पिछले डेढ़ सालों से चल रहा आदिवासियों का सिलगेर आंदोलन

सुशांत कुमार

 

 करीब डेढ़ सालों से बीजापुर जिले के सिलगेर में चल रहा आंदोलन अब तक समाप्त नहीं हो पाया है। न्याय की मांग को लेकर हजारों ग्रामीण अभी भी अपने आंदोलन में डटे हुए हैं और अब इनकी लड़ाई शहर की सड़कों में भी देखने को मिल रही है, हालांकि सरकार आदिवासियों को मनाने का भरसक प्रयास कर रही है, लेकिन उनकी मांगों को अब तक अमल नहीं करने से आदिवासियों की नाराजगी लगातार बनी हुई है। वहीं सिलगेर आंदोलन प्रदेश के सबसे लंबे दिनों तक चलने वाला आदिवासी किसान आंदोलन बनकर सामने आया है। 

दरअसल 11 मई 2021 को बीजापुर जिले के सिलगेर गांव में स्थापित हुए नए पुलिस कैंप के विरोध में आसपास के सैकड़ों ग्रामीणों ने आंदोलन की शुरूआत की थी। आंदोलन के पांचवें दिन ग्रामीणों और पुलिस के बीच झड़प भी हुई जिसके बाद पुलिस के जवानों ने ग्रामीणों पर फायरिंग कर दी जिसमें 5 ग्रामीणों की मौत हो गई थी। मरने वालों में एक गर्भवती महिला भी शामिल थी। 

 इस घटना के बाद से ग्रामीणों का आंदोलन और उग्र हो गया और आसपास के 60 से अधिक गांवों के हजारों आदिवासी सिलगेर में जुटने लगे।  इस आंदोलन को अब डेढ़ साल बीत गए है, आंदोलनकर्ता अपनी 3 सूत्रीय मांगों को लेकर अड़े हुए हैं और लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, हालांकि इस मामले की जांच के लिए कांग्रेस कमेटी ने एक जांच टीम भी बनाई थी और इस पूरे मामले की जांच कर रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी थी। 

बीजापुर जिला के कलेक्टर राजेन्द्र कटारा ने हमसे बात की। उन्होंने कहा कि सिलगेर में रोड का मामला शासन तय करेगा। वहां रोड बना गया, राशन पहुंच गया, लाइट पहुंच गया है। बीजापुर से सिलगेर तक बस चल रही है। पुलिसिंग मैटर है कि जगरगुंडा से आगे हम बढ़ रहे हैं। तो यहां से भी बढ़ेगे। मुआवजा शासन की पॉलिसी के अनुसार देंगे। सारकेगुड़ा, एडसमेटा में 20 - 20 लाख दिये हैं तो उस पर 20 लाख देंगे। सिलगेर तो मालूम नहीं सारकेगुड़ा और एडसमेटा पर रिपोर्ट रख दिया गया है। कैम्प अभी नम्मी में लगा है सबकुछ सेटल हो रहा है रास्ता बन रहा है, डेवलेपमेंट चल रहा है, सुविधाएं दे रहे हैं। किसी के पास यदि आईडी है तो चेक कर जाने दे रहे हैं। चेक पोस्ट बैठा है बल लगा है, जवानों का जान दांव पर लगा है, जो भी आ रहे हैं तो यह जानना जरूरी है कि कौन व्यक्ति आ-जा रहे हैं। उसकी जानकारी रखनी जरूरी है। चोरी छुपे जाते तो दिक्कत है। जैसे नंदिनी सुंदर आई तो बाइक में बैठकर चोरी छिपे चले गई थी। बाहर से आते हैं तो नक्सलियों से बात करने आते हैं वह गलत है। पूछताछ होती है। 

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के प्रमुख जनकलाल ठाकुर ने बताया कि सरकार की करनी और कथनी में अंतर है। सड़क को लेकर हटाने - विस्थापित करने का काम गलत है। जहां एम्बुलेंस की जरूरत है वहां नहीं आ पा रहा है। आप सड़क हवाई पट्टी की तरह बड़ा बना रहे, हो कुछ रहा है और कह कुछ रहे हैं। आदिवासी बेल्ट में फोर्स को बढ़ाए रखना चाहती है सरकार। आदिवासी क्षेत्रों में कई सुरक्षा बलों की टुकड़ियां बढ़ाकर संसाधन को खाली करने का साजिश हो रही है। कोई भी चुपचाप नहीं जाता। सभा में सभी होते हैं, पुलिस सीआईडी, गांववाले सभी होते हैं। सरकार की नियत ठीक नहीं है। नियम, कानून व्यवस्था के अनुसार आप आदिवासियों को पूछे बिना उनके क्षेत्रों में कैसे घूस सकते हैं जबकि वह 5वीं अनुसूची क्षेत्र है। वहां पेसा कानून और नियम लागू होता है। 

