नौ अगस्त आदिवासी उत्सव नहीं मूलनिवासी अधिकार दिवस

मैं छत्तीसगढ़ ले तुएगोन्दी गोठियात हव - हेमंन्त कानडे

सुशान्त कुमार

तुएगोंदी में आदिवासियों ने एक बड़ा कार्यक्रम ओयाजित किये जिसमें 10 हजार से ज्यादा लोग इकट्ठे हुवे। इस कार्यक्रम में लक्ष्मण यादव, जनकलाल ठाकुर, अरविंद नेताम, बीएस रावटे, हेमंत कांडे जैसे दिग्गज शामिल हुवें।

लोग द्रौपदी मुर्मू के बारे में कह रहे है. तुएगोंदी जामडी पाट में बालकदास ने गुंडे बुला कर 250-300 आदिवासियो पर जानलेवा हमला करवाया और आदिवासी संस्कृति सेवा भाव-जीवा भाव को बलि कह कर लगातार दुष्प्रचारित किया आदिवासियों को नक्सली, मिशनरी वामपंथी बताया जा रहा है और इसी कड़ी में बालोद महाबंद पर 25 मई को गुण्डरदेही में भी साजिश के तहत बलवा कराया गया है और सर्व आदिवसी समाज और छत्तीसगढिया क्रांति सेना पर भी हमला कराया गया जिसके जवाब में अपने बचाव में आदिवासी समाज और क्रांति सेना ने भी जवाबी कार्यवाही किया. गुण्डरदेही बलवा में गिरफ्तार सिर्फ और सिर्फ छत्तीसगढिया लोगो को किया गया जबकि मार पीट दोनो पक्षो की ओर से हुआ था, इसी गुण्डरदेही घटना में भिलाई दुर्ग के कम से कम 25 आदिवासियो का भी नाम था. कांग्रेस सरकार ने फुट डालो की नीति पर  राजनीतिक स्वार्थ के रूप मे पूरे मामले में सिर्फ छत्तीसगढिया क्रांति सेना को टारगेट किया.

आदिवासी डीलिस्टिंग

छत्तीसगढ़ के जशपुर में डीलिस्टिंग की मांग को लेकर अब हंगामा मचा हुआ है. यहां आदिवासी समाज ने रैली निकालकर डीलिस्टिंग को लागू करने की मांग की है. इस मांग के जरिए आदिवासी समाज, सरकार से ऐसे लोगों को आदिवासी सूची से बाहर करने की मांग कर रहे हैं जो धर्म परिवर्तन के बाद भी आदिवासी वर्ग के तहत आरक्षण का लाभ ले रहे हैं.

जशपुर में डीलिस्टिंग की मांग को लेकर आदिवासी समाज ने धावा बोल दिया है. जशपुर की सड़कों पर बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग उतरे और डीलिस्टिंग की मांग करने लगे. शुक्रवार को जशपुर शहर में हजारों की संख्या में आदिवासी समुदाय के लोगों ने ऐसे लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. जो धर्मांतरण करने के बाद भी आदिवासी वर्ग के तहत आरक्षण का लाभ ले रहे हैं. आदिवासी समाज ने ऐसे लोगों को आरक्षण की सूची से बाहर करने की मांग की है.

आदिवासी समाज ने निकाली रैली
 
डिलिस्टिंग की मांग को लेकर शुक्रवार को आदिवासी समाज सड़कों पर उतरा. कटहल बागीचा से आदिवासी समाज ने रैली निकाली. जो भागलपुर चौक से होकर रणजीता स्टेडियम, अंबेडकर चौक, जिला हॉस्पिटल जशपुर होते हुए बस स्टैंड के बाद कटहल बगीचा वापस आई. और यहां आम सभा की गई. इस रैली में बड़ी संख्या में शामिल आदिवासी लोग हाथों में तख्तियां लिए हुए थे. उन्होंने धर्मांतरण कर चुके लोगों को आरक्षण सूची से बाहर करने की मांग की.आदिवासी क्यों कर रहे डीलिस्टिंग की मांगये भी पढ़ें: छत्तीसगढ़ में फिर क्यों निकला धर्मांतरण का जिन्न ?रायमुनि भगत ने संभाला मोर्चा: आमसभा का शुभारंभ बाबा कार्तिक उरांव के चित्र पर माल्यार्पण कर किया गया है. इस आम सभा की अगुवाई जिला पंचायत जशपुर की अध्यक्ष रायमुनि भगत कर रहीं थीं. उन्होंने कहा कि "बाबा कार्तिक उरांव ने आदिवासियों की परंपरा का मुद्दा उठाया था. उन्होंने कहा कि बाबा कार्तिक उरांव की मांग थी की जो लोग आदिवासी समाज, परंपरा और रीतियों को त्याग चुके हैं उन्हें आरक्षण की सुविधा से बाहर किया जाए. रायमुनि भगत ने कहा कि बाबा कार्तिक उरांव की इस मांग को जल्द से जल्द लागू किया जाए और डीलिस्टिंग की जाए".

धर्म बदल चुके आदिवासियों को आरक्षण सूची से बाहर किया जाए: वहीं पूर्व मंत्री गणेश राम भगत ने कहा कि "मतांतरण कर चुके आदिवासियों को आरक्षण की सूची से बाहर निकालने की मांग सबसे पहले जनजातीय समाज के सबसे बड़े जननायक कार्तिक उरांव ने उठाई थी. उन्होनें इसके लिए 1967—68 में लोकसभा के पटल पर नीजि विधेयक भी प्रस्तुत किया था. लेकिन,इस पर चर्चा नहीं हो सकी. इसके बाद अल्पायु में उनका निधन हो जाने के कारण कार्तिक उरांव जी का सपना पूरा नहीं हो पाया. उसके बाद यह पूरा मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया. लेकिन अब जनजातीय समाज ने अपने इस जननायक के अधूरे काम को पूरा करने का निश्चिय किया है".

धर्म परिवर्तन करने वालों का आरक्षण समाप्त करने की मांग को लेकर रैलीडीलिस्टिंग की मांग को दबाया नहीं जा सकता: गणेश राम भगत का कहना है कि "बस्तर से लेकर जशपुर तक,डिलिस्टिंग की मांग को लेकर जो आवाज उठ रही है.उसे ना तो दबाया जा सकता है और न ही इसकी उपेक्षा की जा सकती है. डिलिस्टिंग को लागू करने का समय आ गया है. जनजातीय समाज में अपने अधिकारों को लेकर आ रही जागरूकता से बाबा कार्तिक उरांव का सपना जल्द ही साकार होगा".क्या है डीलिस्टिंग: आसान भाषा में डीलिस्टिंग का मतलब है कि जो लोग धर्म परिवर्तन करने के बाद लगातार आरक्षण का लाभ ले रहे हैं उन्हें आदिवासियों की सूची से बाहर किया जाए. मतलब अनुसूचित जनजाति वर्ग के ऐसे लोग जिनका धर्म परिवर्तन हो चुका है. जो अब भी डंके की चोट पर अनुसूचित जनजाति वर्ग के आरक्षण का लाभ लेते हैं. ऐसे लोगों को डीलिस्टिंग करके आरक्षण से वंचित किया जाए. आरक्षण का फायदा सिर्फ ऐसे आदिवासी लोगों को दिया जाए जिन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया है और जो अब भी आदिवासी हैं. इसी मांग को लेकर पूरे देश भर में डीलिस्टिंग आंदोलन चलाया जा रहा है.

