रोंगटे खड़ी कर देनेवाली किताब

मीडिया के छात्रों की आंखें खोल देनेवाली किताब

विनीत कुमार

 

अपनी चड्डी उतारो !
उस हठ्ठी-कठ्ठी कॉन्सटेबल ने रौब में मुझसे कहा.
मैंने उनके आगे हाथ जोड़ दिए- प्लीज, मेरे पीरियड्स चल रहे हैं.
कोई बात नहीं, फटाफट से चड्डी उतारो.
मैंने अपनी चड्डी खींची और टखने से बाहर निकाल दिया.
कॉन्सेटबल ने मेरी चड्डी चेक किया कि कहीं इसमें मैंने कोई निषिद्ध सामग्री तो नहीं छुपायी है, इसी तरह मेरे सैनेटरी पैड के पैकेट भी चेक किए. (Entering Laal Gate, पृ.सं-01).

अब पांच बार उठक-बैठक करो.
मैं लॉ ग्रेजुएट और पत्रकार हूं तो मैं समझ गयी कि ये पुलिस ड्रिल है जिसे मुझसे इसलिए करवाया जा रहा है कि कहीं मैंने प्राइवेट पार्ट में तो कोई निषिद्ध सामग्री तो नहीं छुपा ली है. कॉन्सटेबल के कहने पर मैंने ऐसा ही किया और रक्त का स्राव होने लगा और मेरी जांघों पर फैलता चला गया. मेरा पूरा शरीर बुरी तरह कांपने लगा, मैंने वही किया जो मुझसे कहा गया.

हंसल मेहता द्वारा निर्देशित वेब सीरीज "स्कूप" के ख़त्म होने के साथ ही मैंने पत्रकार जिगना बोरा की लिखी आत्मकथात्मक किताब "Behind Bars in Byculla; My Days in Prison"(2019) ऑर्डर कर दिया. निस्संदेह मेहता ने इस किताब पर आधारित ये बेहतरीन सीरीज बनायी है लेकिन देखते हुए कई ऐसी जगहों पर लगा कि एक बार किताब भी पढ़नी चाहिए. मसलन सीरीज में जब बोरा की चरित्र जाग्रुति पाठक से भायखला जेल,मुंबई में कॉन्सटेबल ऐसा करने कहती है तो साथ में चड्डी को लेकर टिप्पणी करती है-इम्पोर्टेड है.

इस एक टिप्पणी से पत्रकार की क्लास और संभवतः भ्रष्ट होने को लेकर तो टिप्पणी होती है लेकिन इस टिप्पणी के असर से एक महिला और पत्रकार का दर्द थोड़ा पीछे चला जाता है. ऐसे कई प्रसंग हैं जो कि किताब से गुज़रते हुए और बेहतर समझ आते हैं. वेब सीरीज में पत्रकार जिगना बोरा और मीडिया की दुनिया ज़्यादा प्रभावी ढंग से सामने आयी है जबकि किताब पढ़ते हुए हम उनकी आपबीती और निजी ज़िंदगी को ज़्यादा शिद्दत से महसूस कर पाते हैं.

किताब की शुरुआत जिस अंदाज़ में होती है, उनसे गुज़रते हुए बतौर एक मीडिया अध्येता रोंगटे खड़े होने लग जाते हैं. बोरा ने इस फिल्प शैली में लिखा है. एक अध्याय भायखला जेल को लेकर है तो उसके ठीक बाद का अध्याय बतौर क्राइम जर्नलिस्ट की जीवन यात्रा और उसका अंश. एक अध्याय में वो कानून और जेल व्यवस्था के आगे लाचार है तो दूसरे अध्याय में पत्रकार के तौर पर सशक्त, महत्वकांक्षाओं से भरी, मुग़ालते के साथ जीती हुई एक ऐसी दमदार शख़्सियत कि उसकी लिखी रिपोर्ट से सरकार और पुलिस महकमे में हडकंप मच जाय. इस लिहाज से एक किताब के भीतर दो किताब की सामग्री शामिल है.

मर्दवादी दुनिया के बीच एक महिला पत्रकार और वह भी क्राइम बीट कवर करनेवाली पत्रकार के साथ उनकी ही दुनिया के लोग कैसा व्यवहार करते हैं और क्राइम रिपोर्टिंग की दुनिया के मशहूर पत्रकार ज्योतिर्मय डे की हत्या के आरोप और अन्डर्वल्ड से संबंध होने की शक़ पर इस महिला पत्रकार की गिरफ्तारी की पृष्ठभूमि किस तरह तैयार की जाती है और मकोका के तहत गिरफ्तार होने के बाद कारोबारी मीडिया कैसा दमघोंटू माहौल तैयार करता है, यह सब इतना भीतर तक तोड़ देनेवाला प्रसंग है कि मीडिया के प्रत्येक छात्र को इस किताब से हर हाल में गुज़रने की ज़रूरत पैदा करती है.

