‘बस्तर का बहिष्कृत भारत’ 

अल्पसंख्यक इसाई आदिवासियों पर जारी हिंसा और अत्याचार पर पीयूसीएल का रिपोर्ट

दक्षिण कोसल टीम

 

इस रिपोर्ट के प्रस्तावना में डिग्री प्रसाद चौहान, प्रदेश अध्यक्ष, पीयूसीएल, छत्तीसगढ़ ने लिखा है कि छत्तीसगढ़ में इसाई आदिवासी अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा और आदिवासियों के मध्य आपसी वैमनस्यता का मूल वज़ह आदिवासियों का हिन्दूकरण है। राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार द्वारा आदिवासी क्षेत्रों को विशेष लक्ष्य करते हुये राम वन गमन पथ परियोजना का क्रियान्वयन सरकार प्रायोजित मतान्तरण अर्थात आदिवासियों के हिंदूकरण का संविधानेत्तर भारत में सबसे बड़ा परिघटना है।

आदिवासी पेनगुडिय़ां, जहां मान्यता के अनुसार आदिवासियों के आराध्य प्रकृति-चिन्हों के रूप में परंपरागत रूप से निवास करते हैं, को सरकार द्वारा जीर्णोद्धार के नाम पर भारी तादाद में देवगुड़ी में बदला जाना इस अभियान में शामिल है। जहां संघ दशकों से यह काम वनवासी कल्याण आश्रम के जरिए आदिवासियों को दीक्षित करने के नाम पर कर रहा है, वहीं कांग्रेस यह काम सत्ता में वर्चस्व स्थापित करने के मकसद से उदार हिंदुत्व की एजेंडा के तहत कर रहा है।

डिग्री चौहान कहते हैं कि पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान राम चौदह वर्षों के वनवास के दौरान जिन रास्तों से गुजरे थे, उसमें दंडकारण्य एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ में गंगा नदी के कछार से गोदावरी नदी के कछार के मध्य स्थित भू - भाग को दण्डकारण्य कहा जाता है। प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार का दावा है कि इस भू-भाग के उत्तर में सीतामढ़ी से लेकर दक्षिण में रामाराम तक ऐसी कोई जगह नहीं है, जो कि हिन्दू भगवान राम के चरण-रज से पवित्र ना हुई हो। हिन्दुओं के मूल ग्रन्थ ऋग्वेद में जनजातीय लोगों का उल्लेख दास अथवा आदिम जातियों के रूप में किया गया है।

हिन्दू पौराणिक पात्र निषाद राज गंगा के किनारे रहने वाले जनजातीय लोगों के मुखिया थे। उन्होंने राम, लक्ष्मण और सीता को गंगा नदी पार करने के लिये नावों और मल्लाहों की व्यवस्था की थी। वे राम के आगे दंडवत लेट जाते हैं और राम उन्हें उठाकर गले लगा लेते हैं। महाभारत का जनजातीय पात्र एकलव्य कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा से प्रेरणा लेकर अभ्यास करता है। द्रोणाचार्य उससे गुरु दक्षिणा के रूप में उसका दाहिने हाथ का अंगूठा माग लेता है, इसके बाद भी वह उन्हें पूरा सम्मान देता है।

शबरी रामायण की एक पात्र है, जिसने राम के वनवास के दौरान उन्हें बेर खिलाये थे। वाल्मीकि के महाकाव्य अरण्य काण्ड के मुताबिक मतंग मुनि की देखभाल करने वाली शबरी रामायण की लोकप्रिय पात्र है। गुजरात के डांग में साल 2005 में संपन्न हुये शबरी कुंभ मेला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कथा फैलाया था कि रामायण में उल्लेखित डांग ही दण्डकारण्य का इलाका है। छत्तीसगढ़ के जांजगीर चांपा जिले में स्थित जोक, महानदी और शिवनाथ नदी के संगम स्थल शिवरीनारायण में नर-नारायण और शबरी का मंदिर है। यहां पर ऐसा कहानी गढ़ा गया है कि इस स्थान पर रुककर भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे। पहले माना जाता था कि शबरी का प्रसंग उड़ीसा में हुआ था।

आज जब पूरा सरकारी अमला राम वन गमन पथ के शिलान्यास कार्यक्रमों तथा यात्राओं में मशगूल है, इस समय छत्तीसगढ़ का आदिवासी और दलित इलाका सांप्रदायिकता और जातीय हिंसा के लपटों में जल रहा है। सांप्रदायिक ताकतें महासमुंद में दलितों को सार्वजनिक तालाबों में निस्तार होने की मनाही और औकात में रहने के फरमान दीवारों पर लिख रहे थे, धरमपुरा में दलितों के श्रद्धा व आस्था स्थल जैतखाम को चुन-चुन कर आग के हवाले किया जा रहा है। कबीरधाम में ध्वज फहराने का विवाद तथा लुन्द्रा, सरगुजा में धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष लक्ष्य करते हुये उनके सामाजिक आर्थिक बहिष्कार के सामूहिक शपथ की घटनाओं के जरिये धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ दहशतगर्दी का मकसद साफ़ दिखाई देता है।

