नई दुनिया समाचार पत्र के संपादक की कलम निष्पक्ष नहीं
तेजराम विद्रोहीनई दुनिया समाचार पत्र के 7 मार्च 2021 की अंक विचार वाले कॉलम पृष्ठ 08 में संपादक ने 'जिद भरा आंदोलन' नाम से एक आलेख प्रस्तुत करते हुए 100 से अधिक दिनों से जारी शांतिपूर्ण किसान आंदोलन और आंदोलनकारी किसानों के विरूद्ध वही नजरिया प्रस्तुत किया है जो नजरिया कॉरपोरेट परस्त आरएसएस-भाजपा का है। इसमें सम्पादक की कलम कहीं भी निष्पक्ष नजर नहीं आ रही है। जब सम्पादक की कलम निष्पक्ष न रहे तब पत्रकारिता जो हमेशा शोषित पीड़ित वर्ग की आवाज बनने का अधिकार ही खो देती है।

वैसे भी वर्तमान दौर में ज्यादातर मुख्य धारा की मीडिया जो कॉरपोरेट के हाथों में है ने, लोकतंत्र में चौथे स्तंभ होने का अधिकार खो दिया है। इस तरह के आलेख ने उसे पुष्ट किया है क्योंकि यदि उन्हें किसान आंदोलन को आंदोलनकारी किसान नेताओं की हठधर्मिता ही कहना था तो किसान इस स्तर पर आने के लिए मजबूर क्यों हुए हैं इसका भी कारण लिखना चाहिए था।
कोई स्वतंत्र लेखक किसी संदर्भ में लिखता है तो वह उसका निजी विचार कहलाता है लेकिन कोई सम्पादक किसी एक ही पक्ष को लक्ष्य रखकर लिखे तो उसे निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता है।
सम्पादक ने किसान आंदोलन के स्वरूपों की आलोचना करते हुए कहा है कि किसान नेताओं की ओर से अपने आंदोलन की ओर आकर्षित करने के लिए चक्काजाम जैसे आयोजन किये जा रहे हैं, उनसे इसलिए कुछ हासिल नहीं होने वाला, क्योंकि उनका मकसद आम जनता को तंग करना और सरकार पर बेजा दबाव बनाना है। उनसे मैं पूछना चाहता हूँ कि भारतीय जनता पार्टी जब केंद्र में विपक्ष की भूमिका में थी तो क्या उन्होंने ऐसा आंदोलन नहीं किया था भले ही वो केवल राजनीतिक विरोध दिखाने के लिए क्यों न हो।
जबकि किसानों ने जब भी कोई प्रदर्शन का निर्णय लिया है उससे शासन प्रशासन को अवगत कराया है। सरकार समय रहते ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं करती कि जनता को कोई परेशानी न हो, जनता तो सरकार की गैरजिम्मेदाराना पूर्ण कार्यवाहियों व नीतियों, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, जमाखोरी, लूट आदि से परेशान है। किसान तो रामलीला मैदान या जंतर मंतर जाना चाहते थे जो धरना प्रदर्शन करने का स्थान है वहाँ पर जाने से किसानों को सरकार ने रोके रखा है। सड़क सरकार ने खुदवाई है, छड़ के कीलें सरकार ने गड़ाई है, बैरिकेट्स लगाकर रास्ते सरकार ने रोक रखे हैं। किसानों ने तो किसी को परेशान नहीं किया।
संपादक ने लिखा है कि किसान नेताओं के रवैये से यह भी साफ है कि उनकी दिलचस्पी समस्या का समाधान खोजने में नही, बल्कि सरकार को नीचा दिखाने में है। संपादक को मेरा जवाब है कि 270 से अधिक किसान, आंदोलन के दौरान अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं, किसान नेताओं ने हमेशा चर्चा में भाग लिया है वे समाधान चाहते हैं इसमें सरकार को नीचा दिखाने की बात ही नहीं है। हाँ संपादक के बातों से जाहिर हो रहा है कि कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग से सरकार के अहम को चोट पहुँच रही है इसलिए सरकार समाधान नहीं चाहती है।
सवाल सरकार से करना चाहिए कि जब अध्यादेश लाया गया और किसान संगठनों ने इसे किसान ,कृषि और आम उपभोक्ता विरोधी कहते हुए जब अध्यादेश वापस लेने की मांग कर रहे थे तभी सरकार ने क्यों इसे वापस लेने के बजाय विपक्षी पार्टियों द्वारा किसानों को भ्रमित बताकर व संसद के दोनों सदनों में बिना सवाल जवाब तथा बिना मतविभाजन के जल्दबाजी में कानून क्यों बनाया।
सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्यों राष्ट्रपति के द्वारा झूठा भाषण दिलाया जाता है कि किसानों को स्वामीनाथन आयोग के सिफारिशों के अनुरुप उनके फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जा रहा है। जबकि फरवरी 2015 में नरेन्द्र मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र के माध्यम से यह कहती है कि हम स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप किसानों को उनके उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दे सकते।