डिलिस्टिंग के सन्दर्भ में एक विरोध प्रदर्शन

जून 5, 2022 को छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिला मुख्यालय में धर्मान्तरण के विरोध में जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले एक रैली निकालकर डिलिस्टिंग के सन्दर्भ में एक विरोध प्रदर्शन हुआ। डिलिस्टिंग का तात्पर्य उन आदिवासियों से है, जो खुद को हिंदू धर्म से अलग कर ईसाई या इस्लाम धर्म को स्वीकार कर चुके हैं। इस आयोजन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता पूर्व सांसद नंदकुमार साय, पूर्व राज्यसभा सांसद रामविचार नेताम, प्रदेश के पूर्व कैबिनेट मंत्री गणेश राम भगत सहित कई आदिवासी नेता सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन के बाद पूरे प्रदेश के आदिवासियों के बीच धर्मान्तरण, घर-वापसी और डिलिस्टिंग के मामले को लेकर काफी घमासान और तनाव की स्थिति पैदा हुई है।

पिछले दो-तीन महीनों से देशभर के आदिवासी बहुल प्रदेश या इलाकों में डिलिस्टिंग को लेकर काफी बहस छिड़ी हुई है। लगभग दो वर्षों से धीरे-धीरे एक नए मंच का नाम सुनने को आ रहा है जिसे, जनजातीय सुरक्षा मंच कहा जा रहा है। इस मंच ने कितने जनजातीय लोगों को उनके हक़, अधिकार दिलाये या फिर उनकी मूलभूत लड़ाई यानि जल, जंगल, जमीन, खनीज इत्यादि के संघर्ष में साथ दिया इसका कोई लेखा जोखा नहीं है। पर इन दिनों इस संगठन ने एक ऐसा चक्रव्यूह रचा है, जिसके तहत आदिवासियों को ही गैर-आदिवासी घोषित किया जा रहा है।

बलरामपुर की रैली महज एक अकेला आयोजन नहीं था। विगत कुछ महीनों में ऐसे ही आयोजन देश के कई आदिवासी प्रदेशों में हुए, जिनमें यही नारा लग रहा था। इसमें प्रमुखतः मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, झारखंड आदि प्रदेशों को देखा गया है। वैसे ओडिशा में आदिवासी ईसाइयों पर हमला लगभग ढाई दशक से चलते आ रहा है।

आरएसएस की भूमिका

इस अभियान को मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) संचालित कर रहा है। कांग्रेस के भूतपूर्व सांसद व मंत्री रहे कार्तिक उरांव के पीठ पर सवार होते हुए आरएसएस के झारखंड प्रदेश के सह प्रांत प्रचार प्रमुख संजय कुमार आजाद की मानें तो उरांव हमेशा हिंदुत्व के पक्षधर रहे और धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण देने का विरोध करते रहे। कार्तिक उरांव तीन बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। जीवन के अंतिम समय में वे नागरिक उड्डयन एवं संचार मंत्री थे। आजाद आगे कहते हैं कि आदिवासी हिंदू हैं और हिंदू संस्कृति के वे अभिन्न हिस्सा हैं। इस तरह से कई आदिवासी महापुरुषों के नाम पर संघ परिवार इस अभियान को हवा दे रहा है।

आरएसएस की राजनीतिक इकाई भाजपा के अलावा उसके अन्य सारे संगठन भी इस पूरे अभियान में लिप्त हैं। संघ परिवार इस मसले में शुरुआत से ही इस बात पर अडिग है कि जो भी भारत में रहने वाला है, वह हिंदू है, या फिर वे लोग जो हिंदू नहीं हैं हिंदू संस्कृति को पूर्णतः आत्मसात कर लें। गोलवलकर के अनुसार जो भी खुद को हिंदू नहीं कहता या खुद को हिंदू संस्कृति का हिस्सा नहीं मानता, उसे भारत में रहने का कोई हक़ नहीं है। हिंदू राष्ट्रवाद का यही आधार है और इसी आधार पर ही आज आदिवासियों को भी गैर-आदिवासी घोषित करने का मुहिम छेड़ा गया है। गौर फरमाने वाली बात यह है कि यही रणनीति कम्युनिस्ट, मुसलमान, दलित और ईसाई जो गैर-आदिवासी हैं उन पर भी अपनाया जा रहा है।

क्या होगा डिलिस्टिंग का परिणाम

संघ परिवार के द्वारा संचालित इस आंदोलन के अनुसार जो आदिवासी ईसाई बने हैं उन्हें बरगला-फुसलाकर, पैसा और लालच देकर ईसाई बनाया गया है। वे लोग दुगुना लाभ पाते हैं, पहला ईसाई होने का और दूसरा आरक्षण का। 2014 में भारत सरकार द्वारा स्थापित खाखा कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार आदिवासियों की स्थिति वहीं की वहीं है। हालांकि आदिवासी इलाकों में ईसाई संस्थानों के आने से शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था में गुणात्मक और संख्यात्मतक परिवर्तन जरूर हुआ, पर सांस्कृतिक परिवर्तन उनके बीच नहीं हुआ।

खाखा कमेटी के अध्यक्ष रहे प्रो. वर्जिनियस खाखा के मुताबिक यह एक ऐसा तरीका है जिसके चलते आदिवासी इलाकों को घटाया जाएगा और परिणामस्वरूप अनुसूचित क्षेत्र को आबादी के आधार पर घटाया जा सकेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि पंचायत (एक्सटेंशन टू सेड्यूल्ड एरिया) एक्ट 1996 (पेसा) और वन अधिकार क़ानून 2006 ऐसे क्षेत्रों में अपने आप ही निरस्त हो जाएगा। यदि इस आधार पर बांटने की प्रक्रिया जारी रही तो आने वाले दिनों में केवल झारखंड के ही आधे से अधिक हिस्से को अनुसूचित क्षेत्र से डिलिस्टिंग के आधार पर डिनोटिफाई कर उसे सामान्य क्षेत्र के रूप में घोषित किया जायेगा। यदि भारत की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में ऐसा हुआ तो फिर उत्तर-पूर्व के छठीं अनुसूची वाले राज्यों में भी इनका यही रवैया होगा। इससे तो सारा देश बर्बाद हो जायेगा। और यह सारा कारनामा सरकार के इशारों पर जनजाति सुरक्षा मंच द्वारा आदिवासियों में भ्रम फैला रहा है।

छत्तीसगढ़ के एक्टिविस्ट डॉ. गोल्डी एम जॉर्ज ने अपनी में कहा है कि संघ परिवार का यह षड्यंत्र लंबे समय से जारी है कि किस तरह से आदिवासी क्षेत्र को घटाया जाये ताकि वहां से भी सामान्य वर्ग के लोग चुनाव लड़ें और जीत कर आएं। डिलिस्टिंग जैसी हरकत इस षड्यंत्र का हिस्सा है कि किस तरह हिंदू और हिंदू राष्ट्र के बहाने ब्राह्मणवाद को पूर्ण रीति से आदिवासी इलाकों में फैलाया जाये और उस पूरे इलाके को अपने कब्जे में लिया जाये। इस चक्रव्यूह में आदिवासियों का कोई स्थान नहीं, केवल उन्हीं आदिवासियों को कुछ स्थान मिलेगा जो संघ के कारनामे के हिस्सेदार बनाने के लिए राजी होंगे।

डिलिस्टिंग के विरोध में लामबंद होते आदिवासी संगठन

डिलिस्टिंग के खिलाफ छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में ईसाई आदिवासी महासभा ने भी जून 11, 2022 को एक महारैली की। संगठन के पदाधिकारियों के अनुसार जनजाति सुरक्षा मंच के द्वारा किया जा रहा सार्वजनिक प्रदर्शन और मांग अनुचित है। इस रैली में धर्मान्तरित आदिवासियों को जनजाति सूची से बाहर करना संविधान विरोधी करार दिया गया।

छत्तीसगढ़ प्रदेश में सर्व आदिवासी समाज डिलिस्टिंग के खिलाफ एकजुट हो रहा है। हालांकि इस संबंध में कोई औपचारिक घोषणा या बयान अभी जारी नहीं हुआ है, पर अंदरूनी सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक इस मसले में जल्द ही कोई बड़ा बयान और एक्शन प्रोग्राम की घोषणा की जाएगी।