मूलवासी बचाओ मंच के जिला प्रभारी कोवासी दुलाराम 10वीं तक की पढ़ाई किया है। उनका कहना है कि फर्जी ग्रामसभा लगाकर कैम्प बनाने की तैयारी चल रही है। इससे व्यापक रूप में खेत जोतने वाले और धान का उत्पान करने वालों को परेशानी हो रही है। कैम्प के सिपाही कभी भी पूछताछ करने लग जाते हैं और बेवजह आदिवासियों को प्रताड़ित करते हैं। 

जांच में पाये गये कथन

कोर्सा बुरराम जो सिलगेर के वार्ड पंच और पटेल हैं ने बताया कि कैम्प आने से लाठीचार्ज हुई और चार लोग खत्म हो गये हैं। यदि सरकार जुल्म करेगी तो लोगों को सोचने की जरूरत पड़ेगी। कैम्प का ही परिणाम है कि सारकेगुड़ा घटना के बाद पुलिस 24 आदिवासियों को पकड़ कर ले गई। कैम्प के कारण हमारी निजता का हनन हो रहा है और आदिवासियों को खुले घूमने से तकलीफ हो रही है और उनसे बार - बार पूछताछ हो रही है। 

आंदोलनकारी जोगा का कहना है कि खेत में जाने से पूछताछ करते हैं। जंगल या कैम्प के किनारे तक में जाने नहीं देते हैं। यहां तक कि तेंदूपत्ता तोड़ने पर भी पूछताछ होती है। आधारकार्ड, आईकार्ड के बावजूद पूछताछ करते हैं। कई  के पास परिचय पत्र नहीं हैं तो क्या उन्हें परेशान किया जाएगा? सलवा जुडूम के समय कई लोग तंग आकर आंध्र प्रदेश चले गये हैं। जोगा बताते हैं कि इस आंदोलन में 36 पंचायत के लोग आते हैं। 

तेलम रामदास जो मंडी मरका गांव, गुणापल्ली पंचायत के निवासी हैं। वह इस आंदोलन में 2 किलोमीटर पैदल चलकर आता जाता है। वह पांचवी तक पढ़ा लिखा है। पैसों की अभाव से पढ़ाई नहीं कर सका है। उनका कहना है कि बस्तर में आदिवासियों का नरसंहार बंद करने, आदिवासियों की हत्याएं बंद करने, एड्समेटा, सारकेगुड़ा, गोमपाड़, सिंगारम नरसंहारों पर न्यायिक जांच करने, दोषियों पर कार्यवाही, मृतक परिवार को एक - एक करोड़ व घायल परिजनों को 50-50 लाख मुआवजा देने की मांग पर सरकार विचार करें और हमारे साथ न्याय करें। उन्होंने बताया कि इससे पूर्व बीजापुर कलेक्टर और उसके बाद मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था लेकिन आवश्वासन पूरा नहीं हुआ। मांग नहीं मानने की स्थिति में जिस तरह आंदोलन चल रहा है यह जारी रहेगा। 

गोटपल्ली के मिडनाम सुक्का का कहना है कि वह आठवीं तक की पढ़ाई कर पाये हैं। धान कटाई के कारण लोग आंदोलन स्थल में कम नजर आ रहे हैं। उनका कहना है कि जब तक मांग नहीं मानी जाएगी आंदोलन जारी रखेंगे।

सिलगेर गांव में कुछ लोगों के पास राशन कार्ड है। शिक्षादूत के माध्यम से 5वीं तक की पढ़ाई आसपास के ग्रामों में होती है। सिलगेर में 4 हैंडपंप है। दो तालाब भी हैं। एक ही व्यक्ति पटवारी और कोतवाल का काम करते हैं। यह वनग्राम के अंतर्गत आता है। आंगनबाड़ी से बच्चों को दवाई की सुविधा है। चना, गुड़, नमक, इत्यादि राशन कार्ड से मिलता है। इस गांव का नियंत्रण कलेक्टर और एसपी सुकमा से बैठकर करते हैं। गामीणों से चंदा कर चावल दाल की व्यवस्था इस आंदोलन के लिये करते हैं। बिते बरसी के कार्यक्रम में 25 हजार लोग इकट्ठे हुवे थे। कैंप गांव में है लेकिन अस्पताल के लिये आवापल्ली या फिर बीजापुर जाना पड़ता है। गांव में आवागमन के लिये 3 ट्रेक्टर हैं जिसपर लाद कर बासागुड़ा मंडी धान विक्रय करने जाते हैं। 

कोवासी दुलाराम इस आंदोलन के जिला प्रभारी हैं। वह दसवीं तक पढ़ाई किया है। उसने बताया कि फर्जी ग्रामसभा लगाकर कैम्प लगाया जा रहा है। वे कहते हैं कि सुरक्षा बल खेत जोतने वाले और धान काटने वालों को परेशान ना करें। उन्होंने बताया कि 36 पंचायत से 5 - 5 लोगों की ड्यूटी हर दिन इस आंदोलन को निरंतर जारी रखने के लिये लगाया जा रहा है। 

