बनिहारिनें
कैलाश बनवासी की कहानी
कैलाश बनवासीये अपने काम भी ऐसे ही करती हैं, हँसती-खिलखिलातीं. घर-परिवार की तमाम चिंता-परेशानियों के बावजूद इनके पास जैसे इसका कोई खजाना है, जो कभी खत्म नहीं होता. ये छत्तीसगढ़ की सुगढ़ कमैलिनें हैं, और अपने ऐसे होने को लेकर इनके मन में कोई विशेष भाव नहीं हैं. ये मानो जन्म-जात ऐसी ही हैं. इस समय ये बिल्कुल स्वतंत्र हैं, बात-बात में इनकी हँसी फव्वारे की तरह फूट पड़ती है. पर शायद अपने घर के भीतर घुसते ही जैसे कोई संदेही अदृश्य शक्ति इनकी खिलखिलाहटों पर साँकल चढ़ा देती है.

सुबह का समय है,नौ-साढ़े नौ के बीच.
ये काम पर जा रही हैं.नहर के पार पर चलती आ रही हैं.इन्हें इधर के खेतों में धान लूने जाना है. ये दूर से ही नजर आ रही हैं.एकदम चटख हरी, पीली, गुलाबी, लाल, नीली साड़ियों में. अपने जीवन की सब स्याह-धूसर उदासियों को ये जैसे इन उल्लसित खिले-खिले रंगों से ही दूर खदेड़ देना चाहती हों, जैसे जीवन की उत्फुल्लता ही इन्हें प्रिय हो...सुबह के घने कोहरे को चीरकर वे आ रही हैं, सूरज को साथ लिए हुए.
ये आपस में जोर-जोर से बतियाती आ रही हैं। हँसतीं-खिलखिलातीं. निर्द्वंद्व! जिन्हें टपोरी भाषा में कहें तो एकदम बिंदास! सुबह का ताजापन उनके खिले चेहरों में भी देखा जा सकता है, भरपूर. उनकी हँसी की खनक इधर के सूनेपन में दूर तक सुनी जा सकती है, फूलकाँस के बर्तनों-सी खनकती हुई. ये अपने काम भी ऐसे ही करती हैं, हँसती-खिलखिलातीं.
घर-परिवार की तमाम चिंता-परेशानियों के बावजूद इनके पास जैसे इसका कोई खजाना है,जो कभी खत्म नहीं होता. ये छत्तीसगढ़ की सुगढ़ कमैलिनें हैं, और अपने ऐसे होने को लेकर इनके मन में कोई विशेष भाव नहीं हैं. ये मानो जन्म-जात ऐसी ही हैं. इस समय ये बिल्कुल स्वतंत्र हैं, बात-बात में इनकी हँसी फव्वारे की तरह फूट पड़ती है. पर शायद अपने घर के भीतर घुसते ही जैसे कोई संदेही अदृश्य शक्ति इनकी खिलखिलाहटों पर साँकल चढ़ा देती है.
वे घर के भीतर ऐसी नहीं होतीं, कोई और ही हो जाती हैं,जाने किस ज़माने से चले आते परम्परागत नेम-धरम मानने वालीं,लेकिन ये उसमें भी ये अपना सुख और आनंद के क्षण शादी या छट्ठी अथवा तीज-त्योहारों में निकाल लेती हैं गोया इसमें इनको ख़ास महारत हो!
नहर के पास हवा में नहर के पानी की गंध है,कुछ हरे तरबूज की सी खुशबू लिए हुए. नहर का पानी गंदला नहीं है,साफ है. नहर के दोनों ओर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर वृक्षों की एक श्रृंखला चली गई है. ज्यादातर पेड़ कउहा के हैं चिकने सफेद छाल वाले.नहर के गहरे साँवले जल में पार के पेड़ों की छाया काँप रही है,और उससे आगे के जल पर सूरज की आभा झिलमिला रही है - पारे की तरह चमकती हुई...
पहले नहर के पानी में इनके रंग-बिरंगे साड़ियों की परछाईं दिखाई देती है,इसके बाद ये सचमुच.
ये चिड़ियों-सी चहकती आ रही हैं. इनमें से कोई लड़की कहती है, “वा, केंवरा भौजी ल तो बढ़िया-बढ़िया ‘सायरी आथे !”
केंवरा भौजी झट-से प्रतिवाद करती है, “अइ टार दइ !नइ आवय हमला. हम काहीं पढ़े-लिखे हाबन? तोला आत होही. तुमन आज के टुरी हरो. रंग-रंग के गोठ-बात जानथो. एक ले एक सलीमा-टी.भी. देखथो. मुबाइल में घलो रंग-रंग के गाना सुनथो. ले न, गा ना दशोदा, तेहाँ बने गाथस बहिनी....काए गाथस ‘कजरारे-कजरारे’ कहिके तेला’ गाना...”
उसकी बात पर फिर सब हँस पड़ती हैं
कोई कहती है, “इही करा अगोर लो फुलेसरी मन ल...आतेच होही...तहं ले संगे-संग जाबो.”
