भूख का दर्द
डॉ.दादूलाल जोशीहल्का सा अपराध बोध मेरे अन्दर पसरने लगा था। आखिरकार रमेश और दिनेश के एक-एक हाथ को अपने हाथों में लेकर मैंने कहा - '' मित्रों ! तुम दोनों एक कुन्ती के लिए इतने जिज्ञासु क्यों हो? तुम अगर ढूँढना चाहो तो तुम्हें इस देश के प्रत्येक गाँव में...प्रत्येक शहर में अनेक कुन्ती भूख के दर्द से छटपटाती हुई मिलेंगी। बस, उन्हें देख सकने की क्षमता वाली आँखें चाहिए।''

कहानी
''मैं अठारह दिसम्बर से चौबीस दिसम्बर तक गुरू घासीदास जयंती के उपलक्ष्य में उपवास कर रहा हूँ...।'' मेरा इतना ही कहना था कि दोनों मित्र ठहाका मार कर हँस पड़े। उनकी हँसी में खिल्ली उड़ाने का भाव था। एक क्षण के लिए मैं हक्का-बक्का रह गया। सोचा था...जिस संजीदगी के साथ मैं अपनी बातें रख रहा हूँ, उसे सुनकर मित्र लोग मुझे शाबासी देंगे। मेरा समर्थन करेंगे...किन्तु उनका व्यवहार ही निराला था। इससे मैं स्तब्ध तो था ही...कुछ शर्म भी महसूस कर रहा था।
यह काफी हाऊस का एक कमरा था, जहाँ मेरे साथ रमेश बन्धे और दिनेश देशलहरा बैठे हुए थे। हम तीनों नौकरी और घर-गृहस्थी के काम से निवृत्त होकर शाम छ: बजे एकत्रित होते और कभी पार्क में, कभी सड़कों पर पैदल चलते हुए या कभी काफी हाऊस में बैठ कर सुख-दुख बाँट लिया करते थे। उस दिन भी हम तीनों बैठे हुए थे। रमेश बन्धे ने काफी का ऑर्डर दिया और...मेरे मुँह से उपवास वाली बात निकल गयी।
'' - अरे यार! कुर्रे जी, तुम्हारा भी जवाब नहीं, इस वैज्ञानिक युग में भी तुम अंधविश्वास पर भरोसा करते हो।'' रमेश बन्धे ने कहा।
''- मैं अंधविश्वासी नही हूँ, लेकिन मेरी पूरी बात तो सुनो!'' मैंने सफाई देने वाले अन्दाज में कहा।
'' - हाँ...हाँ बोलो...'' उन दोनों ने अपनी हँसी रोकते हुए कहा।
बात उन दिनों की है, जब मैंने एम.ए. के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। मेरे माता-पिता जीवित थे। हमारी चालीस एकड़ जमीन गाँव में थी। जिनमें भरपूर फसल होती थी। चार भाईयों में मैं तीसरा हूँ। कॉलेज से निकलने के बाद मेरे मन में कुछ महान कार्य करने का सनक सवार हो गया था। मैं सोचता था कि कृ कुछ ऐसा महान कार्य करूँ, जिसके फलस्वरूप लोग मुझे जाने-पहचाने और हजारों वर्षों तक याद रखें। इसी धुन में दोस्तों के साथ यहाँ-वहाँ घूमता रहता था। मैंने अपने मन में तय किया कि क्यों न समाज के मजबूर और दुखी लोगों की सहायता करके अपना काम प्रारम्भ करूँ। अत: जहाँ से भी इस तरह के पीडि़त लोगों की खबर आतीकृ मैं अपने एक-दो मित्रों के साथ वहाँ पहुँच जाता और पीडि़तों की भरसक मदद करता। पैसे की मेरे पास कमी नहीं थी। दो साल ऐसे ही गुजर गये। मैं समाज में काफी लोकप्रिय हो गया था।