इस सिलसिले में जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) के संस्थापक और मध्यप्रदेश से भारतीय ट्राइबल पार्टी के विधायक हीरालाल अलावा कहते हैं कि डिलिस्टिंग का पूरा मुद्दा फ़र्ज़ी है। डिलिस्टिंग के मुद्दे के ज़रिए आरएसएस आदिवासियों के आरक्षण को समाप्त करने की साज़िश कर रहा है। अगर वो इस मुद्दे पर गंभीर है तो फिर उन्हें यह मुद्दा नॉर्थ ईस्ट से शुरू करना चाहिए था। वहां के ट्राइबल ग्रुप में से 90 प्रतिशत ईसाई धर्म को मानते हैं।

यह भी सच है कि आदिवासियों की अपनी संस्कृति और धर्म है, पर 1961 के बाद के हर जनगणना में उन्हें स्वाभाविक रीति से हिंदू मानकर चला जाने लगा। जिन जिन समुदायों का बाहरी हिंदू समुदायों से संपर्क बनने लगा वे ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो धीरे धीरे हिंदू रीति रिवाजों को मानने लगे हैं। इस संदर्भ में अलावा सवाल करते हैं कि “क्या ऐसे हिंदू रीति मानने वाले आदिवासी समुदायों या परिवारों को भी आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाएगा? यह आरएसएस-बीजेपी के एक राजनीतिक पैंतरे के सिवाय और कुछ नहीं है।”


दूसरी ओर बीटीपी के एक अन्य नेता वेलाराम घोघरा ने आरएसएस के जनजाति सुरक्षा मंच की ओर से डिलिस्टिंग की मांग का पुरजोर विरोध करने के साथ-साथ आदिवासियों के धर्मकोड को बहाल करने की मांग उठाई है।

क्या कहता है संविधान?

डिलिस्टिंग संपूर्ण रूप से संविधान के खिलाफ है। भारत के संविधान में आरक्षण का आधार धर्म नहीं, बल्कि भौगोलिक परिस्थितियां, पिछड़ापन और परिवेश है। संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति में नोटिफाइड किया गया है। नोटिफिकेशन में स्पष्ट कहा गया है कि आदिवासी किसी भी धर्म से संबंधित नहीं हैं। यानी आदिवासी न ईसाई, न मुस्लिम, न हिन्दू और न सिख। इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय व अलग-अलग राज्यों के उच्च न्यायालय भी कई आदेश दे चुके हैं। इन आदेशों के अनुसार आदिवासी लोग सभी धर्मों का सम्मान भी करते हैं, और वे अपनी इच्छा के अनुरूप किसी भी धर्म को मान सकते हैं। लेकिन आदिवासी समुदाय और उनकी संस्कृति प्रकृति और पूर्वजों की उपसना से अभिन्न रूप से जुड़ी है।

सामान्य तौर पर गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में मान्य कई क़ानून अनुसूचित क्षेत्र में मान्य नहीं है। संविधान के आधार पर जयस जैसे संगठन का मानना है कि कुछ धार्मिक संगठन लगातार आदिवासियों में भय फैला रहे हैं। संगठन के पदाधिकारियों के अनुसार आदिवासियों में धर्मांतरण को मुद्दा बना कर समाज में विभाजन पैदा किया जा रहा है। आदिवासी समुदाय में डिलिस्टिंग कैंपेन एक भय पैदा करने में कामयाब हुआ है। इस अभियान से एक और तथ्य साफ़ हो रहा है कि इसका दायरा किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है। आदिवासी क्षेत्रों में धार्मिक उन्माद फैलाने वाले संगठनों को संविधान के अनुच्छेद 19 (5) के तहत अनुसूचित क्षेत्र में प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के अधिवक्ता आशीष बेक के अनुसार आदिवासियों के बीच यह सवाल कभी नहीं उठता है, जब उनकी पहचान हिंदू धर्म से संबंधित होती है। कहने के लिए तो उनकी पहचान आदिवासी की है, पर वास्तव में हिंदू ही की है क्योंकि हर एक के जाति प्रमाण पत्र में हिंदू ही लिखा जाता है। यही वजह है कि जैसे ही हिंदू के अलावा और किसी धर्म, उदाहरणार्थ ईसाई धर्म, की बात होती है, तब पूरे के पूरे हिंदू राष्ट्र के प्रचारकों में खलबली मचने लगती है।

बीटीपी के राजस्थान प्रदेश प्रवक्ता देवेन्द्र कटारा बताते हैं कि अगर डीलिस्टिंग होती है, तो संविधान के अनुच्छेद 244 का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। इससे आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था खत्म हो जाएगी। इतना ही नहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित लोकसभा व विधानसभा सीट खत्म होने के साथ कई प्रकार के नुकसान होंगे।

ईसाई आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मुन्ना टोप्पो के मुताबिक संविधान के अनुच्छेद 342 और 342 (1) के आधार पर हर राज्य ने अपनी सूची निर्धारित की है। इस आधार पर 1950 में जारी अनुसूचित जनजाति अध्यादेश (सूचि) मूलतः 1931 में तैयार की गयी आदिम जनजातियां (प्रिमिटिव ट्राइब्स) तथा भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत की गई पिछड़ी जनजातियां (बैकवर्ड ट्राइब्स) की सूची पर आधारित हैं। इसे तैयार करते समय भौगोलिक अलगाव, विशिष्ट जीवन शैली, आदिम अर्थ प्रणाली, रूढ़ि व परंपरायें, विलक्षण रीति-रिवाज, प्रथागत कानून, जनजातीय भाषा का प्रयोग, युवा गृह आदि लक्षणों को ध्यान में रखा गया था। क्या इसे इतनी आसानी से बदला जा सकता है?

इस संदर्भ में पीयूसीएल छत्तीसगढ़ के प्रदेश अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान एक और महत्वपूर्ण पहलू की ओर इशारा करते हैं। चौहान का कहना है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को देश के संविधान में समानता के अधिकार के तहत सुरक्षा प्राप्त है। अनुच्छेद'4 एवं अनुच्छेद'6 उन्हें देश के कानूनों के तहत समान सुरक्षा की गारंटी देता है तथा धार्मिक आधारों पर उनके साथ किसी तरह के भेदभाव का निषेध करता है। लेकिन देश के कई राज्यों में धार्मिक स्वतंत्रता कानून उसके नाम के विपरीत व्यक्ति को एक धर्म से दूसरे धर्म में दीक्षित करने पर रोक लगाने हेतु लागू किये गए हैं। यह कानून जितने सरल और हानिरहित लगते हैं, वास्तविकता में उतने हैं नहीं। जहां इस कानून की आड़ में अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित और अपमानित करने की अद्भुत संभावनाएं हैं। वहीं दूसरी ओर, घर वापसी अथवा मूल धर्म में वापसी जैसे धर्म उन्मादी व कट्टरपंथी कृत्यों को इन कानूनों के दायरे से बाहर रखा गया है।

क्या है धर्मान्तरण के बहस का असली कारण?

डिलिस्टिंग का मामला धर्मान्तरण के सवाल से उत्पन्न हुआ है। हाल ही में बस्तर संभाग के विगत 3 सालों में हुए कुछ 300 से अधिक धर्मान्तरण संबंधित घटनाओं का अध्ययन किया गया। इनमें से कुछ 40 मामलों में विस्तृत केस स्टडी भी किया गया। संघ परिवार के विभिन्न संगठनों द्वारा हमेशा यह आरोप लगाया जाता है कि धर्मान्तरण तरह-तरह के दबाव, प्रलोभन, लालच, जोर-जबरदस्ती, पैसा देकर, धमकाकर किया जाता है। पर हमारे अध्ययन में ऐसा एक भी मसला सामने नहीं आया। इसके विपरीत घर-वापसी के नाम पर धमकी, जोर-जबरदस्ती और दबाव के कई सारे मामले सामने आये।