सोढ़ी भीमा 15 किलोमीटर दूर जोबाकट्टा से चलकर इस आंदोलन में आते हैं। वह कहते हैं कि जब तक समाधान नहीं होता लड़ेंगे। घटना दोपहर 12 - 1 बजे के बीच की बताई जाती है। मिर्ची फटाका फोड़ने की आवाज हुई। देखते ही देखते आंसू गैस छोड़ दिया गया उसके बाद हवाई फायरिंग की गई। अंधाधुंध फायरिंग नहीं करनी थी। वह कहता है कि अपने अधिकारों के लिये लड़ना भी एक अधिकार है। एक साल छह महीने हो गये हैं 20 लोग घायल हुवे 18 लोगों को गोली लगी। जिनको गोलियां लगी उनके साक्ष्य मौजूद हैं। 

सिलगेर के आसपास का क्षेत्र

सिलगेर व उसके आसपास का क्षेत्र आम, इमली के पेड़ों से भरा हुवा है। वहां से 14 किलोमीटर की दूरी पर जगरगुंडा है। ग्रामीणों ने 1 नवम्बर 2022 को बालीबॉल, कबड्डी, खो-खो  तथा दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन किया था। 60 किलोमीटर दक्षिण में पामेड़ स्थित है। बासागुड़ा से सिलगेर 14 किलोमीटर की दूरी पर है। बासागुड़ा से आवापल्ली 17 किलोमीटर की दूरी पर है। इस क्षेत्र के निवासी तेलुगु, दोरली और गोंड़ी भाषा बोलते हैं। आदिवासी धान, सुसूली, गुट्टो, एल्कावंजी, कोसराय, खट्टाभाजी, बड़ा धान, छोटा धान, तेंदू, चार, आम, इमली, नींबू, संतरा, सीताफल, जाम, ताड़ी और छिंद का उत्पादन वनों में करते हैं। 

मूलवासी बचाओ मंच आज दिनांक तक बीजापुर, सुकमा, दंतेवाडा बस्तर संभाग के कई क्षेत्रों सहित सुकमा जिला के सिलगेर गांव में डेढ़वर्षों के बाद भी बिना रुकावट आंदोलन को जारी रखें हुवे हैं। उनका आरोप है कि आंदोलन की मांगे छत्तीसगढ़ कांग्रेस सरकार पूरी नहीं कर रही हैं। पिछले साल यानी 2021 मई के 12 तारीख रात 9 बजे सिलगेर गांव में ग्राम सभा के अनुमति के बिना सीआरपीएफ कैंप लगाया गया। 13 मई से सिलगेर गांव की ग्रामीणों ने नया स्थापित पुलिस कैंप के सामने शांतिपूर्वक आंदोलन करना शुरू किया। बताया जा रहा है कि 17 मई 2021 में आंदोलन कर रही 35 हजार आदिवासियों के ऊपर पुलिस बलों द्वारा फायरिंग की गई इसमें तीन ग्रामीण सहित एक गर्भवती महिला मारी गई। तब से आदिवासी बस्तर में नरसंहार बंद करने, आदिवासियों की हत्याएं बंद करने, एड्समेटा, सारकेगुड़ा, गोमपाड़, सिंगारम नरसंहारों पर न्यायिक जांच करने, दोषियों पर कार्यवाही, मृतक परिवार को एक एक करोड़ व घायल परिजनों को 50 - 50 लाख मुआवजा देने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं।

आंदोलनकारियों ने बताया कि 16 जून 2021 रायपुर में मुख्यमंत्री से बातचीत हुई। उन्होंने दंडाधिकारी जांच के आधार पर 6 माह के भीतर सिलगेर सहित सभी आंदोलनों की मांगों पर न्याय देने आश्वासन दिये थे। इसके बाद 25 मार्च 2022 रायपुर में फिर एक बार मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी वार्ता के दौरान आश्वासन दिये कि एक महीने के भीतर सारी मांगें मान ली जाएगी लेकिन अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है। आदिवासियों की आंदोलन अनवरत जारी है।

शायद भारत के किसान आंदोलन से भी अधिक समय तक चलने वाली यह आन्दोलन जारी है...

 साथ ही सरकार ने दंडाधिकारी जांच टीम का गठन कर इस मामले की जांच की, लेकिन अब तक इसकी रिपोर्ट का पता नहीं चल सका है। ग्रामीणों की मांग है कि इस घटना में मृत लोगों के परिवारों को 1 - 1 करोड़  रुपए मुआवजा और दोषी पुलिसकर्मियों को सजा देने के साथ घायलों को 50 - 50 लाख रुपये दिए जाए। 

मूलभूत अधिकारों की मांग

इस मामले को लेकर आंदोलनकारियों का राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री से भी बैठकों का दौर चला लेकिन अब तक इस पर कोई फैसला नहीं आया, जिसके चलते ग्रामीणों ने इस आंदोलन को जारी रखा है। वहीं अब इस आंदोलन की चिंगारी बस्तर संभाग के अन्य जिलों में भी फैल गई है और आरक्षण के मुद्दे के साथ ही सिलगेर के आंदोलन के मामले को लेकर भी आदिवासी सरकार को घेरते नजर आ रहे हैं।

