घने हो रहे पर्यावरण विनाश के बादल
ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण पृथ्वी के तापमान में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हो जायेगी
सुशान्त कुमारजलवायु में परिवर्तन दरअसल पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति के बाद शुरू हुआ है। पृथ्वी का वातावरण हजारों सालों से संतुलन में था लेकिन पिछले 150 सालों में विशेषकर औद्योगिक क्रांति के बाद वातावरण में छह गैसों की मात्रा में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। कार्बन डाई आक्साइड, नाइट्रस आक्साइड, मिथेन और क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों की मात्रा में बहुत तेजी से बढ़ोतरी से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। पृथ्वी को सूर्य से जो गर्मी मिलती है, पृथ्वी उसका बहुत बड़ा भाग वापस भेज देती है, लेकिन गैसों की मात्रा में वृद्धि होने से सूर्य से प्राप्त होने वाली उष्मा का उत्सर्जन उचित मात्रा में नहीं हो पा रहा है।

अनुमान के अनुसार ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण लगभग 36 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि हो चुकी है। स्थिति यही रही तो साल 2050 तक पृथ्वी के तापमान में लभग 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हो जायेगी।
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का तापमान बढऩे से विश्वभर में जलवायु का मिजाज बदल रहा है। ‘आर्गनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट’ नामक एजेंसी के अनुसार जलवायु की बदलती प्रकृति में विश्वभर में प्रतिवर्ष 970 अरब रुपये की हानि हो रही है। प्राकृतिक वातावरण में लगातार परिवर्तन होने से पशु पक्षियों और पेड़ पौधों की 50 से 80 प्रतिशत प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं। प्रमुख रूप से भारत, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका में इसका दुष्प्रभाव भारी वर्षा या वनों के समाप्त होने के रूप में पड़ता है।
रिपोर्ट के अनुसार समुद्र क्षेत्र में तापमान में वृद्धि होने से हिन्द महासागर में प्रवालभित्ति (मूंगे की चट्टाने) नष्ट हो गई है। विश्व परिदृश्य में बदलाव का असर मौसम पर सर्वाधिक देखा जा सकता है। वर्ष 1980 से अरब तक 22 वर्षों में गर्मी ज्यादा रही और पिछले 20 वर्ष में तूफान, ओलावृष्टि और बाढ़ आने का क्रम तेजी से बढ़ा है, बारिश की आवृत्ति भी ज्यादा रही है।
19 दिसम्बर, 2000 का जारी विश्व मौसम संगठन की विश्व मौसम रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 विगत 140 वर्षो में सर्वाधिक गर्म रहा। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 का तापमान साल 1961 से वर्ष 1990 तक के औसत तापमान की तुलना में 0.32 डिग्री अधिक रहा है। ज्ञातव्य है कि इस संगठन के द्वारा विश्व-मौसम के संबंध में आंकड़ोंं का संग्रहण गत 140 वर्षों से ही किया जा रहा है।
विश्व मौसम संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रायोजित एवं विश्व के सौ राष्ट्रौ के वैज्ञानिकों के इंटर गवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 21वीं शताब्दी के अंत तक विश्व के औसत तापमान में 1.4 डिग्री सेंटीग्रेड से 5.8 डिग्री सेंटीग्रेड तक की वृद्धि के कारण साल 2100 तक इस समुद्र तल में 88.5 सेमी तक की वृद्धि हुई। एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1990 का दशक पिछले एक हजार वर्षों में सबसे गर्म दशक रहा है।
