शहीद अस्पताल के डॉक्टरों का निलंबन: विद्वेषपूर्ण कार्रवाई, तथ्यात्मक जांच के निष्कर्षों को तवज्जों दें
द कोरस टीमराज्य की मेडिकल काउंसिल द्वारा शहीद अस्पताल के दो डॉक्टरों शैबाल जाना व दीपांकर सिंह गुप्ता को 3 माह के लिये निलंबन कर दिया गया है। जिसके विरोध में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ, शहीद हॉस्पिटल के समस्त स्टाफ एवं छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के सैकड़ों कार्यकर्ता मौन जुलूस निकालकर अपना विरोध प्रदर्शन किया। मौन रैली छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के कार्यालय से निकलकर पुराना बाजार शहीद, वीर नारायण सिंह चौक होते हुए मुख्य मार्ग गुप्ता चौक ,नया बाजार ,नियोगी (फव्वारा ) चौक, श्रम वीर थाना चौक होते हुए एसडीएम कार्यालय पहुंचे। जहां मौन रैली सभा के रूप में तब्दील हो गया। जिसमें पूर्व विधायक जनक लाल ठाकुर ने राज्य सरकार को जमकर कोसा और और कहा डॉक्टरों का निलंबन कांग्रेस राजनीति से प्रेरित है।

डॉक्टर जाना ने अपने उद्बोधन में कहा कि अस्पताल में लोगों की मृत्यु होती है। कोई भी डॉक्टर मरीज को आखरी साँस तक बचाने की कोशिश करता है। छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के अध्यक्ष सोमनाथ और छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के पूर्व अध्यक्ष गणेश राम चौधरी ने भी संबोधित किया। जिसके बाद अनुविभागीय अधिकारी डौंडीलोहारा दल्ली राजहरा को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री छत्तीसगढ़ शासन रायपुर के नाम शहीद हॉस्पिटल के दोनों डॉक्टर का निलंबन वापस लेने ज्ञापन सौंपा।
मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम के तहत दल्ली राजहरा के खदान मजदूरों द्वारा निर्मित शहीद अस्पताल विगत 40 वर्षों से संचालित है। जहां इस आदिवासी अंचल के करीब 100 किलोमीटर से भी अधिक के दायरे से मरीज अपना इलाज कराने आते हैं। सस्ता सुलभ एवं उचित इलाज होने के साथ-साथ मुनाफे पर आधारित नहीं होने के कारण यह अस्पताल आम जनता को प्रेरित करती है। इसी बीच राज्य की मेडिकल काउंसिल द्वारा शहीद अस्पताल के 2 डॉक्टर डॉक्टर शैवाल जाना व दीपांकन सेनगुप्ता को 11 अक्टूबर 2022 से 10 जनवरी 2023 (3माह ) तक के लिए उनको निलंबित कर दिया गया है।
मेडिकल काउंसिल के इस बर्ताव से हमें बहुत आश्चर्य हुआ कि जिस सरकार को शहीद अस्पताल के कार्यो के कारण उन्हें पारितोषिक देना चाहिए, उन्हें कार्य करने से रोका जा रहा है। शहीद अस्पताल बालोद जिला में इलाज एवं मरीजों की संख्या के आधार पर सबसे बड़ा अस्पताल है इसलिए जिला अस्पताल से भी रेफरल मामले शहीद अस्पताल में आते हैं। स्वाभाविक है जिला अस्पताल में मरीजों की हालत व उपकरण व मेनपावर की कमी के मामले भी हो सकते हैं। परंतु शहीद अस्पताल में जितनी शुरुआती व्यवस्थाएं हैं, उसमें गरीब परिवारों का इलाज संभव हो पाता है। विशेष क्रिटिकल मामले में यहां से भी मरीज को बाहर रिफर किया जाता है।
शहीद अस्पताल में सरकारी योजनाएं जैसे प्रसव, टीकाकरण, मलेरिया, आई.सी.टी.सी. , टीबी कैंसर के साथ-साथ कोरोना काल में अहम भूमिका निभाई है। ऐसी परिस्थिति में शहीद अस्पताल के दो डॉक्टरों पर बेवजह एवं तर्कहिन विचारों से लैस छत्तीसगढ़ सरकार की मेडिकल काउंसिल द्वारा प्रतिबंध लगाना वर्ग विभाजित समाज की व्यवस्था लगती है।
ज्ञापन में टी .एस .सिंहदेव स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री छत्तीसगढ़ शासन रायपुर से अनुरोध किया है कि छत्तीसगढ़ मेडिकल काउंसिल द्वारा शहीद अस्पताल के दो डॉक्टरों पर बेवजह एवं तर्कहीन लिए गए निर्णय को तत्काल वापस लिया जाए।
मेडिकल कौंसिल ने किस आधार पर माना दोषी?
