बुद्ध आंबेडकर के साथ क्या हम सवर्ण और दलितों के बीच समरसता के पुल बनाने लगे हैं...

सुशान्त कुमार

 

एक लंबे समय से दलित, आदिवासी और ओबीसी समाज प्रताडि़त और सत्ता के सुख से दूर है। इस वर्ग का कहना है कि वे शासन में थे अब जातीयता के आधार पर शोषित है। विचारों को माननेवाले जानते हैं कि इस बड़ी आबादी के बूते से वर्तमान शोषण और वोट के बदौलत शोषण पर आधारित एक सवर्ण सरकार चलती है और मार्के की बात यह है कि इस कथित पीडि़तों के बीच से भी सरकार में लोग पहुंचते हैं।

लेकिन कमोबेश स्थिति यही रहती है कि व्यापक कथित बहुजन समाज संविधान में कहे गये उसूल समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और मानवाधिकार से कोसों दूर ही रहता है। अपने धर्म पर यह समाज टिका नजर नहीं आता है। और समाज बदतर स्थिति में अपना गुजर बसर करते हैं। सफाई का काम करते हैं, रेहड़ी लगाते हैं। दिहाड़ी मजदूरी करते हैं और दूसरों की खेतों और फैक्टरियों में काम करते हैं और तो और आज भी मरे हुये जानवरों के चमड़े उतारते हैं और नंगाड़ा बनाकर बेचते भी हैं।

एक बड़ा आदिवासी समाज जंगलों में पिछड़ी जिंदगी जीने में मजबूर हैं और लगातार आतंकवादी और नक्सलियों के नाम से मार दिये जाते हैं। जिसे पिछड़ा समाज कहा जाता है वह समाज और बहुजन समाज का कथित बुद्धिजीवी और लड़ाकू वर्ग इलिट बहुजन समाज अपने और सवर्ण समाज के बीच समरसता की एक बड़ी मजबूत पुलिया बनाने में लगे हुये है।

इस समाज में कई चमत्कारिक नेता हुये, कई पार्टियां बनी और सरकार में आने की कोशिश भी हुई लेकिन बहुजन समाज आंबेडकर के संविधान लिखे जाने के बाद भी देश में शासक नहीं बन सका। इस कारण से उसके समझ, उनके धामिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक बदलाव नहीं हो पाये। कहा जाये तो देश सामंतवादी चोला को उतार नहीं फेंक सका और पूरे तौर पर पूंजीवादी भी नहीं बन पाये और बाद में समाजवादी व्यवस्था में बदलना दूर का कौड़ी साबित हुआ।

ठीक उसी तरह अछूत, आदिवासी और पिछड़ा समाज जस का तस पिछड़ा और बदहाली लिए हासिये में खड़ा है। जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था को इसका कारण माना जाता है। किसी का कहना है कि जाति व्यवस्था को दूर करे बगैर वर्ग व्यवस्था का समाधान नहीं किया जा सकता है तो किसी का कहना है कि वर्ग व्यवस्था ही इन सारी समस्याओं का समाधान कर देता है।

कोशिशें हो रही है। इस कोशिश में संविधान के बाद इस समाज को जिस तरह अमेरिका में रेड इंडियन के लिये अफरमेटिव एक्शन अमल में लाये गये हैं हमारे देश में सवर्णों से मांगकर प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लाई गई। लोगों को राजनीति और नौकरी में समान पायदान में लाने के लिये कोशिश हुई। एक बड़ा वर्ग तैयार हुआ जिसे नौकरी मिली और इन लोगों के पास नौकरी के कारण सुख सुविधाये और संसाधन भी आये। इन सारे मसलों को लेकर सवर्णों ने इस आरक्षण का विरोध किया।

उनका तर्क है कि आरक्षण के कारण ब्राह्मण मंदिरों में पूजापाठ कर रहा है और उनके बच्चे सरकारी नौकरियों से अछूते हैं और गरीबी में गुजर बसर कर रहे हैं। सवर्ण इस वर्ग को सरकारी ब्राह्मण कहने लगे। और यह वर्ग वास्तव में ब्राह्मण की तरह हरकत करने लगा। यह वर्ग तमाम बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व वर्ग बनने और बड़े और कुख्यात सवर्ण समाज को सत्ताच्युत करने उसे बार बार चुनौती देने के लिये उठ खड़े होने का ढोंग करने लगा।

