ए पार बांग्ला ओ पार बांग्ला: 'सोनार बांग्लादेश'

दीपक पाचपोर की बांग्लादेश यात्रा

दीपक पाचपोर

 

इस आंदोलन के फलस्वरुप बांग्ला भाषियों को उनका भाषाई अधिकार मिला। 1955 में पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया। पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की उपेक्षा और दमन की शुरुआत यहीं से हो गई। और तनाव स्त्तर का दशक आते आते अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। पाकिस्तानी शासक याहया खाँ द्वारा लोकप्रिय अवामी लीग और उनके नेताओं को प्रताड़ित किया जाने लगा, जिसके फलस्वरुप बंगबंधु शेख मुजीवु्ररहमान की अगुआई में बांग्लादेशा का स्वाधीनता आंदोलन शुरु हुआ। बांग्लादेश में खून की नदियाँ बही, लाखों बंगाली मारे गये तथा 1971 के खूनी संघर्ष में दस लाख से ज्यादा बांग्लादेशी शरणार्थी को पड़ोसी देश भारत में शरण लेनी पड़ी।

भारत इस समस्या से जूझने में उस समय काफी परेशानियों का सामना कर रहा था और भारत को बांग्लादेशियों के अनुरोध पर इस सम्स्या में हस्तक्षेप करना पड़ा जिसके फलस्वरुप 1971 का भारत पाकिस्तान युद्ध शुरु हुआ। बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी सेना का गठन हुआ जिसके ज्यादातर सदस्य बांग्लादेश का बौद्धिक वर्ग और छात्र समुदाय था, इन्होंने भारतीय सेना की मदद गुप्तचर सूचनायें देकर तथा गुरिल्ला युद्ध पद्धति से की। पाकिस्तानी सेना ने अंतत: 16 दिसम्बर 1971 को भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, लगभग 93000 युद्ध बंदी बनाये गये जिन्हें भारत में विभिन्न कैम्पों में रखा गया ताकि वे बांग्लादेशी क्रोध के शिकार न बनें। बांग्लादेश एक आज़ाद मुल्क बना और मुजीबुर्र रहमान इसके प्रथम राष्ट्रपति बने। आज कैसा है बांग्लादेश इसे जानने के लिऐ छत्तीसगढ़, भारत से जाने माने पत्रकार और लेखक दीपक पाचपोार जो वर्तमान में बांग्लादेश की यात्रा पर हैं वे लगातार बांग्लादेश की कोने कोने से अपनी रिपोर्ट को लेखबद्ध कर रहे हैं। उनके नजररिये सें बांग्लादेश को जानने पहचानने की जहमत उठाइये-संपादक
 

ए पार बांग्ला ओ पार बांग्ला - 1

एलटीटी से चली ट्रेन क्रमांक 12101 ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की B-4 बोगी में बैठकर (मैंने बिलासपुर से पकड़ी है) मैं अपनी वर्षों पुरानी एक हसरत पूरी करने जा रहा हूं। अपने पड़ोसी मुल्क और एक इतिहास, एक संस्कृति, एक विरासत को साझा करते समाज को नजदीक से देखने और एक औपनिवेशिक निर्णय के कारण अलग हुए वहां के लोगों से मिलने की इच्छा हमेशा से रही है, कि बांग्लादेश को देखूं।

वर्षों पहले शंकर के उपन्यास 'ए पार बांग्ला ओ पार बांग्ला' से और बांग्लादेश के निर्माण के समय होने वाली पत्रकारों-लेखकों की रिपोर्टिंग पढ़ने के बाद से ही भारत से करीब 22 फीसदी छोटे इस देश का भ्रमण करने की तमन्ना रही है। फिर, ठीक युवावस्था में जनक्रांति से तानाशाही को नेस्तनाबूद होते देखने और आजादी की मतवाली जनता के हाथों अपने लिए एक स्वाधीन व सम्प्रभु राष्ट्र को बनते हुए देखने ने भी ऐसा महत्वपूर्ण अनुभव दिया जो लोकतंत्र के प्रति अनुराग व सम्मान का सबक दे गया।

यह यात्रा सम्भव हो सकी है मेरे मित्र सुमन साहा के कारण जिनकी पत्नी सुजाता मेरे साथ एक समाचारपत्र में सहयोगी रही थी। सुमन जब 5 साल के थे, तभी बांग्लादेश से अपने अभिभावकों के साथ भारत (रायपुर) आ गये थे। वे खुद 36 साल के बाद वहां जा रहे हैं। उनका पैतृक आवास (जमालपुर, बारिसाल सम्भाग) और मामा का घर ढाका में है। यह यात्रा 3-4 वर्षों से तय की जा रही थी। सुमन अपनी मां को बांग्लादेश ले जाकर उनकी जमीन, घर व माटी दिखाना चाहते थे पर कोरोना के कारण उनका निधन होने से वैसा हो न सका।

यह ट्रेन कल तड़के शालीमार (कोलकाता का एक स्टेशन) पहुंचेंगी। वहां उतरकर हम बनगांव जाएंगे। यहां भारत व बांग्लादेश की सीमा है। वहां औपचारिकताएं पूरी कर ढाका तक की यात्रा बस से होगी। टिकट जाने का ही है, अभी आने का नहीं कराया है। बांग्ला उपन्यासों, कहानियों, कविताओं और सिनेमा ने जो सोनार बांग्ला साहित्य व संस्कृति के हर प्रेमी के मन में बसाया हुआ है, देखना यह है कि आज का बंग समाज उससे कितना मिलता है! सो, मन भरने पर ही लौटूंगा।