एक दिन अखबार में पढ़ा कि बरखापुर के आसपास के गाँवों में पेचीस से सैकड़ों लोग कालकवलित हो रहे हैं। मैं स्वयं को रोक नहीं सका। एक मित्र को साथ लेकर दोपहर में ही बरखापुर के लिए रवाना हो गया। मेरे गाँव से बरखापुर की दूरी लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर है। बस से हम दोनों चले थे। रात दस बजे हम वहाँ पहुँच गये। वहाँ मालूम हुआ कि जिन गाँवों में पेचीस फैली है, वह तो बरखापुर से बीस कि.मी. आगे है। वहाँ बैलगाड़ी या सायकल से ही पहुँचा जा सकता था।
जंगली और पहाड़ी इलाका था। किसी तरह हमने सायकल की व्यवस्था की और चल पड़े। पहाडी इलाका होने के कारण बार-बार सायकल से उतरना पड़ता था। गर्मी का मौसम था। दो घंटे में हम एक गाँव में पहुँचे। गाँव के बाहर डॉक्टरों का टेन्ट लगा हुआ था। रात हमने एक टेन्ट में ही गुजारी। सुबह गाँव वालों से मिले। वहाँ की स्थिति दर्दनाक थी। लगभग पचास लोगों की मृत्यु हो चुकी थी। हमने देखा... गाँव वाले गड्ढों और नाले का पानी पी रहे हैं। पीने के पानी की व्यवस्था थी नहीं। मेरे पास एक हजार रूपये थे। सरपंच की सहायता से हमने रूपये पीडि़त परिवारों में बाँट दिये। उन्हें पानी उबाल कर पीने की सलाह दी। वैसे डॉक्टरों एवं नर्सों की टीम ने स्थिति पर काबू पा ली थी। मैंने तय किया कि इस गाँव में नलकूप लगवा दिये जायें। इस कार्य हेतु जिलाधीश महोदय से चर्चा करने की जरूरत थी। दिन भर हम पीडि़त लोगों से मिलते रहे। शाम को हम दोनों लौट पड़े।
बरखापुर कस्बे में हम पहुँचे तो रात के नौ बज चुके थे। वहाँ से अपने गाँव लौटने का कोई साधन रात में था नहीं । अत: रात वहीं गुजारना जरूरी हो गया। हम कहाँ ठहरें? यही चिन्ता सता रही थी। तभी मेरे साथी ने कहा -'' कुर्रे भैया! मेरे दूर के एक रिश्तेदार यहाँ रहते हैं। कुछ इंतजाम हो जायेगा।''
''- और कभी रिश्तेदार के घर आये हो कि नहींकृ?'' मैंने पूछा।
''- आया तो कभी नहीं। माँ ने बताया था कि यहाँ मेरे मामा के साले साहब रहते हैं।'' मेरे साथी ने कहा।
''- ठीक है, चलो!'' मैंने आखिरकार जाना स्वीकार कर लिया। मेरे मित्र के रिश्तेदार का नाम जगतू बंजारे था। लोगों से पूछते-पूछते हम उसके घर पर पहुँचे। जगतू बंजारे का मकान कस्बे के एक मुहल्ले में था। उस मुहल्ले में सभी मकान मिट्टी के थे। जिनमें खपरैलों की छतें थी। सचमुच यह मेहनतकश लोगों का मुहल्ला था। नगरपालिका के द्वारा लगाये गये स्ट्रीट लाइट के पीले प्रकाश में हम गंदे पानी की पक्की नाली के ऊपर चलते हुए एक संकरी गली में घुसे। नाली से बदबू आ रही थी। गली में रोशनी कम थी। मुझे लगा कि मैं किसी अंधेरी सुरंग में जैसे घुस गया हूँ। हम कुछ ही कदम चले थे कि गली की चौड़ाई बढ़ गई और बांई ओर एक छोटा सा आँगन वाला मकान दिखाई दिया। यही जगतू बंजारे का घर था। मेरे मित्र ने लोगों से पूछते-पूछते मुझे मंजिल पर पहुँचा दिया था। वस्तुत: जिसे मैं आँगन समझ रहा था, वह मकान की छपरी (बरामदा) थी। नाली के किनारे पर बिजली का पोल था। जिसमें लगे बल्ब से पीली रोशनी निकल रही थी।