ये अपने आप को संस्कृतिपुरूष कहने लगे। अपने आप को चाणक्य और परदे के पीछे के सुपरमेन कहने लगे। इस समाज ने नानक, कबीर, रविदास, आयोथिदास, घासीदास, फुले, पेरियार, आंबेडकर के भक्त बन लागों को लगातार चुनौती देने लगे। और अपने ईस्ट देवों की अगरबत्ती और मोमबत्तियों से पूजा करने लगे।

भंतों को विहारों में रखने लगे। यह भंते त्रिशरण पंचशील के साथ इस पीडि़त समाज के बीच चमत्कार और वर्चस्व के बीज बोने लगे। बाबा साहेब के 22 प्रतिज्ञाओं के ठीक उलट दुर्गा नवरात्रि, गणेश, होली, दीपावली, ईद, जयंतियों को मनाने और शुभकामनाओं के बहाने तलवे चाटने के राह ढूंढऩे लगे। कोरोना के इस दौर में इस समाज ने क्रांतिकारी कार्य किये। सडक़ों में खड़े होकर मजदूरों को उनके जरूरतों के सामान बांटने लगे।

और तो और भदंत और इस वर्ग के लड़ाकू युवाओं ने गलि गलि जाकर पीडि़तों को खाद्यन्न परोसा। और गाहे बगाहे भीक्षावृत्ति को बढ़ावा दिया। लेकिन जैसे पहले भी सत्ताधारियों के खिलाफ इनके नेता और पार्टी नहीं गये यह इलिट वर्ग भी सत्ता और सरकार से इस समाज के लोगों के बदहाली के लिये सवाल नहीं किया। सवाल के लिये इस समाज ने पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, युवाओं, भदंतों और महिलाओं को सामने ला खड़ा किया और उनके ढाल में खुद को बचाने की नुराकुश्ती करते नजर आये। भदंत ने धार्मिक चोला उतारकर राजनेताओं की सक्ल अख्तियार कर ली।

बुद्धिज्म और आंबेडकरवाद को क्रांतिकारियों की तरह फैलाने की बात करने लगे। कुछ ने कहा कि इस नव बहुजन इलिट वर्ग को समाज के लिये टाइम, टैलेंट और ट्रेजरी देनी चाहिए इससे समाज में तरक्की आएगी लेकिन इन लोगों ने कभी भी बैक लॉग पर बातें नहीं की, क्रीमीलेयर और आरक्षण का विरोध नहीं किया। टेलेंट को पांव की जूती माना लेकिन प्रतिभावान लोगों की तरक्की के लिये रास्ता नहीं निकाल। अपवादस्वरूप कुछ लागों ने शिक्षा में तरक्की के लिये खड़ी व्यवस्था में रफू का काम जरूर किया है।

और सत्ता में पहुंचने के लिये स्कूल-कॉलेज के साथ कोचिंग सेंटर खोलने की कवायद की। पहले फूले ने स्कूल खोली अब वे हमारे लिये स्कूल खोल रहे हैं लेकिन पढ़ाया वही जा रहा है जो हम उनके दिहाड़ी मजदूरी कर सके। इन लोगों ने बेक टू सोसायटी की बात की लेकिन सबसे ज्यादा समाज को इन लोगों ने दोहन किया। इस वर्ग ने एक नई यूटोपियन संस्कृति कि रचना की, नास्तिकता के नाम पर अपनी बौधिक भूख को मिटाने के लिये आंबेडकर और बुद्ध की जयंतियां मनानी शुरू करने के नाम पर अंधविश्वास, जातिवाद, धर्मवाद के साथ जयश्रीराम के नारे लगाने में भी परहेज नहीं की। कुछ तो अब कबीर, रविदास और नानक, ईसा और पैगम्बर के नाम पर बड़े बड़े उत्सव करने का आबम्डर कर रखा है।

यह इलिट वर्ग श्रीराम, गणेश, शिव, दुर्गा, रावण और महिषासुर के नाम पर अपनी संस्कृति बचाने का तर्क भी देते हैं। गया अयोध्या के बाद कुछ लोग सिरपुर को बचाने की बात कर रहे हैं। मिथक और सच्चाई को घालमेल कर एक नई इतिहास रचने की कोशिश भी हो रही है। काफी लंबे समय से कुछ भदंत और नेताओं ने मिलकर सिरपुर, डोंगरगढ़ और मेरेगांव को बौद्ध संस्कृति का केन्द्र कह कर इसकी रक्षा की बात की है।