देर से चलती ट्रेन से बढ़ती चिंता को घटाती हरियाली

ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस, जिससे हम (मैं और सुमन साहा) शालीमार और वहां से बांग्लादेश जा रहे हैं, वह हमेशा की तरह विलंबित राग में गीत गाती चल रही है। आज थोड़ी-मोड़ी नहीं बल्कि अब तक पूरे 5 घंटे लेट हो चुकी है। आगे का पता नहीं। वैसे उसे सुबह 3.30 पर पहुंच जाना था पर अभी संतरागाछी आया है। सोचा था कि फ्रेश होकर सियालदह से 7 बजे की ट्रेन पकड़कर बाॅर्डर नौ-साढ़े नौ बजे पहुंच जायेंगे। वहां दो घंटे लग जाते हैं। फिर ढाका जाना है। पता नहीं हमारा क्या होना है!

खड़गपुर से पश्चिम बंगाल का सूरज उगता तो दिखा, पर धुंध में लिपटा हुआ। उसके हल्के प्रकाश में इस पार की बंग भूमि की हरियाली उभरने लगी। केले के पेड़, सिंघाड़ों से भरे पोखर व तालाब, जिन्हें अभी गुजरी बरसात लबालब कर गयी है। पेड़-पौधों से घिरे छोटे-बड़े मकान। दूर तलक खेत, ज्यादातर धान के- कुछ की बालियां सुनहरी हो चली हैं।

दार्जिलिंग में ट्रेकिंग के लिए जाते हुए मई, 2018 में भरी गर्मी में भी जब मैं इस राज्य से गुजरा था, तब भी प. बंगाल प्रदेश हरा-भरा ही दिखा था। वाटर बाॅडीज़ को संरक्षित रखने के व्यक्तिगत प्रयास शायद इसका कारण हो। फिर, बंगालियों के जीवन का ये पोखर अविभाज्य हिस्सा हैं। शायद जमीन के सतत रिचार्ज होते रहने से भी यहां की धरती हरी-भरी है।

जो हो, अभी तो ए पार और ओ पार, दोनों ओर का बहुत कुछ देखना और पाना बकाया है। बस, बाॅर्डर पार कर लें।

लेट ही सही, आखिरकार घर पहुंचे तो सही...

26 अक्टूबर की सुबह जब मैं और मेरे मित्र सुमन साहा 5 घंटे की भारी लेट-लतीफ़ी के साथ चलती ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस से शालीमार स्टेशन पर उतरे तो इस बात की चिंता सता रही थी कि आगे हमें 3.45 (दोपहर) की बस मिल पाती है कि नहीं, जो बनगांव स्थित बॉर्डर के ओ पार वाले बांग्ला से मिलने वाली थी। बनगांव के लिये लोकल ट्रेनें सियालदह से मिलती हैं। आधे घंटे में वहां पहुंचे। बनगांव वहां से 90 किलोमीटर दूर स्थित है। इसके लिये सोचा था कि अगर ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस निर्धारित समय पर सुबह 3.30 बजे पहुंचा देगी तो हम स्टेशन पर नहा-धोकर व नाश्ता-पानी करके तरोजाता होकर निकलते लेकिन देरी ने सारा गुड़-गोबर कर दिया।

वैसे अनिश्चितताएं और तकलीफें ही किसी यात्रा का आनंद बढ़ाती हैं वरना वह ऑर्गेनाइज्ड टूर प्रोग्राम हो जाता है। अब न तो ताजगी भरा एहसास पाने का टाइम था और न ही पेट भरने का। सियालदह स्टेशन पर एक-एक सेंडविच खाकर व चाय पीकर लोकल ट्रेन पकड़ी जिसने ढाई घंटे में बनगांव पहुंचाया।

रास्ते में अनेक छोटे-बड़े स्टेशन देखने को मिले। इन स्टेशनों की विशेषता है प्लेटफॉर्मों पर लगने वाले पूरे के पूरे बाजार। मुंबई के अपने जीवन के 13 साल लोकल ट्रेनों से की गयी यात्राओं की याद दिलाने वाली दो-सवा दो घंटे के इस सफर में दोनों ओर हरियाली, घरों के आसपास व गलियों-सड़कों पर पेड़-पौधे, लबालब पोखर व तालाब का परिदृश्य बड़ा ही नयनाभिराम लगता है। बनगांव पहुंचते ही एक ऑटो पकड़ा और तेजी से भागे बॉर्डर की ओर। आधा घंटा वहां पहुंचने में लग ही जाता है। उतरते ही मनी एक्सचेंजर वाले एजेंट पीछे दौड़ पड़ते हैं। डर यह रहता है कि कहीं फर्जी आदमी से पाला पड़ गया तो फंस न जायें। खैर, भारतीय रुपयों को बांग्लादेशी टका में परिवर्तित कर बीएसएफ के हवाले हो लिये।

वहां ए पार और ओ पार के आने-जाने वालों की लम्बी दिन भर कतारें रहती हैं। हालांकि इन दिनों अपेक्षाकृत कम भीड़ चल रही है। पासपोर्ट व कोविड'9 के टीके लगे सर्टिफेकट दिखलाकर खुद को सही विजिटर साबित कराया। पूछताछ हुई कि क्यों जा रहे हैं, आदि। जब बताया कि ‘टूरिज्म के लिये’, तो इमीग्रेशन ऑफिसर हंस पड़ा। उसने कहा कि “वहां पर्यटन के लिये क्या रखा है? आप ज़रूर बिज़नेस के लिये जा रहे हैं!” मैंने बताया कि “इसके लिये मैं नितांत अयोग्य हूं सर, और वाकई घूमने–फिरने जा रहा हूं।” 

