मिलिंद पञ्हो

प्रेमकुमार मणि

 

' मिलिंद पञ्हो ' एक मशहूर बौद्ध ग्रन्थ है,जो पाली भाषा में है। यह दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाता है और इसमें भारतीय तर्क शैली का बेजोड़ उदाहरण आप देख सकते हैं। मिनांदर या मिलिंद हिंदी -यूनानी ( इंडो -ग्रीक ) राजा था, जिसने ईसापूर्व 150 के इर्द -गिर्द भारत के पश्चिमोत्तर इलाके पंजाब पर शासन किया था। इनकी राजधानी शांगल थी,जो आज संभवतः सियालकोट है। हिंदी -यूनानी राजाओं का पूरी तरह भारतीयकरण हो गया था। मिनांदर ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी और उसने इसके परिष्कार में काफी दिलचस्पी ली थी। वह वाकई सुरुचिसंपन्न और जिज्ञासु विद्वान राजा था। इसका प्रमाण यह किताब 'मिलिंद पञ्हो ' है। दरअसल यह राजा मिलिंद और उसके ज़माने के प्रतिनिधि बौद्ध दार्शनिक नागसेन के शास्त्रार्थ का विस्तृत ब्यौरा है।

मेरे गुरु भिक्षु जगदीश कश्यप ने इस किताब को ढूंढ़ निकाला था। उन्होंने ही इसका हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किया। उनके अनुसार यह किताब पहले संस्कृत या प्राकृत में लिखी गई प्रतीत होती है। क्योंकि इसकी शैली प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत से अधिक मिलती है। कश्यप जी ने इस किताब का एक चीनी रूप भी चीन देश के पिनांग में देखा था, जिसका उन्होंने मूल चीनी से अंग्रेजी अनुवाद किया था। इसका चीनी रूप ' ना -सेन- पिब्कु -किन ' अर्थात ' नागसेन -भिक्षु -सूत्र ' है।

पुस्तक की तर्क शैली का एक उदाहरण देखिए।

राजा मिलिंद ने बौद्ध दार्शनिक नागसेन को सादर आमंत्रित किया। राजा ने नागसेन से पूछा - क्या आप मेरे साथ शास्त्रार्थ करेंगे ?

नागसेन ने कहा -यदि आप विद्वानों की तरह करोगे तो करूँगा और राजाओं की तरह करोगे, तो नहीं करूँगा।

राजा ने पूछा - विद्वान किस तरह शास्त्रार्थ करते हैं ?

नागसेन ने कहा -वे तर्कों से एक दूसरे को लपेटते हैं और एक दूसरे की लपेटन को खोल देते हैं। वे दूसरे को तर्क से पकड़ लेते हैं और अपने तर्क से दूसरों की पकड़ से मुक्त हो जाते हैं। वे तर्क करते हैं, दूसरे मत का खंडन करते हैं, लेकिन किसी पर क्रुद्ध नहीं होते।

-- और राजा लोग कैसे शास्त्रार्थ करते हैं ? ' नागसेन ने पूछा।

--महाराज ! राजाओं की बातों का खंडन करो तो वे तुरंत क्रुद्ध होते हैं और दंड देते हैं।

मिलिंद ने नागसेन को वचन दिया कि वह विद्वान की तरह शास्त्रार्थ करेगा।

राजा बोले

- भंते ! मैं पूछता हूँ।

-महाराज ! पूछें ?

-भंते मैंने पूछ लिया।

-महाराज ! मैंने भी उत्तर दे दिया।

- भंते ! आपने क्या उत्तर दिया ?

-महाराज आपने क्या पूछा ?

नागसेन ने अनेक विधियों से राजा को बौद्ध दर्शन की सूक्ष्म गुत्थियों को समझाया है। प्रतीत्यसमुत्पाद की व्याख्या देखिए -

-महाराज ! यदि कोई दीया जलाए तो क्या वह रात भर जलता रहेगा ?

-हाँ ,भंते , रात भर क्यों नहीं जलेगा।

- महाराज ,रात के प्रथम पहर में दीये की जो लौ थी, क्या वही दूसरे और तीसरे पहर में भी रहती है ?

- नहीं भंते।

- महाराज तो क्या प्रथम पहर और अंतिम पहर का दीया अलग-अलग था ?

- नहीं भंते, दीया तो एक ही था।

- महाराज, इसी तरह हर वस्तु के अस्तित्व के सिलसिले के अंतर्गत एक अवस्था उत्पन्न होती है। फिर उस अवस्था का लय होता है और फिर उस लय होती अवस्था से ही एक और अवस्था उत्पन्न हो जाती है। और इस तरह निरंतरता का एक प्रवाह जारी रहता है। किसी प्रवाह की दो अवस्थाओं में क्षण भर का भी अंतर नहीं रहता ; क्योंकि एक के लय होते ही दूसरी उतपन्न हो जाती है। एक जन्म के अंतिम विज्ञान के साथ दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान शुरू हो जाता है।

नागसेन ने द्वंद्वात्मकता की उस स्थिति की बेहतर व्याख्या की है, जिसे सैंकड़ो वर्ष बाद जर्मन दार्शनिक हेगेल ने बताया और जिससे कार्ल मार्क्स प्रभावित हुए। मार्क्स ने हेगेल की व्याख्या को भौतिक आधार दिया। मार्क्स के ही शब्दों में माथे के बल खड़े द्वंद्ववाद को पैरों के बल खड़ा किया।

नागसेन कहीं अधिक स्पष्ट हैं। नाम और रूप के विभेद को स्पष्ट करते हुए वह मिलिंद को कहते हैं-' सभी स्थूल चीजें रूप हैं और सभी सूक्ष्म चीजें नाम।

शंकराचार्य की तरह मिलिंद का भी आग्रह होता है - ' ऐसा क्यों नहीं है केवल नाम ही, या केवल रूप ही जन्म ग्रहण करे?

नागसेन का जवाब है- ' नाम और रूप एक दूसरे पर आश्रित हैं। एक दूसरे के बिना ठहर नहीं सकते। दोनों एक दूसरे के सापेक्ष हैं। नाम और रूप अलग -अलग रूप में अस्तित्वहीन अर्थात शून्य हैं। दोनों की एक दूसरे पर सापेक्षता ही इन्हे अस्तित्व में लाता है।

इसी पुस्तक में रथ के उदाहरण वाला प्रसंग भी है ,जिसे दुनिया भर के विद्वान उद्धृत करते हैं।

नागसेन और दूसरे बौद्ध विद्वानों के अनुसार जगत और चेतना अलग -अलग रूपों में कुछ नहीं,अर्थात शून्य हैं। चेतना है के अस्तित्व को स्वीकारने केलिए जगत या रूप की जरूरत है। इसी तरह बिना चेतना के जगत का कोई मूल्य नहीं है।

' मिलिंद पञ्हो ' भारतीय दर्शन परंपरा के उत्कर्षकाल की एक झलक देता है। इसे पढ़ते -समझते हुए हमें उस दौर का एक आभास होता है जब ग्रीक जनों ,जिन्हे यूनानी या यवन भी कहा जाता है, का भारतीयकरण हो रहा था। उस वक्त हमारी बौद्धिक क्षमता ऊंचाइया छू रही थी। दुनिया भर के लोग हमसे सीखते थे,संवाद करते थे।

 


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