इस संदर्भ में एक और घटना ध्यान देने योग्य है। विगत 1 अक्टूबर, 2021 को प्रदेश के सरगुजा जिले में सर्व सनातन हिंदू रक्षा मंच ने धर्मान्तरण के खिलाफ एक विशाल विरोध रैली का आयोजन किया था। यह आदिवासी हिंदुओं के ईसाई धर्म के प्रति बढ़ती आस्था के खिलाफ था। इसमें मुख्य वक्ता स्वामी परमानंद थे। रैली में आये हुए लोगों को संबोधित करते हुए वह कहते हैं, “मैं ईसाइयों और मुसलमानों के लिए अच्छी भाषा बोल सकता हूं, पर इनको यही भाषा समझ आती है। धर्म की रक्षा भगवान का काम है और यही हमारा काम भी है। हम किसके लिए कुल्हाड़ी रखते हैं? जो धर्मान्तरण करने आता है उसकी मुंडी काटो। अब तुम कहोगे कि मैं संत होते हुए भी नफरत फैला रहा हूं। लेकिन कभी-कभी आग भी लगानी पड़ती है। मैं तुम्हें बता रहा हूं; जो कोई भी आपके घर, गली, मोहल्ले, गांव में आता है, उन्हें माफ नहीं करना।”

वह आगे ईसाइयों को सही रास्ते पर लाने का ‘रोको, टोको और ठोको‘ का फॉर्मूला भी देते हैं। परमानंद महाराज ऊंचे स्वर में बोलते हैं, “पहले उन्हें (ईसाइयों) मित्र की तरह समझाओ। उन्हें ‘रोको‘ और अगर नहीं मानें तो ‘ठोको‘। मैं उनसे पूछता हूं जो इस धर्म (ईसाई) में चले गए, समुद्र छोड़कर कुएं में क्यों चले गए? इन्हें ‘रोको‘, फिर टोको (विरोध) और ठोको।‘

धर्म परिवर्तन की बहस और घर वापसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अब इस बहस में एक नया पहलू डिलिस्टिंग भी जुड़ गया है। इसने एक नई खतरनाक प्रवृत्ति को जन्म दिया है जो व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता, और भारत की संवैधानिक अधिकारों की अनिवार्य धर्मनिरपेक्षता दोनों के लिए खतरा है। केंद्र में भाजपा सरकार की वजह से हिंदू राष्ट्र का एजेंडा मजबूत हुआ है, जिसके अंतर्गत धार्मिक अल्पसंख्यकों के आराधना स्थलों और व्यक्तियों के खिलाफ व्यापक हिंसा के चलते वे बहुत अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।

डिलिस्टिंग आदिवासियों को धर्म के नाम पर आपस में लड़वाने का नया और बेहतरीन औजार है। आदिवासी इलाकों की एक और विशेषता है कि यह खनिज संपदा से भरपूर है जिस पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नज़र लंबे समय से है। यदि मध्य भारत के राज्यों को देखें, जैसे छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश और विदर्भ, यहां लंबे समय से माओवाद और माओवाद के खात्मे का हिंसा-प्रतिहिंसा का चक्रव्यूह भी जारी है। इन इलाकों में आदिवासी मूलनिवासी लोगों का जल, जंगल, जमीन, नदी, नाला, फल-फूल, कंद-मूल व अन्य संपदा के छीने जाने और उसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिए जाने में समाज, सरकार, माओवादी, हिंदूवादी, आदिवासीवादी – किसी को भी संस्कृति के नष्ट या विलुप्त होने का खतरा नहीं दिखता। शायद इन सबके अनुसार संस्कृति का खात्मा केवल ईसाई बनाने से ही होता हैं। ऐसे में इस उलझन को बनाये रखने और उसे बढ़ावा देने का सबसे उचित उपाय है – धर्म, संस्कृति, देवी-देवता, इत्यादि। डिलिस्टिंग इसी उलझन को लंबे समय तक बनाये रखने का एक खतरनाक राजनीतिक रणनीति है।

2015 में, पी.ई.डब्लू (प्यू) द्वारा किए गए शोध ने बताया कि धर्म से जुड़े उच्चतम सामाजिक शत्रुता के लिए भारत दुनिया में सीरिया, नाइजीरिया और इराक के बाद चौथे स्थान पर था। यह स्थिति आज और भी भयानक हो चुकी है। संवैधानिक रूप से, भारतीय राजनीति और धर्म के बीच के संबंध को धर्मनिरपेक्षता द्वारा परिभाषित किया गया है। हालांकि, भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान अपनी बहसों से रहित नहीं है, जिनमें से कम से कम भारतीय सामाजिक ताने-बाने में जाति व्यवस्था से जुड़ी चुनौतियां सबसे ऊपर हैं। आदिवासी संदर्भ से अनगिनत बुनियादी सवाल उठते हैं, पर इस पर कोई बहस नहीं है। लेकिन भारत को अनिवार्य रूप से हिंदू राष्ट्र घोषित कर पूरे समाज को नई रीति के जातिगत गुलामी की ओर धकेलने की तैयारी स्पष्ट रूप से जरूर दिख रही है।

सुशांत कुमार अपनी एक लंबी रिपोर्ट में कहते हैं कि नौ अगस्त आदिवासी उत्सव नहीं मूलनिवासी अधिकार दिवस है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1993 में मूलनिवासी अधिकार दिवस पर प्रस्ताव लाया और 1994 नें इसे सभी देशों पर लागू किया | इनके मानवाधिकार को लेकर घोषणा पत्र का  निर्माण भी हुआ आगे चलकर बहुत काम हूए लेकिन विश्व का मूलनिवासी आज भी हासिए पर है | 

आपको बता दूं बीते एक अप्रैल को विभिन्न राज्यों के आदिवासियों ने अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली में संसद का घेराव किया था | ये सभी घटनाएं नई नहीं है जब मूलनिवासियों को अधिकार मांगने पर गिरफ्तार, हत्या  अर्थात  मौत के घाट उतारा जा रहा हो | हमारी सरकार की नीति शुरू से ही विरोध का रहा है | उनका कहना है कि देश में मूलनिवासी रहते ही नहीं है | एेसा नहीं तो क्यों 1957 में संयुक्त राष्ट्र संघ के 107वें आईएलओ कन्वेन्शन में देश में आदिवासी होना बताकर 1989 में सम्पन्न 169वें आईएलओ में आखिरकार हमारे प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र संघ में क्यों कर कहते कि भारत में आदिवासी नहीं है |

आज़ादी के बाद से ही हासिए में रह रहे लोगों कि आवाज मजबूती के साथ उठाने भाजपा और अन्य राजनीतिक दल आज तक असफल रहे हैं क्योंकि वे संविधान को कूड़ेदान में रख दिया है | इसी कड़ी में संविधान की 5वीं अनुसूची का कड़ाई से अनुपालन करने और जनजातीय समुदाय संबंधित अन्य मांगों के समर्थन में संसद सहित देश में विरोध प्रदर्शन  हो रहा है |

आदिवासियों के लिए संविधान में 5वीं अनुसूची बनाई गई क्योंकि आदिवासी इलाके आज़ादी के पहले भी स्वतंत्र थे | वहां, अंग्रेज़ों का शासन-प्रशासन नहीं था | तब इन इलाकों को सानान्य नहीं माना जाता था | 1947 में आज़ादी के बाद जब 1950 में संविधान लागू हुआ तो इन क्षेत्रों को 5वीं और छठी अनुसूची में वर्गीकृत किया गया | जो पूर्णत: बहिष्कृत क्षेत्र थे उन्हें छठी अनुसूची में डाला गया | जिसमें पूर्वोत्तर के चार राज्य हैं- त्रिपुरा, मेघालय, असम और मिज़ोरम | 

अंग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया | वहां अंग्रेजों को आदिवासी विद्रोह का सामना करना पड़ा | उन्हीं क्षेत्रों को 5वीं अनुसूची में डाला गया | इसमें दस राज्य शामिल हैं, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश | संविधान में 5वीं अनुसूची के निर्माण के समय तीन बातें स्पष्ट तौर पर कही गईं- सुरक्षा, संरक्षण और विकास यानी आदिवासियों को सुरक्षा तो देंगे ही, उनकी क्षेत्रीय संस्कृति का संरक्षण और विकास भी किया जाएगा, जिसमें उनकी  बोली, भाषा, रीति-रिवाज़ और परंपराएं शामिल हैं |