आदिवासी भारत महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भोजलाल नेताम ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सरकार से मांग किया है कि बस्तर संभाग के अंतर्गत मूलवासी बचाओ मंच के नेतृत्व में आदिवासियों का आंदोलन विगत डेढ़ साल से जारी है। आजादी के 75 साल बाद भी आदिवासी मूलभूत अधिकारो से वंचित है। शिक्षा, स्वस्थ्य, रोजगार, से कोसो दूर है, निर्दोष आदिवासियों को माओवादी बता कर जेलों में डालना, महिलाओं के साथ बलात्कार, हत्या व प्रताड़ना निरंतर जारी है। 

आदिवासी जल, जंगल को बचाने एवं मूलभूत अधिकारों की मांग को लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं वर्तमान की कांग्रेस सरकार पूर्व की कॉरपोरेट परस्त फासिस्ट बीजेपी सरकार के नक्शे कदम पर  चलते हुए  पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में ग्राम सभा की अनुमति के बिना जबरन अब तक दर्जनों पुलिस कैम्प, सीआरपीएफ कैम्प खोल दिया है, आदिवासियों की हितैषी कहने वाली भूपेश बघेल की कांग्रेस की सरकार ने भी अपनी निरंकुश चेहरा दिखा दिया है, 17 मई को पुलिस ने गोली चलाया जिसमें कुल 4 लोग मारे गए अब तक उसकी जांच तक पूरी नही हुई है, पूर्व में जो फर्जी मुठभेड़ हुई है उसकी जांच रिपोर्ट आ गया है, लेकिन उसका भी खुलासा नहीं किया जा रहा है, निर्दोष आदिवासियों पर तथाकथित माओवाद के नाम पर निर्मम दमन जारी है।
 
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) रेड स्टार के राज्य सचिव कॉमरेड सौरा यादव ने कहा कि आदिवासियों का हितैषी होने का ढोंग करना बंद करे, इन तीन साल में आदिवासियों की मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं किया गया। चिराग परियोजना से आदिवासियों की जिंदगी में उजाला लाएंगे, आदिवासियों ने फासिस्ट भाजपा सरकार के दमननीति से परेशान हो कर कांग्रेस सरकार को सत्ता में लाया है, आपकी सरकार भी आदिवासियों के विश्वास के साथ खिलवाड़ कर रही है,  आजादी के 75 साल बाद भी आदिवासी मूलभूत अधिकारो से वंछित है  शिक्षा, स्वस्थ्य, रोजगार, से कोसो दूर है,निर्दोष आदिवासियों को माओवादी बता कर जेलो में डालना, महिलाओं के साथ बलात्कार, हत्या व प्रताड़ना निरंतर जारी है। 

सौरा का कहना है कि आदिवासी जल, जंगल को बचाने एवं मूलभूत अधिकारों की मांग को लेकर लड़ाई जारी है, वर्तमान की कांग्रेस सरकार पूर्व की कॉरपोरेट परस्त फासिस्ट बीजेपी सरकार के नक्शे कदम पर चलते हुए पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में ग्राम सभा की अनुमति के बिना जबरन अब तक दर्जनों पुलिस कैम्प, सीआरपीएफ कैम्प खोल दिया है, आदिवासियों की हितैषी कहने वाली भूपेश बघेल की कांग्रेस की सरकार ने भी अपनी निरंकुश चेहरा दिखा दिया है, 17 मई को पुलिस गोली चलाया जिसमें कुल 4 लोग मारे गए अब तक उसकी जांच तक पूरी नही हुई है।
 
सौरा का कहना है कि इस सिलसिले में पुलिस द्वारा इनमें से कई लोगों को  गिरफ्तारी कर धमकियाँ दी जा रही है,  आंदोलनकारियों पर फर्ज़ी केस दर्ज  किया जा रहा है, इस तरह बस्तर में आदिवासियों के साथ जो खूनी खेल चल रहा है उसे तत्काल बंद करना चाहिए। और बस्तर के सिलेगार और अन्य जगहों पर चल रहे आंदोलनकारियों के साथ विश्वासघात करना बंद कर तत्काल चर्चा करके उसका समाधान निकाला जाये।

ब्राह्मणवादी साजिश के इर्दगिर्द घूमता सिलगेर आंदोलन

ब्राह्मणवादी साजिश के इर्दगिर्द घूमता सिलगेर आंदोलन  में पीयूसीएल ने  दावा किया है कि वैसे ही दंतेवाड़ा के बैलाडिला पहाड़ियों में मौजूद 130 करोड़ टन लोह अयस्क पर दशकों से कई कंपनियों का नजर रहा है। साल 2006 में यहां से 1 करोड़ टन के खनन का अधिकार सरकारी कंपनी एनएमडीसी को ही दी गई। 2017 में एनएमडीसी ने अपने इन अधिकारों को छत्तीसगढ़ खनन विकास कोरपोरेशन को सौंप दिये। 2018 में इन्होंने खदान का निर्माण करने व चलाने का ठेका अडानी एनटरप्राइजेज को दे दिया। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक पेसा कानून के तहत जुलाई 2014 में 106 लोगों की ग्राम सभा में खनन के लिये प्रस्ताव पारित किया गया।