पूरे प्रदेश में पौनी पसारी, चर्मशिल्प और नाई पेटी योजना के आड़ में वर्णाश्रम आधारित परंपरागत व जातिगत व्यवसाय के अनुरूप सरकारी योजनायें गढ़े जा रहे हैं। राज्य की कांग्रेस सरकार गोधन न्याय योजना का क्रियान्वयन कर रही है। इस योजना के क्रियान्वयन की आड़ में हाशिये पर जीने को मजबूर भूमिहीन श्रमिकों को भूमि की मालिकाना से वंचित किया जा रहा है। जबकि सदियों से भूमिहीन इन समुदायों को गांव में गोबर इकट्ठा करने के लिए प्रोत्साहित करने के बनिस्बत भूमिसुधार योजनाओं के तहत जमीन आबंटित किया जाना ज्यादा सार्थक हो सकता है। आदिवासी भूमियों को गैर आदिवासियों द्वारा धोखे और छल-कपट से हड़प लिए जाने से संरक्षण करने वाली भू - राजस्व कानून के क्रियान्वयन में भेदभाव साफ़ दिखाई देता है।

रायगढ़ में जहां खनन कम्पनियों और ताप बिजली घरों के द्वारा हड़प लिए गए आदिवासी जमीनों को संरक्षण व वापस करने की प्रशासनिक जबाबदेही नाकारा साबित हो रही है, वहीं जशपुर में इसी कानून का हवाला देकर इसाई मिशनरियों के गिरिजाघरों के विरुद्ध प्रशासनिक कार्यवाहियों की लम्बी फेहरिस्त है। राज्य का प्रशासनिक तंत्र और उसका रवैया धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ घटित होने वाले हिंसा के घटनाओं में उग्र प्रतिक्रिया करने कट्टरपंथियों के पक्ष में खड़ा दिखता है।

वे लिखते हैं कि हिंदुत्व के सांस्कृतिक आक्रमण ने पेसा कानून के जरिए आदिवासी इलाकों में ग्राम सभा को मिली सर्वोच्चता के मुद्दे को सामने लाकर रख दिया है। पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में पेसा कानून की आड़ लेकर ये ताकतें आदिवासियों में पवित्रता अपवित्रता बोध तथा उनके रूढ़ी-परंपरागत व्यवस्था के जातीय पुनर्संरचना तथा कथित रूप से उन्हें दूषित होने से बचाने आदिवासी इसाई धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ गैर इसाई आदिवासियों को गोलबंद करने के अभियान में अतिसक्रिय हैं।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक रणनीति के तहत आदिवासी ईसाई अल्पसंख्यक समुदाय को बाहरी और में दुश्मन के रूप प्रस्तुत करने में सफल रहा है। आदिवासी स्वशासन की आड़ लेकर पुरातन परंपरागत व्यवस्था के पुनर्स्थापना के लिये पेसा कानून- पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम का इस्तेमाल एक औजार के रूप में करते हुये गांव के समाजिक आर्थिक व्यवस्था में गैर हिन्दू अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों को विशेष लक्ष्य करते हुये गांव की सीमा से बहिष्कृत करते हुये जीवनयापन के प्राकृतिक स्त्रोतों पर हक़ अधिकार से उन्हें बेदखल कर देता है।

डिग्री चौहान कहते हैं कि आदिवासी इसाई अल्पसंख्यकों को उनके गांव बसाहटों से बेदखली, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार तथा मृत शवों को दफऩाने पर पाबन्दी और अंतहीन प्रताडऩा के मूल में हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा कार्य कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि गांव - स्वराज्य और जल, जंगल, जमीन तथा पारिस्थितिकी तंत्र बचाने के लिए कथित जन आंदोलनों के मध्य हिन्दू फासिस्ट ताकतों ने पैठ जमा लिया आदिवासी इलाकों में पेसा कानून की आड़ लेकर ये ताकतें आदिवासियों में पवित्रता- अपवित्रता बोध तथा उनके रूढ़ी-परंपरागत व्यवस्था के जातीय पुनर्संरचना तथा कथित रूप से उन्हें दूषित होने से बचाने आदिवासी इसाई धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ गैर इसाई आदिवासियों को गोलबंद करने के अभियान में अतिसक्रिय हैं।

जहां ये ताकतें आदिवासी इलाकों में गैर हिन्दू मतावलंबियों के उपासना पद्धति और धार्मिक स्थलों के निर्माण के खिलाफ मुखर हैं वहीं हिन्दू धर्म ग्रंथों का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद व वितरण, राम वन गमन पथ, पेनगुडिय़ों को हिन्दू देवगुडिय़ों में बदले जाने के मामलों पर अविश्वसनीय स्तर तक चुप्पी साधे हुये हैं। बस्तर के सिरिसगुड़ा में पैंतीस से अधिक ग्रामसभाओं के सामूहिक जन सभाओं के मध्य गैर हिदू धर्मों के प्रार्थना सभाओं तथा प्रचार एवं उपदेश पर पाबंदी का फरमान इसका एक उदहारण है।