बहरहाल, उसने मेरे पासपोर्ट पर स्वीकृति का सरकारी ठप्पा मारा और आगे बढ़ने के लिये कहा। सामान की स्केनिंग भी हो गयी पर सुमन को साथ में लाई गईं बस्तर आर्ट की कलाकृतियों के बारे में सफाई देनी पड़ी जो हम गिफ्ट के रूप में लेकर आए थे। वहीं से जब हम बांग्लादेश की सीमा में दाखिल हुए तो सुमन को उस पते को लेकर भी थोड़ी परेशानी हुई जिस पर हम ठहरे हैं, यानी मामा का घर व फोन क्रमांक।

खैर, वहां एक गलियारा पार करने के बाद हम उस जमीन पर थे जिसने भाषा के आधार पर होने वाले भेदभाव व राज्य समर्थित उत्पीड़न के खिलाफ तानाशाही को लोक क्रांति के माध्यम से समाप्त किया और एक नया राष्ट्र बनाया- वह भी मिल-जुलकर। सब भाषा-भाषियों व मजहब वालों ने। इस देश के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान का एक खूबसूरत म्युराल और हरे बैकग्राउंड में लाल गोले वाला बांग्लादेश का झंडा आपका स्वागत करता है जो समृद्धि और क्रांति का द्योतक है। गोल तश्तरी उगते सूर्य का और लाल रंग आजादी के लिये लोगों द्वारा बहाये गये अपने खून का प्रतीक है। 

हमारी धुकधुकी बढ़ती जा रही थी क्योंकि समय होता जा रहा था। ढाका के लिये बस की हमारी ऑनलाइन बुकिंग हुई रखी थी। भारत-बांग्लादेश का चेक प्वाईंट बेनापोले और पेत्रापोले के बीच है। जब हम वहां पहुंचे तो बताया गया कि शोहाग ऑपरेटर द्वारा ढाका के लिये संचालित बस तो 3.45 को निकल गयी है। हमने घड़ी देखी तो लगभग 3.30 ही हुए थे। हमें संचालक से लड़ने का मौका ही नहीं मिला क्योंकि बताया गया; और अचानक हमें भी ख्याल आया कि हम भारतीय समयानुसार ही मानसिक रूप से संचालित हो रहे हैं जबकि हम बारत के मुकाबले आधा घंटा पहले सरकती सुइयों के टाइम जोन में प्रविष्ट हो चुके थे। 4 बज चुके थे इसलिये गाड़ी छूट जानी लाजिमी थी। तो भी बुकिंग क्लर्क ने दिलासा दिया कि बस अभी दूर नहीं गयी है और एक प्वाईंट पर अन्य सवारियों को लेने के लिये खड़ी है।

एक आटो वाले को उसने बुलाकर हमें छोड़ने के लिये कहा और फोन कर बस ड्राइवर को बताया कि दो सवारियां आ रही हैं। 10 मिनट, 1 किलोमीटर तथा 50 टका के भुगतान के अंतराल पर हमारी बस खड़ी थी- शोहाग ऑपरेटर्स की वोल्वो बस। भूख, थकान व उमस उत्पादित आधे-अधूरे पसीने से हम दोनों ही परेशान थे। मैं पास ही फ्रेश हुआ और सुमन सामने के रेस्टारेंट से 6 पराठे ले आये जिनमें आटा कम और मैदा भरपूर था। भूख लोहा-लक्कड़ तक हजम कर देती है, यह तो कम्बख्त मैदा ही था। करेले-आलू की सब्जी भी पराठों का साथ देने के लिये चली आई थी जो यहां की बड़ी कॉमन डिश है। राहत मिली। एयर कंडिशंड बस ने उस राहत को और बढ़ाया। 

शाम हो चली थी। जब तक नज़ारे दिखते रहे, ग्रामीण व अर्ध शहरी बंग भूमि को भर-भर नज़रों से देखते रहे और जब अंधेरा हो गया तो थकी पलकों ने जवाब देना शुरू कर दिया। 5 घंटे बाद ढाका के आस-पास पहुंचने पर शानदार हाईवे और कई-कई स्तरों वाले फ्लाई ओवर दिखाई देने लगे। बाहर तो खुलापन था, सूनी सड़कें थीं परन्तु ढाका में घुसते ही भीड़ दिखलाई पड़ी। वैसे यहां बसों की हालत बहुत अच्छी रहती है। बसें ही नहीं, लगभग सभी प्रकार के वाहनों की- ऑटो हों या टैक्सियां या बसें। खटारा गाड़ियां चलाना शायद मना है या लोगों को पसन्द नहीं। रिक्शे भी साफ-सुथरे और ठेला कहे जाने वाले सवारी वाहन भी। इस पर खुले में लोग बैठकर आते-जाते हैं। 

हमारे मोबाईल फोन देश की सीमा लांघते ही शांत पड़ गये थे और सुमन के मामा तपन कुमार साहा, मामी शांता और उनके बच्चों की चिंता बढ़ चली थी क्योंकि हमारा उनसे सम्पर्क ही नहीं हो पा रहा था। कंडक्टर के फोन से बात की गयी और उन्होंने बताया कि हमें आखिरी प्वाईंट पर ही उतरना है। माली बाग कहलाने वाले इलाके में बसें जहां रूकती हैं, ठीक उस सड़क के सामने ओबोशेशे नामक इमारत के 7वें फ्लोर पर साहा परिवार रहता है। बड़ी व छोटी बेटियां क्रमशः सृष्टि (इवेंट मैनेजर) व शोरव (छात्रा व घूमने-फिरने की शौकीन) रात 11 बजे हमारे इंतज़ार में खड़ी थीं। 10 मिनट के भीतर हम घर में थे जहां सुमन का गर्मजोशी से स्वागत हुआ (ऑफ कोर्स, मेरा भी)।