पीयूसीएल की इस जांच में भी गांव वालों ने बताया की उन्हें कैंप नहीं चाहिए। बच्चे-बूढ़े, युवक, महिला - पुरुष सब की मांग एक थी- हमें बस्तर में और कैंप नहीं चाहिए। जब कैंप हटाने की मांग के पीछे कारण पूछा गया तो मूलवासी बचाओ मंच के एक युवक ने कहा -जब भी हम खेत में जाते हैं, या जंगल में गाय चराने जाते हैं या जंगल में जब भी वनोपज संग्रह के लिए जाते हैं तो कैंप वाले हमको रोक कर पूछताछ करते हैं- कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? कहां से आये हो? हम अपने ही जमीन पर घूमने के लिये किसी और से अनुमति क्यों लें? क्या हम किसी और के जमीन पर जाकर उनको ऐसे टोकते हैं? मंच के एक और युवा सदस्य ने कहा- सरकार कहती है यह सड़क हमारे लिये बन रही है। हमको इतने बड़े सड़क की क्या जरूरत है? हमारे पास बड़े गाड़ी नहीं है।

हम पैदल चल के अपना काम कर लेते हैं। सरकार को हमारी इतनी परवाह है तो क्यों न वो हमारी माँग सुनकर गाँव-गाँव में छोटे छोटे सड़क बना लें? हम इनसे बारिश में कम से कम स्कूल, अस्पताल, राशन तक भी पहुँच पाएँगे। एक ग्रामीण ने कहा- फोर्सवाले हमेशा हमसे बतमीजी से बात करते हैं। मारने व मार डालने की धमकी देते हैं। एक और ग्रामीण ने कहा यही फोर्सवाले हम जैसे अदिवासियों पर फर्जी केस बनाकर गिरफ्तार करते हैं, फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर देते हैं, मार-पीट करते हैं भूमि मालिक (जिनकी निजी जमीन पर सिलगेर कैंप को बिना अनुमति गैर कानूनी रूप में बनाया जा रहा है) ने कहा कि वे दादा के जमाने से भूमि पर खेती करके गुजर बसर कर रही है। अन्य ग्रामीण ने बताया कि जिस जमीन पर कैंप बनाया वहां से वो तेन्दुपत्ता, महुआ, आम पेड़ का इस्तेमाल करते थे।

इस कौंधते हुए सवाल में कि कैंप का विरोध आखिर क्यों? का जवाब शायद इन्हीं के प्रत्युत्तर में ही मिलता है। उन्होंने इस सवाल के जवाब के रूप में उलटा यह पूछा कि कोई अन्य पक्ष भूमि मालिक की इजाजत के बगैर कैसे उसकी जमीन पर घर डाल सकता है?

इन प्रतिक्रियाओं से पता चलता है कि शायद बात केवल जल, जंगल जमीन का नहीं है या फिर सरकार ने किन कंपनियों से कितने करार किये। बात यह है कि बस्तर के आदिवासियों से केवल उनकी जमीन ही नहीं बल्कि उनकी अस्मिता भी छीनी जा रही हैं।

यह हर जगह कई तरीकों में नजर आता है फोर्सवालों के तानों व व्यवहार से लेकर लोगों के विरोध के तरीकों व निरंतरता में शायद नीलावाया में इस बात में भी यह नजर आता है कि जिनको पुलिस ने मारकर संतोष मरकाम नामक 5 लाख इनामी नक्सली घोषित कर दिया, वो असल में हड़मा मरकाम नाम का एक कृषक था जब वो कुछ ही महिनों के लिये स्कूल में भरती हुआ था, तब स्कूल में उसका नाम संतोष रखा गया, जिससे वहां के गैर - आदिवासी टीचरों को नाम कहने में आसानी हो। हड़मा ने कभी स्कूल पूरा नहीं किया और उनका संतोष के नाम से कोई दस्तावेज कभी नहीं बना।

आश्रम शालाओं में आदिवासी बच्चों को शिक्षित व सभ्य बनाने के नाम पर, उनको अलग नाम देकर अपने पहचान को मिटाया जाता है। कनाडा जैसे देशों में ऐसे ही आदिवासी सभ्यताओं को खत्म किया गया है। शायद इसीलिये सभी ग्रामीण एकमत थे कि उन्हें अपने गांव में ही स्कूल व स्वास्थ सेवाएं चाहिये कैंप व बड़े सड़क नहीं। पूंजी के खिलाफ व जल जंगल जमीन बचाने की लड़ाई तो है ही मगर साथ में बड़े सड़क व सुरक्षा कैंप के खिलाफ आंदोलन अपने अस्तित्व व अस्मिता, अपने जीवन जीने के तरीके, अपने गरिमा को बचाने का भी लडाई है; संसाधनों पर कब्जा के साथ-साथ संस्कृति पर कब्जा के खिलाफ की लड़ाई है।