कौंसिल ने डॉ. सेनगुप्ता दिपांकर के मामले में कहा है कि उनके पास एम.बी. बी. एस की उपाधि है परंतु डॉ. सेनगुप्ता दिपांकर के अतिरिक्त अर्हता निश्चेतना का पंजीयन छत्तीसगढ़ मेडिकल कौंसिल में 16 जून 2022 तक पंजीकृत नहीं होने एवं उस विधा में चिकित्सकीय कार्य करने का दोषी पाया गया। सदस्यों द्वारा एकमत से निर्णय लिया गया कि Indian Medical Council, (Professional Conduct, Etiquete & Ethics ) Regulations 2002 के रेग्युलेशन क्रमांक 8.1 व 8.2 धारा के उल्लंघन का दोषी मानते हुए समिति द्वारा तीन माह अर्थात 11 अक्टूबर 2022 से 10 जनवरी 2023 तक पंजीयन क्रमांक सीजीएमसी 8087/2018 दिनांक 24 मई 2018 को निलंबित किया जाता है एवं डॉ. सेनगुप्ता दिपांकर, को आदेशित किया गया है कि आदेश प्राप्ति के तीन दिनों के भीतर मेडिकल कौंसिल के द्वारा जारी मूल पंजीयन प्रमाण पत्र (सीजीएमसी 8087/2018 दिनांक 24 मई 2018) को परिषद् के कार्यालय में तत्काल अनिवार्य रूप से जमा करें।
उसी प्रकार कौंसिल ने डॉ० शैबालकुमार जाना के मामले में कहा है कि उनके पास एम. बी. बी. एस की उपाधि ही है परंतु जाना के पास अतिरिक्त अर्हता नहीं होने एवं उस विधा में चिकित्सा व्यवसाय करने का दोषी पाया गया। सदस्यों द्वारा एकमत से निर्णय लिया गया कि Indian Medical Council, (Professional Conduct, Etiquete & Ethics) Regulations 2002 के रेग्युलेशन क्रमांक 8.1 व 8.2 धारा के उल्लंघन का दोषी मानते हुए समिति द्वारा तीन माह अर्थात 11 अक्टूबर 2022 से 10 जनवरी 2023 तक पंजीयन क्रमांक सीजीएमसी 4308/2012 दिनांक 30 जून 2012 को निलंबित किया जाता है एवं डॉ. शैबालकुमार जाना को आदेशित किया गया है कि आदेश प्राप्ति के तीन दिनों के भीतर मेडिकल कौंसिल के द्वारा जारी मूल पंजीयन प्रमाण पत्र (सीजीएमसी 4308/2012 दिनांक 30 जून 2012 ) को परिषद् के कार्यालय में तत्काल अनिवार्य रूप से जमा करें।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के भीमराव बागड़े ने कहा कि संस्थापक कामरेड शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में दल्लीराजहरा में शहीद अस्पताल का निर्माण 40 वर्ष पूर्व किया गया था, जिसमें मजदूरों के अलावा आसपास के गरीब आदिवासियों का सस्ते में इलाज किया जा रहा है। उक्त अस्पताल के प्रमुख डॉ. शैवाल जाना तथा डॉ. दीपांकर सिंह गुप्ता को 3 महीने के लिये निलंबित किया गया जो किन्ही अन्य कारणों से किया गया है। उक्त निलंबन को निरस्त किया जावे। यह कि, उक्त अस्पताल के प्रमुख डॉक्टरों के निलंबन के कारण आसपास के ग्रामीणों के इलाज में कठिनाई हो रही है। जनहित को ध्यान में रखते हुए किया गया निलंबन निरस्त किया जावे। अतः विनम्र निवेदन है कि निलंबन निरस्त किये जाने हेतु उचित कार्यवाही की जावे।
प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज ने इस मामले में कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार और छत्तीसगढ़ मेडिकल काउंसिल की इस कार्रवाई से मैं हतप्रभ और आहत हूं। शहीद अस्पताल एवं डाक्टर शैबाल जाना पिछले 40 वर्षो से अनवरत दूरस्थ इलाके के मजदूरों, किसानों, आदिवासियों की निस्वार्थ भावना से सेवा करते आ रहे हैं। कितने ही बार Gastroenteritis की महामारियों में स्वयं सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने शहीद अस्पताल से मदद की गुहार की है।
