जाति आधारित जनगणना की मुसीबतें
प्रेमकुमार मणिबिहार में जातिवार जनगणना की प्रक्रिया आज से आरम्भ हो गई है और जिस तरह से इसका प्रचार किया जा रहा है, उससे मैं बेहद क्षुब्ध हूँ। राजद और जदयू इसे इस तरह रख रहा है, मानो यह कोई उपलब्धि हो। इस विषय पर मैं पहले से कहता रहा हूँ कि जाति आधारित वर्ग के आधार पर चूकि कई तरह के आरक्षण और सुविधाएं मुहैय्या की जा रही हैं, इसलिए सरकार को इसकी जानकारी रखनी चाहिए। इस आधार पर जनगणना को मैं आवश्यक भी मानता हूँ।

लेकिन यह भी मानता हूँ कि यह अत्यंत गोपनीय स्तर पर हो। डाक्टर बीमार व्यक्ति का परीक्षण करवाता है, लेकिन उसकी रिपोर्ट को गोपनीय मानता है। वह डाक्टर के समझने केलिए है, न कि प्रचार केलिए। लेकिन बिहार सरकार उसका प्रचार कर रही है, मानो यह उसकी कोई कार्य- योजना और उपलब्धि हो।
जाति को लेकर समाज और राजनीति में लम्बे समय से अध्ययन चल रहा है। दुनिया भर में हर देश - समाज की कुछ खास तौर की बुनावट होती है। उसका अध्ययन अपेक्षित होता है। भारत में जाति और इसकी प्रथा-परिपाटी को लेकर लम्बे समय से अध्ययन- चिंतन चल रहा है। एक दौर था, जब गांधी जैसे व्यक्ति की इस विषय पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर से भिड़ंत हुई और गांधी ने इसे विश्व संस्कृति को भारत की अनुपम भेंट के रूप में चिह्नित किया।
रवीन्द्रनाथ का कहना था कि इसी जातिप्रथा के कारण भारत गुलाम हुआ है और आधुनिक समाज में इसका वजूद नहीं होना चाहिए। जब आम्बेडकर ने इसे लेकर नया विमर्श खड़ा किया और अपने ' अनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट ' शीर्षक वृहद् आलेख में इसकी धज्जियाँ उड़ाईं, तब गांधी इस विषय पर सतर्क हुए। जाति का जोर जन्म पर होता है और एक खास अवस्था में आकर यह वर्ण पर टिक जाता है। वर्ण अर्थात् रंग। जब जोर रंग अथवा नस्ल पर होता है तब वह वर्ण बनने लगता है।
जाति बुनियादी चीज है,जो पेशेगत समूह के रूप में एक जड़ वर्ग का रूप ले लेता है। वर्ण एक व्यवस्था है, जो समाज विकास के एक खास चरण में कुछ लोगों द्वारा गढ़ा गया और जिसे सामाजिक स्मृतिकारों में से एक मनु ने संहिताबद्ध किया। मनु की खासियत या कमजोरी यह थी कि उसने पेशा चुनने का अधिकार व्यक्ति की जगह समाज को दिया और अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न कथित वर्णसंकर समूहों को इस आधार पर विभाजित किया कि पुरुष और ब्राह्मण वर्चस्व को बल मिले। इससे भारतीय समाज में एक रूढ़ि विकसित हुई, गतिहीननता आई।
स्वाभाविक सामाजिक गतिशीलता के लिए आवश्यक होता है कि जाति और वर्ण की कड़ियाँ कमजोर हों। व्यक्ति जब पेशा बदलना चाहे तब उस पर सामाजिक दबाव नहीं हो। एक ही पेशे में जमे रहने से ऊब और गतिहीनता की संभावना अधिक हो जाती है। मनु ने उसे अधिक स्थिर करने की कोशिश की और पाबंदी लगाईं। हालांकि यह केवल मनु की परिकल्पना नहीं रही होगी। समाज पर प्रभावशाली रहे लोगों की समवेत चाहना रही होगी। मनु ने तो इसे संहिताबद्ध किया था।
इससे भारतीय समाज में कुछ जातियों का वर्चस्व मजबूत हुआ और एक सामाजिक साम्राज्यवाद की स्थिति विकसित हुई। इसे ही ब्राह्मणवाद कहा जाता है; क्योंकि मनु की संहिता से ब्राह्मणों की स्थिति समाज में मजबूत हुई थी। आज से पचास साल पहले मैंने ' मनुस्मृति : एक प्रतिक्रिया ' पुस्तक लिखते हुए इस पाखण्ड को समझने की कोशिश की थी।
ब्रिटिश काल में जनगणना जातिआधारित होती थी। और इसके मूल में सांप्रदायिक जनगणना थी। इससे समाज अध्ययन के क्षेत्र में कुछ आंकड़े मिले, लेकिन कुछ मुश्किलें भी आईं। आख़िरी जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई। आज़ाद भारत में राष्ट्रनिर्माण के उद्देश्य से इसे स्थगित किया गया। मोटे तौर पर अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों को तीन अलग - अलग समूहों में रखा गया और उन्हें वर्ग रूप में अभिहित किया गया। अनुसूचित जातियों का एक वर्ग है। पिछड़ी जातियों का एक वर्ग है -- अन्य पिछड़ा वर्ग।
कोशिश यह थी कि सदियों से चले आ रहे जाति आधारित सामाजिक वर्चस्व को ध्वस्त करते हुए एक आधुनिक समाज की रचना हो। एक व्यक्ति एक वोट के अधिकार के फलस्वरूप विधायिका में तो सभी तबकों की भागीदारी धीरे - धीरे दिखने लगी, किन्तु कार्यपालिका और न्यायपालिका में खास तबकों का वर्चस्व बना रहा। अन्य पिछड़े वर्गों की भागीदारी अफसोसजनक रही थी। इसके लिए ही विशेष अवसर के सिद्धांत के तहत एक समय सीमा तक केलिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। यह व्यवस्था उद्देश्य पूरा होने तक चलनी ही चाहिए।
