नरेन्द्र बंसोड़ की याद में भूली बिसरी यादें
परिनिब्बान दिन
सुशान्त कुमारसबको मुक्कमल जहां नहीं मिलता। यह उनका पसंदीदा गीत था जिसे वे मेरे लिए मुहावरे के रूप में गाते थे। इन सात सालों में पता ही नहीं चला उनकी भौतिक काया हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा मुझे राजनांदगांव ले आना और मेरा यहीं का निवासी हो जाना कभी चाह कर भी इसे भूलाया नहीं जा सकता है। व्यक्ति के देहांत के बाद सभी उनकी अच्छाइयों और बुराइयों पर बहस करते हैं और होना भी चाहिए। बुद्ध पहले क्या थे वह मायने नहीं रखता वह बुद्धत्व को प्राप्त हुवे यह महत्वपूर्ण। अंगुलिमाल पहले क्या थे नहीं मालूम लेकिन बुद्धत्व के शरण में आये यह मायने रखता है। अतित से ज्यादा वर्तमान में वह क्या थे वह महत्वपूर्ण होता है जिसके आधार पर भविष्य तय होता है।

उन्होंने नई जहां की तलाश में बुद्ध - आंबेडकरी सोच को अपने और अपने समाज के लिए मुक्ति का मार्ग चुना था। लेकिन जिस पार्टी को उन्होंने सिंचा वही अम्बेडकरवाद को छोड़ चले यह शायद वह पचा नहीं पाते। लोगों से दोस्ती और बुरे वक्त में साथ देना कोई उनसे सीखे। वाकपटुता और व्याख्यान शैली के वे मास्टर थे। पिताजी भैयालाल बंसोड़ और माता जैनाबाई बंसोड़ के चौथे पुत्र घर में अपनी प्राथमिक पढ़ाई के साथ पिता के बढ़ई के कामकाज में हाथ बटाते थे। बढ़ईगिरी करते करते पिता के द्वारा घुट्टी में पिलाए गए वंचितों का आंदोलन और डॉ. आंंबेडकर के विचारधाराओं के बीच जनप्रिय हो गये।
इस बीच उनकी पढ़ाई भी चलती रही और 49 वर्षीय नरेन्द्र बाबा साहेब के नक्शे कदम पर चलते हुए कानून की पढ़ाई पूरी कर अधिवक्ता सह जननेता बन चुके थे। कहा जाता है कि उनके पिता और उनके मित्र बीडी सुखदेवे, अवधराम वर्मा तीनों राजनांदगांव के कट्टर आम्बेडकरी थे। साल 1986-87 में कॉलेज के चुनाव लडऩे वाले पतले दुबले लेकिन साधारण शक्ल सूरत का यह युवक साल 1987 में राजनांदगांव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के फाउंडर कहलाते हैं। पार्टी के प्रचार-प्रसार के लिए दिवाल लेखन से लेकर 2003 में बीपी मेश्राम को विधान सभा चुनाव में उतारने और उनके लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया और रात-रात मेरे साथ जग कर जगदलपुर के दीवारों में आदिवासियों के लिये दीवारलेखन किया था।
साल 1991-92 में जब कांशीराम की साइकिल रैली जब पूरे देशभर में चल रही थी उस वक्त छत्तीसगढ़ की राजनैतिक फिजां को बदलने में उन्होंने ठोस जमीन तैयार की। उनके द्वारा तैयार किए गए कार्यकर्ताओं की एक लंबी लाइन थी लेकिन वह आंदोलन आज थम सा गया है। 29 अप्रैल 2006 में नरेन्द्र वैवाहिक सूत्र में बंध गये। 19 नवम्बर 2009 में उनके प्रथम राजनैतिक गुरू और पिता भैया लाल बन्सोड़ के निधन के बाद उन पर घर-परिवार और संगठन की जिम्मेदारी पहाड़ की तरह आ टूटी लेकिन जिस तेजी के साथ 2007 में नई आंबेडकरी संघ (एम्बस-ऑल इंडिया मूल निवासी बहुजन समाज सेन्ट्रल संघ) और पार्टी एपीआई (आंंबेडकराईट पार्टी ऑफ इंडिया) का नींव रखा था उसके पैरोकार आम्बेडकरवाद को त्याग चुके हैं और नई विचार पर चल दिये हैं। रज्जाब और गेंदसिंह ने बताया कि साल 2000 में गंडई नगर पंचायत चुनाव में बसपा से आठ प्रत्याशियों को टिकट दिया गया था। इस टिकट वितरण के लिए जिला संयोजक के रूप में बसपा में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