इन दोनों खुशमिजाज बहनों का उतना ही हंसमुख भाई शुभोजित है जो एसएससी की पढ़ाई कर रहा है। बाहरी दुनिया के बारे में बेहद जागरूक, फुटबॉल का शौकीन। मामा-मामी शांत और मिलनसार। एक आदर्श बंगाली मेजबान के परिवार में माछ-भात और तरह-तरह के आईटम हमारा इंतजार कर रहे थे। धर्मप्राण मामी दिन भर घर व बच्चों की सार-सम्भार में लगी रहती हैं। बहुत प्रेमपूर्वक व आग्रह के साथ खाने-खिलाने तथा गप्पें मारते हुए कब रात के डेढ़ बज गये पता ही नहीं चला।

मुझ जैसे रात को 10 बजे सो जाने वाले व्यक्ति के लिये यह भी एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। दिन भर की थकान के बाद भी परिवार के बीच बितायी वह शानदार शाम रही। कहीं से भी लगा ही नहीं कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूं, बावजूद इसके कि किसी भी बंगाली मेजबान को निराश करने के लिये मेरा शाकाहारी होना ही पर्याप्त है। अब भी इसी परिवार के साथ रूका हूं। 

मुजीबुर्रहमान संग्रहालय में मोबाइल-कैमरे न ले जाने और शहीद स्मारक में सफाई के अभाव का मलाल

इसके पहले कि अपनी यात्रा की बातों को आगे बढ़ाऊं, बतला दूं कि मन एक मामले को लेकर बहुत संतुष्ट है तो दूसरी बात को लेकर बड़ा ही असंतुष्ट। संतोष यह कि जो सोचकर अपने बिछड़े सहोदर देश को देखने-समझने आया था, वह मेरी कल्पनाओं व अवधारणा के काफी करीब है। नजदीक इस करके कि लगता था कि वर्षों पहले अलग होनेके बाद भी बांग्लादेश व पाकिस्तान भारत से बहुत अलग नहीं होंगे। कम से कम यहां तो ऐसा ही दिखा क्योंकि लोगों की जीवन शैली भारतीयों की सी है।

अगर एक सामान्य भारतीय व एक बांग्लादेशी को साथ बिठा दिया जाये तो कोई नहीं बता सकता कि ये लोग 2 अलग देशों के बाशिन्दे हैं; और असंतुष्ट इसलिये कि घूम तो बहुत रहा था, लेकिन लॉजिस्टिक कारणों से लिख नहीं पा रहा था। ढाका से करीब 40 किलोमीटर दूर एक गांव में रह रहा हूं जो गाजीपुर जिले में पड़ता है (इसके बारे में आगे की किसी कड़ी में बतलाऊंगा)। आज (30 अक्टूबर) खूब सुबह लिखने बैठा हूं क्योंकि दो घंटे के बाद जमालपुर के निकल जाना है। वैसे भी मेरा मानना है कि यायावरी का अर्थ ही है दूसरों के वनाये नियमों का पालन कीजिये पर अपने नियम को बेशक तोड़ते जाईये। ऐसा इसलिये कि अगर आप जहां जाते हैं और वहां के बनाये नियमों व कानूनों का पालन करते हैं तो आपको दिक्कत नहीं होगी। दूसरी तरफ, अगर अपने बनाये नियमों की अनुपालना में ही लगे रहेंगे तो नयी राह नहीं बना पायेंगे।

जो हो, शुरु करूंगा 27 तारीख से जिस दिन मैं ढाका स्थित शेख मुजीबुर्रहमान संग्रहालय और उसके दूसरे दिन 71 में शहीद हुए लोगों की स्मृति में बने शहीद स्मारक को देखने गया।  धानमंडी में स्थित है यह संग्रहालय बनाम मुजीबुर्रहमान का आवास। यह होगा कभी धान की आढ़त या खरीद बिक्री का केन्द्र लेकिन लोगों की स्मृति में उसकी शिनाख्त अब शेख मुजीबुर्रहमान की यादों के लिये संग्रहालय में परिवर्तित कर दिये गये निजी निवास स्थान के रूप में ही है। ‘32, धानमंडी’ को देखने-जानने-समझने का अर्थ है 1947 के बाद की ओ पार की बंग भूमि को एक आजाद व सम्प्रभु राष्ट्र बांग्लादेश में तब्दील होने की प्रक्रिया से गुजरना तथा बहुत से सबक लेना।

शेख साहब थे तो पास के एक गांव यह तुंगीपाड़ा (गोपालगंज जिला) के लेकिन ढाका आने के बाद जब वे अविभाजित भारत की आजादी की लड़ाई में उतरे तो जल्दी ही बड़ा नाम बन गये। गांधी जी के सम्पर्क में भी आये। 

