गायब होती पुस्तक संस्कृति

आज विश्व पुस्तक दिवस के मौके पर चिन्ता और चिन्तन

स्वराज करुण

 

हालांकि किसी भी पुस्तक को कम्प्यूटर के स्क्रीन पर आंखें गड़ा कर पढ़ने और छपी हुई पुस्तक को सामने रखकर पढ़ने में अनुभवों का बहुत अंतर होता है। कम्प्यूटर या मोबाइल फोन के स्क्रीन पर किताबें पढ़ना, समाचारों और विचारों को पढ़ना आसान जरूर है, लेकिन जो सरस अनुभव प्रकाशित सामग्री को (कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो ) हार्ड कॉपी के रूप में पढ़ने में है, वह चमकीले स्क्रीन पर नहीं। साहित्यिक पुस्तकों की बात करें तो अपनी नज़रों के सामने किसी उपन्यास, किसी कहानी संग्रह, कविता संग्रह, यात्रा वृत्तांत, निबंध संग्रह को देखकर पढ़ने में जो अनुभव होता है, वह कम्प्यूटर के चमकदार पर्दे पर पढ़ने में कहाँ?

फिर भी अधिकांश लोग केवल इंटरनेट पर ऑन लाइन पुस्तकें पढ़ते हैं। विशेष रूप से स्कूल कॉलेजों के विद्यार्थियों में ऑन लाइन पढ़ने की अभिरुचि देखी जाती है।अकादमिक विषयों की कई पुस्तकें महँगी होने और अनुपलब्ध होने की वजह से शायद ऑन लाइन पढ़ना उनके लिए ज्यादा आसान होता है। लेकिन इधर साहित्यिक बिरादरी के लिए यह एक गंभीर चिन्ता, चिन्तन और चुनौती का विषय है कि हमारे समाज में पुस्तक संस्कृति तेजी से गायब हो रही है। मैंने सुना है कि केरल और बंगाल जैसे राज्यों में पुस्तक - संस्कृति आज भी जीवित है। वहाँ के साहित्यिक - सांस्कृतिक अभिरुचि सम्पन्न लोग विवाहोत्सव और जन्मोत्सव जैसे शुभ अवसरों पर उपहार में अच्छी पुस्तकें भेंट करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा विश्व पुस्तक दिवस वर्ष 1995 से मनाया जा रहा है। स्कूल - कॉलेजों की पुस्तकों के अलावा भी अपनी रुचि के अनुसार हर दिन नहीं तो हर सप्ताह, हर सप्ताह नहीं तो हर महीने कला - संस्कृति, ज्ञान - विज्ञान, कविता, कहानी, उपन्यास आदि में से किसी भी विषय और किसी भी विधा की कम से कम एक पुस्तक हमें जरूर पढ़नी चाहिए। दुनिया में लाखों - करोड़ों लेखक हैं और उनकी लिखी लाखों - करोड़ों पुस्तकें। उनमें से पढ़ने लायक पुस्तकों का चयन भी आज एक बड़ी चुनौती है।

कम्प्यूटर तकनीक पर आधारित सोशल मीडिया के इस दौर में आज हर मनुष्य को अभिव्यक्ति का एक सर्वसुलभ मंच मिला है। ऐसे में समाज के सामने अपने विचार रखना बहुत आसान हो गया है। कई मायनों में यह अच्छा भी है और कई मायनों में बुरा भी। बुरा इसलिए कि इसके अपने खतरे भी हैं। यह माध्यम कई बार भ्रामक जानकारी भी फैलाता है। पढ़ने वाले को उस पर आ रहे संदेशों को पढ़ते समय अपने दिमाग का भी इस्तेमाल करना चाहिए। उन संदेशों को आँख मूंदकर सच नहीं मान लेना चाहिए।

सोशल मीडिया में तो जाने - अनजाने आज हर मनुष्य लेखक और पत्रकार की भूमिका में है। लेकिन क्या लिखना है, क्यों लिखना है, किसके लिए लिखना है, इसका ध्यान कम ही लोग रख पाते हैं। कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी के इस दौर में लेखकों की आबादी और उनकी पुस्तकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, वहीं ऐसा लगता है कि पाठकों की जनसंख्या लगातार कम से कम होती जा रही है। दुनिया में आज समाचार पत्र - पत्रिकाओं की संख्या और उनमें लिखने वालों की संख्या भी बढ़ी है, पर उन्हें गंभीरता से और स्वविवेक - बुद्धि से पढ़ने वाले कितने हैं, यह व्यापक सर्वेक्षण और शोध का विषय है। फिर भी सरसरी तौर पर देखें तो निराशा होती है।

पुस्तकालयों और वाचनालयों की हालत भी निराशाजनक है। अब अधिकांश पाठक सिर्फ़ फेसबुक और वाट्सएप यूनिवर्सिटियों के छात्र हो गए हैं। वे अपने अधजल गगरी वाले प्रोफेसरों के अनुयायी बन जाते हैं। उन्हें सोशल मीडिया के इन मंचों के बाहर की दुनिया से कोई मतलब नहीं। वे लिखना ख़ूब चाहते हैं, मोबाइल पर लिखते भी रहते हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश में भाषाओं और तथ्यों के सामान्य ज्ञान की कमी भी दिखाई देती है। उनमें वैचारिक संकट भी दिखाई पड़ता है। सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर भ्रामक सूचनाओं से प्रभावित होकर लोग आनन - फानन में अपनी धारणाएँ बना लेते हैं और तथ्यों की पुष्टि किए बिना कई बार अफवाहें फैलाने का माध्यम बन जाते हैं।

फेसबुक और वाट्सएप विश्वविद्यालयों के ऐसे स्वनामधन्य छात्रों और उनके स्वनामधन्य प्रोफेसरों को सोशल मीडिया के अलावा उसके बाहर के समाज में उपलब्ध पुस्तकों पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। लेकिन पुस्तकों के प्रति उनकी घटती अभिरुचि चिन्ता का विषय है। एक दिक्कत यह भी है कि आज के अधिकांश कवि और लेखक स्वयं के लिखे हुए या छपे हुए के अलावा दूसरों का लिखा /छपा पढ़ते ही नहीं। यहाँ तक कि पत्र - पत्रिकाओं में छपी अपनी छोड़कर दूसरों की रचनाओं को पढ़ना भी वे उचित नहीं समझते। विद्वानों का कहना है कि अगर आप लेखक बनना चाहते हैं या लेखक, कवि हैं तो दूसरों की लिखी पुस्तकों को भी अवश्य पढ़ें, क्योंकि अच्छा पढ़े बिना कुछ भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता ।

हम साहित्यिक पुस्तकें जरूर पढ़ें लेकिन सिर्फ पाठक के रूप में नहीं, बल्कि नीर -  क्षीर विवेक के साथ समीक्षात्मक दृष्टि से भी। हर पाठक को एक समीक्षक भी होना चाहिए। पुस्तकों में उन्हें क्या अच्छा लगा, क्यों अच्छा लगा, क्या ठीक नहीं लगा, क्यों ठीक नहीं लगा, पढ़ने के बाद इस पर भी उन्हें विचार करना चाहिए। जरूरी नहीं कि आप किसी पुस्तक की समीक्षा लिखें, लेकिन एक सजग पाठक के रूप में उनके पन्नों पर आपको समीक्षक जैसी दृष्टि जरूर दौड़ानी चाहिए। बहरहाल, आप सभी को विश्व पुस्तक दिवस की हार्दिक बधाई।


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