5वीं अनुसूची में शासन और प्रशासन पर नियंत्रण की बात भी कही गई है | ऐसी व्यवस्था है कि इन क्षेत्रों का शासन-प्रशासन आदिवासियों के साथ मिलकर चलेगा |

मतलब इन क्षेत्रों को 5वीं अनुसूची में एक तरह से विशेषाधिकार मिले, स्वशासन की व्यवस्था की गई | स्वशासन के लिए संविधान में ग्रामसभा को मान्यता दी गई है | जैसे कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग परंपराएं हैं | 

इन प्राचीन कबीलाई व्यवस्थाओं में एक ढांचा था, कबीले का सरदार होता था, आपसी झगड़ों का निपटारा वे गांव में ही कर लेते थे | पुलिस थाना व्यवस्था तब नहीं होती थी | 5वीं अनुसूची में इसी व्यवस्था को ग्रामसभा के रूप में मान्यता दी और उसे ज़मीन बेचने और सरकारी अधिग्रहण संबंधी अधिकार दिए | अपनी भाषा, संस्कृति, पहनावा, रीति-रिवाज़ और बाज़ार की व्यवस्था तय करने का अधिकार मिला कि बाज़ार में क्या बिके, क्या न बिके? गांव चाहता है कि शराब न बिके तो नहीं बिकेगी |

नब्बे के दशक 1996 में 5वीं अनुसूची के परिदृश्य में पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) क़ानून बना | 5वीं अनुसूची में ग्रामसभा पारिभाषित नहीं थी | ग्रामसभा के साथ-साथ पंचायती राज व्यवस्था को भी जोड़ा गया  | दोनों को गांव के विकास की ज़िम्मेदारी मिली | ये गांव की प्रशासनिक व्यवस्था हुई | ज़िले की प्रशासनिक व्यवस्था करने के लिए ज़िला स्वशासी परिषद को मान्यता दी | समस्या यहीं से है कि परिषद की बॉडी और नियमावली अब तक किसी राज्य ने नहीं बनाई कि उसमें कितने सदस्य हों, उनके काम क्या हों | 

यह परिषद स्वायत्त है, मतलब कि इसके पास वित्त का भी प्रबंधन हो | संविधान के अनुच्छेद 275 में ट्राइबल सब-प्लान (टीएसपी) की व्यवस्था है, इसके तहत ऐसे क्षेत्रों के लिए अलग से बजटीय आवंटन होता है जिसका प्रयोग आदिवासियों के कल्याण और उनकी आर्थिक व सामाजिक बेहतरी के लिए होता है | ज़िला स्वशासी परिषद पैसा किस तहसील में, किस ब्लॉक में ख़र्च हो, यह तय करती है |

जब परिषद ही नहीं बना तो स्वाभाविक है कि टीएसपी का पैसा कहीं न कहीं डायवर्ट किया जा रहा है | वहीं, स्वशासन की कल्पना करते हुए जिस ग्रामसभा की बात की गई, वर्तमान में उसके द्वारा लिए गए निर्णय को शासन स्वीकार ही नहीं करता है |

अनुसुचित जाति ,जनजातियों के लिए प्रमुख सविधानिक प्रावधान – 

अनुच्छेद 14 : विधि के समक्ष समता–राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नही करेगा |

अनुच्छेद 15 : धर्म, मूलवंश, जाति या स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध |

अनुच्छेद 15 :(4): शिक्षण संस्थाओं में (तकनीकी, इंजीनियर, मेडिकल समेत ) जनजाति वर्गों के लिए प्रवेश हेतु स्थानों को आरक्षित किया है, ताकि उनका शैक्षणिक स्तर ऊंचा हो |

अनुच्छेद 17 : इसके अंतर्गत जातिवाद को समाप्त करने का प्रावधान रखा गया है |

अनुच्छेद 23 : बेगार को प्रतिबंधित किया गया, गरीब होने के कारण जनजाति व्यक्ति बंधुआ मजदूर बनाते है | बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 उनकी पहचान, मुक्ति एवं पुनर्वास के लिए बना हुया है |

अनुच्छेद 24 : 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे किसी खान, उघोग अथवा खतरे वाले रोजगार में नियोजित नहीं होंगे | यह भी इन्ही कमजोर वर्गों के सामाजिक सुरक्षा हेतु है |

अनुच्छेद (25) (2) (बी) : सार्वजनिक हिन्दू धार्मिक संस्थाओं में प्रवेश की स्वतंत्रता |

अनुच्छेद 29 : यह अल्पसंख्यको के सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है, जनजातीय कल्याण की दृष्टी से यह प्रावधान भी विशेष महत्व रखता है क्योकि देश के प्रमुख अल्पसंख्यक वर्गों में से जनजातियां भी प्रमुख है |

अनुच्छेद 46 : अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य दुर्लभ वर्गो में शिक्षा और अर्थ संबंधी हितो की अभिवृद्धि |

अनुच्छेद 243 (घ) : प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जनजाति के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे और इस प्रकार आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात उस पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या से यथाशक्य वही होगा जो उस पंचायत क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियो को जनसंख्या का अनुपात उस क्षेत्र की कुल जनसंख्या से है |

अनुच्छेद 243 (न) : ग्राम स्तर, खण्ड एवं जिला स्तर पर जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में सदस्यों एवं जनजाति क्षेत्र में सरपंच, प्रधान एवं जिला प्रमुख के सभी पद जनजातियों के लिए आरक्षित किये गये है|

अनुच्छेद 244 (1) : राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रो एवं जनजातियों के लिये निर्धारित प्रशानिक प्रावधानों को संविधान की पांचवी अनुसूची में निर्दिष्ट करने की व्यवस्था की गई है | 

अनुच्छेद 244 (2) : छठी अनुसूची-असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्य के जनजाति क्षेत्र के प्रशासन के बारे में उपबंध |

अनुच्छेद 275 : इसमे केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यो की जनजातीय कल्याण को बढ़ावा देने एवं इनके लिए प्रशासन की उचित वयवस्था करने के लिए विशेष धनराशी प्रदान करने की व्यवस्था है |

अनुच्छेद 330 : लोकसभा में अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए स्थानों का आरक्षण |

अनुच्छेद 332 : राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण |

अनुच्छेद 335 : सेवाओं में पदों के लिए अनुचुचित जातियों वव जनजातियों के दावे |

अनुच्छेद 338 : राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग |

अनुच्छेद 339 : इसमे व्यवस्था की गई है कि संविधान लागू होने के दस वर्ष पश्चात अनुसूचित क्षेत्रो एवं अनुसूचित जनजातियों के विशेष प्रशासन की रिपोर्ट राष्ट्रपति के सम्मुख प्रस्तुत की जाये | 

अनुच्छेद : 342 : इसमे राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है की वे राज्यों के राज्यपालों से विचार-विमर्श के बाद, प्रत्येक राज्य के जनजातीय समुदायों में से अनुसूचित जनजातियां तय करे |

अनुच्छेद 344 (1) : इसमे सलग्न पांचवी अनुसूची में राज्यपाल के लिए यह आवश्यक कर दिया गया है कि जब भी कहा जाय, अनुसूचित क्षेत्रो के प्रशासन की रिपोर्ट राष्ट्रपति को दे और उनका अनुदेश प्राप्त करे |

भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 47 में राज्य का यह कर्तव्य माना गया है की जनजातियों की शिक्षा, उन्नति और हितो की सुरक्षा की और विशेष ध्यान दे |

उत्तर से लेकर दक्षिण बस्तर तक बड़े कार्पोरेटों को जमीन तथा खदीन सौंपे जा रहे हैं | 5वीं अनुसूची और वनाधिकार क़ानून के अनुसार, आदिवासी की ज़मीन ग़ैर आदिवासी को स्थानांतरित की ही नहीं जा सकती | फिर भी हज़ारों परिवार के संसाधन गैर आदिवासियोंं को सौंपा जा रहा है | हालांकि नान शेड्यूल एरिया में आदिवासियों को गैर कृषि जमीन बेचने में दिक्कत आ कही है | कांग्रेस और भाजपा कोई भी आदिवासियों के साथ नहीं हैं | कांग्रेस भी लंबे समय तक केंद्र और राज्य में सरकार में रही लेकिन आदिवासी तब भी ठगा गया |आगामी विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी |

वनाधिकार क़ानून 2006  में दर्ज है कि कई सालों से जिस ज़मीन पर आदिवासी रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं, उनको ज़मीन के स्थायी पट नहीं दिए जा कहे हैं |छत्तीसगढ़ के कवर्धा ज़िले में  टाइगर रिज़र्व के नाम पर विस्थापन की योजना है | सरदार सरोवर बांध के नाम पर हज़ारों आदिवासी परिवार उजाड़ दिए | न उनको पुनर्वास मिला, न ढंग से मुआवज़ा. ज़मीन तो गई ही, जंगल भी गया | उनकी संस्कृति, जनजातीय इतिहास सब नष्ट हो गया |

आदिवासी को उठाकर शिविरों में रखा जा रहा है | आदिवासी का भी अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है | उसे वहां से निकालकर पुनर्वास के नाम पर एक छोटी सी कोठरी थमा देते हैं | उवका जमीन संस्कृति, भाषा, सब-कुछ खत्म किया जा रहा है | आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है | संविधान ने उनका संरक्षण करने के लिए उन्हें सरकार को सौंपा था |  सरकार तो उलटा उनका ख़ात्मा कर रही है | आदिवासियों  की ज़मीन के नीचे अपार खनिज संपदा छिपी है | आदिवासी क्षेत्रों में ज़मीन के नीचे से सोना निकल रहा है, पेट्रोलियम पदार्थ की खोज हो रही है | ज़मीन के वे मालिक हैं लेकिन उनकी मिल्कियत का हक़ उन्हें नहीं मिलता | कानून से उन्हें इन खनिजों का कुछ प्रतिशत हिस्सा मिलना चाहिए, पर उनको वहां मज़दूर तक नहीं बनाया जा रहा | बस उनको भगाना चाहते हैं |

सुप्रीम कोर्ट का ही फैसला है कि जिसकी ज़मीन, उसका मालिकाना हक़. जिसका खनिज है, उसका मालिकाना है | वो नहीं दे रहे ना ही नौकरी ही मिलती है | आदिवासी को कुछ नहीं मिलता, उसका वजूद पूरी तरह मिटाया जा रहा है | 5वीं अनुसूची में आदिवासी को जनजाती कहा गया है, उसमें देश के राष्ट्रपति को यह अधिकार दे दिया है कि वे किसी भी जाति को जनजाति में शामिल कर सकते हैं और किसी भी जनजाति को बाहर भी कर सकते है |

संविधान में जो आदिवासियों को कहा गया है कि  आदिकाल से, प्राचीन काल से जो जुड़े हैं, उसमें किसी को शामिल करने और बाहर करने का कोई सवाल ही नही यही  आगे जाकर देश में असंतोष पैदकर रहा है |सरकार एससी/एसटी समुदाय के लिए खूब योजनाएं ला रही हैं | छत्तीसगढ़ के बस्तर या बस्तर से भी और अंदर चले जाएं अंदरूनी इलाकों में विकास की सही स्थिति ज्ञात होती है कि वास्तव में कितना विकास हुआ?

वहां पीने का पानी नहीं है | बरसात में कई बार लोग नालों से पानी भरकर लाते हैं, गड्ढे खोदकर लाते हैं, वो गंदा पानी होता है | आरओ पानी तो वहां कोई नहीं पीता, कहीं नहीं मिलता | टंकियां तो बनीं, लेकिन सरकार पानी नहीं भरती |बोरिंग है लेकिन पानी नहीं | राजनांदगांव के बोदाल में फ्लोराइड युक्त पानी आता है जो हड्डियों को ख़राब कर देता है | हड्डियां टेढ़ी हो जाती हैं | जवानी में लड़के बूढ़े हो जाते हैं | मतलब हड्डियां ऐसे मुड़ जाती हैं, कूबड़ बन जाता है |

परिषद बने, बजटीय पैसा इसके ज़रिये ही बंटे और यही फैसला करे कि कौन-से अधिसूचित क्षेत्र में कितना पैसा इस्तेमाल होगा, शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य के क्षेत्र में | परिषद के सदस्य आदिवासी ही होंगे, लेकिन कितने सदस्य होंगे यह पता नहीं है क्योंकि नियमावली ही नहीं है | पेसा कानून के तहत ये नियमावली बननी चाहिए |सरकारी लागू कार्यक्रम फेल है |

5वीं अनुसूची के तहत जनजतीय सलाहकार परिषद भी बनाई गई हैं | जनजातियों के उत्थान में उनका कैसा योगदान है? जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी) को राज्य स्तर पर मान्यता दी गई है | इसमें 20 सदस्य होंगे, दो तिहाई आदिवासी विधायक होंगे | पांच सदस्य कोई भी हो सकते हैं, जैसे कि समाज या सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता | इसका मुखिया भी आदिवासी हो | कमेटी आदिवासियों के विकास, सुरक्षा और संरक्षण के संबंध मे प्रदेश के राज्यपाल को रिपोर्ट करे | राज्यपाल का काम है कि वे इस रिपोर्ट को राष्ट्रपति को भेजें |

राष्ट्रपति को जनजातीय समुदायों का अभिभावक कहा गया है और उनकी निगरानी का ज़िम्मा सौंपा गया है | राष्ट्रपति जब चाहे, तब राज्यपाल को आदेश देंगे कि उन्हें जनजातीय क्षेत्रों की रिपोर्ट चाहिए | नियम है कि 6 महीने या 3 महीने में वह रिपोर्ट मांगे, लेकिन ऐसा भी है कि अगर ज़रूरत हो तो, कभी भी रिपोर्ट मांगी जा सकती है |

अब स्थिति देखिए, राष्ट्रपति ने आख़िरी बार कब रिपोर्ट मांगी या जनजाति सलाहकार परिषद की बैठक कब-कब हुई, ये तक स्पष्ट नहीं है | किसी राज्य में बैठकें नहीं हो रही हैं | हुईं भी तो साल में  कितने बार कोई ब्योरा नहीं है | 5वीं अनुसूची लागू तो है लेकिन उसके अनुपालन पर सवाल है | जैसे कि संबंधित किसी कलेक्टर से बात करते हैं तो जवाब होता है कि हमारे पास इससे संबंधित कोई सूचना नहीं है |

5वीं अनुसूची के अलग-अलग प्रावधान हैं जैसे कि पेसा क़ानून के लिए अधिसूचना चाहिए या ग्रामसभा के बारे में चाहिए तो राज्यपाल की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो जारी करे कि इस सूची के इस अधिसूचित क्षेत में ये अधिकार हैं | जैसे कि अनुसूची में उल्लेखित है कि इन अनुसूचित क्षेत्र में सामान्य क़ानून लागू नहीं हो सकते या लागू हो भी सकते हैं | दोनों बाते हैं और परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं | परस्थितियां क्या होंगी | यह नोटिस राज्यपाल को जारी करना होता है |

ऐसे में सामान्य क्षेत्रों की ही तरह इन क्षेत्रों को चलाया जा रहा है | जो योजनाएं अन्य क्षेत्रों में चल रही हैं, वही यहां हैं | लेकिन वास्तव में यहां के लिए विशेष योजना हो, जिन पर अलग से विचार हो | बिना किसी अधिसूचना जारी किए कैसे सामान्य क्षेत्रों की तरह व्यवहार हो रहा है | टीएसी, ग्रामसभा, डीएसी से सलाह ली जाए जो संवैधानिक बॉडी हैं |