जिन गरीब लाचार मरीजों को दूसरे अस्पतालों ने अपना लाभ या अपनी इमेज बचाने के लिए जगह नहीं दी, उन सबका आखिरी सहारा शहीद अस्पताल ही होता था। कितने ही नीम हकीमों के बिगड़े केसों को इन्होंने सुधारा है। जनता में पिटोसिन टीके को लेकर, ORS के महत्व को लेकर, जच्चा को जचकी के बाद खाना खिलाने की आवश्यकता को लेकर अभियान चलाये। कांकेर के दूरस्थ गांवों के ग्रामीणों तक उन्होंने विश्वास जीत लिया। उन्होंने आशा जताया है कि वर्तमान सरकार विद्वेषपूर्ण कार्रवाई नहीं कर, किये जा चुके तथ्यात्मक जांच के निष्कर्षो को तवज्जो दे। जल्द से जल्द सस्पेंशन वापस लिया जाये और डाक्टर जाना को ससम्मान उनकी सेवा जारी करने का अवसर दिया जाये।
वह आगे कहती है कि मेरा यह कथन मात्र कामरेड शहीद शंकर गुहा नियोगी के आन्दोलन में डाक्टर जाना की साथी के ही रूप में नहीं है, बल्कि एक पूर्व मरीज के रूप में भी है जिसकी जान डाक्टर जाना और शहीद अस्पताल ने बचाई। 1993 के बाद का मेरा जीवन उन्हीं की देन है।
शहीद अस्पताल की कहानी
शहीद अस्पताल कैसे बना इसकी कहानी जानने के लिए हमें मजदूर आंदोलन पर नजर डालनी होगी। यहां जो लौह खनिज की खदानें हैं उनमें मजदूरों के दो संगठन थे- इंटक और एटक। यह 1977 के पहले की बात है। ये दोनों संगठन मजदूरों से चंदा तो लेते थे लेकिन उनकी मांगों के प्रति ईमानदार नहीं थे। मजदूरों को एक ईमानदार नेता की तलाश थी।
जब मजदूरों को दानीटोना माईन्स में काम करने वाले शंकर गुहा नियोगी के बारे में पता चला तो वे नियोगी जी के पास गए। नियोगी जी उसी समय जेल से छूटे थे। उन्हें आपातकाल के दौरान जेल में बंद कर दिया गया था। नियोगी जी ने मजदूरों की बात ध्यान से सुनी। और दल्ली राजहरा के मजदूरों के नेतृत्व के लिए तैयार हो गए। इस तरह शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में नया संगठन छत्तीसगढ़ माईन्स श्रमिक संघ अस्तित्व में आया।
उचित मजदूरी और मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए आंदोलन किया। आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस गोलीचालन हुआ जिसमें 11 लोग मारे गए। नियोगी जी की गिरफ्तारी हुई। लेकिन मजदूरों की एकता के आगे प्रबंधन को झुकना पड़ा और मजदूरों की मांगें मानी गईं।
नियोगी जी ने मजदूरों के सामने यह जोर देकर कहा कि “यह यूनियन सिर्फ आठ घंटो के लिए नहीं, वरन चौबीस घंटों के लिए है।” यानी यह सिर्फ आर्थिक मांगों को लेकर ही नहीं लड़ेगा, बल्कि जीवन बेहतर बनाने सभी पहलुओं पर काम करेगा। यह सोच परंपरागत ट्रेड यूनियन की सोच से अलग थी।
मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और जीती। मजदूरी बढ़ी तो मजदूरों में शराब की लत बढ़ गई। शराब ठेकेदारों की चांदी हो गई। वे मालामाल होने लगे। तब यूनियन में सोचा गया कि क्या हमने मजदूरी इसलिए बढ़वाई ताकि शराब ठेकेदारों की कमाई हो। लिहाजा, शराब के खिलाफ अभियान छेड़ा गया। इससे ट्रेड यूनियन की लड़ाई सामाजिक आंदोलन में बदल गई। यह अच्छी सेहत की लड़ाई भी थी। इसमें कुछ मजदूरों पर शराब माफिया द्वारा हमले भी किए गए। दुर्ग से दल्ली राजहरा के रास्ते में भैंसबोड़ का मोड़ मुझे अब भी याद है जहां शराब विरोधी आंदोलन में अगुआ कार्यकर्ता को दुर्घटना का शिकार बनाया गया था। लेकिन इस सबके बावजूद लड़ाई जारी रही।
शंकर गुहा नियोगी ने अपने कुशल नेतृत्व से बहुत ही कम समय में बहुत बड़ी सफलताएं हासिल की थीं। उन्होंने अपने संगठन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के लिए संघर्ष और निर्माण का रास्ता अपनाया था। वे मानते थे कि संघर्ष के साथ निर्माण भी होना चाहिए। एक तरफ सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष तो दूसरी तरफ बेहतर समाज को बनाने के लिए रचनात्मक काम।
संघर्ष के साथ रचना का काम एक दूसरे की मदद करता है। रचनात्मक कामों में अस्पताल बनाने, स्कूल खोलने और मजदूर बच्चों को कौशल शिक्षा के लिए गैराज खोलने जैसे काम किए गए। किसानों में और समाज के व्यापक तबके में काम करने के लिए छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा बनाया, महिलाओं में काम करने के लिए अलग से महिला मुक्ति मोर्चा बनाया।
जन स्वास्थ्य के लिए जोर-शोर से काम शुरू किया गया। स्वास्थ्य के लिए संघर्ष करो और मेहनतकशों के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम नारे के तहत स्वास्थ्य कार्यक्रम संचालित किया गया।
इस बीच एक हादसे ने अस्पताल बनाने के विचार को जन्म दिया। और वह हादसा था छत्तीसगढ़ माईन्स श्रमिक संघ की उपाध्यक्ष कुसुमबाई की असमायिक मौत। उन्हें गर्भावस्था के दौरान दिक्कत होने के कारण भिलाई इस्पात संयंत्र के अस्पताल में भर्ती कराया गया था। लेकिन वहां उनका ठीक ढंग से इलाज नहीं हुआ और उनकी मौत हो गई थी। इससे मजदूरों को गहरा दुख हुआ और चिंता भी। वे सोचने लगे क्या हम अपने मजदूरों को नहीं बचा सकते। क्या हम उनकी देखरेख नहीं कर सकते। इसी से अस्पताल के विचार की नींव पड़ी।
पहले छोटी सी डिस्पेंसरी शुरू की गई और बाद में अस्पताल बनाने का निर्णय हुआ। अस्पताल का सारा काम मजदूरों ने किया। उन्होंने चंदा एकत्र किया, श्रमदान किया और अस्पताल बनाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। एक ही दिन में दस हजार मजदूरों ने मिलकर छत डाल दी। जब अस्पताल बनकर तैयार हुआ तो मजदूरों ने स्वास्थ्य कार्यकर्ता का प्रशिक्षण लिया। यहां के डाक्टरों ने ही उन्हें प्रशिक्षित किया। वे दिन में माईन्स में जाकर लोहा खोदते थे। वहां से लौटने के बाद शहीद अस्पताल में 6-6 घंटे काम करते थे। रात्रिकालीन सेवा देते और वह भी अवैतनिक।
अस्पताल का उद्घाटऩ 3 जून 1983 को कोकान माईन्स के मजदूर लाहर सिंह और आडेझर गांव के हलालखोर ने किया था, नियोगी ने इस मौके पर कहा था कि “यह संगठित मजदूरों का असंगठित मजदूरों को तोहफा है।” इस अस्पताल का नाम 1977 में पुलिस गोलीचालन में मारे गए मजदूरों की याद में ‘शहीद अस्पताल’ रखा गया।