और महिलाओं को फ्रंट में लाने की कोशिश भी की है। लेकिन पुरतात्विक दृष्टि से देखा जाये तो प्राचीन धरोहरों की संरक्षण के लिये सिरपुर जैसे प्राचीन धरोहरों को बचाने में हम नाकाम हुवे हैं। सारा क्षेत्र सवर्ण समाज के बनियों से पट गया है। उनके राजनेताओं और पुरोहितों ने इसे धार्मिक अखाड़ा बना दिया है।

पुरतात्विक महत्व के सारे स्थानों को पिछले कई वर्षों से ईलिट वर्ग के सहयोग से सांस्कृति और पुरातात्विक चेतना के नाम पर हिन्दू धर्म के मंदिरों और शोषकों के संस्कृति से पाट दिया गया है। इसे बचाने में लगे क्रांतिकारी वर्ग ने कोशिश यह किया है कि इसके केन्द्र में बाबासाहेब और बुद्ध की मूर्ति को खूंटा की तरह लगा दिये जाये ताकि ये सब हमारे आभासी कब्जे में रहे। बौद्ध विहार बना दिया जाये और ज्यादा हो तो जयंतियां ही मना ली जाये बस और कुछ भी नहीं।

पिछले तीन-चार साल से सिरपुर और डोंगरगढ़ में अंतरराष्ट्रीय उत्सव करवाये जाने की बात हो रही है। यहां भी इलिट वर्ग इसे अंजाम देने में लगा हुआ है। यहां जो उत्सव होता है उसमें करोड़ों रुपये खर्च होते हैं सवाल है कि क्या सरकार इनको इतने सारे फंड देती है या फिर किसी तरह अनआडिटेड फंड इस काम में लगा हुआ है। मेरे नजर में इस समाज के नजर में इसका लेखा जोखा सार्वजनिक नजर नहीं आता है जैसे सरकार के खिलाफ इनके भीरतघाती और गुरिल्ला योद्धा सामने नहीं आते हैं।

इस काम को अंजाम देने वाला वर्ग किंग मेकर की भूमिका में हैं कहा जाता है जैसे चाणक्य हुआ करते थे। हिसाब किताब के लिये महिलाओं को सामने ला दिखा दिया जाता है यह बताने के लिये कि हिसाब किताब में ट्रांसपेरेंट रहेगी। दावा यह भी किया जाता है कि ऐसे इलिट वर्ग के खिलाफ उनका सरकारी विभाग कन्क्वायरी भी करता है। लब्बोलुआब यह है कि दिखने में यह क्रांतिकारी बदलाव सरकार प्रयोजित एक्टिविज्म से कुछ भी कम नहीं है सरकार को जैसी एक्टिविज्म चाहिये ये अपने समाज से उस तरह की उसूल और विचारों की घालमेल का प्रवचन झाडक़र कर सवर्ण समाज विरोधी एक माहौल और उत्सव तैयार करने में सफल हो जाते हैं।

इतिहास में देखिये बहुजन लोगों ने संविधान लिखा। उस संसद तक पहुंचने में काफी रोटियां बेली। बदलाव के नाम पर उस समय के पार्टिंयों के साथ काम करना पड़ा। और जिनको हमने साथ दिया वे सभी इतिहास की तरह हमारे शाषक बन बैठे। जो शुद्र इलिट वर्ग तैयार हुआ वह धर्मांतरण और जयंतियां एनजीओ को खड़ी कर शोषणकारी सवर्ण व्यवस्था को मजबूत करने में क्रांति करने लगे।

यह समाज इतना कन्फ्यूज्ड है कि सवर्ण समाज के धिक्कार के बाद उस उच्चवर्णीय समाज के साथ तालमेल बैठाने में लगे हुये हैं, जाति व्यवस्था, ब्राह्मण, ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त करने में इनकी लड़ाई हिन्दू धर्म का क्षद्म आवरण धारण कर लिया है।

बाकी बेवकूफ, निराक्षर और जाहिल कहे जानेवाली बड़ी पीडि़त समाज को यह मूर्ख समझ बैठा है और समाज की बड़ी पीडि़त आबादी को यह समझना कठिन हो गया है कि नेता, पार्टी, विचारधारा, क्रांतिकारी बदलाव और राजसत्ता की प्राप्ति और आदमी आदमी का शोषण, एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण के खिलाफ जाकर बराबरी की दुनिया के लिये इस क्षद्म गृहयुद्ध में अपने इलिट पिछड़ा समाज के नेताओं को कैसे बेनकाब करे उन्हें पहचाने कैसे? सवाल यह भी कि रावण और महिषासुर के साथ देवासूर संग्राम को इतिहास में स्थापित करे तो करे कैसे करें?


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