आरोप यह कि जातीय उत्पीडऩ में फंसी पी-एच.डी. थीसिस

थीसिस जमा लेने के बाद बदल दिये गये गाइड

सुशान्त कुमार

 

रजनीश का कहना है कि उन्होंने कुशलतापूर्वक अपना फाइनल पी-एच.डी. थीसिस मूल्यांकन करवाने के लिए 26 मई 2022 को स्त्री अध्ययन विभाग में जमा कर रिसीविंग प्राप्त कर ली थी। उसके बाद उनके ऊपर जातीय मानसिकता से ग्रसित, दुर्व्यवहार का कुचक्र शुरू हो जाता है। 

उनका आरोप है कि पी-एच.डी. थीसिस जमा करने के उपरांत विभागाध्यक्ष, स्त्री अध्ययन विभाग डॉ. सुप्रिया पाठक द्वारा 01 अगस्त 2022 को एक पत्र ‘पी-एच.डी. शोध-प्रबंध जमा करने के संदर्भ में’ जमा करने जारी किया गया। जिसमें शोध-प्रबंध में त्रुटियों एवं शोध संबंधी तकनीकी पक्षों में सुधार के उपरांत मूल्यांकन के लिए परीक्षा विभाग को प्रेषित किया जाएगा ऐसा कहा गया। जबकि थीसिस को मूल्यांकन हेतु भेजा ही नहीं गया तो त्रुटियों और तकनीकी पक्षों का सवाल ही नहीं उठता। बल्कि यहां गाइड बदलने की जानकारी को छुपाया गया। 

रजनीश कहते हैं कि 06 सितम्बर 2022 को दूसरे पत्र के रूप में संस्कृति विद्यापीठ के अधिष्ठाता द्वारा ‘शोध निर्देशक का निर्धारण’ के संबंध में पत्र प्राप्त हुआ। इसके लिये 02 सितम्बर 2022  को अधिसूचना जारी की गई थी।

24 अगस्त 2022 को स्त्री अध्ययन विभाग के अध्ययन मंडल (Board of Studies) की बैठक आयोजित कर सत्र 2015 - 16 एवं 2016 - 17 के पी-एच.डी. शोधार्थियों का ‘शोध-निर्देशक का निर्धारण’ नियमनुसार किया जाता है। ऐसा आदेश जारी किया जाता है।

रजनीश कहते हैं कि हमारे शोध-निर्देशक का निर्धारण स्त्री अध्ययन विभाग के अध्ययन मंडल की बैठक  27 जनवरी 2016 में संपन्न हुई । जिसमें प्रो. शंभु गुप्त को नामित (एलॉट) किया गया था । अत: मैंने अपना शोध-प्रबंध प्रो. गुप्त के ही मार्गदर्शन में कार्य संपूर्ण कर विभाग में जमा कर दिया। 

पी-एच.डी जमा के बाद कहानी यूं शुरू होती है

रजनीश का कहना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन शोध-प्रबंध जमा करने के 3 माह 11 दिन के बाद इनके शोध-निर्देशक का नाम बदलकर अन्य व्यक्ति को शोध-निर्देशक घोषित कर  देती है। जो असंवैधानिक व अन्यायपूर्ण है। रजनीश का तर्क है कि विश्वविद्यालय पी-एच.डी. अध्यादेश (रेग्युलेशन) - 2009 के बिंदु क्रमांक- 5.6 (ii) में उल्लेख है कि शोध-निर्देशक नामित होने एवं नामांकन के दो वर्ष पूर्ण होने के बाद परिवर्तन की अनुमति नहीं दी जाएगी।

जिसमें यह कहीं उल्लेख नहीं है कि नियमित ही रहेंगे और पहले से चले आ रहे शोध-निर्देशक सेवानिवृत्त होने के बाद नहीं रहेंगे। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो शोधार्थी पर लागू किया जा सके। विश्वविद्यालय पी-एच.डी. अध्यादेश - 2009 के अनुसार बिंदु  14.1 में उल्लेख है कि पी-एच.डी. शोध-प्रबंध जमा होने के बाद कुलपति महोदय द्वारा तीन पर्वेक्षकों की नियुक्ति करने के बाद परीक्षा विभाग 15 दिनों के अंदर पी-एच.डी. शोध-प्रबंध का मूल्यांकन करवाने के लिए भेजेगा।ऐसा रजनीश के साथ नहीं हुआ है।

