पहल के भूतपूर्व संपादक गीता प्रेस के प्रशंसा में सामने आए
गीता प्रेस उवाच
सिद्धार्थ रामूपहल के भूतपूर्व संपादक और वामपंथ के पुरोधा ज्ञानरंजन गीता प्रेस के महान प्रशंसक के रूप में सामने आए। कृष्णकल्पित ने इसकी सूचना इस तरह दी।

87की उम्र में भी वही खनकती हुई आवाज़!
आज सुबह जबलपुर से ज्ञानरंजनजी का टेलीफोन आया। दिल में धड़का हुआ कि मुझसे कोई ग़लती हुई है और डांट पड़ने वाली है। लेकिन मेरी आशंका निर्मूल साबित हुई।
ज्ञानजी ने मेरे गीता प्रेस पर लिखे आलेखों की तारीफ़ की और कहा कि गीता प्रेस जैसी दुनिया की अनोखी जनतांत्रिक संस्था की आलोचना दुर्भाग्यपूर्ण है।
कांग्रेस के जयराम रमेश हों या हिंदी के अन्य लेखक बुद्धिजीवी, जो भी गीता प्रेस की आलोचना कर रहे हैं वे इस देश की मिट्टी की तासीर से अनभिज्ञ हैं। गीता प्रेस दुनिया का अनोखा छापाखाना है। इसका विरोध नहीं, अध्ययन और शोध होना चाहिए।
फिर ज्ञानरंजनजी ने अपने पिता रामनाथ सुमन और गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार के रिश्तों के बारे में बताने लगे। उनके संबंध प्रगाढ़ रहे। हनुमान प्रसाद पोद्दार और रामनाथ सुमन के बीच जो पत्राचार हुआ वह उनके पास सुरक्षित है। ऐसे कोई सौ के लगभग पत्र होंगे।
उन्होंने बताया कि रामनाथ सुमन ने आज़ादी से पूर्व कल्याण में गांधी और स्वतंत्रता संग्राम पर कोई चालीस लेख लिखे जिसे भाईजी ने बिना संपादन के प्रकाशित किया। कल्याण लेखकों को पारश्रमिक नहीं देता था लेकिन सुमनजी को उन्होंने इन लेखों का बाकायदा पारश्रमिक दिया।
जब ज्ञानरंजन की माताजी यक्ष्मा से पीड़ित हुई तो हनुमान प्रसाद पोद्दार ने उनकी वित्तीय सहायता भी की । रामनाथ सुमन जी एक तरह से कल्याण के सलाहकार की भूमिका में थे। उनकी बात सुनी जाती थी।
हिंदी के बहुत से प्रमुख साहित्यकार सुमनजी की प्रेरणा से कल्याण से जुड़े और कल्याण के लिए लिखा। सुमनजी ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपनी तमाम किताबें गीता प्रेस को भेंट कर दी थी। ज्ञानरंजन जी ने बताया कि वे सभी किताबें अभी भी गीता प्रेस के कार्यालय में सुरक्षित हैं।
प्रेमचंद ने भी कल्याण के लिए लिखा और कुछ साहित्यकारों और चित्रकारों की नौकरी के लिए भाईजी से सिफ़ारिश भी की। सुमनजी से पोद्दारजी का मृत्युपर्यंत संबंध बना रहा। गीता प्रेस की रविंद्रनाथ टैगोर ने प्रशंसा करते हुए कहा कि बिना सांप्रदायिकता के अपने धर्म का ऐसा प्रचार श्लाघनीय है।
रामनाथ सुमन गांधीवादी थे। युवा ज्ञानरंजन का इस बात पर अपने पिता से मतभेद भी रहा। जैसा ज्ञानजी ने बताया।
मैंने उन्हें बताया कि कुछ समय के लिए मेरे चित्रकार पिता ने भी भाईजी के कहने से गीता प्रेस के लिए काम किया। मेरे पिता और हनुमान प्रसाद पोद्दार राजस्थान के रतनगढ़ कस्बे के रहने वाले थे लेकिन उस समय मेरे पिता कलकत्ता में कॉमर्शियल चित्रकार का काम करते थे और बड़ा बाज़ार की कलाकार स्ट्रीट पर रहते थे। भाईजी ने उन्हें बुलाया था और गीता प्रेस के लिए कुछ काम करने के लिए कहा था ।
ज्ञानजी से बहुत देर तक बातें हुईं। बहुत-सी बातें लिखते हुए भूल रहा हूं। मुझे लगा इन बातों को भी दर्ज़ कर लेना चाहिए।
दिल से बोझ कुछ कम हुआ!
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