पाकिस्तान का हिस्सा बनने के बाद बांग्लादेश (पहले ईस्ट पाकिस्तान) में भाषायी आधार पर भेदभाव होने लगे। 25 फरवरी, 1948 को धीरेन्द्र नाथ दत्त ने बांग्लादेश की अधिकृत भाषा बांग्ला करने सम्बन्धी प्रस्ताव रखा। इसके बाद से ही बांग्लादेश में आंदोलनों का सिलसिला आरम्भ हुआ। ढाका विश्वविद्यालय के छात्र इस क्रांति में के साथ हो लिये। देश का शेख मुजीब ने नेतृत्व किया, लम्बा कारावास काटा, बीमार पड़े, जेल से रिहा हुए, पीएम बने और आखिरकार गांधी की ही तरह नफरती विचारधारा के हाथों मारे गये।

हमेशा उनका साथ देने वाली उनकी पत्नी फजीलातुन्निसा, बेटों, बहुओं को भी नहीं छोड़ा गया। यह सारा कुछ इस 4 मंजिला संग्रहालय में दर्ज व संकलित है। हाल ही में जब शेख हसीना ने राहुल गांधी से मुलाकात की थी, तब बहुत से लोग अचंभित हुए थे। उन्हें इसका जवाब यहां मिल जायेगा। एक चित्र में इंदिरा गांधी तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेजनेव के साथ बांग्लादेश के लिये न केवल समर्थन जुटा रही हैं वरन उसे एक आजाद मुल्क के रूप में मान्यता भी दे रही हैं। अनेक वैश्विक नेताओं के साथ मुजीबुर्रहमान की तस्वीरें भी हैं। लुंगी बनियान के साथ मुंह में सिगार डाला यह महान व्यक्तित्व आज भी सभी को आकर्षित करता है। 

राजनीति में उतरे तो उन्होंने बांग्लावासियों का प्रारब्ध बदलकर रख दिया। दुनिया भर के सत्ताधीशों की अकड़ को जनसाधारण के भरोसे किसी सांप के फन की तरह किस तरह कुचलकर रख दिया जाता है यह दुनिया को दिखलाया व सम्मानपूर्वक जीने का सलीका बतलाया। अथक संघर्ष उनके नसीब में आया, उतनी ही बड़ी कामयाबी भी उनके पल्ले पड़ी परन्तु उन सबसे ज्यादा दुर्भाग्यजनक मौत भी उनके हिस्से में आई।

राजनैतिक उपेक्षा, वैचारिक व भाषायी दमन, आजादी की अदम्य इच्छा और स्वाधीनता पाने के लक्ष्य पाने के लिये सब कुछ कुर्बान कर देने का जज्बा उन्होंने देश के सारे वर्गों के अंदर ऐसा जागृत किया कि पूरा देश अपनी भाषायी अस्मिता को बचाने के लिये तानाशाही सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया और जिन्होंने स्वतंत्रता पाने के बाद ही दम लिया।

यहां के शहरों या कस्बों में घूमते-फिरते आज भी ऐसे लोग मिल जाते हैं जिन्होंने पाकिस्तानी सेना व पुलिस की प्रताड़ना प्रत्यक्ष देखी या झेली अथवा मुक्ति बाहिनी के साथ होकर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था। अपने धानमंडी निवास स्थान में रहकर मुजीबुर्रहमान ने देश का वैसा ही नेतृत्व किया जैसा कि वर्धा या साबरमती आश्रम में रहते हुए या मणि भवन में रहकर महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ तूफान खड़ा किया था।

प्रधानमंत्री रहते हुए भी वे इसी आवास में रहना पसंद करते थे। 15 अगस्त, 1975 को कुछ लोगों ने इस घर पर हमला कर दिया। उनके साथ परिवार के अनेक लोगों को भून दिया। हर कमरे को तहस-नहस कर दिया। यह घर अब बंगबन्धु मुजीबुर्रहमान संग्रहालय कहलाता है। उनके जीवन से जुड़ी हर छोटी बड़ी घटना के दस्तावेज इसमें प्रदर्शित किये गये हैं। विभिन्न वस्तुओं पर खून के दाग और दीवारों पर गोलियों के निशान को संरक्षित कर रखा गया है।

उनके बचपन से लेकर मृत्यु तक के अनेक फोटो, दस्तावेज, उनके द्वारा उपयोग की गयी वस्तुएं, पत्र आदि इस संग्रहालय के हिस्से हैं। पहले से सोचा ही था कि जब भी इस देश में आने का मौका मिलेगा तो सबसे पहले यहीं आऊंगा क्योंकि 1971 में जिन दो बड़ी घटनाओं ने हर भारतीय युवा को रोमांचित किया था, उनमें से वेस्ट इंडीज़ पर भारतीय क्रिकेट टीम की जीत (विदेशी धरती पर टीम इंडिया की पहली जीत) और बांग्लादेश के जनसामान्य की सैन्य तानाशाह को हराने की कथा थी। वैसे ही, जैसे वियतनामी लोगों का अमेरिकी फौजों को परास्त करना। खिलंदड़ों को पहली घटना और जनवाद में भरोसा रखने वालों के लिये दूसरी गाथा, यानी बांग्लादेश के निर्माण की परिघटना थी।

यह देखकर डर यह लगता है कि इस देश की नयी पीढ़ी शेख मुजीब के बलिदान को हल्के में लेकर अंततः उसे विस्मृत न कर दे। जैसा कि अपने देश में हो रहा है। हालांकि जब तक वह पीढ़ी है जिसने सब कुछ अपने सामने होता देखा है, तब तक तो आशा है कि ऐसा नहीं होगा, लेकिन कुछ अर्सा बीत जाने के बाद भावी पीढ़ी के लोग यह न कहने लगें कि “आखिर उन्होंने किया ही क्या है?” यह भयानक बात होगी क्योंकि बांग्लादेश की आजादी केवल एक देश की नहीं वरन समग्र लोकतंत्र की वैश्विक विरासत है जो सभी के लिये और सभी के द्वारा जतन से रखने योग्य है।