रजनीश का दावा है कि यदि हुआ तो 3 माह 11 दिन बाद शोध-निर्देशक बदलने की नियम विरुद्ध प्रक्रिया क्यों की गई? ऐसे तमाम सारे सवाल रजनीश एक के बाद एक खड़े करते हैं । जिनके जवाब भी विश्वविद्यालय प्रशासन से मांगा है।

उन्होंने कहा कि शोध-निर्देशक प्रो. गुप्त के 31 अगस्त 2018 को सेवानिवृत्त होने के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा ही शोध संबंधी समस्त कार्यों जैसे सेमिनार में पेपर प्रस्तुति, विश्व पुस्तक मेला, साक्षात्कार आदि के आवेदन-पत्रों पर शोध-निर्देशक की संस्तुति करवाई जाती रही है।

विश्वविद्यालय प्रशासन के निमंत्रण पर शोध-निर्देशक प्रो. शंभु गुप्त को 09 फरवरी 2022 के पी-एच.डी. पूर्व प्रस्तुति सेमिनार में ऑनलाइन के माध्यम से कार्य करवाया गया और आवश्यक प्रमाण-पत्रों, घोषणाओं पर शोध-निर्देशक के हस्ताक्षर होने के बाद जमा किया गया।

उपरोक्त विवरण का हवाला देते हुवे रजनीश कहते हैं कि विभाग एवं विश्वविद्यालय प्रशासन के सक्षम अधिकारियों द्वारा शोध-प्रबंध जमा होने तक लिखित रूप से हमारे शोध-निर्देशक प्रो. गुप्त को ही शोध-निर्देशक स्वीकार किया है। रजनीश कहते हैं कि यह कोई विश्वविद्यालय में प्रथम प्रसंग नहीं है बल्कि इससे पूर्व भी अनेक शोध-प्रबंध सेवानिवृत्त हो रहे शोध-निर्देशकों के मार्गदर्शन में पी-एच.डी. उपाधि प्रदान की गई है।   

उनका कहना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन को पी-एच.डी. शोध-प्रबंध को मूल्यांकन हेतु भेजने के लिए तथ्यात्मक बातों से अवगत करा कर विश्वविद्यालय की तरफ से कोई न्यायपूर्ण सकारात्मक उत्तर न मिलने के कारण आगे यूजीसी, पीएमओ, एनसीएससी और राष्ट्रपति को पत्राचार के माध्यम से न्याय की मांग की है।

 

विश्वविद्यालय की कार्रवाई पर सवाल 

रजनीश का आरोप है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने पीएमओ कार्यालय को जो पत्र लिखा उसमें इनके मूल विषय को भटकाते हुए तकनीकी भाषा में उलझाने व आरोपित करने का काम किया है।

इन आरोपों में तीसरे बिंदु अर्थात मूल विषय पर जोर देते हुए रजनीश कहते हैं कि शोधार्थी के शोध-निर्देशक सेवानिवृत्त का सवाल उठाया गया है जिसमें विवि द्वारा शोध-निर्देशक बदलने का सवाल को उचित मानती है।

रजनीश संवैधानिक नियमों का हवाल देते हुवे कहते हैं कि पी-एच.डी. अध्यादेश - 2009 के बिंदु क्रमांक- 5.6  (ii)  However change of Superviosr shall not be permitted after the completion of 2 (Two) years from the date of registration of Research Topic. अर्थात शोध शीर्षक के नामांकन के 2 वर्ष पूर्ण होने के बाद शोध-निर्देशक नहीं बदला जा सकता है।  

उपरोक्त अध्यादेश में यह कहीं उल्लेख नहीं है कि नियमित ही रहेंगे और पहले से चले आ रहे शोध-निर्देशक सेवानिवृत्त होने के बाद नहीं रहेंगे। ऐसा कोई प्रावधान नहीं जो शोधार्थी पर लागू किया जा सके। रजनीश का आरोप है कि विश्वविद्यालय प्रशासन की असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण नीति का यह जीता जागता परिचय है। जिसके अंतर्गत मुझे बेवजह जातीय भेदभाव से ग्रसित व मानसिक और आर्थिक रूप से प्रताडि़त करने का काम किया जा रहा है। इसका प्रभाव हमारे पारिवारिक सदस्यों पर भी गहरा पड़ रहा है। जिसके कारण हमारी पढ़ाई-लिखाई भी पूरी तरह से बाधित हुई है ।  