नरेन्द्र के बताए महत्वपूर्ण कदम जो उन्हें प्रदेश सहित देश में स्थापित करता है। उन्होंने दलितों से जुड़े सारे आंदोलन का नेतृत्व किया। अपने ही समाज में जाति प्रमाण पत्र का मामला, आरक्षण को बचाए रखने, संविधान की रक्षा, बौद्ध धर्म में धर्मान्तर, भंते का व्यवहार, खंडित मूर्तियों की पुर्नस्थापना संघर्ष, अखबार में दलितों के खिलाफ उभरते द्वेष का खंडन और टिप्पणियां, कविता, गीत और लेखों का प्रकाशन, बाबा साहब, बिरसा मुंडा, बौद्ध साहित्य के साथ विशेषकर नंद कुमार बघेल की पुस्तक ‘ब्राह्मण कुमार रावण को मत मारो’ और सतनाम समाज से जुड़े पत्र पत्रिकाओं के प्रचार प्रसार का कार्य भी किया। दक्षिण कोसल पत्रिका के सलाहकार संपादक के पद से हटने के बाद भी पत्रिका के लिए प्रुफ का कार्य अपने बीमारी की अवस्था में भी करते रहे और मेरी भाषा और मात्रात्मक गलतियों को सुधारते रहते थे।
ऐसा नहीं की उनके साथ मतभेद नहीं रहा। उनके साथ अंतागढ़ चुनाव, वेल्लोर अस्पताल में चिकित्सा, नैतिक मामलों सहित कई मामलों में मेरा मतभेद भी रहा है। लेकिन छलकपट के साथ पलटवार कभी नहीं किया। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वे राजनांदगांव के साथ पूरे भारत को प्रबुद्ध भारत में बदल सके जो अधूरा का अधूरा रहा।
आरक्षण और आंबेडकर पर जब ‘नांदगांव टाईम्स’ के बददिमाग संपादक अशोक पांडे ने दलितों को दिग्भ्रमित करने वाला संपादकीय लिखा तो उसका मुंहतोड़ और माकूल जवाब भी दिया गया। बसपा के गिरते राजनीतिक स्थिति को नई पार्टी की भागीदारी से बेहतर विकल्प बनाने की कोशिश अंतत: असफल रही। भाजपा के शासन में छत्तीसगढ़ में ब्राह्मणी ऊंच नीच की व्यवस्था को ठेंगा दिखाते हुए अंबागढ़ चौकी में 5 हजार दलितों को बौद्ध धर्म में धर्मान्तरित किए।
26 अगस्त 1992 को अखबार के संपादक पांडे ने अपनी सम्पादकीय ‘जाति पर आधारित जनगणना’ में लिखा था कि -‘वे जाति आधारित आरक्षण की निंदा करते हैं। वे लिखते हैं कि अंबेडकर आर्थिक आधार के पक्षपाति रहे हैं। आज आरक्षण के कारण जो विस्फोटक स्थिति निर्मित हुई है। उसका सारा दोष अम्बेडकर जैसे तुच्छ जयचन्दों को जाता है। जिन्होंने अपने को महान सिद्ध करने ऐसे जलिल हरकत की है।
