अलविदा उद्धव ठाकरे
प्रेमकुमार मणिमहाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने पद से इस्तीफा कर दिया और इसके साथ ही वहां शिवसेना, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस अघाड़ी गठबंधन सरकार ख़त्म हो गई। स्वाभाविक सवाल है वहां अब क्या होगा? भाजपा और शिंदे की शिवसेना के पास स्पष्ट बहुमत है और उनकी सरकार बन जाएगी इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन असली सवाल यह है कि शिवसेना का राजनीतिक भविष्य अब क्या होगा। उसके कुल 56 में 49 विधायक शिंदे के साथ हैं। लोकसभा में उसके 18 और राज्य सभा में चार सदस्य हैं।

बालासाहेब ठाकरे ने जिन उद्देश्यों और हौसले के साथ शिवसेना बनाई थी और उनके पास जो व्यक्तित्व था, क्या वह सब उद्धव ठाकरे के पास है? और यदि नहीं, तो क्या अब इस सेना का कोई भविष्य बचा रह जाता है? मेरा जवाब नकारात्मक होगा। जैसे प्रकृति में हर चीज के होने का कोई कारण होता है, जिसे कार्य - कारण सिद्धांत कहते हैं, वैसे ही राजनीति में भी होता है।
शिवसेना मुंबई में बनी और पहली दफा यहीं लोकप्रिय हुई। महाराष्ट्र में आरएसएस की पुख्ता जमीन थी,लेकिन हिंदुत्व को प्रक्षेपित करने वाले दल जनसंघ के पास कोई ऐसा नेता नहीं था, जो मुंबई में पुख्ता संगठन तैयार कर सके।
यहां कांग्रेस और समाजवादियों का पक्ष-प्रतिपक्ष था। कांग्रेस का हाल यह था कि नए लोग वहां आ ही नहीं सकते थे। कुछ गिने-चुने परिवारों का वहां कब्ज़ा था। मराठा लॉबी मजबूत थी। वे किसी दूसरे को मुश्किल से घुसने देते थे।
इन सबके बीच जाति से कायस्थ और पेशे से कार्टूनिस्ट बालासाहेब ने एक राजनीतिक संगठन खड़ा किया, तब लोगों ने आरम्भ में इसे गंभीरता से नहीं लिया था, मानो यह भी उनका एक कार्टून कोना ही हो।
शिवसेना जून 1966 में बनी थी। कुछ ही महीने पहले इंदिरा गांघी प्रधानमंत्री बनी थीं। तब की मुंबई का स्मरण कीजिए। 1967 में मुंबई के बेताज बादशाह कहे जाने वाले पाटिल को जार्ज फर्नांडिस ने लोकसभा चुनाव में हराया था। कांग्रेस का वह ऐतिहासिक अधिवेशन 1970 में मुंबई में हुआ जिसमें इंदिरा गांधी समाजवादी तेवर के साथ आई। मुंबई की अपनी मुश्किलें थीं। महाराष्ट्र की भी।
आज भी अन्य प्रांतों की तुलना में महाराष्ट्र का शहरीकरण अधिक है। वहां का सामाजिक - सांप्रदायिक विभाजन स्पष्ट है। जाति थोड़ी कमजोर और मजहब थोड़ा मजबूत। साझा - संस्कृति की छतरी में ऊँचे तबके के हिन्दू - मुसलमान तो ठीक से रहते हैं और गाँवों के मिहनतक़श हिन्दू - मुसलमानों में भी एकता बनी रहती है, लेकिन ये शहरी गरीब हिन्दू - मुसलमान कुछ भिन्न तबियत के होते हैं। राही मासूम रजा के एक उपन्यास में इसकी बानगी उनके गालियों से भरे संवादों में मिल जाती है।
बालासाहेब के कार्टूनिस्ट दिमाग ने इन सब को जज्ब किया। बिना लाग-लपेट के बोलने वाले बालासाहेब ने मुसलमानों के खिलाफ जिहाद बोल दिया- " लुंगी हटाओ "। यह नारा इंदिरा गांधी के ' गरीबी हटाओ ' की तरह समाज के एक हिस्से में लोकप्रिय हो गया। बालासाहेब को सबका नेता बनने की कोई जिद नहीं थी । उन्हें आधार मिलता चला गया।
शिवसेना ने सबको हैरत में डालते हुए महाराष्ट्र की जमीन पर अपनी पहचान स्थापित कर ली। जनसंघ ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी थी। बालासाहेब ने शिवसेना को हिन्दुओं की पार्टी बना दिया। हिन्दुओं में ओबीसी - दलित अधिक हैं, तो उनकी पार्टी में भी वे ही अधिक रहेंगे। व्यक्तिगत स्तर पर बालासाहेब जातिवाद के सख्त खिलाफ थे और इसे हिन्दुओं के एका का सबसे बड़ा अवरोध मानते थे।
लेकिन उनमें उससे भी बड़ी चीज थी उनका साहस। वह साफ़ और बिना लागलपेट के बोलते थे। उन्होंने पार्टी का नाम सेना रखा था। सचमुच लोकतंत्र में उनका यकीन सीमित ही था। व्यक्तित्व में तो वह डेमोक्रेट बिल्कुल नहीं थे। वह सेनापति मिजाज के थे। ऐसा लगता है तब महाराष्ट्र में ऐसे व्यक्तित्व और पार्टी की जरुरत थी।
मैं कहूंगा आज वह जरूरत नहीं रह गई है। व्यक्तिगत स्तर पर मेरा आकलन यह है कि उद्धव आधुनिक मिजाज के बेहतर इंसान हैं। उनका व्यक्तित्व सेना के मध्ययुगीन ढाँचे से मेल नहीं खाता। इसलिए उनका नहीं टिक पाना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। मैं व्यक्ति तौर पर उनके प्रति एक सम्मान का अनुभव कर रहा हूँ और इसे छुपाना अपराध ही होगा। मैं यह भी जानता हूँ कि उनके पिता की पार्टी शिवसेना कुछ समय बाद भाजपा द्वारा हजम कर ली जाएगी।
आज की भाजपा बालासाहेब के मिजाज या उनसे भी कुछ अधिक गाढ़े मिजाज की हो चुकी है। अब शिवसेना की कोई जरूरत नहीं है। उद्धव ठाकरे इतने अधिक सज्जन हैं कि बालासाहेब नहीं बन सकते। इसलिए उनका कोई राजनीतिक भविष्य हो सकता है इस पर मैं इत्मीनान नहीं कर पा रहा हूँ ।
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