इसके बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने यूजीसी, पीएमओ, एनसीएससी को मूल मुद्दे से भटकाते हुए तीन अतिरिक्त बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित किया है । जिनकी जानकारी तथ्यात्मक रूप से छुपाते हुए दी गई है- जिसमें पहला मुद्दा पी-एच.डी. की अवधि को सिर्फ 4 साल बताया है जबकि संवैधानिक अध्यादेश के बिंदु 7.3 के अनुसार 5 वर्ष है एवं कोरोनाकाल की विषम परिस्थितियों में बढ़ाया गया अवधिकाल सभी शोधार्थियों के लिए अतिरिक्त रूप से जुड़ा हुआ है।

जबकि उपरोक्त तथ्यों को यहां लाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी जो पूर्णतया इस विषय से विसंगत है। सिर्फ यह मुद्दे जानबूझकर भ्रमित करने के लिए उल्लेखित किए गए हैं। जिससे लोगों का ध्यान मूल विषय से भटकाकर विषय विसंगत मुद्दों की तरफ जाए जो कि बेबुनियाद है।

रजनीश का कहना है कि मूल बिंदु शोध-प्रबंध जमा करने के पश्चात शोध-निर्देशक बदलने का कोई संवैधानिक अध्यादेश नहीं है। बल्कि संवैधानिक अध्यादेश कहता है कि नामांकन व टॉपिक के 2 वर्ष पश्चात शोध-निर्देशक किसी भी स्थिति में नहीं बदला जा सकता है। अंतिमत: शोध पूर्ण होने की अंतिम समय सीमा में शोध-निर्देशक सेवानिवृत्त हो रहा है तो वह शोधार्थी का शोध-निर्देशक नहीं होगा। ऐसा कोई संवैधानिक अध्यादेश नहीं है। रजनीश का दावा है कि इसके चलते इस परिस्थिति में कई शोध-प्रबंध महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में जमाकर उनको पी-एच.डी. की उपाधि प्रदान की गई है।    

रजनीश मुखरता के साथ कहते हैं कि इस प्रकरण में मैं भारत देश का पहला शोधार्थी हूं। जिसके शोध-प्रबंध जमा करने के 3 माह 11 दिन बाद शोध-निर्देशक बदलने की असंवैधानिक व अन्यायपूर्ण तरीके से प्रक्रिया की गई है। जो शोधार्थी के साथ जातिगत भेदभाव, दुर्व्यवहार को दर्शाती है और विश्वविद्यालय प्रशासन हमारे कैरियर को बर्बाद करने पर तुला हुआ है। ताकि इस भय से अन्य शोधार्थी व प्रोफेसर विश्वविद्यालय प्रशासन की अन्यायपूर्ण नीति पर आवाज न उठा सके। 

क्या है सच?  

उन्होंने अपने इस मामले की सच को बताते हुवे कहते हैं कि मैं हमेशा से ही विद्यार्थियों व समाज के साथ हो रहे अन्यायपूर्ण कृत्यों के विरुद्ध व न्यायिक प्रक्रिया के लिए लोगों को जागरूक करते हुए आवाज उठाने का कार्य करता रहा हूं। इस वजह से मुझे वर्धा के स्थानीय लोगों और देश के विविध विश्वविद्यालयों में एक सामाजिक और जागरूक शोधार्थी की पहचान मिली हुई है।  