ये नहर पर बने पुल पर कुछ क्षण रुककर अपने साथियों का इंतजार कर रही हैं.उनके हाथों में हँसिया है, धान के बोझे बाँधनेके लिए पैरे की बनी मोटी डोरी है. प्रायः सबके सिर पर रखे गुड़री में बाँस के बने बड़ा-सा टुकना है जिसमें उनके स्टील या ज़स्ते के खाने के डिब्बे हैं. कुछ के डिब्बे पोटली की तरह कपड़े से बँधे हैं,वहीं कोल्ड-ड्रिंक या मिनरल वाटर के पुराने प्लास्टिक बोतलों में पानी है.
इन्हीं खजाने से उनका दिन गुज़रना है.ये सभी युवा नहीं हैं. इनमें गाँव की सभी आयु की औरतें है--किशोर,युवती, अधेड़ और कुछ बूढ़ीं...लेकिन हँसने-खिलखिलाने का जिम्मा मानो किशोरियों और युवतियों ने ले रक्खा है. इनका घर से यों एक साथ बाहर होना इनके आजाद होने की इच्छा की तरह दिखता है.और दिखता है सूरज के जैसा दमकता आत्मविश्वास।
एक युवती दूर देखती हुई बताती है, --“वो दे,फुलेसरी मन आवथे.”
“परमेसरी आवथे ?”एक अधेड़न पूछ बैठी.
“परमेसरी नहीं भैरी,फुलेसरी! फुलेसरी! ये काकी हा तो निच्चट भैरी !” युवती खीजती है.
उसी से फिर किसी ने पूछा, “अइ कहाँ हे, मोला तो नई दिखऽथे?”
“अरे वो दे,अँधरी...वो दे .चंदा के घर तीर म आ गेहे ! देख...बने आंखीं खोल के ! तहं ले बग्ग ले दिखही !” और अपनी ही ही बात पर खिलखिला पड़ती है.
फिर कोई तो उसे प्यार से झिड़क देती है, “अइ निच्चट अँधरी हस का वो फुफू?...
वो दे...वो पिंवरी रंग के लुगरा पहिने हे तेने ताय...दिखिस?’’
फुफू कहती है, नइ दिखथे मोर आँखीं म. कोन जनी कोन रोगही हा टोनहा दे हे,ओखर सैत्तानास होवय !’’
सब हँसती हैं.किसी लड़की ने फिर छेड़ा है अधेड़न को “तोला चश्मा लगही वो काकी! चश्मा !तब बने चकचक ले दिखही तोला एकदम साफ़-साफ़! इस्कूल के मेडम असन दिन भर पहिरे रहिबे. तहां ले हमू मन तोला मेडम जी-मेडम जी कहिबो. कइसे ओ गायत्री, में बने कहाथो ना?”
ये सब आपस में एक-दूसरे को प्यार से इसी तरह अँधरी, बहरी, कानी, कोंदी, पगली या लेड़गी आदि कहती रहती है, कोई बुरा नहीं मानता. इनमें एक सहज अपनापा है एक गाँव के होने का...लगता है अभी ये सब मानो एक घर-परिवार के ही हों.
ये गाँव की महिलाएँ हैं जो इस समय किसी के खेत में काम करने जाते हुए ‘बनिहारिन’ हैं. ये लुवाई को जा रही हैं-ठेके पर. इस समय अक्सर गाँव का कोई पुरूष भी इनके साथ होता है, मेट या सुपवाइजर नुमा,जो इनका मुंह लगा सहज साथी होता है.सहकर्मी. इसके साथ भी ये खुलकर हँसी-मजाक कर सकती हैं और मौका पड़े तो दो बात सुना भी सकती हैं.
जैसे अभी, इनके साथ जो गहरे काले रंग का लड़का है,बोलता है, “अरे वाह, आज तो रेखा डारलिंग भी आ रही है!
उसके कहते ही सब एकदम बेतहाशा खिलखिला पड़ी हैं.क्योंकि यह बात उसने उन आती महिलाओं में से किसी बुढ़िया के लिए कही है. पीठ पीछे इस बेलबेलहा सुपरवाइजर ने हँसी-मजाक के लिए सबके बीच उसका यही नाम दे रखा है.
आगे धान के सुनहले खेत हैं, और दूर तक यही रंग है--पकी बालियों का सुनहला रंग.आसपास की हवा पके धान की सोंधी महक से भरी हुई है. दिसम्बर के साफ,खूब नीले चमकते आकाश के नीचे दिन चढ़ते जाने के साथ और-और चमकते हुए... छत्तीसगढ़ का धन-धान्य! धान के कटोरा हमर छत्तीसगढ़!
ये अब खेत की कटी-फटी,ऊबड़-खाबड़ मेंड़ पर चल रही हैं, पैरों में प्लास्टिक की सस्ती चप्पलें पहनें. मेंड़ पर बस कहीं-कहीं इक्के-दुक्के बबूल के एकदम नोकदार सफ़ेद काँटों वाले काले झाड़ हैं. ये बस अभी कुछ देर में खेत पहुँचेंगी, अपनी चप्पलें, गुड़री, टुकने आदि मेड़ पर छोड़ धान लूने उतरेंगी. हाँ, अब वे लुवाई के गर्दे से बचने के लिए सिर पर गमछा या कोई कपड़ा बाँधकर, और देह पर अपने घर के पुराने कमीज़ भी पहनेंगी.