छपरी में एक खाट पर एक अधेड़ आदमी लेटा हुआ था। मेरे साथी ने आगे बढ़कर उसका चरण छुआ और अपना तथा मेरा परिचय दिया। जगतू बंजारे ने उठने का प्रयास किया किन्तु इतने में ही वह हाँफने लगा। साथ ही खाँसने भी लगा। वह काफी बीमार लगता था। मैंने उसकी हालत देखकर उससे लेटे रहने को कहा। आश्चर्य, दुख और खुशी के मिले - जुले भावों को प्रकट करता हुआ उसने हमें पास की खाट पर बैठने को कहा। हम दोनों खाट पर बैठ गये। मेरी खोजी नजरें घर का जायजा लेने लगी। पूरा घर गरीबी का दास्तान कह रहा था। बाँई ओर रसोई का कमरा था। जहाँ एक खूबसूरत अठारह - उन्नीस साल की गोरी चिट्टी लड़की पीढ़ा पर बैठी हुई थी और तवा पर रोटी सेंक रही थी। शायद अंगाकर रोटी थी वह। मैंने अंदाज लगाया कि हो न हो यह जगतू बंजारे की लड़की है। उससे छोटे-छोटे चार बच्चे उसे घेरे हुए बैठे थे। जिनमें से दो बालक और दो बालिकाएँ थी।
मुझे भूख लग रही थी। सुबह से हमने कुछ भी नहीं खाया था। मैं मन ही मन सोच रहा था कि जगतू बंजारे हमें खाने के लिए जरूर कहेगा। लेकिन वह तो दूसरी ही बात कर रहा था। वह बता रहा था कि वह पिछले तीन महीने से बीमार है। उसकी पत्नी को गुजरे तीन बरस बीत गये हैं। बड़ी लड़की घर को सम्हाल रही है। एक लाँघन-एक फरहार करके दिन बीत रहे हैं आदिकृआदि। मेरे मित्र उसकी बातें सुन रहा था लेकिन मेरा ध्यान नहीं था उधर। मुझे बार-बार भोजन की याद आ रही थी।
रसोई घर से बच्चों की आवाजें आने लगी थी। -''दीदी... पहले मुझे दो!'' सबसे छोटी लड़की ने कहा। वह पाँच बरस की लगती थी।
''- नहीं दीदी ! मुझे पहले दो...'' यह लड़का थाकृ सात बरस का। बाकी एक लड़का और एक लड़की चुपचाप कभी अपनी दीदी के चेहरे को देखते थे तो कभी तवा के अंगाकर रोटी को। सबसे छोटे दोनों बच्चों में अब 'तू...तू ,मैं...मैं ' होने लगी थी।
''- चुप रहो...'' एक बार बड़ी लड़की ने उन्हें डाँटा भी। परन्तु उनकी आवाजें बन्द नहीं हुई। शायद रोटी सिंक चुकी थी। कपड़े के सहारे लड़की ने रोटी उठाई और बच्चों से कहा -'' चलो, आँगन में...।''
चारों बच्चे आँगन में आ गये। आँगन से लगी हुई नगर पालिका द्वारा बनाई गई गंदे पानी की पक्की नाली थी। आँगन बहुत छोटा था। बड़ी लड़की ने अँगाकर रोटी के पाँच टुकड़े किये और सभी को एक-एक टुकड़ा बाँट दिया। सभी बच्चे खाने लगे। रोटी काफी गरम थी, इसलिए चौथे नम्बर का लड़का हाथों में रोटी के टुकड़े को गेंद की तरह उछाल-उछाल कर खा रहा था। अभी वह छोटा सा हिस्सा ही खाया था कि पूरा टुकड़ा हाथ से उछलकर नाली में जा गिरा। लड़के के चेहरे में हवाईयाँ उडऩे लगी। उसने आव देखा न ताव सबसे छोटी लड़की के हाथों से रोटी का टुकड़ा छीन लिया और पूरा का पूरा अपने मुँह में ठूँसने लगा। छोटी लड़की जोर से चीख उठी। यह देखकर बड़ी लड़की अपना गुस्सा नहीं रोक पाई, उसने खींच कर एक तमाचा लड़के के गाल पर मारा। तमाचा पड़ते ही लड़के के मुँह से रोटी का टुकड़ा बाहर आ गया।
यह सब देखकर मैं स्वयं को रोक नहीं सका। मैंने बड़ी लड़की को डाँटा -'' यह क्या कर रही हो बेबी? छोटे बच्चे को क्यों मारती हो। अगर रोटी छीन ही लिया तो क्या हुआ?''