विश्वविद्यालय का पक्ष

कुलसिचव ने उप सचिव भारत सरकार को 05 जनवरी 2023 को एक पत्र भेजा है जिसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय प्रशासन पर वंचित समुदाय के विद्यार्थियों के साथ जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता के तहत प्रताडि़त करने का लगाया गया आरोप निराधार और असत्य है। विवि का कहना है कि रजनीश कुमार अंबेडकर का पीएच.डी. में प्रवेश 07 जुलाई 2015 (पंजीयन क्रमांक 2015/03/309/001) को स्त्री अध्ययन विभाग में हुआ था। पीएच.डी. अध्यादेश के बिंदु क्रमांक 7.1 के अनुसार पीएच.डी. पाठ्यक्रम की अवधि चार वर्ष होती है, जो 06 जुलाई 2019 को पूर्ण हो चुकी है।

विश्वविद्यालय पीएच.डी. अध्यादेश 2009 के बिंदु क्रमांक 73 के अनुसार विभागीय अध्ययन मंडल द्वारा शोधार्थी की शोध अवधि को अधिकतम एक वर्ष ( 6 माह + 6 माह ) तक बढ़ाये जाने की बात करता है। जिसके आलोक में स्त्री अध्ययन विभाग के अध्ययन मंडल की दिनांक 11 जनवरी 2020 को संपन्न 14 वीं बैठक में लिए गये निर्णयानुसार अन्य चार शोधार्थियों के साथ रजनीश कुमार अंबेडकर की शोध अवधि को एक वर्ष के लिए (06 जुलाई 2020 तक) विस्तारित किया गया। रजनीश कुमार अंबेडकर की अवधि विस्तार के साथ पांच वर्ष की शोध अवधि 06 जुलाई 2020 को समाप्त होना बताया जा रहा है। 

यहां विश्वविद्यालय का कहना है कि देश भर में कोविड - 19 महामारी के प्रकोप को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 03 दिसम्बर 2020 को प्रथमत: शोध प्रबंध जमा करने की तिथि को 30 जून 2020 तक, 16 मार्च 2021 को 30 जून 2021 तक और 01 दिसम्बर 2021 को 30 जून 2022 तक विस्तारित किया गया था। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के उपर्युक्त लोक सूचनाओं के अनुसार रजनीश को भी इन विस्तारों का लाभ दिया गया है।

पत्र में स्त्री अध्ययन विभाग के अध्ययन मंडल की 27 अक्टूबर 2020 को संपन्न 15वीं बैठक में अध्ययन मंडल के समस्त सदस्यों को शोधार्थी की स्थिति तथा कोविड - 19 के प्रकोप की स्थिति से अवगत कराते हुए बैठक में लिए गए निर्णयानुसार रजनीश को पुन: शोध अवधि विस्तार दिया गया।

विश्वविद्यालय का कहना है कि रजनीश द्वारा लगाया गया आरोप यह कि शोधार्थी सतपाल यादव और ब्रिजेश कुमार, पीएच.डी. अनुवाद अध्ययन विभाग के शोध प्रबंध जमा किये गये है असत्य है। इन्होंने शोध प्रबंध जमा न कर विपंजीकरण (De-Registrartion) कराया है। 

 

पीएच.डी. अध्यादेश के बिंदु 9.1 (a) के अनुसार विश्वविद्यालय के नियमित शिक्षक ही पीएच.डी. शोध-निदेशक बन सकते हैं, चूंकि शिकायतकर्ता के शोध निदेशक सेवानिवृत्त हो चुके हैं। सेवानिवृत्त प्रोफेसरों के अंतर्गत जमा शोध पत्रों की विसंगतियां संज्ञान में आने के बाद उसके निराकरण के लिए विभाग के नियमित शिक्षक को ही शोध निर्देशन का दायित्व सौंपा जा रहा है। इसके तहत ही स्त्री अध्ययन विभाग के अध्ययन मंडल की दिनांक 24 अगस्त 2022 को संपन्न बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसरण में डॉ. सुप्रिया पाठक, अध्यक्ष, स्त्री अध्ययन विभाग को रजनीश कुमार अंबेडकर के शोध निदेशन का दायित्व सौंपा गया है।