क्यों न हो, आखिरकार इस देश की आजादी की लड़ाई उतनी ही गौरवशाली है जितनी भारत की। 

यह भी बताता चलूं कि इसे देखने जब मैं अपने मित्र सुमन साहा व उनकी ममेरी बहन शीरोमी ऊर्फ मिमी पहुंचे तो निराशा व आश्चर्य दोनों ही हुआ क्योंकि अंदर सिर्फ अपने पैसे, पहचान पत्र, पासपोर्ट वगैरह लेकर ही जा सकते हैं। स्टिल या वीडियो कैमरा, मोबाइल आदि सब वर्जित हैं। भाई, आदमी कुछ तो तस्वीरें खींचेगा अपनी याद के लिये। जो हो, हमें बाहर की तस्वीरों से ही सन्तोष करना पड़ा।

केवल अपने जैसे ही नहीं, फिलहाल तो सभी लोग मोबाईल के बिना आधे बेकार हो जाते हैं यानी पंगु होने का एहसास होता है। कुछ लोग तो ऐसी जगहों पर जाने में दिलचस्पी खो देते हैं। बंगबन्धु के परिवार का बनाया ट्रस्ट ही इसे संचालित करता है। मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना इसकी अध्यक्ष हैं। अनुमान तो यही था कि यह स्मारक स्वाभाविक रूप से राष्ट्र की सम्पत्ति होगा और शासकीय प्रयासों से यह चलाया जाता होगा। वैसे प्रवेश शुल्क बहुत कम है। 

यहां और ढाका के शाहबाद क्षेत्र में ही स्थापित ‘शहीद स्मारक’ पर आने वाले लोगों को देखने से यह निराशा होती है कि उन्हें सम्भवतः इन स्थानों के महत्व का अंदाजा ही नहीं है। वह विश्व भर को प्रेरणा देने वाली परिघटना थी और मुजीबुर्रहमान ने उन सभी लोगों के उत्साह को बढ़ाया था जो किसी न किसी रूप में सैनिक शासन, तानाशाही, निरंकुशता से लड़ रहे हैं। धानमंडी का घर उनके आंदोलनकारी रूप के अलावा उनकी अध्ययनशीलता और कला-संस्कृति के प्रति संवेदनशीलता को भी दर्शाता है। घर के सबसे ऊपर के कमरे में रखे सितार और उनके द्वारा गठित नाट्य मंडली उनके कला प्रेमी होने के सबूत हैं।

इन दोनों ही स्थानों पर लोगों का काफी कैजुअल व्यवहार ही होता है। कुछ लोग तो गम्भीरता से इन्हें देखते हैं परन्तु कई लोग शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्तियों व अन्य वस्तुओं को छूते दिखते हैं। शहीद स्मारक की स्थिति तो और भी खराब है। वहां चारों ओर सीढ़ियों पर बैठकर लोग खाते-पीते रहते हैं। खाने के बाद प्लास्टिक का कूड़ा करकट भी वहीं डाल देते हैं।

सफाई भी अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। लोगों को गम्भीर व संवेदनशील होना चाहिये तथा अपनी इन महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक इमारतों में ठीक से व्यवहार करना चाहिये। बंगबन्धु ने कहा है और यहां उन्हें उज्धत भी किया गया है- “Today it is clear that only Democracy will work in future in this country.” लोकतंत्र के प्रति विश्वास की शुरुआत होती है अपनी स्वतंत्रता के संघर्ष और असली नायकों के प्रति सम्मान से। उम्मीद है कि दुनिया भर के लोग लोकतंत्र के प्रति सम्मान और उसमें विश्वास को बनाये रखेंगे। मुजीबुर्रहमान का जीवन लोगों को ऐसा करने की प्रेरणा देता रहेगा। इस घर को देखना मेरे जीवन के सबसे अविस्मरणीय  अनुभवों में से एक है।

5M यानी मुजीबुर्रहमान, मां, माछ, 
मिष्ठान्न और मच्छरों का देश
...

बांग्लादेश में अब तक मैं जहां-जहां गया हूं, यह सारा कुछ बहुतायत में है। हर जगह आपको दिवंगत प्रधानमंत्री बंगबन्धु शेख मुजीबुर्रहमान की तस्वीरें, काली माता और दुर्गा के मंदिर या प्रतिमाएं, खान-पान में दोनों वक्त ही मछलियों से बने नाना प्रकार के व्यंजन, मिष्ठान्नों की लम्बी रेंज और मच्छर सर्वत्र मिलेंगे। वैसे शेख साहब की तस्वीर को छोड़ दिया जाये तो शेष सारे तत्वों से कमती-जास्ती हर भारतीय परिचित है ही। इसलिये उसे यहां आने पर अपने घर में ही होने का सा एहसास होता रहता है। 

शेख मुजीब और उनकी पुत्री व मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना के बिना कोई भी विज्ञापन या प्रचार सामग्री यहां पूरी नहीं होती। सरकारी के साथ ही उनकी पार्टी यानी कि सत्तारुढ़ दल अवामी लीग वैसे ही बैनरों, झंडों से कसकर प्रचार करता है जिस प्रकार से भारत में विभिन्न राजनैतिक दल करते हैं। सरकारी इमारतों पर कार्यालय या विभाग के नामों के अलावा बंगबन्धु की तस्वीरें यहां दिख जायेंगीं। यहां तक कि कई निजी उपक्रमों के उद्घाटन अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों के बैनरों-पोस्टरों पर तक इन दोनों नेताओं के चित्र रहेंगे। मुजीब साहब का देश के निर्माण में इतना बड़ा योगदान है कि यहां के लोग उन्हें हमेशा ध्यान में रखते हैं और उन्हें आदर देते हैं।
मां काली ऑल दी वे...