लड़की की आँखों से अँगारे बरस रहे थे। उसने भी क्रोध भरी ऊँची आवाज में जवाब दिया-'' आप क्या जानोगे भूख के दर्द को? दो दिन से घर में चूल्हा नहीं जला था। आज एक किलो आटा लाई थी। किसी का भी हिस्सा छिनने से उसकी मौत हो सकती है।''
ऐसी हष्दय विदारक घटना मेरे समक्ष कभी घटी नहीं थी। मेरे अन्दर दुख, लज्जा एवं अफसोस की त्रिवेणी फूट पड़ी थी। मुझसे उत्तर देते नहीं बन रहा था।
'' चलो, उठो!'' अचानक मैंने निर्णय लिया और साथी से बोला।
'' कहाँ?'' वह इतना ही बोला। मेरा साथी भी हक्का-बक्का रह गया।
'' किसी किराने की दुकान पर! चाँवल और दाल लायेंगे।'' मैंने दृढ़ शब्दों में बोला।
'' लेकिन भाई, रात के दस बज चुके हैं, सभी दुकानें बंद हो चुकी है।'' उसने थोड़ी घबराई हुई आवाज में कहा।
'' दुकानें बंद हो गई है तो खुलवाई भी जा सकती है। तुम पास के किसी दुकान पर मुझे ले चलो!''
इतना कह कर मैं उठ कर खड़ा हो गया।
मेरा साथी जानता था कि जब मैं किसी बात का निश्चय कर लेता हूँ तो उसे पूरा किये बगैर मानता नहीं हूँ। उसने बहस करने के बजाय साथ चलना ही उचित समझा।
थोड़ी ही दूर पर एक दुकान थी। दुकान तो बंद हो चुकी थी किन्तु दुकानदार दरवाजे के पास खाट डाल कर लेटा हुआ बीड़ी पी रहा था। मेरे साथी ने ही उसे समझाया। वह सामान देने के लिए तैयार हो गया। हमने पाँच किलो चाँवल एक किलो दाल और अन्य जरूरी वस्तुएँ लेकर जगतू बंजारे के घर में पहुँचे। यह सब देखकर जगतू बंजारे की आँखों से आँसू बहने लगे। पता नहीं यह आँसू शर्म के कारण था या अपनी असहाय होने के कारण था, वही जाने।
'' ये क्या कर रहे हैं आप लोग? क्यों लाये हैं ये सब?'' बड़ी लड़की ने आवेश में कहा।
'' देखो बहन! हम दोनों भूखें हैं। हमारे लिये भोजन बना दो और साथ ही बच्चों को भी खिला दो।'' मैंने नम्रता पूर्वक उससे बोला।
'' हम किसी की दान में दी गई चीजें नहीं खाते। समझे आप लोग!ÓÓ लड़की लगभग चीखती हुई सी बोली।
'' मैंने तुम्हें बहन कहा है। अपने बड़े भाई की बात नहीं रखोगी?'' मैंने स्नेह प्रकट करते हुए उसे समझाया। अब तक लड़की की आँखों से आँसू छलक पड़े थे। उसने चूल्हा जलाई और डेढ़ दो घंटे में भोजन तैयार कर दिया। मैंने पहले चारों बच्चों को भोजन देने के लिए कहा और साथ ही उसे भी खाने को कहा। वह बच्चों को खाना खिलाई किन्तु स्वयं नहीं खाई। जब मैं, मेरे साथी और जगतू बंजारे खा चुके तब वह खाना खाई। रात के दो बज चुके थे। अत: हम सब सो गये।
सुबह वही लड़की पानी लेकर आई तो मेरी नींद खुली। आठ बज चुके थे। सब जाग गये थे ।मैं ही सोया हुआ था। हाथ मुँह धोकर मैं जगतू बंजारे के पास ही बैठ गया। तब तक लड़की ने बगैर दूध की चाय ले आई। वह मुझे चाय थमा कर जाने लगी।