पीयूसीएल ने अपने रिपोर्ट में लिखा है कि बस्तर में सैन्यीकरण का स्वरूप गैर कानूनी प्रणालियां व असंवैधानिक पुलिस व सुरक्षाबल दलों का गठन - फर्जी मुठभेड़ बस्तर में राज्य द्वारा माओवाद से निपटने के नाम पर की जा रही विभिन्न गैर कानूनी कार्यप्रणाली में से एक है। इस प्रक्रिया में पुलिस के पास एकाधिकार होता है कि वह यह पहचान करे की कौन सा ग्रामीण गतिविधियों में संलिप्त है। यह पहचान करने के बाद उसकी हत्या कर दी जाती है और इस हत्या को सुरक्षा बल व पुलिस और नक्सली में आपसी मुठभेड़ में हुई मौत की तरह प्रस्तुत किया जाता है। इससे पुलिस किसी भी दंडात्मक कार्रवाई से मुक्त हो जाती है। कई बार तो मृतक के परिजनों को मुठभेड़ के बाद पुलिस के ऐलान के बाद पता चलता है कि उनके परिजन 1 लाख या 5 लाख के इनामी नक्सल थे क्योंकि यह घोषणा पुलिस द्वारा मुठभेड़ के बाद की जाती है जैसा कि हड़मा उर्फ संतोष मरकाम के हत्या के संदर्भ में हुआ।

पुलिस और सुरक्षा बलों को लाश गिराने के लिए नकद ईनाम या पद्दोनत्ति देने की नीति के कारण निर्दोष आदिवासियों के मारे जाने में इजाफा होता है। हिंसा को इस प्रकार प्रोत्साहित करने के बारे में व्यापक रूप से लिखा गया है और उसकी भर्त्सना भी की गई है न सिर्फ छत्तीसगढ़ में बल्कि कश्मीर में भी।

सुप्रीम कोर्ट के 16 सूत्रीय दिशा निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने फेक एनकाउंटर्स को राज्य प्रायोजित आतंकवाद या स्टेट स्पॉन्सर्ड टेररिज्म करार देते हुए कड़ी निंदा की है और ऐसा होने की स्थिति में 16 सूत्रीय दिशा निर्देश बनाये। हमारी जानकारी में किसी भी फर्जी एनकाउंटर की घटना उठाये जाने के मुद्दे में इन दिशा निदेर्शों का कभी पालन नहीं हुआ है। फेक एनकाउंटर की कार्य प्रणाली पर अन्य राज्य सरकारों द्वारा किसी भी तरह के विद्रोह को कुचलने के नाम पर यह रणनीति अपनाई गयी है। आत्मसमर्पण नीति के नाम पर सरकार ने दावा किया की नक्सलियों द्वारा आत्मसमर्पण किया जा रहा है। यह भी फर्जी मुठभेड़ की तरह माओवाद से निपटने के नाम पर की जा रही विभिन्न गैर कानूनी कार्यप्रणाली में से एक है।

लोन वराटु यानि कि घर वापसी योजना के नाम पर इनाम व सुविधाएं घोषित करके लोगों को आत्मसमर्पण करने के लिए प्रोत्साहन व धमकियां दी जा रही है। जबकि कई ग्रामीण व मानावाधिकार कार्यकतार्ओं ने इन आत्मसमर्पण को झूठा बताया और बोला की गांव वालों को ही आत्म सम्पर्पित नक्सली बनाकर पेश किया जा रहा है। इसी योजना के तहत दंतेवाड़ा की युवती कवासी पाण्डे का फर्जी आत्मसमर्पण करवाया गया। जब वो पुलिस कस्टडी में थी उन्होंने आत्महत्या कर ली। उनके शव को देखकर उनके मां ने बताया कि शरीर के हालत से पता चल रहा था कि पाण्डे के साथ यौन हिंसा भी की गई।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सलवा जुडूम अभियान में आदिवासियों के हाथ में बन्दूक देने की रणनीती को असंवैधानिक ठहराने के बावजूद इसी रणनीति का उपयोग बस्तर में केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा आज भी किया जा रहा है डीआरजीएफ व बस्तरीया बटालियन जैसे पुलिस व सुरक्षाबल के दलों का गठन करके डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड फोर्स (डीआरजीएफ) बस्तर पुलिस का एक इकाई है, को बस्तर पुलिस ने अपने स्थानीय रूप से गठित करके विशेष रूप से प्रशिक्षित किया। 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने जब सलवा जुडूम को भंग करने का आदेश दिया था तो अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि स्थानीय नौजवानों को माओवादी विरोधी अभियानों में इस्तेमाल न किया जाए।

फैसले के 20 वें अनुच्छेद में कहा गया है कि नक्सलवादियों के खिलाफ आदिवासी युवकों का इस्तेमाल आत्महत्या के बीज बोने जैसा है जो समाज में फूट डालेगा और उसे नष्ट कर देगा। इसी फैसले के अनुच्छेद 17 - 18 में कहा गया है, हाल का इतिहास निजी सशस्त्र गिरोहों से जनित खतरों से भरा पड़ा है, जो सरकार के संरक्षण में या समर्थन से काम करते हैं। ऐसी पथभ्रष्ट नीतियां जिनकी कुछ नीतिनिर्धारक दमदार तरीके से पैरवी कर हैं, हर हाल में हमारे संविधान की दृष्टि और मान्यताओं के खिलाफ हैं। फैसला यह भी कहता है कि नौजवानों की इस अमानवीयता का उपयोग माओवाद के खिलाफ कर जंग में उन्हें झोंक देना गंभीर संवैधानिक चिंता खड़ी करता है और वही सबसे कड़ी संवैधानिक निंदा के योग्य है।