जिसके लिए राष्ट्र के समझदार और गरीब लोग उन्हें हमेशा गालिया देते रहेंगे, और सदैव उन्हें कोसते रहेंगे क्योंकि कोई नाथुराम उस समय ऐसे दलितों के दलाल के लिए पैदा नहीं हुए जो उन्हें उनकी काली करतूत के लिए सजाए मौत दे सकता। आज शताब्दी समारोह और भारत रत्न की चकाचौंध में भले ही उन्हें महानता का खिताब दे रहे हो पर वह कभी इसके काबिल नहीं रहा।’ इस बौधिक दिवालिया से युक्त अधकचरा और जातीय विष उगलता सम्पादकीय का विरोध अगर किसी ने किया तो वह नरेन्द्र का नेतृत्व ही था। इस सम्पादकीय के बाद उनके नेतृत्व में बौद्ध अनुयायियों ने राजनांदगांव के जयस्तंभ में धरना प्रदर्शन कर उक्त पत्रिका के सम्पादक को माफी मांगने मजबूर किया।
वर्ष 1995 को अपने गठबंधन की सरकार को गिराकर बीएसपी ने भारतीय जनता पार्टी जैसी ब्राह्मणवादी पार्टी से समझौता कर डाला था जिसकी वजह से मायावती तीन बार क्रमश: चार, छह तथा चौदह माह तक उत्तरप्रदेश की सत्ता में रही, बाकी सात साल बीजेपी का शासन रहा। इस तरह पहली बार दलित आंदोलन अपने सबसे बड़े दुश्मन यानी संघ परिवार का शिकार हो गया था। इस घटना के बाद नरेन्द्र बन्सोड़ ने विश्लेषण करते हुए कहा था कि ‘बसपा के प्रमुख मायावती की राजनैतिक हत्या हो गई है।’ इस बयान के बाद उन्हें तीखे आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।
उनका भविष्यवाणी 2007 के आते-आते सच होने लगा।
दलित आंदोलन का सदियों पुराना ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान ब्राह्मण सहयोग में बदल गया, विशेष रूप से मायावती ने डॉ. आंबेडकर की एक उक्ति को गलत संदर्भों में बड़े पैमाने पर उद्धृत करना शुरू कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता हर ताले की मास्टर चाभी होती है, अत: जातिव्यवस्था विरोधी संपूर्ण ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि को छोड़ कर मायावती ने ब्राह्मणों के साथ अन्य सवर्ण जातियों को प्रभावित करने के लिए इस कड़ी में अलग-अलग जातियों के सम्मेलन आयोजित करवाने के साथ-साथ आर्थिक आधार पर नौकरियों में आरक्षण का वादा करना शुरू कर दिया। कालान्तर में भारतीय राजनीति में बड़े पैमाने पर जातीय चेतना का विकास होने से दलित आरक्षण की अवधारणा हिंदू धर्म की शिकार जातियों के शोषण पर विकसित होने लगी। डॉ. आम्बेडकर के सपने को मायावती ने चकनाचूर कर दिया। नरेन्द्र के साथ मतभेदों ने कभी उनका पीछा नहीं छोड़ा, उन्होंने सही आम्बेडकरी विचारधारा और दर्शन को समाज में कैसे लागू करे, इस पर कार्य करना चाहते थे। समाज में एकता कैसे स्थापित हो इसकी उन्हें चिंता थी।
इस संदर्भ में उनका अंतिम पत्र खासा प्रकाश डालता है। उन्होंने अपने अंतिम पत्र में लिखा हैं कि -‘मैं समझता हूं दुनिया में एम्बस के प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2016 को डॉ. आम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय वर्ष भी घोषित कर सकता है। और यह दिन अंतरराष्ट्रीय ‘ज्ञान दिवस’ के रूप में सच साबित हुआ। लेकिन जिस संगठन से उन्होंने आश बांध रखी थी विजय मानकर तथा वह संगठन आम्बेडकरवाद को आखिरकार त्याग देगा ऐसा उन्होंने कभी भी शायद ही सोचे रहे हो और अगर वह जीवित होते तो उनका निर्णय अवश्य ही आज चौंकाने वाला होता?