'' बेबी! जरा सुनना।'' मैंने लड़की से कहा। वह ठिठक कर रूक गयी।
'' सबसे पहले अपना नाम बता?'' मैंने पूछा।
''कुन्ती बंजारे...'' उसने अपना नाम बताया।
'' किस कक्षा में पढ़ती हो?''
'' मेट्रिक के बाद पढ़ाई छोड़ दी है। सिलाई-बुनाई करके भाई-बहनों को पाल रही हूँ।'' वह सिर झुका कर बोली।
'' सुनो कुन्ती! आज से तुम मेरी बहन हो। मैं तेरा भाई हूँ। तुम जुलाई माह से आगे की पढ़ाई शुरू करोगी। पूरा खर्च मैं दूँगा।'' मैंने प्रतिज्ञापूर्ण भाव से कहा। मेरी बातों को सुनकर कुन्ती की आँखों से आँसू छलक पड़े। कृतज्ञता के आँसू।
'' हाँ! एक बात और...।'' कुन्ती ने मेरी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।
'' आप क्या जानोगे भूख के दर्द को...? यही कहा था न रात में तुमने मुझसे?'' मैंने मुस्काते हुए बोला। यह सुनकर कुन्ती ने लज्जा से नजरें नीचें झुका ली।
'' नहीं...नहीं...! शरमाओं नहीं! मैं जरूर जानना चाहूँगा कि भूख का दर्द कैसा होता है।?'' मैंने विश्वास दिलाने के भाव से कहा। कुन्ती के मुँह से आवाज ही न निकली। हम दोनों मित्र उसी दिन बरखापुर से वापस आ गये। एक सप्ताह के बाद मैं फिर बरखापुर गया और सबसे पहले एक सिलाई मशीन खरीदकर कुन्ती को दिया। कुछ पैसे भी दिये। ठीक एक महीने बाद कुन्ती की चिट्ठी आई। उसने लिखा था कि सिलाई मशीन से वह (रेडीमेड) कपड़े सी-कर बेचने लगी है। आमदनी ठीक है। अब पिताजी भी स्वस्थ हो गये हैं और काम पर जाने लगे हैं।
अब मुझे 'भूख का दर्द' क्या होता है, यही जानना बाकी था। काफी सोच - विचार कर मैंने 18 दिसम्बर से 24 दिसम्बर की अवधि को चुना। पूरे एक सप्ताह का मैंने उपवास करना शुरू किया। तब जाना मैंने भूख के दर्द को। आज दस वर्ष गुजर गये हैं लेकिन मैं प्रत्येक वर्ष एक सप्ताह का उपवास करके भूख के दर्द को अनुभव करता हूँ।
'' तो मित्रों! यही मेरे उपवास का कारण है।'' दोनों मित्र मेरी बातों में खो गये थे। जब मेरी बातें खत्म हुई तो वे दोनों चौंक पड़े।
'' फिर कुन्ती का क्या हुआ? क्या वह आगे पढ़ पाई? अब वह कहाँ है और क्या करती है?'' रमेश बन्धे ने एक सांस में अनेक प्रश्न पूछ डाले।
'' चलो यहाँ से! काफी वक्त हो चुका है।'' मैंने उठते हुए कहा। हम तीनों काफी हाऊस से निकलकर पैदल चलने लगे।
'' तुमने जवाब नहीं दिया कुर्रे जी! कुन्ती अब कहाँ है और क्या करती है?'' रमेश बन्धे ने फिर पूछा। उसके प्रश्न को सुनकर भी मैं खामोश रहा।