जंगल क्षेत्र में आदिवासी रह रहा है तो उनको जंगल क्षेत्र की जो भी वनोपज है जैसे ताड़ी, आम का पेड़ है, महुए का पेड़ या तेंदुपत्ता उस पर अधिकार मिले | सरकार और आदिवासी क़ीमत तय करे और वे उन्हें बेचें, पर ऐसा अब तक होता नहीं है | इन क्षेत्रों में घर लकड़ी के होते हैं | स्वाभाविक है कि लकड़ी काटकर ही बनेंगे, लेकिन जब ये जंगल में लकड़ी काटने जाते हैं तो गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं | और कई नेता मालिक मकबूजा में एक रूपए में सागौन का पेड़ काट लिए | वन में हज़ारों सालों से जो रह रहा है, उनका अधिकार होना चाहिए, न कि वन विभाग का | घर बनाने के लिए भी लकड़ी नहीं दी जा रही तो कहां से लाई जाए | जल, जंगल और ज़मीन पर यह उसका अधिकार है, पर उसे मिलता नहीं |

जितने भी वन क्षेत्र हैं जनजातीय क्षेत्र में ही हैं | ग्रामीण क्षेत्र के पेड़ कटे हैं तो उस पर पहला हक़ ग्रामसभा का हो | लेकिन ग्रामसभा को कोई अधिकार नहीं दिया | सच यह है कि अशिक्षित आदिवासी को कई सारे बिलों के बारे में पता ही नहीं और न ही उनके कथित नेता जानते है | राज्य और केंद्र सरकार समाज के पिछड़े तबको के लिए कई योजनाएं बनाती हैं, घोषणाएं और वादे करती हैं, लेकिन ज़मीन पर असर होता नहीं दिख रहा | देखते हैं आयोग बनने के बाद क्या बजट में हेड और मंडल कमीशन लागू हो पाता है या नहीं |

योजनाएं आदिवासी के नाम पर बनती हैं, लेकिन उनका फायदा उसे नहीं मिलता |  आदिवासी के नाम पर दूसरों ने लाभ लिया | आदिवासियों के नाम पर पेट्रोल पंप आवंटित हुए, लेकिन फायदा सामान्य वर्ग के लोग ले गए | 5वीं अनुसूची में जितनी भी खदानें हैं, वे आदिवासियों को ही आवंटित होनी हैं, लेकिन सब सामान्य वर्ग के पास हैं | लेकिन, कोई कानून ऐसा नहीं कि इन लोगों को स्पष्ट सज़ा का प्रावधान हो |

इसके लिए राज्य सरकार ज़िम्मेदार है | आदिवासी शिकायत इसलिए नहीं करता क्योॉकि उसे मालूम ही नहीं है फला फला उनका अधिकार है |उनको अपने अधिकार पता नहीं हैं | योजनाएं बन रही हैं लेकिन फायदा नहीं पहुंच रहा और कहीं न कहीं सिस्टम ज़िम्मेदार है | समस्या ये भी है कि सरकार योजनाएं बनाती हैं लेकिन जिनके लिए बनाई, उनको ही जानकारी नहीं है |
आदिवासी समुदाय से 47 सांसद और करीब 600 विधायक हैं | 5वीं अनुसूची से उन्हें कोई मतलब नहीं |आदिवासी राजनीति , धर्म  और जाति के नाम पर सवर्णों के तिजोरी में कैद हो चुकी है | सरकार, राष्ट्रपति, राज्यपाल, शासन-प्रशासन को कतार में अंतिम व्यक्ति के प्रति ईमानदार होना चाहिए था | अगर भ्रष्टाचार भी है तो ज़िम्मेदार सरकार है |

 5वीं अनुसूची पूरी तरह लागू होती है तो ज़िला कलेक्टर के पास हर तीन महीनों और छह महीनों में ताज़ा अधिसूचना रहेगी | इसमें ऐसा प्रावधान भी है कि इन क्षेत्रों में लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा तो राज्यपाल अधिसूचना जारी करेगा कि फलां तहसील में 100 प्रतिशत आरक्षण लागू हो | जिससे कि वहां मौजूद हर नौकरी स्थानीय बेरोज़गारों को ही मिलेगी, भले ही वे पांचवीं पास हों या दसवीं, उससे मतलब नहीं | उसे उसके स्तर का रोजगार मिलेगा. इससे पलायन रुकेगा |

वर्तमान में ग्रामीण रोज़गार के लिए अन्य जिलों, तहसील यहां तक कि राज्यों में जाता है. जब 5वीं अनुसूची लागू होगी तो उसे गांव में ही रोज़गार मिलेगा. भले ही गिट्टी भरने या तालाब खोदने का रोज़गार मिले | अभी ज़मीन छीनने पर आदिवासी विरोध करता है तो सबसे पहले उसे नक्सल से जोड़कर सीधे जेल में डाल दिया जाता है | आम जनता की सहानुभूति ख़त्म | 

लेकिन 5वीं अनुसूची के बाद ज़िला परिषद और ग्रामसभा फ़ैसला करेगी कि हमारे लोगों पर कौन सी धारा लगे, इसकी पुलिस में शिकायत होनी चाहिए या नहीं | गांव में ही मामलों का निपटारा होने लगा तो स्वाभाविक है कि उनके ऊपर अत्याचार कम हो जाएंगे | जनजातीय क्षेत्रों की जेलों में बंद क़ैदियों में 90 प्रतिशत आदिवासी है | आज आदिवासी अधिकारों से वंचित माओवादियों के नाम जेलों नें कैद हैं वे गुलाम हैं |

सामाजिक कार्यकर्ता हेमंन्त कानडे तुएगोंदी से लौटकर अपने छत्तीसगढ़ी लेख में लिखते हैं कि मैं छत्तीसगढ़ ले तुएगोन्दी गोठियात हव

जब उपनिवेसगवादी शोषक मन के कारण जंगल में रहवइया आदिवासी मन के जल, जंगल, जमीन , संस्कृति अउ इतिहास खतरा मा पड़गे रिहिस तब आदिवासी मन अपन संस्कृति अउ इतिहास ला बचाए खातिर संघर्ष करत रिहिन तब संयुक्त राष्ट्र संघ हा संघर्ष शील जनजाति के अधिकार हक जल जंगल जमीन संस्कृति परम्परा रूडी प्रथा अउ इतिहास ल संरक्षित करे के घोषणा करीस ।अउ चेताइस कि कोई गैर आदिवासी मूलनिवासी के हक अधिकार ल नई छीन सकै।वो दिन रिहिस 9 अगस्त उही दिन ले पूरा संसार भर म मूलनिवासी दिवस(आदिवासी) इंडिजिनस पीपुल्स डे मनाए के शुरुआत होय हे।

भारत भर में आज के दिन ल हँसी खुशी अउ प्रसन्नता  धूमधाम ले मनाए बर कई किस्म के आयोजन करे जाथे।ये उत्सव ल मनाए बर भारत के 635 जनजाति समूह के लगभग 14 करोड़ आदिवासी मन जे भारत के कुल जनसंख्या के 8% हे एमा भाग लेथे।

छत्तीसगढ़ के 42 जनजाति समूह जे मन ल भारत के सँविधान के अनुसूची में शामिल हें जीकर आबादी छत्तीशगढ़ में 32% हावे हमू मन ये दिन ल नाचत गावत  मनावत हन।

एक बात बताना बहुत जरूरी हे कि बहुसंख्यक जाति समाज ल जौं न अधिकार संयुक्त राष्ट्र संघ दे हे वो अधिकार हमला भारत के सँविधान लागू करे के दिन 26 जनवरी 1950 से हमला मिले हे।

सन 1948'949 में जब जब सँविधान बनाए के काम चलत रिहिस तब हमर समाज के महामानव डॉ बाबा साहब अम्बेडकर, जयपाल मुंडा, रामप्रसाद पोटा ई  हमर अधिकार ल संरक्षित करे बर अपन सर्वस त्याग करके ये अधिकार ल दिलाए हे।

भारत के षड्यंत्र कारी मन समाज मे जहर घोल के अस्थिरता पैदा करके जन जाति समाज ल बगराय के प्रयास करे जात हे।जे गति ले समाज के प्रगति अउ विकास होना चाहिए वो हर नई होवत हे।