लेकिन हमारी मंजिल एक ऐसा जातिविहीन समाज ही है, जिसमें व्यक्ति की गरिमा हो, उसके समूह या जाति की नहीं। यह जाति प्रथा हमारे आधुनिक लोकतान्त्रिक समाज की भावना के विरुद्ध है, अतएव इसे हमें हर हाल में यथाशीघ्र ध्वस्त करना है। उत्पादन के नए संसाधन और पूंजीवादी मान्यताएं जातिप्रथा को ध्वस्त करती हैं, क्योंकि पारम्परिक पेशों को किसी जाति तक सीमित करने से ये इंकार करती हैं। पूंजीवादी समाज के समाजवादी रुझान लेने के पूर्व ही जातिप्रथा निर्मूल हो जाता है। हमारे समाज का सम्यक विकास नहीं हुआ। कायदे से पूंजीवादी समाज भी नहीं बना। लेकिन अधकचरे विकास ने भी जातिप्रथा की जड़ें हिला दी हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि बहुत हद तक जाति के आधार कमजोर हुए हैं। जातियों के अंतर्गत उपजातियों की व्यवस्था लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। आज से बस सौ साल पहले के समाज को देखें तो हर जाति के भीतर एक आंतरिक वर्णविभाजन था। उदाहरण केलिए कायस्थ एक जाति है तो श्रीवास्तव कायस्थों का ब्राह्मण था और कर्ण शूद्र। कूर्मियों के बीच अवधिया ब्राह्मण था, तो धानुक शूद्र। हर जाति में ऐसी व्यवस्था थी। आज नहीं है। उसी तरह आज की दिख रही जातिप्रथा भी अन्ततः ध्वस्त होगी। शिक्षा का विस्तार, रोजगार के नए संसाधन और औरतों की आज़ादी जैसे -जैसे बढ़ेगी जातिप्रथा कमजोर होती जाएगी। उत्पादन के पुराने तरीके बदल रहे हैं, गाँवों का तेजी से शहरीकरण हो रहा है, लड़कियों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो रहे हैं।
ये सब जातिप्रथा को ध्वस्त करने के कारक होंगे। समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया का एक लेख है ' जाति और योनि के दो कठघरे '। इसे तो उन समाजवादियों को पढ़ लेना था,जो समाजवाद की अधिक दुहाई दे रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिक समाजवाद की जगह जातिवादी - समाजवाद स्थापित करने की इस मुहीम पर अफ़सोस ही व्यक्त किया जा सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। दिमाग से खाली लोग जब हुक्मरान बनते हैं, तब ऐसा ही होता है।
जातिप्रथा कमजोर हो रही है। इसे जांचने का एक तरीका बताता हूँ। साल भर तक आए विवाह के आमंत्रण पत्रों को इकठ्ठा कीजिए। फिर उनमें चिह्नित कीजिए कि कितने जातिमुक्त विवाह हैं। पांच वर्षों तक यह कीजिए। आप को पता चलेगा कि किस रफ़्तार से जातिमुक्त विवाह हो रहे हैं। गांव कस्बों तक प्रचलन तेजी पर है। सामान्य जातियों के लोग, जो स्वयं को ऊँची जाति मानते आए हैं आपस में घुलमिल कर, धीरे - धीरे अब अपर कास्ट बन रहे हैं।
दलितों का अलग समूह बन रहा है। अन्य पिछड़े वर्गों का अलग। एक ऐसा दिन भी आएगा जब ये बड़े ढूहे भी ध्वस्त होंगे। विवाहों में अनेक व्यवधान समाप्त हो रहे हैं।उनके तरीके बदल रहे हैं। यदि हमने समान शिक्षा, समान स्वास्थ्य और रोजगार की पुख्ता व्यवस्था की, तो एक ऐसा समय आएगा जब जातिव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी।
लेकिन सरकार जो यह नाटक कर रही है, वह न केवल मूर्खतापूर्ण है, बल्कि शरारतपूर्ण भी है। आजकल समाज में एक नया जाति -व्याकुल समाज उभरा है। वह हर जाति का सबसे निकृष्ट तबका है। राजनीति से लेकर समाज के विभिन्न स्तरों पर ये जातिप्रथा को जीवित रखना चाहते हैं। क्योंकि इसी के आधार पर उनकी पूछ संभव है। ऐसे लोग जातिवार जनगणना से अतिरिक्त रूप से उत्साहित हैं।
कुछ अधिक संख्या वाली जातियों के शातिर नेताओं को भरोसा है कि जब जाति जनगणना की रिपोर्ट आ जाएगी तब इसे बैनर बना कर कम संख्या वाली जातियों पर रौब जमाएंगे कि हमारी राजनीतिक गुलामी अथवा अधीनता स्वीकार करो। यही कारण है कि वे इसका बिगुल बजा रहे हैं।
मेरा आग्रह होगा कि प्रबुद्ध जन इस पर विचार करें और इस दकियानूसी राजनीति के मर्म को समझें। समान शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार गारंटी के मांग को अपनी राजनीति का केन्द्रक बनावें, तभी नया समाज बनेगा। इस जाति आधारित जनगणना से ध्वस्त हो रही जातिप्रथा को केवल बल मिलेगा।
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