिवस’ मनाया जायेगा ताकि उस दिन सफाई कामगार अपनी समस्याओं और मांगों पर विचार विमर्श कर सकें और उन्हें संगठित रूप से उठा सकें।

धीरे-धीरे भारत के अन्य शहरों में भी 31 जुलाई को स्वीपर- डे अथवा सफाई कामगार दिवस के नाम से मनाया जाने लगा। दिल्ली के बाद नागपुर पहला शहर है जहाँ पर 1978 के बाद से बाकायदा हर वर्ष स्वीपर-डे पब्लिक जलसे के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन वहां पर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने, दुर्घटनाओं तथा अपनी सेवा काल के दौरान मरने वाले सफाई कामगारों को श्रदांजलि पेश की जाती है और अन्य समस्याओं के समाधान के लिए विचार विमर्श किया जाता है. प्रस्ताव पास करके सरकार को भेजे जाते है और सफाई कर्मचारियों की उन्नति और प्रगति के लिए प्रोग्राम बनाये जाते हैं।

भगवान दास जी ने अपनी पुस्तक ‘सफाई कामगार दिवस 31, जुलाई’ में ‘सफाई दिवस कैसे मनाएं?’ में इसे सार्थक रूप से मनाने पर चर्चा में कहा है कि इसे बाल दिवस, शिक्षक दिवस और मजदूर दिवस की तरह मनाया जाना चाहिए. उन्होंने आगे कहा है कि इस दिन जलसे में उनकी व्यावसायिक, आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा आदि समस्याओं पर चर्चा करना उचित होगा। शिक्षा के प्रसार खास करके लड़कियों तथा महिलाओं की शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए। 

शिक्षा में सहायता के जरूरतमंद छात्र-छात्राओं को पुरस्कार, संगीत तथा चित्रकारी, मूर्ति कला तथा खेलों को प्रोत्साहन देने तथा छोटे परिवार, स्वास्थ्य और नशा उन्मूलन पर जोर दिया जाना चाहिए। इस जलसे में मंत्रियों और बाहरी नेतायों नहीं बुलाया जाना चाहिए। बाबा साहेब तथा अन्य महापुरुषों के जीवन संघर्ष आदि से लोगों को परिचित कराया जाना चाहिए ताकि उन्हें इस से प्रेरणा मिले और उनमें साहस एवं उत्साह बड़े और वे खुद आगे की ओर बढऩे की कोशिश करें।

वास्तव में सफाई कामगार दिवस को कर्मचारियों में संगठन, जागृति, शिक्षा और उत्थान के लिए पूरी तरह से उपयोगी त्योहार के रूप में मनाया जाना चाहिए क्योंकि वे ही सब से अधिक शोषित, घृणित और पिछड़ा मजदूर वर्ग है।


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