ऐतिहासक त्रुटियों तथा भावनाओं के साथ खेलता फिल्म 'संविधान निर्माते डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर'

सुशान्त कुमार

 

उनके इस संघर्ष की कहानी को कई फिल्मों में भी दिखाया गया है। आज बाबा साहेब के जीवन पर इस फिल्म के प्रदर्शन के मौके पर आपको उनकी जिंदगी पर आधारित फिल्मों के बारे में और इस फिल्म की ऐतिहासक त्रुटियों पर आपसे बात करते हैं।

कोविड महामारी के लंबे प्रताड़ना के बाद सिनेमाघर में जाकर कबीर के लेखन और निर्देशन पर फिल्म 'संविधान निर्माते डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर'  को देखना कोई प्रताड़ना से कम नहीं था। इसके लिये विशेषकर रविता लकड़ा जी का शुक्रिया कि उन्होंने फिल्म समीक्षा के लिये यह व्यवस्था उपलब्ध करवाई। जितना फिल्म की समीक्षा कठिन होती है उससे कम फिल्म बनाना। 

साल 2000 में रिलीज हुई फिल्म 'बाबा साहेब आम्बेडकर' का निर्देशन जब्बार पटेल ने किया था। इस फिल्म में साउथ इंडस्ट्री के अभिनेता ममूटी नजर आए थे और यह हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा में भी रिलीज हुई थी। फिल्म इंग्लिश कैटेगरी में नेशनल फिल्म के अवॉर्ड से सम्मानित हुई थी। इसके अलावा, फिल्म के लिए ममूटी को बेस्ट एक्टर और जब्बार पटेल को बेस्ट आर्ट डायरेक्शन का अवॉर्ड मिला था।

फिल्म 'डॉ. बीआर अंबेडकर' साल 2005 में रिलीज हुई थी, जिसका निर्देशन शरण कुमार कब्बूर ने किया था। फिल्म कन्नड़ भाषा में सिनेमाघरों में आई थी।  इसमें विष्णुकांत बीजे ने आम्बेडकर की भूमिका निभाई थी। इसके अलावा, अभिनेत्री तारा उनकी पहली पत्नी रमाबाई आम्बेडकर के रूप में दिखीं। वहीं, भव्या उनकी दूसरी पत्नी सविता आम्बेडकर के किरदार में नजर आई थीं।

साल 2011 में रिलीज हुई फिल्म 'रमाबाई भीमराव आम्बेडकर' का प्रकाश जाधव ने निर्देशन किया था। ये फिल्म मराठी भाषा में रिलीज हुई थी, जो एक बायोपिक है। फिल्म में गणेश जेठे, नंदकुमार नेवालकर, निशा पारुलेकर, प्रभाकर मोर, अनिल सूत्र, अमेय पोटकर, निमेष चौधारी, प्रथमेश प्रदीप, दशरथ हटिसकर, स्नेहल वेलंकर जैसे कलाकार एक साथ नजर आए थे। बायोपिक के शौकिनों के लिए यह एक शानदार फिल्म है।

सुधाकर वाघमारे द्वारा निर्देशित 'भीम गर्जना' एक मराठी फिल्म है, जो साल 1989 में रिलीज हुई थी। यह भी एक बायोग्राफी है, जिसमें कृष्णानंद और प्रतिमादेवी जैसे कलाकारों ने लीड रोल निभाया था।

'बाल भीमराव' साल 2018 में मराठी भाषा में रिलीज हुई थी। इस फिल्म का निर्देशन प्रकाश नारायण जाधव द्वारा किया गया था। फिल्म में मोहन जोशी, विक्रम गोखले, किशोरी शहाणे विज, प्रेमा किरण जैसे  कलाकार एक साथ नजर आए थे।

जो लोग डॉ. भीमराव आम्बेडकर को नहीं जानते हैं या कहे कि उनके बारे में अध्ययन नहीं किया होगा उसके लिये यह वर्तमान फिल्म 'संविधान निर्माते डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर' उनके भावनाओं के साथ तीव्रता के साथ खिलावाड़ करेगा। प्रतिक्रिया स्वरूप लोग नारे लगायेंगे विभिन्न तरीकों से प्रचार प्रसार और अपनी खास भक्ति भी दिखायेंगे। लेकिन इस भक्ति में आपको भीमराव आम्बेडकर के इतिहास और उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करने का हक कोई नहीं देता है।