दूसरी ओर साल 2000 में वल्र्ड वाच नामक पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, रॉकीट एंडीज, आल्पस और हिमालय पर्वतों से बर्फ तेजी से पिघल रही है। इसका कारण पृथ्वी पर तापमान का बढऩा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, पिछला डेढ़ दशक पृथ्वी के लिए सर्वाधिक गर्म रहा है और इस दौरान वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। पहाड़ों पर बर्फ के साथ प्रशांत महासागर में आइस कैंप भी संकुचित होते जा रहे हैं। 35 वर्ष में आइस कैंप का 40 प्रतिशत भाग संकुचित होकर पानी बन गया है।
रिपोर्ट में सबसे चौंकाने वाला पहलू है-समुद्र के किनारे बसे हुए शहरों के डूबने का खतरा। बताया गया है कि तापमान बढऩे के कारण आइस कैंप का संकुचित होना यदि इसी तरह जारी रहा तो आने वाले वर्षों में समुद्र के किनारे बसे द्वीप अपना अस्तित्व खो देंगे, क्योंकि समुद्र अपना आकार बढ़ाकर द्वीपों को अपने में समाहित कर लेगा। वर्षों पहले ही कई द्वीप लगभग लुप्त हो चुके हैं। समुद्र का आकार बढऩे का खतरा इसके किनारे बसे शहरों को है। पर्यावरण की एक अन्य पत्रिका इकोलॉजी की एक रिपोर्ट के अनुसर, हर वर्ष अरब सागर में 3,300 क्यूबिक किलोमीटर पानी आता है।
इकालॉजी रिपोर्ट के अनुसार, एशिया पर खतरा पिछले वर्ष में बढ़ा है। भारत में लू से सर्वाधिक मौतें, इंडोनेशिया में जंगलों में आग, चीन मं बाढ़ की व्यापक विभीषिका और मलेशिया में कोको और रबर की फसल की तबाही से इसका संकेत मिलता है।
आस्ट्रेलिया के इंटरनेशनल इन्स्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम एनालाइसिस के डिप्टी डायरेक्टर बो दूस के अनुसार, ग्रीन हाउस प्रभाव नहीं रोकने से साल 1990 से 2020 तक प्रतिदिन के बीच लगभग 50 पादप व जन्तु प्रजातियां विलुप्त होती चले गई।
पृथ्वी के औसत तापमान में बढ़ोतरी होने लगी है जिससे स्वास्थ्य संबंधी बहुत सारी दिक्कतों में विस्तार हो रहा है। मौसम चक्र में बदलाव से जाड़े का मौसम छोटा होता जा रहा है और गर्मी की अवधि में विस्तार होता जा रहा है। यानी पर्यावरण उलट-पुलट हो रहा है।
2007- 08 की संयुक्त राष्ट्र संघ मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के चलते वैश्विक ताप बढ़ रहा है। अब तो उष्ण कटिबंधीय जलवायु के पृथ्वी के दोनों धु्रवों की ओर खिसकने के दावे किए जा रहे हैं। हमारे राज्य में पर्यावरण की स्थिति भयावह है। दल्ली-रावघाट रेलवे लाइन के कारण लाखों पेड़ों को काटा जा रहा है। रोड चौड़ीकरण के नाम पर जगदलपुर के रास्ते शताब्दी पुराने पेड़ों को काट दिया गया।
रायपुर-राजनांदगांव-रायगढ़ में स्पंज आयरन कंपनियों को भारी मात्रा में स्थापित किया जा रहा हैं। मोंगरा बांध के कारण शिवनाथ नदी की दिशा बदल दी गई है, जिससे हजारों गांव डुबान क्षेत्र में आने से लोग विस्थापित हो गए व बैलाडीला के कारण शंखिनी-डंकिनी नदी का पानी मटमैले, लाल रंग में बदल गया है। यह पानी पीने योग्य नहीं है। खदान का अपशिष्ट शंखिनी में प्रवाहित किए जाने से बांध पूरी तरह भर चुका है।
दल्ली राजहरा के पास हितकसा डैम पूरी तरह लाल रंग के कीचड़ में तब्दील हो गया है। पूरा उत्खनन के बाद गढ्डों में तब्दील हो गया है और लोग काम के अभाव में विस्थापित हो गये हैं। अब तो प्रकृति प्रदत्त हवा, पानी, सूर्य, तारे, चन्द्रमा सब जो पर्यावरण के हिस्से हैं। उसका व्यापार किया जाएगा। पानी बेचा जा रहा है। दुर्ग शिवनाथ नदी के एक हिस्से को रेडियस वाटर को बेचने की खबर आपने पढ़ी होगी। पानी के लिए राजस्थान, हरियाणा, आंध्र व रायपुर की कॉलोनियों में खूनी संघर्ष होते हैं।