ये अब खेत में उतर चुकी हैं. अपना हँसिया चलाना शुरू करने से पहले वे धान की बालियों को हथेली में भरकर,एकदम सिर नवा कर गहरे अंतरतम से उन्हें प्रणाम करती-“जै हो अन्न माता ! जै हो लछमी दाई !”
“अइसने हमर भंडार सदा दिन भरे-पूरे रहय माता !” बरबस किसी के मुँह से यह प्रार्थना फूट पड़ती है.
फिर एक बार वे हाथ से बालियाँ छूकर हाथ अपने माथे से छुवाती हैं. दरअसल ये अन्न माता से आशीर्वाद मांग रही हैं अपनी छोटी-छोटी खुशहाली का. मन में कोई बड़ी आकांक्षा नहीं कोई बड़ी लालसा नहीं.
अब वे पूरी जतन से धारदार हँसिया से धान को लू रही हैं-- छक्छक छक्छक छक्छक छक्छक....
काम के साथ-साथ इनकी आपस की बात चलते रहेंगी, और समय-समय पर इनके बीच हँसी-मजाक भी चलता रहेगा,जो शरीर और मन दोनों ऊर्जावान बनाए रखता है,थकने नहीं देता. वैसे ये अभी घर का सारा काम निपटाकर आई हैं--ढेर सारा काम!
अलस्सुबह गइया-कोठा सहित पूरा घर झाड़ना-बुहारना, घर-आँगन-चूल्हा गोबर से लीपना, कुएँ अथवा बोरिंग से पानी भरना, बर्तन मांजना,चूल्हा जलाकर सबेरे की चाय-रोटी बनाना, सुबह पाली के बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना, घर के सदस्यों के लिए दोपहर का दार-भात-साग बनाकर रखना, और इसी सब के बीच काम पे जाने के लिए नहा-धोकर खुद को तैयार करना...जाने कितने सारे काम!
और यही नहीं, इधर से लौटते बखत शाम को ये आसपास के खेतों से सूखी लकड़ियाँ,झीटी-डंगाली आदि बटोर लेती हैं घर के चूल्हे की खातिर, और इसका बोझा अपने सिर पर लिए आराम से हँसती--बतियाती चलती हैं मानो सर में कोई बोझा हो ही नहीं! अभी घर जाके ये फिर चूल्हे में राँधने-पकाने में जुट जाएंगी. सबको खिलाने के बाद आखिरी में ये खाएँगीं। इसके बाद थककर सो जाना है...गहरी नींद.
ये दिन धान-मिंजाई के होने के कारण पूरे गाँव में दिन-भर धान-भूसे की गर्द छायी रहती है-क्या खेत-खलिहान, क्या घर-आँगन और क्या चैक-बाजार,सभी जगह! और सभी जगह इसी की कुछ चुभती-सी, अजीब खसखसी ऊष्ण गंध. इन दिनों गाँव के लोग इसी गर्दीली हवा में सांस लेते हैं. बल्कि यह उनकी दिनचर्या में सहज ही ख़ुशी–ख़ुशी शामिल हो जाता है. और इससे इनको कोई परेशानी नहीं, क्योंकि ये अन्न की गंध है-- अन्न माता लक्ष्मी की गंध!
इन दिनों जो दृश्य सबसे आम है,वह है बैलगाड़ी या ट्रेक्टर-ट्राली में भरकर कटे धान के गट्ठर—भारा--लाना, और बियारा में धान मिंजाई का होना. कहीं ट्रैक्टर से मिंजाई हो रही है तो नौजवान ड्राइवर भड़-भड़ फुल स्पीड में जोश से गाड़ी चला रहा है. मशीन की ताकत का जोर! इसके छोड़कर वहाँ देखो जहाँ धान की मिंजाई बैलगाड़ी से बंधे लट्ठे के बेलन से हो रही है.
बैल धान मींजने में लगे हैं और घर के तमाम छोटे-छोटे बच्चे बैलगाड़ी में आनंदित बैठे हुए घूमने का मजा ले रहे हैं, जो मिनट-दो मिनट में मस्तिया भी रहे हैं,जिन्हें बीच-बीच में गाड़ीवान किसान उनका दादा बीड़ी पीते-पीते हुए ही नकली जोर से बरज देता है--‘‘सीधा बइठे रहो ब्बे!जादा मस्ती झन मारो नहीं त दूहूँ साले हो दू थपरा !’’
पर बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे अपने खेल में लगे रहते हैं ऐसे ही.
41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
पिन - 491001
मोबाइल – 9827993920
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06/01/2023
नेताम आर सी
बहुत ही सुन्दर और आनंदित करने वाला लेख है।लेख को पढ़ते हुए हमारे आंखों के सामने चल चित्र चल पड़ते हैं।गजब का लेखन है।मजा आ गया।
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