खैर अधकचरे फिल्म की प्रिंट क्वालिटी के लिये कोई क्या कर सकता है। हमारे पास आर्थिक संसाधन की कमी हो सकती है लेकिन आपको उनके बारे में पढ़ने और शोध करने के लिये किसने रोका है? नब्बे के दशक के बाद कहना चाहिए उनकी साहित्य धड़ल्ले से हमारी बीच आनी शुरू हुई थी। और आज मशहूर लेखक जाफ्र्लो, कीर और ओमवेट के पुस्तकें हमारे बीच मौजूद हैं। कुछ नहीं तो बाबासहेब के पूजने वालों के घरों में उनकी 22 वाल्यूमस तो आपको मिल ही जाएगी। राजनांदगांव में भरकापारा बौद्ध विहार में संविधान सभा में उनके डिबेट मौजूद हैं। लेखक और निर्देशक को कम से कम इन पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए था।

जीवन भर जिस व्यक्ति ने धर्म, पाखंड के खिलाफ संघर्ष किया है फिल्म की शुरूआत आपने बाबाओं की भविष्यवाणियों के साथ कर डाली। और तो और पानी सत्याग्रह के समय लेखक ने नाव खेते हुवे अपने बांये हाथ में ताबिज - गंडा पहना हुआ है। फिल्म में उस समय नीले झंडे और जय भीम के नारे कहां से आये? सन 1927 तक, डॉ॰ आम्बेडकर ने छुआछूत के विरुद्ध एक व्यापक एवं सक्रिय आंदोलन आरम्भ करने का निर्णय किया।

उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों, सत्याग्रहों और जलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया। तारीख थी 20 मार्च 1927 दोपहर का वक़्त था। सूरज की किरणें तालाब के पानी पर पड़ती जो चमक उठती।

तालाब की सीढ़ियों से एक हुजूम नीचे उतर रहा था। सबसे पहले डॉ आम्बेडकर तालाब की सीढ़ियों से नीचे उतरे। उन्होंने नीचे झुककर अपने हाथ से पानी को स्पर्श किया। यही वो ऐतिहासिक पल था जिसने एक क्रांति को जन्म दिया। यही वो पल था जिसने इंसान और इंसान में फर्क़ करने वाली घटिया सोच पर सबसे करारा वार किया था।

भारतीय इतिहास में यही वो पल था जिसने भारत को असल मायनों में एक राष्ट्र बनाने की नींव डाली थी। भारतीय इतिहास की इस महान घटना ने करोड़ों अछूतों को इंसान होने का दर्जा दिलाया था।

अंग्रेजी शासन काल में सन 1924 में महाराष्ट्र के समाज सुधारक एस. के. बोले ने बम्बई विधानमंडल में एक विधेयक पारित करवाया जिसमें सरकार द्वारा संचालित संस्थाओं जैसे अदालत, स्कूल, हॉस्पिटल, पनघट, तालाब जैसे सार्वजनिक स्थानों पर अछूतों को प्रवेश और उनका उपयोग करने का आदेश दिया गया।

कोलाबा जिले के महाड में स्थित चवदार तालाब में ईसाई, मुसलमान, पारसी, पशु, यहां तक कि कुत्ते भी तालाब के पानी का उपयोग करते थे लेकिन अछूतों को यहां पानी छूने की भी इजाजत नहीं थी। लेकिन सवर्ण हिन्दुओं ने नगरपालिका के आदेश भी मानने से इनकार कर दिया। विधेयक पारित होने के बावजूद जातिवादी सवर्ण हिंदुओं ने अछूतों को सार्वजनिक तालाबों और कुओं से पानी नहीं पीने दिया।

डॉ आंबेडकर कहा करते थे अधिकार मांगने से नहीं मिलते बल्कि अपने अधिकारों को छीनना पड़ता है। बंबई विधानमंडल से अछूतों को सार्वजनिक जगहों से पानी पीने का हक तो मिल गया था लेकिन ब्राह्मणवादियों ने उन्हें पानी को छूने तक नहीं दिया। इसीलिए बाबा साहब डॉ आंबेडकर अधिकार मांगने की जगह अपने अधिकार को छीनने के लिए निकल पड़े।

डॉ. आंबेडकर ने अपने सहयोगियों के साथ 19-20 मार्च 1927 को महाड के चवदार तालाब को मुक्त कराने के लिए सत्याग्रह करने का फैसला किया। महाड़ कूच करने से पहले बाबा साहब ने कहा था तीन चीजों का तुम्हें छोड़ना होगा। उन कथित गंदे पेशों को छोड़ना होगा जिनके कारण तुम पर लांछन लगाये जाते हैं। दूसरे, मरे हुए जानवरों का मांस खाने की परम्परा को भी छोड़ना होगा और सबसे अहम है कि तुम उस मानसिकता से मुक्त हो जाओ कि तुम अछूत हो।