मनुष्य, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों को नुकसान पहुंचाने वाला तत्व ही प्रदूषण है। फैक्टरियों की चिमनियों ने निकलने वाला धुआ व राखड़ को विकास के नाम पर लोगों के ऊपर नई विकास नीतियों के नाम पर लागू करना खतरनाक है। रायपुर से कुछ ही दूरी पर चौरेंगा के लोग प्रदूषित उद्योगों के खिलाफ हथियार सहित रोड पर विरोध करने उतर पड़े थे। राजधानी रायपुर की गिनती सबसे गंदे और सबसे प्रदूषित शहरों में होती हैं क्योटो, बाली में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंता का दौर चल रहा है। जंगल कट रहे हैं, नदी-नाले प्रदूषित हो रहे हैं, रायपुर में बड़े आकार के मच्छर पाए जा रहे हैं।
तालाबों को खत्म कर सौंदर्य स्थलों में बदला जा रहा है। पानी के दूषित होने से शहर बीमारियों का घर बन गया है ग्लोबल वार्मिंग यानि भूगोल के गर्म होने का मुख्य कारण है-कोयला, गैस, तेल आदि पदार्थों को जलाना। इन्हें जलाने से हवा में कार्बन डाइआक्साइड जैसी गैसें मिल जाती हैं। मनुष्य भी हर दिन इन्हीं गैसों को उत्सर्जित करता हैं। इन गैसों को ग्रीन हाउस जैसे जीएचजी कहा जाता है। ये गैस ज्यादा बढ़ जाती हैं तो सूरज से आने वाली गर्मी का भूगोल पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। आमतौर पर भूगोल का तापमान 15 डिग्री सेल्सियस रहता है। पिछली एक सदी के दौरान यह 4 डिग्री बढ़ा है।
साल 2100 तक 5-8 डिग्री तक धरती के तापमान में वृद्धि होने की संभावना है। ऐसा वैज्ञानिकों का मानना है। इस तरह तापमान बढ़ जाने से धु्रवीय इलाकों में बर्फ पिघल जाती है। समुद्रों के तापमान में वृद्धि होती है, समुद्र में जल स्तर बढ़ेगा। इससे तटीय इलाके और द्वीप जलमग्न हो जाएंगे। कुछ उष्णमंडलीय इलाकों में बारिश बढ़ सकती है। अनाज की फसलें नष्ट हो जाएंगी।
खाद्य की अधिकता से अनाज पैदा नहीं हो सकेंगे। पेड़-पौधे लुप्त हो जाएंगे। धु्रवीय प्राणी बर्फीले इलाकों की खोज में और ऊंचे स्थानों की ओर चले जाएंगे। जो नहीं जा सकेंगे लुप्त हो जाएंगे। ग्रीन हाऊस गैसें कई प्रकार की हैं। कुछ प्राकृतिक हैं, कुछ कृत्रिम है। पानी का भाप बनना सहज है जबकि कार्बन डाइआक्साइड कृत्रिम है। लकड़ी के जलने पर निकलने वाली कार्बन डाइआक्साइड गैसे को पेड़ सोख लेते हैं, लेकिन वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है।
18 वीं सदी में ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रांति जल्द ही यूरोप के अन्य देशों और अमेरिका में फैल गई। उद्योगों के अस्तित्व में आने से धीरे-धीरे कई किस्म की ग्रीन हाऊस गैसें बनने लगी हैं इस सदी के मध्य में मिथेन नामक एक कार्बन मिश्रित पदार्थ बनने लगा। यह कार्बन डाईआक्साइड की तुलना में 20 गुना ज्यादा गर्मी उत्सर्जित करता हैं। कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि का उत्पादन करते समय और उनका परिवर्तन करते समय मिथेन पैदा होती है।
धरती में मौजूद कुछ व्यर्थ पदार्थों और कुछ एक प्रकार के पशुओं से भी मिथेन पैदा होती है। अल्यूमिनियम के पिघलते समय भी मिथेन उत्पन्न होता है। ग्रीन हाउस गैसों से होने वाला नुकसान ओजोन परत के नष्ट हो जाने के रूप में होगा। धरती के ऊपर 19 से 48 किलोमीटर दूर पर यह परत होती है। दरअसल यह परत भी एक गैस ही है। वातावरण में मौजूद आक्सीजन पर सूर्य की किरणों से यह परत बन जाती है।
सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणों और इन्फ्रारेड किरणों को यह परत रोकती है। जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचता है। पर्यावरण में ओजोन परत के क्षय होने से हमारे लिए बेहद नुकसान होगा। जिसकी भरपाई करना मुश्किल होगा। औद्योगिक क्रांति के इन वर्षों में पर्यावरण में छोड़ी गई क्लोरीन गैस आने वाले कई दशकों तक ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती रहेगी। इसके भरने के लिए कम से कम 50 साल लग सकते हैं। देश के विभिन्न इलाकों में इसके प्रभाव से भूजल प्रदूषित हो रहा है। कुछ इलाकों में दो तीन चौथाई हिस्से में पानी प्रदूषित हो चुका है।