डॉ. सुप्रिया पाठक द्वारा रजनीश को निर्देशित करने में कोई भी आपत्ति दर्ज नहीं की गई है जब कि कालातीत अवकाश प्राप्त सेवानिवृत्त शोध निदेशक ने यह आपत्ति दर्ज करायी है कि रजनीश का शोध प्रबंध उन्हीं के निर्देशन में जमा कराना होगा और यही बात रजनीश जोर देकर कह रहे हैं कि अवकाश प्राप्त सेवानिवृत्त शोध निदेशक के अधीन ही उनका शोध प्रबंध जमा होना चाहिए जो कि न तो युक्तियुक्त ही है और न ही नियमानुसार पोषनीय है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अर्द्धशासकीय पत्र संख्या D.O.No. F. 10-06-2011 ( PS ) Misc, 06 जुलाई 2015 में शोध निदेशक के संबंध निम्नानुसार उल्लेख है-"Universities shall allocate the supervisor from amongst the regular faculty members in a department or its affiliated PG Colleged/Institutes depending on the number of Students per faculty member available specialization among the faculty supervisors and the research interest of the student. It is further clarified that any Ph.D/M.Phil degree awarded by a University under the supervision of a supervisor who is not a faculty member of the University or its affiliated PG colleges/institutes would be in violation of UGC (Minimum standards and procedure for award of M.Phil/Ph.D) Regulations 2009"

विश्वविद्यालय द्वारा शोधार्थी के शैक्षणिक हित तथा करियर को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय के संस्कृति विद्यापीठ के स्कूल बोर्ड की 25वीं बैठक की मद संख्या 6 के आलोक में विद्या परिषद की 07 नवम्बर 2022 को संपन्न 43वीं बैठक की मद संख्या 4 (2) में लिए गए निर्णय के अनुपालन में पी-एच.डी. शोधार्थी  रजनीश को अपना शोध प्रबंध जमा करने के लिए 31 दिसम्बर 2022 तक अवधि दिया गया था।

विवि का कहना है कि शोधार्थी विश्वविद्यालय की विद्या परिषद के निर्णय का अनुपालन न कर विश्वविद्यालय प्रशासन पर सोशल मीडिया तथा शिकायतों में झूठे आरोप लगाकर विश्वविद्यालय की छवि धूमिल कर रहा है।

बहरहाल इस तरह रजनीश के अनुसार जातीय उत्पीडऩ के गंभीर मामलों को ध्यान में रखते हुवे रजनीश और विश्वविद्यालय के बीच चल रही विवादों का उचित मंच में निपटारा करना चाहिए और जिस तरह कोरोना व अन्य अपरिहार्य कारणों को बहाना बनाकर रियायत की बात हुई है उसका फायदा रजनीश को भी न्यायोचित लाभ पहुंचना चाहिए।

रजनीश के तर्कों में इसे भी रखना चाहिए कि साल 2019 में विश्वविद्यालय में बहुजन नेता कांशीराम साहब की पुण्यतिथि मनाए जाने पर उसी रात 6 वंचित समुदाय के विद्यार्थियों/शोधार्थियों को असंवैधानिक तौर से निष्काषित कर दिया गया था। भारी जन दबाव के बाद 13 अक्टूबर 2019 की शाम के समय सभी शोधार्थियों का निष्कासन वापस लिया गया। जिसके कारण भी सभी बहुत मानसिक और आर्थिक रूप से प्रताडि़त हुए व पढ़ाई-लिखाई भी बाधित हुई थी। और इस आरोप ने रजनीश और विश्वविद्यालय के बीच शोध को लेकर क्या अड़चनें हैं उसकी जांच पड़ताल तत्काल होनी चाहिए।

इस मामले में विश्वविद्यालय प्रशासन, भारत सरकार एवं मीडिया को रजनीश कहना चाहता है कि विभाग ने पीएचडी स्कालर स्त्री विभाग महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय ने प्रो. शंभु गुप्त और प्रो. देवराज के सेवानिवृत होने के बाद भी पूर्व शोधार्थियों को पीएचडी उपाधि प्रदान की हैं।

अर्थात, शोध के नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए और विश्वविद्यालय पी-एच.डी. अध्यादेश - 2009 के संवैधानिक स्वरूप को मद्देनजर रखते हुए इनके शोध-निर्देशक प्रो. शंभु गुप्त के मार्गदर्शन में ही पी-एच.डी. उपाधि देने में रूकावट कैसे? तमाम बयानों और विसंगतियों की जांच पड़ताल करते हुवे झूठ से पर्दा हटाया जाये और सच को बताने की कोशिश हो।


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