यौन शोषण, बलात्कार और हत्या के बीच महिलायें

सुशान्त कुमार

 

8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस औरतों के वीरतापूर्वक संघर्ष का यादगार दिन हैं। इसी दिन सन् 1908 में न्यूयॉर्क स्कवायर में कपड़ा मिल की हजारों महिला मजदूरों ने फैक्टरी में उन पर हो रहे अमानवीय शोषण के खिलाफ एक विशाल रैली निकाली। उनकी 10 घंटे की कार्यावधि तथा बालिगों के लिए मताधिकार की भी मांग थी।

अवंतीबाई, मिनीमाता, झलकारी बाई, रानी चेनम्मा, दुर्गावती के इस देश में फूलबती जैसी महिलाओं को आज भी टोनही के आरोप में मार दिया जाता है। कई राज्यों में ऑनर किलिंग और अधिकारों को लेकर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार किया जा रहा है।

तसलीमा नसरीन को लिखने पर रोक लगाकर भारत में कहीं नजरबंद होकर रहने के लिए मजबूर कर दिया गया है। छत्तीसगढ़ के इतिहास में मजदूर आंदोलन में पहली शहीद महिला अनुसुईया बाई है, लेकिन फिर भी छत्तीसगढ़ में महिला उत्पादन संबंध में शामिल होने के बाद भी अपने अधिकारों से वंचित है। भारत में अमेरिका व रूस सहित विभिन्न धनी देशों के शोषण-उत्पीडऩ व दमन अत्याचार जारी है।

यहां के दलाल, जातीय पूंजीपति, जमींदार, जोतदार, सूदखोर, बनिया, महाजन, ठेकेदार व बिचौलियों का भयानक शोषण, जुल्म एवं दमन-उत्पीडऩ भी चल रहा है। कारपोरेट पूंजी के हित में वैश्वीकरण के अधीन विभिन्न तरह के शोषणमूलक नियम-नीति लागू होने के चलते भारतीय जनता पर वैश्विक शोषण और भी तीव्र व कू्रर बन गया है। खासकर वैश्वीकरण के चलते नशाखोरी, जुआं, नंगी फिल्में, गुंडागदी, अपहरण, हत्या तथा बलात्कार आदि में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

एक आंकड़े के अनुसार दुनिया में साढ़े छह करोड़ लड़कियां स्कूल नहीं जाती है। 90 प्रतिशत महिलाओं को आज भी समाज में पुरूषों जैसी इज्जत, अधिकार, मान-सम्मान व प्रतिष्ठा नहीं हैं। 1 से 2 प्रतिशत महिलाओं को छोडक़र शेष महिलाओं की स्थिति मरे जानवर की हड्डी से चिपके उस मांस के समान हैं जिसे गिद्ध-कौंवे, कुत्ते-सियार नोच-नोचकर खाते रहते हैं। तथाकथित रामराज की तरह नारियां आज भी मेला और बाजार में बेची जा रही है।

राज्य से आज भी युवतियों के गायब होने का मामला उठना बंद नहीं हुआ है। भारत में 120 लाख गरीब महिलाएं हैं। एक आंकड़े के अनुसार सिर्फ छत्तीसगढ़, झारखंड एवं उड़ीसा की 40 हजार आदिवासी नवयुवतियां सिर्फ दिल्ली में घरेलू नौकरानी के रूप में काम कर रही हैं। जहां उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती एवं उन्हें यौन-उत्पीडऩ का शिकार भी बनना पड़ता है। इसके अलावा कार्लगर्ल, माडलिंग और भारी संख्या में वेश्यावृत्ति के लिए गरीब घर की महिलाएं ही मजबूर हैं।

घर से बाहर पांव रखने का यह मतलब नहीं समझना चाहिए कि महिलाएं बहुत आगे बढ़ गई और उन्हें मुक्ति मिल गई हैं। सदियों से भोग की वस्तु बनी नारी आज भी इस बाजारवादी संस्कृति में माल बनाकर फिर भोग के लिए बाजार में परोसी जा रही हैं।

समाज में आज भी महिलाओं को बराबरी नहीं बल्कि भेदभाव पूर्ण नजरों से ही देखा जाता है। समाज में महिला पुरूष को एक जगह बैठने, पुरूष सहकर्मी से वार्तालाप करने, घर से बाहर घूमने-फिरने आदि पर सामान्यत: प्रतिबंध रहता है। बेटियों के बीमार पडऩे पर उनके इलाज में पैसा खर्च करने से बचा जाता है। शिशु जन्म दर 19 प्रतिशत है। मातृ मृत्यु दर 27 फीसदी है।

प्रतिवर्ष युवा लड़कियों की मौत का आंकड़ा 3 लाख हैं। प्रतिवर्ष 15 मिलियन बच्चियों में से 25 प्रतिशत अपना 15 वां जन्मदिन देखने जिंदा नहीं रहती हैं। 1951 में यहां की आबादी 361 मिलियन थी। जो 1991 में बढक़र 844 मिलियन हो गई हैं। बच्चों का जन्म दर प्रति महिला 3.8 बच्चा है। लडक़ों की मृत्यु दर 5.9 हैं। वहीं लड़कियों की 23.8 प्रतिशत है। देश में आज कन्या भू्रण हत्या में 96 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

1970 से आधुनिक गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल 10 से बढक़र 40 प्रतिशत हो गया है। महिलाओं में बंध्याकरण का हिस्सा 90 प्रतिशत है। नर्सिंग होम और शासकीय चिकित्सालयों में डॉक्टरों की लापरवाही से प्रसव के समय महिलाओं की मौत हो रही हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरों के अनुसार 26 मिनट में एक महिला उत्पीडऩ की शिकार होती है।

31वें मिनट में हवस का शिकार। हर दिन महिलाओं के विरूद्ध अपराध के लगभग पांच सौ मामले आते हैं। पैंतालिस महिलाओं का बलात्कार होता है। दहेज हत्या के उन्नीस मामले दर्ज होते हैं। 93 वें मिनट में दहेज के कारण महिलाएं जला दिए जाते है। हर घंटे महिलाओं के संबंध में 18 अपराधिक मामले दर्ज होती है।

देश में अश्लील संस्कृति का बोलबाला इतना बढ़ गया है कि स्कूल कालेज में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं के लिए शराब, सिगरेट, सेक्स, अश्लील, साहित्य, ब्लू फिल्में आम बात हो गई हैं। हर रोज सिगरेट के पहले कश से शुरूआत करने वाले किशोरों की संख्या करीब 3 हजार हैं। 28 प्रतिशत शराब व 12 प्रतिशत हेरोइन व अफीम के नशे के आदी हैं। जिनकी उम्र 16 से 20 वर्ष की है।

इसके अलावा कम उम्र के किशोर-किशोरियों में यौन उच्छृंखला बढ़ रही है और अनैतिक सेक्स संबंध कायम हो रहे हैं। मुंबई के सेहत संगठन द्वारा गर्भपात आकलन की एक रिपोर्ट के अनुसार गर्भपात कराने वाली महिलाओं में अविवाहित किशोरियों की तादाद अनुपात से कहीं अधिक हैं, 15 साल से कम किशोरियों की संख्या गंभीर चिंताजनक है।

देश में ऐसे कई गिरोह सक्रिय है, जो खासकर देहाती व आदिवासी क्षेत्रों से किशोरियों को नौकरी दिलाने का झांसा देकर पहले तो उनका यौन शोषण करते हैं फिर वेश्यावृत्ति हेतु कोठियों में बेच देते हैं। आदिवासी किशोरियों को शादी करने का झांसा देकर संपन्न घराने के लोग शारीरिक शोषण करते हैं एवं बाद में उसे बेसहारा छोड़ देते हैं।

महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण अब भी सवालों के घेरे में हैं। आज जब महिलाएं शोषण-उत्पीडऩ व दमन अत्याचार से तंग आकर श्अपनी इज्जत-अधिकार व मान-सम्मान के लिए एकजुट हो अपनी समस्याओं को संवैधानिक तरीके से शासन-प्रशासन के सामने रखते हुए आंदोलन करती है, सुरक्षा की न्याय की भीख मांगती हैं तो ऊपर से न्यायालय का निर्देश आता है कि महिला पुलिस की कमी के कारण पुरूष को महिला आंदोलनकारियों को गिरफतार करने की छूट दी जाती है।

इसका नतीजा क्या होगा हम कल्पना कर सकते हैं, दिल्ली से बस्तर तथा गुजरात से बंगाल तक हम देख रहे हैं। महिलाओं के साथ मारपीट, छेड़छाड़ व हवालात में बलात्कार, यौन उत्पीडऩ, भारी शारीरिक व मानसिक यातना, अपमान आदि कू्रर तरीके से यातना दी जाती हैं। आंदोलनकारी महिलाओं के साथ जेल में राजनीति बंदी नहीं बल्कि अपराधियों की तरह व्यवहार किया जाता है, उनके मुकदमें की सुनवाई वर्षों तक नहीं होती है। उल्टे उन पर आतंकवादी, उग्रवाद व अलगाववाद का अपराध लगाकर समाज से अलगाव के रास्ते खेड़े कर दिए जाते हैं।

आज जिस प्रकार से अखबार, पत्र-पत्रिकाओं में महिला देह का चित्रण किया जा रहा है व शर्म को भी शर्मशार कर देने वाला है। देश में व्याप्त अंधविश्वास के कारण भी यहां की महिलाओं को भारी शोषण-उत्पीडऩ एवं जुल्म-अत्याचार का शिकार बनाया जा रहा हैं। प्रतिवर्ष हजारों महिलाओं को टोनही के शक पर हत्या कर दिया जाता है। ओझा बाबा के चक्कर में महिलाओं का यौन शोषण हो रहा है। मुस्लिम महिलाओं का तीन तलाक के खिलाफ संघर्ष जारी है।

आज सभी महिलाओं का प्राथमिक मुद्दा, रोजमर्रा का जीवन संघर्ष हैं। पर्याप्त आमदनी और रोजगार का अभाव उनके सबसे ज्वलंत मुद्दों के रूप में दर्ज किए गए है। जीवन जी पाना और इसके लिए भोजन जुटा पाना ही मुख्य काम है। आधारभूत सुविधाएं जैसे भोजन, पानी, ईंधन, चारा और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव सबसे बड़ी समस्या हैं। कुपोषण एशिया और अफ्रीकी बच्चों में सबसे ज्यादा है।

छत्तीसगढ़ में 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार है। इनके जीवनस्तर को ऊपर उठाना बाकी हैं। महिलाओं और पुरूषों में पोषण की असमानता ज्यादा हैं। प्रौढ़ महिलाएं 1000 कैलोरी से कम उपयोग करती हैं। शहरी क्षेत्रों में 40-50 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 50-70 प्रतिशत महिलाएं एनीमिक हैं। एक अध्ययन के अनुसार लड़कियों की तुलना में लडक़ों पर होने वाला चिकित्सा व्यय 2-3 गुना अधिक हैं।

एक राष्ट्रीय अनुमान के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 40-50 प्रतिशत ही किसी प्रकार की प्रसव पूर्व देखभाल में हैं । 15-29 वर्ष की महिलाओं की मौतों का एक चौथाई हिस्सा गर्भावस्था से जुड़ा है। देश में एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष 5 मिलियन गर्भपात होते हैं। इनवायरमेंट डेवलपमेंट और जेंडर गैप के अनुसार महिलाओं में कुपोषण की ऊंची दर, चयापचय में कमी तथा अन्य स्वास्थ्य समस्याएं रासायनिक दबाव को झेल पाने की उनकी क्षमता को प्रभावित करते हैं।

रसोई में जैविक ईंधन की उपयोग के कारण 3 घंटे तक इस धुएं से सांस लेना 20 पैकेट सिगरेट पीने के बराबर है। 1991 में डब्ल्यूएचओ के सर्वे के अनुसार औरतों में मृत प्रसव की संभावना 50 प्रतिशत अधिक है। लगभग 40 मिलियन बाहरी काम न करने वाली लड़कियों का एक बड़ा हिस्सा घरेलू कामों की जिम्मेदारी के बोझ तले दबी हुई हैं। लड़कियों को स्कूल न भेजने का एक बड़ा कारण ‘कौमार्य सुरक्षित’ रखने की सोच व चिंता से जुड़ा हैं। दूर स्कूल, पुरूष शिक्षक और सहशिक्षा की व्यवस्था यह सब अभिभावकों की चिंता और बढ़ा देती हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में 88 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 66 प्रतिशत महिलाएं बागवानी, कुक्कट पालन, अनाज कूटना, पीसना, पानी खेती और ईंधन के कार्यो से जुड़ा हैं। जिनका कार्य नहीं दिखता है। व्यवसायीकरण और नगरी फसलों पर बढ़ते जोर ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अनाज खेतों से सीधे बाजार तक पहुंचता है। इससे होने वाली आमदनी पर पुरूषों का नियंत्रण होता है। कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण की प्रक्रिया ने लिंग भेदभाव को बढ़ाया है।

अधिकांश विवाहों में महिलाएं अधीनता की स्थिति में होती हैं। बाहरी दुनिया का उद्घाटन और सिर्फ वे औजार है जो रोजमर्रा की जिंदगी में महिलाओं के लिए उपलब्ध संभावनाओं को निर्धारित करते है। प्रगतिशील कहलाने वाले लोग प्रतिष्ठा व सम्मान का ठिकरा फोडक़र विवाह पूर्व गर्भ गिरवा देते है। महिला द्वारा पसंद किए गए विजातीय पुरूष से इच्छा विवाह को समाज व परिवार द्वारा मान्यता नहीं दिया जाता है। विवाह पूर्व इच्छानुसार गर्भ व बाद में विवाह को मान्यता मिलनी चाहिए जिससे शिशु व मातृ मृत्यु दर में रोकथाम हो सकेगी। सिकलसेल बीमारी में ऐसे विवाह का महत्व बढ़ जाता है।

कुल मिलाकर महिलाओं की स्थिति, उनकी स्वायतता या निर्णय लेने की उनकी क्षमता ही उन्हें ऊपर उठाती है। मसालों व अनाज की उत्पत्ति का श्रेय महिलाओं को ही जाता है। जहां तक स्वाद की सृजन महिलाओं ने ही की है। लेकिन आज भी वह भरपेट भोजन नहीं पाती हैं। महिला अधिकारों के मामले में भारत के पिछडऩे का एक बड़ा कारण बाल विवाह है।

हिंदू तथा मुस्लिम पसर्नल ला दोनों ही वैवाहिक संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार सुनिश्चित कर पाने में असफल हैं। बच्चा जन्म देने, लडक़ा व लडक़ी के लिंग निर्धारित व यौण संबंधित जटिलताओं में आज भी महिलाओं को कसूरवार ठहराया जाता है। जबकि इसमें पुरूष की भूमिका व उसका शारीरिक रोष सबसे ज्यादा रहता है।

संसाधनों पर नियंत्राण की पहलकदमी और पुरूष प्रधानता को चुनौती ने महिलाओं की व्यक्तिगत और सामूहिक क्षमता को नई पहचान दी है। इन सबके बावजूद भी वह निरंतर पुरूषों से आगे बढऩे संघर्षरत हैं। घर की चूल्हा-चौखट से उसे बाहर आना होगा। उत्पादन के साधनों से जुडऩे हर क्षेत्र में उन्हें पहल करनी होगी।

महिलाओं को आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी अपना लोहा मनवाना पड़ेगा। उसे आधे आसमान में ही नहीं पूरे आकाश की मालिक बनना होगा।’ ये सारे अधिकार उसे पुरूष नहीं देंगे लेकिन संघर्ष में पुरूषों का सहयोग भी भविष्य में उन्हें मिलता रहेगा।


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