डीआरजी बनाम सलवा जुडूम

डीआरजी का गठन ठीक वैसा कदम है जिसके विषय में सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 के फैसले में चेतावनी दी थी। फोर्स पूरी तरह से स्थानीय आदिवासी नौजवानों से बनी है जिनमें से कई लोग सलवा जुडूम के पूर्व सदस्य से भी हैं, और कई लोग आत्मसमर्पित नक्सली। डीआरजीएफ की विशेषता को लेकर बस्तर के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक कल्लूरी (जिन पर लेधा बाई नामक एक आदिवासी औरत ने बलात्कार का आरोप लगाया था जब वे सरगुजा के पुलिस अधीक्षक थे।) ने खुद अपने बयान में यह बताया कि इसके सदस्यों में शामिल हैं निचले स्तर के पूर्व नक्सली कार्यकर्ता, पूर्व में माओवादियों के साथ सहानुभूति रखने वाले, सलवा जुडूम में विस्थापित हुए गांववाले, जिन्हें प्रेम से माटी के लाल कहा जाता है जो अपनी जमीन विद्रोहियों से वापस हासिल करने के लिए अति उत्साहित हैं।

राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे फैसले के बावजूद आदिवासी नौजवानों को जवाबी कार्यवाही में इस्तेमाल करके इस फैसले की अवमानना कर रही है। नीलावया गांव में फर्जी मुठभेड़ के दोनों मामले में ग्रामीणों की हत्या डीआरजी द्वारा की गयी थी।

2018 में सीआरपीएफ ने भी बस्तर के लिये एक विशेष बल का गठन किया बस्तरीया बटालियन, जो बीजापुर-दंतेवाड़ा, सुकमा व नारायणपुर के आदिवासी युवाओं से गठित की गयी है।

इस तरह से आदिवासियों का विभाजन करना और एक को दूसरे के विरोध में खड़ा करना आदिवासी अस्तित्व पर हमला है। एक ओर बढ़ते सैन्यिकरण से पुलिस व सुरक्षाबलों का बस्तर के जनता पर निरंतर प्रताड़ना रोजमर्रा के जीवन में रोक-टोक व ताना-बाना से लेकर बलात्कार व हत्या तक करने से आदिवासी अस्मिता पर हमला की जा रही है। उनके जीवनशैली, जीवन जीने के तरीके व संस्कृति को कुचला जा रहा है जिससे आदिवासी समाज में कई दरार खड़े हो जाती हैं।

दूसरी ओर आदिवासी युवकों को फर्जी रूप से आत्मसमर्पण करवा के, (पुलिस में बहुत ही कम वेतन पर) भरती करके, हाथ में बन्दूक देकर अपने ही लोगों को मारने के लिये मजबूर व प्रोत्साहित किया जा रहा है। आदिवासी समाज में इन गहरे दरारों का पूरा फायदा पुलिस प्रशासन, राजनैतिक दल व गैर-आदिवासी सामाज उठाता है। सरकार व प्रशासन अपने विकास व तथाकथित मुख्यधारा के सांस्कृतिक दबदबा को फैलाता है, जबकि स्थानीय आदिवासी नेतृत्व, स्वीकार्यता, कार्यप्रणाली और बुनियादी दृष्टिकोण में जमीनी टकराव जिन जिनको भी आंदोलन के दौरान सिलगेर जाने का मौका मिला है, सब एक बात से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए हैं आंदोलन के युवा नेतृत्व से उनकी निडरता संगठित करने की क्षमता आंदोलन सम्भालने की काबिलियत, राजनैतिक विचार व समझ, संघर्ष की शिद्दत, कड़ी व निरंतर मेहनत के चलते कई लोगों ने उनके बारे में लेख लिखा है व खबर छापी है।

पीयूसीएल के प्रमुख डिग्री प्रसाद चौहान जारी रिपोर्ट का हवाला देते हुवे कहते हैं कि नीलावाया में पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में ग्रामीण हड़मा उर्फ संतोष मरकाम और कोसा मारकम की हुई हत्या का रिपोर्ट दर्ज करना चाहिए। दोषी डीआरजी पुलिस अमित कवासी, नंदु, एवं देवे की गिरफ्तारी करते हुए भारतीय दण्ड विधान की धारा 302 के तहत अपराध पंजिबद्ध कर कानूनी कार्यवाही किया जाना चाहिए।

नीरम में पुलिस द्वारा और फर्जी मुठभेड़ में पाइके वेक्को की हुई बलात्कार व हत्या का रिपोर्ट दर्ज करना चाहिए। दोषी डीआरजी पुलिस जयो इस्ताम व मासे लेकाम की गिरफ़्तारी करते हुए भारतीय दण्ड विधान की धारा 302 के तहत अपराध पंजिबद्ध कर कानूनी कार्यवाही किया जाना चाहिए।