में तुएगोन्दी जामडी पाठ गोठियात हव। मोर कोरा म आदिवासी समाज  खेलत कूदत बाढ़त हे।जइसे छत्तीशगढ़ के कोना कोना में बसे आदिवासी मन जल जंगल जमीन में काबिज रहि के राज करत रिहिन ओइसने तुएगोन्दी जामडी पाठ के मोर लइका मन खुशी से राहत रिहिन।

मोर माथ मुकुट मेस्वतंत्रता,समानता, बंधुत्व,अउ न्याय के रत्न लगे रिहिस जेकर अंजोर में उजियार चमकत रिहिस।मोरो अंचरा  ह सामाजिक न्याय के खुशबू छत्तीशगढ़ के मानव ल मानवता के नवा जीवन देवत रिहिस ।फेर जब ले तुएगोन्दी जामडी पाठ म एक परदेशिया आके अपन उपनिवेश बनाइस अउ शोषण जुल्म करे के शुरुआत करीस तब ले मोर कोरा म रहवइया जनजाति के संस्कृति,संस्कार, रूढ़ि ,प्रथा,परम्परा अउ इतिहास खतरा म पड़ गे हावे।

मैं अइसन काबर काहत हौं।आज तुएगोन्दी गांव उपनिवेश बनगे हावे।ये उपनिवेशक शोषक अन्यायी अत्याचारी हा जम्मो क्षेत्र ल उपनिवेश बनाए बर कसम खा के भीड़ गे हावे ।जेमा शासन प्रशासन अउ जन प्रतिनिधि,राजनीतिक दल के नेता मन ओकर मदद करत हें।अब समझ जावव  कि मोर बाल बच्चा के अधिकार ल कोन छिनत हावे।

अइसन काहत मोला बड़ा दुख लागत हे कि ये क्षेत्र के कुछ कपूत मन ह, सपूत मन के साथ विश्वासघात करत हे।इहि मन ह मोर बेटा बेटी के ऊपर हमला अउ आक्रमण करे के छूट दें हें।जेमन आदिवासी मन के हक अधिकार के बात करत हें ते मन ल जेल मे राखे गे हे, मारे गे हे, हत्या करे के प्रयास करे गे हे।सरकार यमन ल गोल्लर बना के गली गली में छोड़ दे हे। जल जंगल जमीन ले मोर सपूत बेटा मन ल बेदखल करे के षड्यंत्र रचत हे।आज तुएगोन्दी जामडी पाठ संघर्ष करत हे, अपन हक अधिकार,संस्कृति अउ इतिहास ल बचाए खातिर लड़ाई लड़त हे।गद्दार मन के कारण तुएगोन्दी जामडी पाठ गुलामी म छटपटात हे।आदिवासी सपूत मन अइसने गद्दार मन ले लोहा लेवत हे जेकर कारण कतको छत्तीसगढ़िया सपूत मन बालोद जेल के जंजीर म बन्धा ए हे।

भारत देश घला अंग्रेज मनके गुलामी के जंजीर ल तोड़ के आजाद होइस अउ हमला इज्जत, मान, सम्मान आबरू गौरव ,हक अधिकार बचाके संरक्षित करिन।

डॉ आंबेडकर एक महान सपूत हे जे हमर नव भाग लिखे हे, जेला हम सँविधान कहिथन।सँविधान ले हमर इज्जत, मान सम्मान गौरव,स्वतंत्रता,समानता, बंधुत्व,न्याय सुशोभित हे।यही हमर पहिली अउ आखरी ग्रंथ हे।जे समाज येला पढ़े नई ते समाज सडत रहिथे।अनपढ़ अउ जिंदा लाश म कोई अंतर नई हे।

हमर नारा अउ काम अइसे होवै कि घर घर तिरंगा,घर घर सँविधान।
सँविधान सुरक्षित ,तब देश सुरक्षित।
मैं तुएगोन्दी जामडी पाठ गोठियात हव।

एकर पहिली में बतावत रेहेंव कि कुछ कपूत मन हावे जे मन मोला गुलामी में ले जाए बर लगातार भिड़े हें एकरे सेती ओमन 1 मई2022 के दिन मोर प्राण ,मोर आत्मा, ल लहू लुहान करे के जघन्य अपराध करे हैं।षड्यंत्र रच के मोर आँखी कान मुड़ी ल फोड़ के मोर गोड़ ल तोड़ के, छाती कनिहा ल पीट पीट के ,अंधरा, लंगड़ा, अउ कमजोर बनाए के पाप करे हें।शासन ये मन ल कोई सजा नई डिश ।जेकर कारण मोर क्षेत्र के जनता सामाजिक आर्थिक राजनैतिक न्याय ले वंचित हे।मोर लोग लइका मन निरक्षर बेरोजगार है।ये जंगल म पशु के समान जीवन जिये बर बिबस हे।बिबस करे जात हे।इकर मुड़ी लुकाय बर घर नई है आय जाय बर सड़क नई है शिक्षा रोजगार स्वास्थ्य समृद्धि अउ विकास के रद्धा बंद हे।हमर छाती म बंदूक ,तलवार  भाला ढाल , त्रिशूल,डंडा,लाठी मार के हमर जल जंगल जमीन छीने जाता हे।

दलाल मन संग मिल के अंधविश्वास,पाखंड,कर्मकांड के बड़े बड़े महल खड़े करत हे जेहा ये क्षेत्र के अनपढ़ अशिक्षित भूखा गरीब बेटा मन के मजाक उड़ावत हे।कतको परिवार के खून ल चूस ले हे।अउ हमला गुमराह करत हे ।मोर आदिवासी बेटा मन के संवैधानीक अधिकार ले वंचित कर दे हे। एंकर रोजी रोटी शिक्षा के द्वार ल बंद कर दे हे। शासन प्रशासन ल घला तरस नई आवे।सँविधान अउ कानूनी अधिकार लेपन जुटा म रंजीत जात हे।अउ राम राज लाए के नारा देवत जात हे।

मैं तुएगोन्दी जामडी पाठ गोठियात हव।मैं अपने आखरी सांस लेवत हव ,मोर अंचरा मलड़ै थोप दे हे।पर महुँ अब कसम खा ले हों।आखरी सांस तक जब मोर शरीर गोली ले छलनी हो जहि तब टक ले जामडी पाठ के सियार ल झुक न नई देववव। मोर इज्जत के दामन ये हिजड़ा मन आंदोलन के नौटंकी करत हें। मोर अनपढ़ देहाती सपूत मन ल बरगलाए जात हे।ये ढोंगी मोर छाती म चढ़ के हुकूमत(राज)करना चाहत हे।मैं बताना चाहता हव कि जइसे  9 अगस्त से भारत छोड़ो आंदोलन के शुरुआत होइस अउ अंग्रेज मन भागिस वइसने ढोंगी ल जामडी पाठ छोड़ के जाए ल परही।

हां, मैं तुएगोन्दी जामडी पाठ गोठियात हव ।ये क्षेत्र के अउ देश भर के शोषित पीड़ित आदिवासी मूलनिवासी बहुजन बेटा बेटी मन ल गोहरपा र के सोरियावत हव। हो सक त हे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया,प्रिंट मीडिया अउ जन प्रतिनिधि मन मोर गोहा र ल दबा दिहिं, अउ मोर बेटा बेटी मन मोर गोहार ल नई सुन सकहिं ।ये सुरता राखौ यदि तुमन एकर गुलाम बन गेव तब तुम्हर रक्षा करैया कोनो नई आही।तुम मिटा जाहु नंदा जाहु।हमर जन प्रतिनिधि मन हमीं ल हराये के कोशिश करत हें। अवइया साल बर सोचना पड़ही।

एकरे सेती मैं तुम्हला जगावत हव मोर शहीद आत्मा मन के आवाज ले आखरी बेर जगाए के आगाज करत हव। जागो अउ सब ल जगावव ,मनुवादी षड्यंत्रकारी मन ललतियावव ढोंगी मन ल पछाडव सँविधान विरोधी मन ल हरावव अउ मोर शोषित पीड़ित बहुजन आदिवासी बेटा बेटी मन ल मोर हिले करौं। ता कि एमन शक्ति बन के आगू आ सकैं।
 


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