वैसे तो हमारे देश में बड़े-बड़े अस्पताल हैं, डाक्टर हैं, पर उनमें गरीब मजदूरों का इलाज नहीं होता। वे उनमें हाथ पसारकर जाते हैं। डाक्टर-नर्सों की दुत्कार सुनते हैं। लुटते हैं। कई बार मर भी जाते हैं। वहां उनकी कोई नहीं सुनता। लेकिन यह अस्पताल मजदूरों का अपना है। उन्होंने खुद इसे बनाया है। संघर्ष का प्रतीक है। आज वे इस पर गर्व करते हैं।
जब कभी संघर्ष जोर पकड़ता है और मजदूरों पर जुल्म होता है तब शहीद अस्पताल की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। चाहे कहीं भी संघर्ष हो, शहीद अस्पताल की टीम संघर्ष में मौजूद रहती है। ऐसे ही 24 साल पुराने मुकदमे में इसी वर्ष 2016 में मार्च महीने में डा. शैबाल जाना की गिरफ्तारी हुई थी जिसका बड़े पैमाने पर पूरे देश में बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विरोध किया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन, भोपाल गैस पीड़ितों के संघर्ष, लातूर के भूकम्प आदि जगह शहीद अस्पताल ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया है।
एक छोटी सी डिस्पेंसरी से शुरू हुई यह कोशिश
आज 135 बिस्तर के अस्पताल में तब्दील हो गई है। तीन मंजिला इमारत बन गई है। शहीद अस्पताल ने कई अत्याधुनिक सुविधाएं भी जुटा ली गई हैं। दवाई, आपरेशन थियेटर, पैथालाजी लैब सभी सुविधाएं हैं। अस्पताल की एम्बुलेंस भी है। यहां रोजाना ओपीडी में 250 मरीज आते हैं। सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर के मरीज कई घंटों की यात्रा कर यहां इलाज कराने आते हैं। राजनांदगांव, रायपुर, बालोद, कांकेर, चारामा, पखांजूर( कांकेर) आदि कई जगह के मरीज आते हैं। अस्पताल में जगह नहीं होने पर नीचे बरामदों में मरीज भरे होते हैं। पैर रखने की भी जगह नहीं होती है। अभी एक अलग से इमारत बन रही है, उसमें प्रसूति विभाग होगा।
वैसे तो शहीद अस्पताल में कई चिकित्सकों ने अपनी सेवाएं दी हैं। कुछ ने आंदोलन से प्रभावित होकर और कई ने नौकरी के बतौर। जिन्होंने जन स्वास्थ्य के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई उनमें डा. विनायक सेन, डा. पवित्र गुहा, डा. पुण्यव्रत गुण प्रमुख हैं। लेकिन डा. शैबाल जाना शहीद अस्पताल के पर्याय बन गए हैं। वे कोलकाता से अपनी पढ़ाई खत्म कर यहां आ गए थे। 34-35 साल से वे इस अस्पताल की रीढ़ बने हुए हैं। इस अस्पताल को बनाने से लेकर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण आदि से करीब से जुड़े रहे हैं।
अस्पताल खुलने के पहले इलाके में मान्यता थी कि जचकी (प्रसव) के समय महिला को पानी नहीं देना चाहिए। इसी तरह आलसमाता( टाइफाइड) में खाना पीना बंद कर देना चाहिए। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने बस्ती-बस्ती जाकर प्रदर्शनी लगाई, सही जानकारी दी, अंधविश्वास और झाड़ा-फूंकी का विरोध किया। टट्टी-उल्टी में पानी की कमी से लोग मर जाते थे, ऐसे कई लोगों की जान बचाई। अब इसमें कमी आई है।
यहां कम पैसे में अच्छे से अच्छा इलाज