बंगाली समाज पूरे भारत में फैला है और पिछले कुछ समय से तो हर शहर-कस्बों में भी दुर्गा बैठाई जाने लगी है। लगभग हर शहर में काली बाड़ियां हैं ही, जो काली के माहात्म्य के बारे में गैर बंगालियों को बतला चुकी हैं। वैसे भी बहुदेववादी हिन्दू समाज सारे ही देवी-देवताओं के आगे सिर नवाता है तो भला वह काली मां से कैसे अपिरिचित हो सकता है? पश्चिम बंगाल की ही तरह बांग्लादेश में भी आपको जगह-जगह काली मंदिर दिख जायेंगे। मैं ढाका से करीब 40 किलोमीटर दूर जिस छोटे से गांव आराबंदाखोला में 28 की रात से लेकर 30 अक्टूबर की सुबह तक ठहरा था, वहां की आबादी है तो बामुश्किल ढाई हजार ही, लेकिन वहां भी चार काली मंदिर हैं।

शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो दिन में एक न एक बार काली के दर्शन न करता हो। जमालपुर गया, तो वहां भी काली मंदिर। रास्ते से आते-जाते भी काली माता के दर्शन हो ही जाते हैं। चूंकि अभी-अभी काली पूजा का पर्व निपटा है, इसका असर अब भी दिखता है। 31 तारीख को मैं ढाका से लगभग 75 किलोमीटर दूर एक कस्बे नरसिंधी में आकर जहां ठहरा हूं, वहां भी कई काली मंदिर हैं। एक कलाकार को जब अभी भी काली मूर्ति बनाते हुए देखा तो जिज्ञासा हुई कि अभी तो काली पूजा खत्म हुई है, फिर यह क्यों मां की मूर्ति बना रहा है। मूर्तिकार ने बताया कि यह स्पेशल ऑर्डर की मूर्ति है। संतान या ब्याह की चाहत अथवा कोई मनोकामना करने के लिये विशेष पूजा का भी प्रचलन है। सजावट करने वाले कलाकार भी साल भर व्यस्त रहते हैं।

मिठाइयों का देश

भाषाशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते हमेशा सोचता था कि बांग्ला ज़ुबान इतनी मीठी क्यों होती है, तो उसका जवाब मुझे यहां मिल गया। वैसे तो बंगाली समाज से मैं कोई नितान्त अपरिचित नहीं रहा और कई बंगालियों को अच्छे से जानता हूं, लेकिन घरोबा किसी बंगाली परिवार से कभी नहीं रहा। इसके चलते उनके साथ बहुत समय तो क्या थोड़ा सा भी रहने, खाने-पीने, उठने-बैठने वाले सम्बन्ध कभी नहीं रहे। इसके कारण उनके रहन-सहन, खान-पान की संस्कृति से वैसा प्रत्यक्ष परिचय नहीं हो पाया। बंगाली समाज को हम गैर बंगाली लोगों ने रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, शंकर, ताराशंकर बन्धोपाध्याय आदि का साहित्य पढ़कर और सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक की बांग्ला व गुरुदत्त की फिल्में देखकर ही जाना-देखा है।

इसे अपनी आंखों से देखने व उसका अनुभव पाने का यह नायाब मौका यहीं आकर मिला क्योंकि मैं अपने जिन मित्र सुमन साहा के साथ आया हूं, उन्हीं के साथ उनके रिश्तेदारों के यहां विभिन्न जगहों पर रूक रहा हूं। चूंकि सुमन 36 साल के बाद अपने इन रिश्तेदारों (मामा, मामी, मौसियां, चाचा, चाचियां आदि) से मिल रहे हैं, तो उनकी जमकर खातिरदारी हो रही है। गैर बंगाली होने और वैसे भी अल्पाहारी होने के नाते इतने मिष्ठान्नों को एक साथ व दिन में कई बार-बार उदरस्थ करना मेरे बस का नहीं होता।

एकाध पदार्थ लेकर मैं जब मना कर देता हूं तो उन्हें लगता है कि मुझे यह डिश पसन्द नहीं आयी; फलस्वरूप वे अन्य तरह की कोई वेरायटी मेरे सामने रख देते हैं। बांग्लादेश की मेहमाननवाजी से यह बात जान सका हूं कि यहां मिठाई और माछ को ‘न’ कहना मेजबान को इस ग्लानि से भर देता है कि या तो खाद्य पदार्थ अच्छा नहीं बना है या फिर अतिथि संकोच कर रहा है। मुझ बंगाली न बोल सकने वाले और हिन्दी से अनभिज्ञ मेजबानों के बीच बिगड़ते सम्बन्धों को सामान्य करने के लिये सुमन को अक्सर बीच-बचाव में आना पड़ता है। वे बतलाते हैं कि मैं शाकाहारी हूं और थोड़ा सा आहार ही मेरा दैनिक इनलेट है।