'' हाँ यार! बताओ न फिर कुन्ती का क्या हुआ?'' इस बार दिनेश देशलहरा ने पूछा। फिर भी मैं चुप रहा। मेरी चुप्पी से उन दोनों की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
'' बोलो न यार! कुछ तो बोलो!'' दोनों ने अधीर होते हुए कहा।
'' पता नहीं!'' मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।
'' क्या...? तुम्हें कुछ पता नहीं? तुम उस घटना के बाद बरखापुर गये ही नहीं?'' रमेश बन्धे ने विश्मय से पूछा।
'' नहीं !'' मैंने फिर छोटा सा उत्तर दिया। मैंने महसूस किया कि मेरे इस व्यवहार से दोनों काफी परेशान हो रहे हैं।
'' आखिर क्यों यार ! किसलिए तुमने कुन्ती का हालचाल मालूम नहीं किया?'' दिनेश ने फिर प्रश्न उछाला।
'' मैंने जरूरी नहीं समझा...और सुनो...! तुम दोनों के प्रत्येक प्रश्न का जवाब देना भी मैं जरूरी नहीं समझता।'' मेरा इतना कहते ही दोनों कुछ उदास सा नजर आये। हम तीनों के बीच का माहौल गमगीन जैसा हो गया था। उन दोनों ने भी अब खामोशी की चादर ओढ़ ली थी।
चलते - चलते हम तीनों उस चौक तक पहुँच गये थे, जहाँ से हम लोग अपने - अपने मकान का रास्ता पकड़ते थे। चौक पर मैं रूक गया। वे दोनों भी ठहर गये। मैंने उन दोनों से हाथ मिलाते हुए कहा -''अच्छा दोस्तों! हम चलते हैं, कल फिर मुलाकात होगी।'' मैंने कहा। हाथ मिलाते वक्त मैंने उन दोनों की आँखों में देखा। उनमें उदासी और नाराजगी के मिले - जुले भाव दिखाई दे रहे थे। अब मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था। मेरी बुद्धि तर्क दे रही थी कि किसी की भावनाओं से खिलवाड़ करना भी अपराध ही है। मुझे भरतमुनि का नाट्यशास्त्र याद आने लगा था। धीरोदात्त नायक के साथ दर्शक या श्रोता तादात्म्य स्थापित कर लेता है। उस अवस्था में यदि किसी प्रकार का झटका दिया जाता है तो दर्शक या श्रोता घायल जरूर होता है।
मैंने अपने प्रिय मित्रों को ही किसी न किसी रूप में घायल कर दिया था। हल्का सा अपराध बोध मेरे अन्दर पसरने लगा था। आखिरकार रमेश और दिनेश के एक-एक हाथ को अपने हाथों में लेकर मैंने कहा - '' मित्रों ! तुम दोनों एक कुन्ती के लिए इतने जिज्ञासु क्यों हो? तुम अगर ढूँढना चाहो तो तुम्हें इस देश के प्रत्येक गाँव में...प्रत्येक शहर में अनेक कुन्ती भूख के दर्द से छटपटाती हुई मिलेंगी। बस, उन्हें देख सकने की क्षमता वाली आँखें चाहिए।'' इतना कह कर मैं एक क्षण के लिए रूका और धीरे से बोला - '' अच्छा दोस्तों नमस्कार!'' इतना कह कर... मैं बिना पीछे मुड़कर देखे, सपाटे से अपने रास्ते पर आगे बढ़ चला।
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