यहां कम पैसे में अच्छे से अच्छा इलाज करने की कोशिश होती है। नार्मल डिलीवरी एक से डेढ़ हजार में हो जाती है। अगर सीजर करना पड़े तो पांच हजार तक खर्च होता है। दूसरी जगह 15 हजार से ज्यादा खर्च होता है। अस्पताल की एक और खास बात है हम मरीज से एक कप चाय भी नहीं पीते। डिस्चार्ज करते समय एक पैसा भी नहीं लेते। हम सिर्फ यहां पैसे के लिए काम नहीं करते, सेवा भावना से काम करते हैं। यहां सभी को समान रूप से एक ही नजर से देखा जाता है। मरीजों में कोई भेदभाव नहीं होता। और यही सिद्धांत अस्पताल पर भी लागू होता है। सफाईकर्मी से लेकर डाक्टरों तक सबको एक ही अधिकार प्राप्त हैं। एक ही रूतबा है।”
अस्पताल नो प्राफिट नो लास
यहां पर्ची बनाने का 10 रू, बिस्तर चार्ज 5 रू. है। सेवा शुल्क के रूप में 25 रू लिए जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से गरीबी रेखा के नीचे आने वाले मरीजों के इलाज के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना चल रही है। इसके अंतर्गत शहीद अस्पताल में इलाज किया जाता है, जिससे आर्थिक स्थिति पहले से अच्छी हुई है। इस योजना के तहत निर्धारित खर्च के अंदर ही इलाज हो जाता है। यहां का पूरा स्टाफ 98 का है जिसमें 7 डाक्टर, 35 नर्स, 17 सफाईकर्मी, 6 स्वास्थ्यकर्मी और अन्य कर्मचारी हैं।
डा. जाना कहते हैं कि अनावश्यक दवाओं से परहेज। यहां पिरामिडनुमा ढांचा नहीं है, जहां एक दूसरे के मातहत होता है। जैसा कि आम अस्पतालों में होता है। यहां बराबरी और सम्मान के साथ काम करने को तरजीह दी जाती है। अस्पताल किसी तरह की फंडिंग बाहर से नहीं लेता। विदेशी धन कई बार ठुकरा चुका है। दान राशि भी स्वीकार नहीं करता। अगर कोई अस्पताल को कोई चीज भेंट में देना चाहे तो दे सकता है।
शहीद अस्पताल ने अब तक के सफर में कई उपलब्धियां हासिल की हैं। लेकिन उसके सामने कुछ चुनौतियां भी हैं। शहीद अस्पताल का सच्चे हितैषी नियोगी अब नहीं हैं। 28 सितंबर 1991 को भिलाई आंदोलन के दौरान शंकर गुहा नियोगी की हत्य़ा कर दी गई। इस आंदोलन के तहत उद्योगों में कार्यरत मजदूरों को जीने लायक वेतन और कुछ बुनियादी सुविधाओं की मांग की जा रही थी। लेकिन उद्योगपतियों ने उनकी मांगें मानने की बजाय उनके लोकप्रिय नेता नियोगी की ही हत्या करवा दी। नियोगी जी के जाने के बाद मजदूरों का संघर्ष भी कमजोर हो गया है, टुकड़ों में बंट गया है। हालांकि अच्छी खबर है कि अब फिर सबको एक करने की कोशिशें हो रही हैं। अस्पताल का एक स्वतंत्र ट्रस्ट भी बन गया है। अस्पताल आगे बढ़ता भी दिख रहा है। मजदूरों के आंदोलन के संघर्ष के बिना यह अधूरा सा है जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी नई पीढ़ी पर है।
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04/11/2022
कैलाश बनवासी
शहीद अस्पताल के सेवाभावी चिकित्सकों,स्टाफ को सलाम! यह संभवतः पूरे देश में श्रमिकों के श्रम से बना एकमात्र अस्पताल है। इसलिए ऐसे संस्थानों के प्रति विशेष सम्मान अपने आप जाग जाता है।यह बहुत लंबी लड़ाई का सुखद प्रतिफल है। मेडिकल काउंसिल को सहानुभूतिपूर्ण नजरिए से काम लेना चाहिए।
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