उन्होंने पीने के पानी पर सबके समान हक की बात दोहराते हुए कहा क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है? क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? नहीं, दरअसल इन्सान होने का हमारा हक जताने हम यहां आये हैं।

20 मार्च की सुबह बाबा साहब की अगुवाई में लगभग पांच हजार लोग शान्तिपूर्ण तरीके से तालाब पर पहुंचें। सबसे पहले डॉ. आंबेडकर तालाब की सीढ़ियों से उतरे। सबसे पहले बाबा साहब ने पानी हाथ में लिया और कहा -इस पानी को पीने से हम अमर नहीं हो जाएंगे लेकिन इससे ये साबित होगा कि हम भी इंसान हैं। इसके बाद उन्होंने पानी की घूंट भरी और फिर सभी लोगों ने पानी पिया। भारत के इतिहास में ये पहली घटना थी जब अछूतों ने सार्वजनिक तालाब से पानी पिया था। ये अछूतों के लिए ऐतिहासिक क्षण था।

जातिवादी सवर्णों ने डॉ. आंबेडकर के साथ आए लोगों पर लाठियों से हमला कर दिया। महिलाओं से लेकर बच्चे और बुजुर्गों तक पर जातिवादियों का कहर टूट पड़ा। डॉ. आंबेडकर ने हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया, उन्होंने अपने लोगों को किसी तरह शांत रखा। इस हमले में बहुत से लोग घायल हो गए। बाबा साहब ने मनुवाद की गर्भनाल को ही काट दिया था जिससे मनुवादी बुरी तरह बौखला गये थे।

सवर्णों ने अछूतों के छूने से अपवित्र हुए चवदार तालाब का शुद्धिकरण करने के लिए गोबर और गौमूत्र तालाब में डलवाया और मंत्रों के जरिए तालाब को शुद्ध करने का ढोंग किया। घटियापने की हद देखिए, ये लोग तालाब में गौमूत्र डाल रहे थे, गाय के मूत को पी रहे थे लेकिन किसी दलित का छुआ पानी इनके हलक में अटक जाता था।

महाड़ सत्याग्रह का दूसरा चरण 

द शुद्र लिखता है कि 20 मार्च की घटना के बाद सवर्णों ने तालाब पर फिर से कब्जा कर लिया। इसके जवाब में डॉ. आंबेडकर ने फिर से 25 दिसंबर को सत्याग्रह की योजना बनाई। महाड़ सत्याग्रह के दूसरे चरण को सफल बनने के लिए जगह-जगह सम्मेलन किये गए। इसी कड़ी में बम्बई में आयोजित एक सभा में 3 जुलाई 1927 को बाबासाहब ने कहा था सत्याग्रह का अर्थ लड़ाई। लेकिन यह लड़ाई तलवार, बंदूकों, तोप तथा बमगोलों से नहीं करनी है बल्कि हथियारों के बिना करनी है।

जिस तरह पतुआखली, वैकोम जैसे स्थानों पर लोगों ने सत्याग्रह किया उसी तरह महाड़ में हमें सत्याग्रह करना है। इस दौरान सम्भव है कि शान्तिभंग के नाम पर सरकार हमें जेल में डालने के लिए तैयार हो इसलिये जेल जाने के लिए भी हमें तैयार रहना होगा। सत्याग्रह के लिए हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो निर्भीक तथा स्वाभिमानी हों। अस्पृश्यता यह अपने देह पर लगा कलंक है और इसे मिटाने के लिए जो प्रतिबद्ध हैं वही लोग सत्याग्रह के लिए अपने नाम दर्ज करा दें।

बाबा साहब के बुलावे पर हजारों लोग फिर से सत्याग्रह के लिए इकट्ठा हुए लेकिन पुलिस ने हालात बिगड़ने की आशंका के मद्देनजर उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। मजबूरी में पहाड़ सत्याग्रह का दूसरा चरण रद्द करना पड़ा लेकिन इसके बाद डॉ. आंबेडकर ने कानून का सहारा लिया।

डॉ. आंबेडकर ने बम्बई हाईकोर्ट में करीब 10 साल तक ये लड़ाई लड़ी और आखिरकार 17 दिसम्बर 1936 को अछूतों को चवदार तालाब में पानी पीने का अधिकार मिल ही गया। अछूतों के लिए एक ऐतिहासिक जीत थी। 1927 के अंत में सम्मेलन में, आम्बेडकर ने जाति भेदभाव और छुआछूत को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए, प्राचीन हिंदू पाठ, मनुस्मृति, जिसके कई पद, खुलकर जातीय भेदभाव व जातिवाद का समर्थन करते हैं,की सार्वजनिक रूप से निंदा की, और उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जलाईं।