ग्लोबल वार्मिंग के चलते 2005 में कई दुष्प्रभाव देखने में आए हैं। देशभर में गर्मियों से सैकड़ों लोग मारे गए। गर्मी के शुरूआत के साथ तापमान 40 को पार कर दिया है। जाहिर है गरीब और बेघर लोग इसकी चपेट में ज्यादा आते हैं। शहरों और मैदानों के अलावा जंगलों में भी इस गर्मी का प्रकोप रहा। नदी-नाले सूख गए। पशु-पक्षियों को पानी के लिए तरसना पड़ रहा है। दुनिया के कई देशों में उस वर्ष कई प्राकृतिक आपदाएं आईं। अमेरिका के कैलिफोर्निया में एक विनाशकारी सैलाब कैटरिना आया था।
भारत में भी मुंबई, बैंगलोर जैसे महानगर मूसलाधार बारिश से लगभग डूब गए थे। साल 1992 में ब्राजील के रियो-डी-जेनेरो में 150 देशों ने बैठक करके ग्रीन हाऊस गैसों को कम करने का फैसला किया। 1957 में जापान के क्योटो प्रोटोकाल के नाम से जाना जाता है। इसे 160 देशों ने मिलकर बनाया। इन गैसों को उत्पन्न करने में पहला स्थान अमेरिका का है। इस देश में कुल 6046 मिलियन टन हिस्सा उत्पन्न होता है यानी 1/5 से 1/4 की हिस्सेदारी है।
दूसरा स्थान चीन व तीसरे स्थान पर रूस आता है। परंतु अमेरिका शुरू से ही इस समझौते पर दस्तखत करने तैयार नहीं है। क्योटो में आयोजित बैठक में बाकी देशों से दबाव के चलते अमेरिका ने दस्तखत तो किए परंतु वर्ष 2000 में वह इससे पीछे हट गया। रूस ने भी इस पर दस्तखत करने से मना कर दिया। 2004 में सितंबर-अक्टूबर महीनों में इस पर दुनिया भर में फिर से चर्चाएं हुई।
कई देशों ने कहा कि क्योटो प्रोटोकाल पर दृढ़ता से अमल किया जाए। तब जाकर रूस व आस्ट्रेलिया ने इस पर दस्तखत किए। अमेरिका सहित विकसित देशों को कहा गया है कि वे जहरीली गैसों के उत्सर्जन में 25 से 40 प्रतिशत तक कमी लाएं लेकिन अमेरीका का कहना है कि इतनी भारी मात्रा में ग्रीन हाऊस गैसों की कटौती से अमरीकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो सकती है।
उनका यह भी कहना है कि वह ऐसी आधुनिक तकनीक का उपयोग करने जा रहा है, ताकि पर्यावरण को नुकसान न हो सके। कुल मिलाकर समझौते का दौर आगे बढ़ रहा है। बहरहाल समाधान नहीं निकल सका है।सरकार ने पर्यावरण के संरक्षण के लिए कई कानून बनाए, लेकिन उन पर अमल के बारे में सोचना भी बेकार है, कारखानों में इलेक्ट्रो स्टैटिक प्रिंसिपिटेटर की स्थापना करने से यह प्रदूषित गैस और पानी को साफ करके बाहर भेज सकता है। लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं है। सभी पर्यावरणीय दायित्वों से बचने की कोशिश कर रहे हैं।
यदि मानव समाज कार्बन उत्सर्जन की इस दर को 2050 तक घटाकर आधा करने में सफल नहीं होता है, तो भयावह प्राकृतिक आपदाओं मसलन भूकंप, बाढ़, तूफान, सुनामी, महामारी, सूखा आदि से बच पाना बेहद मुश्किल होगा। इतनी भारी मात्रा में ग्रीन हाऊस गैसों की कटौती से अमरीकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो सकती है।
उनका यह भी कहना है कि वह ऐसी आधुनिक तकनीक का उपयोग करने जा रहा है, ताकि पर्यावरण को नुकसान न हो सके। कुल मिलाकर समझौते का दौर आगे बढ़ रहा है। बहरहाल समाधान नहीं निकल सका है।सरकार ने पर्यावरण के संरक्षण के लिए कई कानून बनाए, लेकिन उन पर अमल के बारे में सोचना भी बेकार है, कारखानों में इलेक्ट्रो स्टैटिक प्रिंसिपिटेटर की स्थापना करने से यह प्रदूषित गैस और पानी को साफ करके बाहर भेज सकता है।
लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं है। सभी पर्यावरणीय दायित्वों से बचने की कोशिश कर रहे हैं। यदि मानव समाज कार्बन उत्सर्जन की इस दर को 2050 तक घटाकर आधा करने में सफल नहीं होता है, तो भयावह प्राकृतिक आपदाओं मसलन भूकंप, बाढ़, तूफान, सुनामी, महामारी, सूखा आदि से बच पाना बेहद मुश्किल होगा।
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