सुकमा के सिलगेर में पुलिस कैंप का विरोध करने आस पास के कई गांवों के आदिवासी पुलिस कैंप की अवैधानिक स्थापना का विरोध करने हजारों की संख्या में जुटे थे जहां इन पर पुलिस द्वारा दिन के उजाले में फायरिंग की गई है। अब स्थानीय पुलिस और प्रशासन इस घटना को सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच मुठभेड़ बता रहा है। जबकि मृतकों और घायल होने वालों में सब निहत्थे आदिवासी ग्रामीण है। राज्य सरकार को इस बर्बर घटना पर तुरंत संज्ञान लेते हुए एक स्वतंत्र और उच्च स्तरीय जांच की घोषणा करनी चाहिए और इस घटना के जिम्मेदार पुलिस और प्रशासन पर तत्काल कार्यवाही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

चौहान आगे कहते हैं कि सुकमा जिले में शांतिपूर्ण विरोध कर रहे आदिवासी ग्रामीणों पर पुलिस द्वारा की गई अंधाधुंध फायरिंग की घटना के संबंध में पीयूसीएल विरुद्ध महाराष्ट्र राज्य के मामले में सन 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय के मुताबिक मुठभेड़ों के मामलों में पीड़ितों की ओर से भी एक काउन्टर एफआईआर पुलिस अर्धसैनिक बलों और दोषियों अधिकारियों के खिलाफ अनिवार्य रूप से दर्ज होनी चाहिए।

सिलगर कैम्प में भू-स्वामियों की निजी पट्टे की भूमि को बिना अधिग्रहण लिया गया है। बिना अधिग्रहण, बगैर सहमति निजी भूमि लेना राज्य द्वारा लूट है। जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्यवाही तथा भूस्वामियों से चर्चा कर विधिनुसार उचित कार्यवाही की जाये।

फर्जी मुठभेड़ में डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड फोर्स (डीआरजीएफ) की विशेष भूमिका सामने आ रही है। उच्चतम न्यायालय ने नंदिनी सुंदर विरुद्ध छत्तीसगढ़ राज्य में स्पेशल पुलिस ओफिसर्ज की नियुक्ति को जिन आधार पर असंवैधानिक करार दिया है वे सभी डीआरजीएफ पर भी लागू होते हैं। राज्य सरकार को डीआरजीएफ व्यवस्था पर रोक लगनी चाहिए।

जांच में पाये गये कथन का हवाला देते हुवे चौहान कहते हैं कि यह तथ्य सामने आ रहा है की डीआरजीएफ या अन्य सशस्त्र बल आम ग्रामीणों का फर्जी एनकाउंटर कर रही है। तथा बाद में उनके ईनामी नक्सली होने की कहानी गढ़ रही है। इस संबंध में सुझाव है की पुलिस प्रशासन ईनामी नक्सलियों की सूची प्रकाशित करे तथा उस सूची में घोषित नक्सलियों का स्पष्ट विवरण हो इस जानकारी के साथ की उसके विरुद्ध कितने एफआईआर दर्ज हैं। 

लोकतांत्रिक रूप से हो रहे आंदोलनों और विरोध को दबाने की कोशिश

पीयूसीएल का मानना है कि इन सभी घटनाओं में लोकतांत्रिक रूप से हो रहे आंदोलनों और विरोध को दबाने की कोशिश है। बस्तर में नक्सली उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों के विरोध को कुचला जा रहा है। पुलिस फायरिंग, फर्जी मुठभेड़, अवैध गिरिफ्तारियों की वारदातों को रोकने राज्य सरकार को पुख्ता कदम उठाने की मांग करता है।

आदिवासी अधिकारों के संघर्ष में स्थानीय नेतृत्व के सामने चुनौती खड़ा करना और लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन को दमन करने सत्ता के चरित्र के अनुरूप सवर्ण प्रतिक्रियावादी दवाब की परिस्थिति सामने आया है। छत्तीसगढ़ में ब्राह्मणवादी नेतृत्व और मूल निवासी समुदायों के बीच संघर्ष भी जोर पकड़ता जा रहा है। इन मुद्दों के प्रति जनसंगठनों को बिना देरी किये छत्तीसगढ़ स्तर पर आपसी बातचीत के जरिये समाधान के रास्ते ढूँढ़ने होंगे?

चौहान कहते हैं कि पूरे बस्तर क्षेत्र में आदिवासियों की हत्या, बलात्कार, फर्जी मुठभेड़ों की मणगढ़ंत कहानियां, आम लोगों को नक्सली करार देते हुए फर्जी आत्मसमर्पण की अनगिनत घटनाओं की एक लंबी सूची है, जिस पर गहन जांच पड़ताल और शोध की बहुत ही आव्यश्यकता है जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर पहल कदमी - एडवोकेसी, कैंपेनिंग, इन्डिपेन्डेन्ट पीपल्ज ट्रिब्युनल तथा राष्ट्रीय स्तर पर फैक्ट फाइंडिंग टीम का बस्तर के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में निहायत जरूरी हैं।

बस्तर में ग्राउंड जीरो से रिपोर्ट भाग-2


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment