लोकबाबू कथाकार, लेखक हैं, कोलम्बस नहीं

ज्ञानरंजन

 

लोकबाबू एक पक्षधर कथाकार हैं। बहुत थोड़ा लिखा पर अप्रतिम है वह। उन्हें मुख्यधारा में नहीं देखा गया। उनकी डोंगी लौटते हुए पानी में चल रही है। वे सच्चे हैं, कुछ हद तक मासूम हैं, पर अपने अवलोकन में तीक्ष्ण दृष्टि वाले, दृढ़ प्रतिज्ञ रचनाकार। मैं ऐसे लोगों को खोजता हूँ, यह मेरा स्वभाव है, जो चुप्पे हैं, दुबके हैं, जीवनदायी हैं।

अपनी दुनिया की गहराई और विस्तार को जानते हैं, दूसरी दुनिया को नहीं जानते। वे कथाकार, लेखक हैं, कोलम्बस नहीं। इसलिए वर्षों से तिनका तिनका चुन कर कच्चा माल एकत्र किया। स्मृति पक्की थी, जो मेधा के भीतर जल की तरह जीवित थी।

उसी को एक तीखे ऐतिहासिक, सच्चे वृत्तांत में कनवर्ट कर दिया। नकली भाषा न होने के कारण लोकबाबू का वृत्तांत सहस्त्र रजनी चरित्र की तरह चलता है। यह उपन्यास बस्तर की जिन्दगी और बीते हुए की मार्मिक गाथा है।

बस्तर सभी को आकर्षित करता है, क्योंकि वहाँ एक बड़ी लड़ाई लड़ी गई। वहाँ बड़ी उथल-पुथल हुई। वह सबसे समृध्द भारत का इलाका था, जहाँ संसार की बहुत बड़ी लूट लम्बे समय तक दर्ज रही। बस्तर की अपराइजिंग आदिवासियों की लम्बी लड़ाई, जिसके अनेक परिदृश्य हैं।

वहाँ आदिवासी संस्कृति मरी नहीं है, वह नुमाइश की चीज भले बना दी गई हो, उसके उत्कर्ष को भले चोटें पहुँचाई गई हों; लोकबाबू इस वृतांत को उन सबको बता रहे हैं, जिन्हें कुछ पता नहीं। जिनके गिरोह हैं, पूर्वाग्रह हैं और जो विकास की झूठी कहानी के निर्माता हैं; यह उपन्यास उनके लिए नहीं है।

बस्तर पर अनगिनत कहानियाँ लिखी गई हैं, अनगिनत रिपोर्ताज हैं, अनेक उपन्यास हैं। अंग्रेजी में तो भरा हुआ है, क्योंकि वह बिकता है। अज़ीबोग़रीब बात यह है कि वंचितों की लंगोटी भी, उनका सुर संगीत, उनकी बोली, शिल्प, उनकी देह सभी को दुनिया ने लूटा है।

लोकबाबू छत्तीसगढ़ के नेटिव हैं। उन्होंने अपना उपन्यास आधुनिकता और छद्म शिल्प के जरिये नहीं, अपने मर्म से धीरे धीरे सालों में लिखा है। उनकी कलम से सच्चाई छन-छन कर नहीं, रक्त की बूदों की तरह आई है। स्याही कम लगती है, लहू ज्यादा खर्च होता है। इसलिए पाठक इसमें चमकदार शिल्प की खोज न करें।

लोकबाबू ने अपने उपन्यास का एक ढांचा बनाया है। उसमें कथानक की बुनावट लोकभाषा के मुहावरों और शब्दों से की है। इसी में अनेक रक्त-प्लावित, श्रम-सिक्त, जीवित पर्यावरण की यात्रा करने वाले चरित्र हैं। आधुनिक उपन्यास के जन्म में रोमांस की एक बड़ी भूमिका रही है।

बाहरी दृष्टि से मानवता और दुनिया काफ़ी करीब लगती है, पर यहाँ बस्तर में बस्तियाँ और लोग टूट टूट कर बिखर रहे हैं। लोकबाबू के पास एक तार है जिससे वे ‘बस्तर बस्तर’ में अपने उपन्यास की बुनियादी शर्तें पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि लोकबाबू उपन्यास की रचना में स्थानीयता में लीन होकर किसी आधारशिला की खोज कर रहे हैं।

अबूझमाड़: किस्सों का कोठा, विस्थापन: देश हुआ बेगाना, सलवा जुडूम: गिरी गाज बस्तर पर, प्रतीक्षाः तुम्हारे आने से पहले, इन चार खण्डों में विस्तृत इस उपन्यास को हिन्दी की समकालीनता में बड़ा स्थान मिलना चाहिये।

उपन्यास का चार खण्डों में विभाजित कथानक दीर्घ, सघन और महाकाव्यात्मक है। लोकबाबू ने गहरी सूझबूझ के साथ इसकी प्रस्तावना का चुनाव किया है।

अभी भी घनघोर जंगलों के बीच जहाँ हवा सीटी बजाती है, वहाँ के रहवासी आदिवासियों के हत्यारे विकास को उपन्यास के लिए चुना है। यह सभ्यता की बड़ी और निर्णायक लड़ाई है। ‘बस्तर बस्तर’ ढेर सारे लिखे जाने वाले उपन्यासों के विरुध्द है।

लेखक पहल के सम्पादक रह चुके हैं।


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  • 20/09/2022 Nathmal sharma

    ज्ञान जी ने बहुत सटीक टिप्पणी की है. किसी रचनाकार के लिए यह ऊर्जा देने वाली है. लोक बाबू को मासूम लिख कर भी उन्होने आत्मीयता प्रदर्शित की है.

    Reply on 18/10/2022
    जी, शुक्रिया