सरकार कह रही है कि कानूनों में खामियां बताए उन्हें दूर किया जाएगा जबकि किसान नेताओ ने 19 दिसंबर 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को लिखे पत्र में कॉलम वार खामियां बता चुके हैं जिसे संशोधित किया जाता है तो तीनों कानून का प्राण ही खत्म हो जाएगा इसलिए माँग कर रहे हैं कि तीनों कानूनों को ही रद्द किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि एमएसपी था, है और रहेगा तो उसे लिखित रूप में कानून का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा है यह सवाल भी सम्पादक को पूछना चाहिए।
सम्पादक जी लिखते हैं कि आखिर तीनों कानूनों की जगह कोई तो कानून बनेंगे ही। इस पर मेरा कहना है कि कृषि उपज मंडी अधिनियम 1972 के प्रावधानों का पालन कराया जाए। जो अब तक किसी भी पार्टी की सरकारों ने नही किया है। सभी राज्यों में इस अधिनियम के तहत सरकारी कृषि उपज मंडियों की व्यवस्था को मजबूत किया जाए, सरकारी एजेंसी की नियुक्ति की जाये जिससे किसी कृषि उपजों की नीलामी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न हो। जब स्पेन जैसा एक देश न्यूनतम समर्थन मूल्य में खरीदी की गारंटी कानून बना सकता है तो विश्व गुरु बनने वाला भारत क्यों नहीं बना सकता है। इन तीनों कानून की आवश्यकता ही नहीं है।
सम्पादक ने तो किसान आंदोलनकारी नेताओं को हठधर्मिता की संज्ञा दे दिया है। उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार किसानों का विश्वास खो चुकी है। राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना (ई -नाम) की 14 अप्रैल 2016 में जब शुरुआत की गई तब यही कहा गया था कि किसान अपने उपज को स्थानीय मंडी क्षेत्र में ही राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी व्यापारी को ऑनलाइन ज्यादा से ज्यादा दामों में बेच सकते हैं। लेकिन ऑनलाइन खरीदी करने के लिए कृषि उपज का न कोई आधार मूल्य तय हो पाया और न ही सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार मूल्य मानकर निलाम हो पाया।
सम्पादक ने किसान नेताओं को विपक्षी दलों के हाथों में खेलने भी बात भी कही है लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि आज तक किसानों के मंच पर किसी राजनीतिक दल के नेता को चढ़ने नहीं दिया है यही किसान आंदोलन की ताकत है। बहुत बड़ी बात उन्होंने कहा कि ट्रैक्टर रैली के नाम पर देश को शर्मसार किया उनकी इस बातों से उनका सम्पादक होने पर ही संदेह पैदा होता है क्योंकि उन्हें मालूम होना चाहिए कि किसानों के ट्रैक्टर रैली का दिल्ली की जनता ने कहीं फूल बरसाकर, पानी पिलाकर, नास्ता खिलाकर तो कहीं हाथ हिलाकर अभिवादन करते हुए स्वागत किया है।
किसने लाल किले में तिरंगा के अपमान के नाम पर हाय तौबा मचाया उसकी भी सच्चाई सामने आ चुकी है जिसे आप जैसे लोगों ने दिखाना पसंद नहीं किया। तिरंगा अपने जगह शान से लहराती रही रही बात हमले की वह भी आरएसएस भाजपा की मिलीभगत थी जाहिर हो चुकी है। किसानों के द्वारा दिल्ली के भीतर एक भी ऐसा वाक्या नहीं हुआ जहाँ पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान हुआ हो, लूट या आगजनी हुआ हो आंदोलन शांतिपूर्ण था और आज भी है।अंत मे उन्होंने आश्चर्य जताया है कि आखिर हमारे देश का किसान इतना फुरसत वाले कैसे हो गया। उनका यही जवाब है कि किसान आज मोदी सरकार की कॉरपोरेट परस्त नीतियों को समझ चुके हैं मोदी ने रेल, भेल, बैंक, बीमा, एयरपोर्ट जैसे सभी सार्वजनिक संस्थानों को अडानी अम्बानी जैसे कॉरपोरेट के हवाले कर दिया है।
युवा बेरोजगार हो चुके हैं यदि हम अपनी खेत और खेती को बचाने आज आंदोलन पर नहीं बैठेंगे तो आने वाले समय में हमेशा के लिए खाली कटोरा लिए बैठना होगा इसलिए आंदोलन की जीत के लिए सालों तक बैठना पड़े तो मंजूर है। नई दुनिया के सम्पादक से मेरा अनुरोध है कि अपने आलेख के जरिये किसान आंदोलन और किसान नेताओं के ऊपर किये गए अपनी टिप्पणियों पर खेद व्यक्त करते हुए संदेश जारी करे और किसान आंदोलन की वास्तविकता को सामने रखे।
लेखक अखिल भारतीय क्रांतिकारी किसान सभा के सचिव हैं।
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