नाश्ते में अक्सर ‘पीठा’ रहता है, जो चावल की रोटी में खोवा व नारियल के साथ शक्कर डालकर बनाया जाता है। इस तरह पीठा भी मीठा बन जाता है। बहुत शानदार आईटम है जो गर्म या ठंडे किसी भी रूप में खाया जाता है, कभी भी खाया जाता है। यह आईटम एकदम घरेलू है- होटलों में नहीं मिलता। बाकी तो जो मिलते हैं, वे सारे के सारे बंगाली महिलाएं घरों में बना लेती हैं। मजेदार बात यह है कि कुछ हाईब्रिड आईटम्स को छोड़ दें तो बाजार के और घर के स्वाद में विशेष अंतर नहीं होता। जैसा रसगुल्ला रेस्त्रांओं, होटलों में मिलेगा, वैसा ही घर पर बनेगा।

मुझे तो लगता है कि अन्य स्थानों पर शायद हलवाइयों के पास जाने की हमारी मजबूरी मुख्यतः मिठाइयों के कारण होती है, तो यहां शायद लोग हलवाइयों के यहां नमकीन खरीदने जाते होंगे। देखें तो मिठाई दूकान वालों की दादागिरी को बंगालिनों ने तोड़कर रख दिया है। वे उन पर कतई निर्भर नहीं हैं- कम से कम मिष्ठान्नों के लिये। घरों में सभी की पूर्णकालिक दिलचस्पी मिष्ठान्न बनाने व खाने की ही होती है। हिन्दी प्रदेशों का रसगुल्ला बंगभूमि (प. बंगाल व बांग्लादेश) तक पहुंचते-पहुंचते इतना मीठा व रस से सरोबार हो जाता है कि वह ‘रोशोगुल्ला’ बन जाता है। ए पार (भारत) का रोशोगुल्ला ओ पार यानी बांग्लादेश पहुंचकर केसरिया बन जाता है। यहां यह भी पता चला कि बंगाली ‘संदेश’ का रौब तो सार्वत्रिक है। उसके बिना यहां भी कोई आयोजन पूरा होता ही नहीं।

गुलाब जामुन, पेड़ा, लेंचा (नारियल व गुड़ से निर्मित), लाड़ू (लड्डू), मुर्रा लड्डू (इसे यहां मुंवा कहते हैं जो उनके दैनिक खान-पान का हिस्सा है), पोहे का लड्डू आदि से भरी प्लेट आपके समक्ष यहां के बंगाली घरों में प्रवेश करते ही रख दी जाती है। बंगालियों का ही यह माद्दा होता है कि वे इन पदार्थों को खाने के पहले, खाने के साथ या खोने के बाद कभी भी खा लेते हैं। उन्हें किसी भी आईटम को लेकर कोई दुविधा नहीं होती कि यह नाश्ते के रूप में लेने की वस्तु है या भोजन के साथ, सुबह खाई जाये या शाम को। 

मछलियों की वेरायटी तो अनन्त है...

यही किस्सा माछ का है। अनेक तरह की मछलियां यहां मिलती हैं।– ज्यादातर मीठे पानी की। शायद रोहू व कतला को छोड़कर। हर गांवों व कस्बों में तक मछलियों के बाजार ही प्रमुख होते हैं। अधिकतर में स्थानीय मछलियां मिल जाती हैं क्योंकि हर कस्बे, गांव में तक तालाब व पोखर होते ही हैं, लबालब नदियां हैं। नरसिंधी के किनारे स्टीमर चलने वाली नदी बहती है- यहां के ज्यादातर गांव-कस्बे चारों ओर से अगर पानी से घिरे हुए हैं तो वह मछली की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये ही। प्रकृति से छेड़छाड़ न होने के चलते पानी के स्रोत व बहाव बाधित नहीं हुए हैं जिससे भरपूर मछलियां निकलती हैं।

हालांकि घरों में शाकाहारी पदार्थ भी बनते हैं पर वे सिर्फ मछलियों को श्रद्धांजलि देने या उन्हें नैतिक समर्थन देने के लिये ही थालियों तक पहुंचते हैं। दोनों समय अलग-अलग तरह की मछलियां विभिन्न तरीकों से बनेंगी। मिलने को यहां सभी तरह के नॉन वेज आईटम मिलते हैं पर हिन्दू बंगालियों को सबसे ज्यादा खुशी व सन्तोष माछ-भात खाकर ही मिलता है। सुमन के सभी रिश्तेदारों को इस बात से घनघोर निराशा थी कि वे मेरा आतिथ्य ठीक से नहीं कर पाये। मैं उन्हें समझाता रहा कि दोष मेरा ही है, आपका नहीं। मछलियां तो मेरे लिये अपनी जान कुरिबान करने के लिये हरदम तैयार रहती हैं पर मैं ही नहीं खाता तो कोई क्या करे! करेला, बैंगन आदि की सब्जियां व अरहर की दाल मेरे लिये काफी हैं।

मच्छरों का देश...

एक और कारण है जिसके चलते भारतीय यहां ‘फील एट होम’ महसूस करता है, वह है भिनभिनाते और आपका पासपोर्ट-वीसा चेक किये बिना काटते मच्छर। शहर हों या पिछड़े इलाके या गांव- भारत की तरह ही ये सर्वत्र मिलेंगे। ज्यादातर घरों में मच्छर भगाने वाली अगरबत्तियां और मच्छरदानियों का इस्तेमाल आपको करना ही पड़ता है। हालांकि अभी इस वक्त कम हैं पर लोगों को पता है कि मौसम के ठंडा होने पर वे बड़ी संख्या में मानव प्रजाति पर हमला करने आ धमकेंगे। हालांकि यहां की सरकार मलेरिया उन्मूलन के बड़े कार्यक्रम चला रही है। बताया गया है पहले के मुकाबले इनका प्रसार और असर काफी घटा है। यहां आए तो सावधानी बरतनी ज़रूरी है।
 


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