हिंदुत्व के इस बर्चस्ववादी सांस्कृतिक आक्रमण के प्रतिरोध में ब्राह्मण संस्कृति और परंपराओं को खारिज करने तथा मूलवासी परंपराओं व संस्कृति को पुनर्स्थापित करने के लिए आंदोलन भी तेज हो चुका है। छत्तीसगढ़ में दशहरा के मौके पर जब रावण वध का आयोजन होता है या फिर दुर्गा के हाथों महिषासुर का वध दिखाया जाता है तो मूलवासी इसका विरोध करते हैं। मानपुर में भगवा ध्वज दहन की घटना, जंगो - लिंगो संगठन द्वारा दुर्ग अनुभाग कार्यालय में राम वन गमन पथ के निर्माण के खिलाफ हस्तक्षेप ज्ञापन, कलगांव में राम वन गमन पथ प्रचार रथ यात्रा का विरोध, धमतरी के तुमाखुर्द में राम मंदिर के बोर्ड को हटाकर बुढ़ादेव आर्युर्वेद चिकित्सा अनुसंधान केन्द्र का शिलान्यास आदि घटनाओं का प्रमुख रूप से उल्लेख करना जरुरी है।

राज्य सत्ता में व्याप्त वर्चस्वशाली सांस्कृतिक सांप्रदायिक ताकतें, जो आदिवासी बाहुल्य प्रांत की प्रशासनिक तंत्र पर कब्जा कर छत्तीसगढ़ में एक धर्म विशेष को जबरन थोपना चाहते हैं, उन ताकतों के द्वारा, ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ स्थानीय दलित-आदिवासियों के प्रतिवाद को दमन करने राजकीय दमन व पुलिसिया कार्यवाहियां बदस्तूर जारी है।

डिग्री चौहान का मामना है कि यह समझ में आता है कि हिन्दू कट्टरपंथी ताकतों के चिंता का मूल वज़ह मूलवासियों का हिन्दू धर्म से मोहभंग होना है। घरवापसी और शुद्धिकरण के नारों के सहारे हिन्दू आदिवासियों और गैर हिन्दू आदिवासियों के मध्य वैमनस्यता का वातावरण निर्मित किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में धर्म स्वातंत्र्य कानून व्यक्ति को एक धर्म से दूसरे धर्म में दीक्षित करने पर रोक लगाने के लिये प्रभावी है, लेकिन यह कानून घरवापसी के मामलों में अविश्वसनीय स्तर तक शिथिल हो जाता है।

इस कानून की आड़ में धर्मान्तरित आदिवासी ईसाईयों को प्रताडि़त व अपमानित करने की घटनाएं लगातार जारी हैं। असल में घरवापसी दलित-आदिवासियों के बलपूर्वक धर्मान्तरण का धूर्ततापूर्ण नाम है। एक ओर यह कहना कि कोई किसी का धर्मान्तरण करा रहा है, एक तरह से लोगों की चेतना को कमतर आंकना है वहीं दूसरा पहलू यह कि इस बारे में प्रशासन को पूर्व सूचना की अनिवार्यता भी कट्टरपंथी ताकतों को उग्र प्रतिक्रिया करने को उकसाने के लिए पर्याप्त भी है।

डिग्री चौहान का कहना है कि हाल के वर्षों में ग्रामीण समुदायों के मध्य परंपरागत व प्राचीन मान्यताओं को देश के संविधान से ऊपर मानने के अभियानों और कार्यक्रमों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। आदिवासी स्वशासन और पेसा कानून के नाम पर रूढ़ी तथा परम्परा को देश के संविधान से ऊपर परिभाषित व प्रचारित किया जा रहा है, जिसकी परिणति है- धर्म, संस्कृति, अंधश्रद्धा व आस्था, देवी-देवता, इत्यादि। अनुसूचित क्षेत्रों के परंपरागत ग्राम सभाओं में घर वापसी और शुद्धिकरण के ज़रिये वैमनष्यता बढ़ाने का काम जोरों पर है।

यह कहने की जरुरत नहीं है कि यह हिन्दू राष्ट्र अभियान का अभिन्न हिस्सा है। और इस अभियान के तहत धर्मान्तरित दलित-आदिवासियों को डी - लिस्टिंग अथवा गैर - अधिसूचित करने का जोर अपने चरम पर है। मंशा स्पष्ट है कि जिन लोगों को कमतर इंसान का दर्जा देकर उनके साथ अमानवीय सलूक किया जाता है, वे इस सांस्कृतिक गुलामी से बचने के लिये धर्म परिवर्तन का साहस ना कर सकें। अफ़सोस कि राज्य इस मामले में सांप्रदायिक राजनीति के नियंत्रणाधीन है।


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