स्कूप वेब सीरीज में जिगना बोरा की प्रतीकात्मक चरित्र जाग्रुति पाठक एक जगह कहती है कि मैंने किसी पत्रकार की हत्या नहीं कि लेकिन मैंने पत्रकारिता की हत्या ज़रूर की है. यह वो वाक्य है जिस पर रूककर मीडिया के छात्र और इस दुनिया में आए लोग इस सिरे से सोच सकते हैं कि अपनी महत्वकांक्षा के घोड़े पर सवार होकर वो जो कुछ भी पत्रकारिता के नाम पर कर रहे हैं, वो एक दिन उन्हें कहां ले जाएगा ? बोरा ने अपनी पूरी किताब में बहुत ही बारीक़ी से यह बताने की कोशिश की है कि उन्होंने ऐसा कोई अपराध नहीं किया जिसके लिए उन्हें सज़ा दी गयी लेकिन ऐसे कई प्रसंगों को शामिल करती है जो दरअसल उनकी स्वीकृति है कि बतौर पत्रकार उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.

दूसरा कि मीडिया छात्रों को यह किताब हर हाल में इसलिए भी पढ़नी चाहिए कि वो यह बात बेहतर ढंग से समझ सकेंगे कि जिस संस्थान के बूते वो पत्रकारिता की लेबल लगाकार अपनी समझ और प्रावधानों के विरुद्ध जाकर काम करते हैं, मुसीबत पैदा होने पर वो कैसे एकदम नितांत अकेले होते हैं. कारोबारी मीडिया को लेकर ऐसी आए दिन घटनाएं हमारे सामने होती हैं जहां ऐसी स्थिति में पड़ने पर मीडियाकर्मी एकदम से अलग-थलग और अकेला कर दिया जाता है. बोरा के साथ तो फिर भी उनके संपादक ए. हुसैन जैदी ने साथ दिया लेकिन आप एक बार नज़र उठाकर देखिए तो ज़ैदी जैसी रीढ़ कितने संपादकों के भीतर बची है और कितने संपादक अपने पत्रकार-मीडियाकर्मी का साथ देने के लिए अपना करिअर दांव पर लगा सकते हैं ?

हालांकि असल ज़िंदगी में बतौर क्राइम रिपोर्टर जिगना बोरा की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है, अब वो ख़ुद भी अपनी उस पुरानी दुनिया और पेशे से बहुत दूर निकल आयी हैं लेकिन जिस दौर को और जिस पत्रकारिता को उन्होंने अपनी किताब में शामिल किया है, उनमें अभी भी बहुत कुछ बदला नहीं है. किताब पढ़ते हुए जो रोंगटे खड़े होते हैं वो सुबह अख़बार के पन्ने पलटते हुए और रोज़ शाम समाचार चैनलों से गुज़रते हुए होते हैं. थोड़े वक़्त के लिए ऐसा लग सकता है कि इससे दर्शकों-पाठकों की एक नारकीय ज़िंदगी बन रही है लेकिन जैसे ही ध्यान आता है कि इस ज़द में मीडियाकर्मी ख़ुद भी आएगा तो यह किताब एक नसीहत की शक़्ल में उनके सामने होती है और वो ये कि

"लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है" -  राहत इंदौरी.

आप ग़ौर करेंगे तो आपको ऐसे दर्जनों मीडियाकर्मी नज़र आ जाएंगे जिन्हें क़ानून ने तो मुक्त कर दिया और वो वापस मीडिया के पेशे में लौट आए. वो बोरा की तरह इतनी नैतिकता और साहस नहीं रखते कि लिख-बोल सकें कि एक पत्रकार के तौर पर मैंने अपनी सीमा-रेखा लांघने की कोशिश की लेकिन हम यह भी जानते हैं कि उनके मीडिया में लौट आने और बरक़रार रहने से मीडिया के भीतर कितना कुछ मर और ध्वस्त हो गया है. देर-सबेर इन सबका असर तो इस पेशे से जुड़े लोगों पर पड़ेगा ही और संभवतः उन पर ही. इस हिसाब से बोरा की यह किताब उन ज़रूरी किताबों में से है जिसे कि मीडिया अध्येता, छात्र और इस पेशे से जुड़े लोग पहली फुर्सत में पढ़ लें. 

 


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