वह लिखते हैं कि बाबा साहब आम्बेडकर की जयंती पहली बार कब मनाई गई उसकी मुझे जानकारी तो नहीं है परन्तु मैं जानता हूं कि पूर्व में इस शहर के बौद्ध अनुयायी पूरे जोश खरोश के साथ एक ही मंच पर एक ही संगठन के बैनर तले बाबा साहब की जयंती मनाया करते थे और सामाजिक आंदोलन के साथ बुद्ध और बाबा साहब के व्यक्तित्व, कृतत्व और उनके आंदोलन को समझने का प्रयास करते थे और उक्त आयोजन में गैर राजकीय व्यक्तित्व चाहे वह नंदूलाल चोटिया हो चाहे डॉ. खरे हो, नागपुर के मजदूर नेता नगरारे हो, भन्ते भदन्त आनन्द कौशल्यायन हो, डॉ. काम्बले हो या फिर शरद कोठारी हो जैसे विद्वान लोग वक्ता होते थे।’
उन्होंने अपने पत्र में आगे लिखते हैं कि हम बौद्धों से ही राजनांदगांव के दूसरे समाज व धर्मों के लोगों ने जुलूस निकालना प्रारंभ किया बौद्ध समाज इनका प्रेरणा स्त्रोत हैं इस समाज के लोगों ने अपना सामाजिक विभाजन खत्म कर अपनी एकता प्रस्थापित की किन्तु हम वर्तमान में विभाजित हो गए हैं मेरे लिए ही नहीं समाज के बहुसंख्यक आवाम के लिए भी दु:ख व चिंता का विषय है।
बाबा साहेब के 125वीं जयंती पर उनकी इच्छा थी कि यह आयोजन राजनांदगांव के लिए ऐतिहासिक हो उन्होंने पत्र में लिखा था कि -‘लोकतंत्र में मतभेद का होना संभव है लेकिन एक समाज, एक विचारधारा, एक महापुरूष और एक संगठन के बैनर पर कार्य करने वालों को आपस में मनभेद, द्वेषभाव नहीं रखना चाहिए और जब पूरी दुनिया बाबा साहब की 125वीं जयंती मनाने जा रही है तब उनके अनुयायी अपने मतभेद भूलाकर जयंती का एक आयोजन क्यों नहीं कर सकते है?’
उनकी इच्छा थी की राजनांदगांव के बौद्ध अनुयायी एकजुट रहे। मालूम नहीं आज हम तीसरी ताकत के रूप में कब एकजुट हो पाएंगे? तमाम मतभेदों व आरोपों के बाद कुछ कार्य जो अधूरे रह गए उसे पूरा करना आज भी बाकी है। कोई काम किसी के कारण रूकता तो नहीं है विचारों को त्यागने के बाद भी काम रूकता नहीं? लेकिन ऐसे व्यक्ति भी समाज में दुबारा नहीं आते, सही जमीनी तथा सक्रिय कार्यकर्ता अब नहीं रहें। आज भी जो लोग उनको जानते हैं उनकी आंखें उन्हें सभाओं, आंदोलनों व मंचों में ढूंढ़ते हैं।
उनका अपने प्रिय नेता से अंतिम समय तक एक बार बात करने की तमन्ना अधूरा ही रहा जो अब आम्बेडकरवाद को त्याग चुके हैं। वंचितों के आंदोलनों को सुपर जनरेटर की तरह ऑपरेट करने वाला कई करोड़ों में से एक सितारा 29 जून 2016 को हमें अलविदा कहते हुए तमिलनाडु के वेल्लोर स्थित सीएमसी अस्पताल में ‘ब्लड कैंसर’ जैसे खतरनाक बीमारी से जूझते हुए अंतिम सांसें ली। लेकिन उनकी समझ और कार्यक्षमता आज भी हमें संबल देता है और ऐसे समय पर जब पूरे देश में फासीवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद नंगा नाच कर रहा है, जिसके वे दुश्मन थे और उनके अपने लोग आम्बेडकरवाद को छोड़ चुके हैं वैसे वक्त में समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व न्याय और मानवतावाद के अमल में वह क्या पहल करते यह देखना हमारे लिये रोचक होता। व्यक्तिगत रूप में वह मेरा प्यारा दोस्त था खून के संबंधों से भी बड़ा!
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