अंधेरे आंतों को चिरने वाले योद्धा नाट्यकार हबीब तनवीर

सुशान्त कुमार

 

लेकिन तस्वीर के साफ होते ही यह स्पष्ट हो गया कि सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में सिर्फ गिनती के कुछ लोग हैं जो नैतिकता और राष्ट्रीयता के अपने मापदंड को समस्त देशवासियों पर थोपना चाहते हैं और यह भी बड़े आक्रमक ढंग से।

वे आगे कहते हैं कि संघ परिवार और भगवा ब्रिगेड के लोग इन्हें कला, साहित्य, नाटक, फिल्म और संस्कृति की समझ नहीं है। इसलिए धर्म की आड़ लेकर अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला करते हैं। विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल सहित जो भी फासिस्टवादी ताकतें यह सब करती हैं वे समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष और जाति के नाम पर फूट डालना चाहती है।

घटना बाबरी मस्जिद के ध्वंस की हो या वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर किए गए आतंकी हमले की दोनों अमानवीय और निंदनीय है। पिछले कुछ वर्षों में विश्व प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन की कलाकृतियों का, दीपा मेहता की फिल्म वाटर के साथ जो कुछ हुआ वह साझी संस्कृति का विरोध ही नहीं है वरन मैं मानता हंू कि ये काम सोची समझी साजिश के तहत जनतांत्रिक विचारों का दमन करने की कोशिश है।

असहमति के लिए भी एक शालीन गुंजाइश हमेशा बनी रहनी चाहिए। राष्ट्रवाद और धर्म की आड़ में साम्प्रदायिकता और कट्टरता का माहौल बनाना बहुत खतरनाक है। राष्ट्रवाद आधुनिक अवधारणा है। इसके अपने कुछ मूल्य है जिसमें धर्मनिरपेक्षता प्रमुख है। विचार के ‘स्पेस’ को कम किया जाना लोकतंत्र का अपमान है।

भय और आतंक का माहौल बनाकर किसी विचार को दबाया नहीं जा सकता। विचार की आजादी से ही हम मानवता की रक्षा कर सकते हैं। चुनांचे सभ्य समाज में सांझी संस्कृति के विकास के लिए विचार के स्पेस को हमेशा सम्मान मिलना चाहिए।

29 जून 2003 से 22 जुलाई 2003 तक पोंगवा पंडित और जिन लाहौर नई देख्या वो जन्मई नई नाटकों का केवल विरोध ही नहीं हुआ वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं।

संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है। फासिस्टवादी ताकतों की खतरनाक सोच का परिणाम है यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। हमले की शुरूआत 16 अगस्त 2003 को ग्वालियर में हुई। फिर 18 अगस्त को होशंगाबाद में, 19 अगस्त को सिवनी में, 20 अगस्त को बालाघाट और 21 अगस्त को मंडला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिन्दूु परिषद, बजरंग दल ओर आरएसएस के लोग उपद्रव करते रहे।

मैंने उन्हें बारम्बार समझाने की कोशिश की कि पोंगवा पंडित कोई नया नाटक नहीं है। यह पिछले 70-75 वर्षों से लगातार खेला जा रहा है। 1930 के आसपास छत्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं सुखराम और सीताराम ने इसे सबसे पहले जमादारिन के नाम से प्रस्तुत किया था। पिछले 30 वर्षों से तो नया थियेटर के कलाकारों द्वारा देश-विदेश में सैकड़ों बार प्रस्तुत किया जा चुका है।

वे गंभीरता के साथ कहते हैं कि फासिज्म का ही दूसरा नाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। नाटक को देखे बिना ही उसका विरोध करने की प्रवृत्ति गलत है, यह कठमुल्लापन है। धार्मिक कट्टरता इसकी तह में बिना किसी जायज कारण के भी खोलती रहती है। हमारी पीड़ा और हमारा संकट यह है कि इस तरह के हमलों से कलाकारों का परफारमेन्स प्रभावित होता है।

पोंगवा पंडित हास्य और व्यंग्य से ओतप्रोत बेहद लोकप्रिय नाटकों में से एक है। इसकी प्रस्तुति के पहले नया थियेटर के कलाकारों में एक रोमांच, एक तरंग, एक स्फूर्ति और एकजीवंतता होती है। यही जीवंतता कामेडी में जान फूंकती है।

इस बीच वे कलाकारों के बौद्धिक स्तर को भांपते हुए कहते हैं कि कलाकार भी आदमी होता है, उन्हें तब अच्छा लगा जब धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने हमारे साथ खड़े होकर संघ परिवार की चुनौतियों के खिलाफ ताल ठोक दी।

सफाई कामगारों, जमादारिनों सहित राजनीतिक पाटियों के कार्यकर्ताओं ने झंडों, बैनरों ओर झाडुओं के साथ नाटक के पक्ष में लम्बा जुलूस निकाला। सामाजिक उत्तरदायित्व की यह संज्ञा अपने पूरे अर्थ को साकार करने में बहुत समर्थ है।

दिल्ली में बुद्धिजीवियों ने एक संयुक्त वक्तव्य में अनुठे संकल्प की घोषणा की-‘कलाकारों, लेखकों तथा साथी नागरिकों के नाते हम हबीब तनवीर पर हमला करने वालों का मुकाबला करेंगे, अपने काम में, रंगमंच पर, मीडिया में, सडक़ों पर। और यह हम वैसी ही स्पष्ट तथा जोरदार आवाज में करेंगे जैसी आवाज हबीब तनवर के नाटाकं की है।

चुनांचे सारी बाधाओं और आशंकाओं के बीच रूढि़वादी विचार के खिलाफ मैं संघर्ष करता रहूंगा। मैं मानता हूं कि सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं के बीच आज भी विचार के लिए जगह बची हुई है। और विचार के इस स्पेस का हमें विस्तार करना है।


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