25 दिसंबर और भारत के दलित-बहुजन

ईसा ने जन्म लेने के लिए किसी पुरोहित या राजा का घर नहीं चुना। वे एक बढ़ई के घर में जन्मे थे और अपनी युवा अवस्था में बढ़ई के रूप में ही काम करते थे। उन्होंने न तो सत्ता को चुना, न धन को, और ना ही रुतबे को। यह बाइबिल के पहले अध्याय की इस शिक्षा के अनुरूप था कि हर पुरुष और स्त्री में ईश्वर की छवि होती है।

डॉ. सिल्विया फर्नांडिस फारवर्ड प्रेस के लिये लिखते हैं कि वह 25 दिसंबर 1927 का ही दिन था जब डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल 1891 - 6 दिसंबर 1956) ने दलितों और कुछ ओबीसी के एक बड़े समूह का नेतृत्व करते हुए मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया था। यह विधिशास्त्र, सभी शूद्रों और दलितों को नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त करता है। आज, मुख्यत: दलित इस दिन को उनकी मुक्ति की राह पर पहले कदम के रूप में याद करते हैं। डॉ. आंबेडकर ने इस साहसिक और क्रांतिकारी कदम के लिए 25 दिसंबर को ही क्यों चुना? क्या इसकी वजह यह थी कि उस दिन सारी दुनिया ईसा मसीह का जन्मदिन मनाती है?

इस फिल्म में मंदिर प्रवेश के प्रतिशोध में मनुस्मृति का दहन विरोधाभाष पैदा करता है। फारवर्ड प्रेस के लिये सिद्धार्थ लिखते हैं कि1917 से 1920 के बीच  तीन वर्ष उनकी जिंदगी के उथल-पुथल से भरे थे। सच तो यह है कि उनकी पूरी जिंदगी ही उथल-पुथल से भरी रही। इसी बीच वे इकरारनामे के अनुसार बड़ौदा नरेश के यहां नौकरी करने गए थे। उन्हें किन-किन अपमानों का सामना करना पड़ा, इसका दिल दहला देने वाला वर्णन उन्होंने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा 'वेटिंग फॉर वीजा' में किया है। 

आम्बेडकरी पत्रकारिता मूकनायक के 100 साल

इसी बीच वे सिंड़हम कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्त हुए। नवंबर, 1918 में उन्होंने यह पद संभाला। प्रोफेसर होना न तो उनकी जिंदगी का ध्येय था और न ही यह उनको संतुष्टि दे सकता था। हर समय उनकी चिंता का विषय अस्पृश्यों का अपमान और इससे मुक्ति बनी रही। इसी बीच वे साउथबरो कमेटी के सामने प्रस्तुत हुए, जो मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार कार्यक्रम के तहत भारत की विभिन्न जातियों से मताधिकार के बारे में पूछताछ कर रही थी। अस्पृश्य वर्ग की ओर से कर्मवीर शिंदे (23 अप्रैल, 1873 - 2 अप्रैल, 1944) और डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891  -  6 दिसंबर, 1956) उस कमेटी के सामने उपस्थित हुए और अपनी गवाही दी। इस संदर्भ में बम्बई टाइम्स को लिखे अपने एक पत्र में डॉ. आंबेडकर ने लिखा स्वराज जैसा ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार है, वैसा ही वह महारों का भी है। (धनंजय कीर, पृ. 40)

इसी वर्ष दत्तोबा पवार नाम के एक व्यक्ति की मध्यस्थता से डॉ. आंबेडकर को राजर्षि शाहू महराज (26 जून, 1874  -  6 मई, 1922) के साथ प्रत्यक्ष परिचय का संयोग प्राप्त हुआ। शाहू जी महाराज ने डॉ. आंबेडकर को आर्थिक सहायता देकर एक पाक्षिक निकालने को कहा। (वही, पृ. 40)। धनजंय कीर के विपरीत अन्य अध्येताओं का कहना है कि शाहू जी से मुलाकात के समय डॉ. आंबेडकर ने एक पत्र प्रकाशित करने की रचनात्मक रूपरेखा शाहू जी महाराज के सामने प्रकट की और शाहू जी महाराज आर्थिक सहायता देने को तैयार हो गए।

इस संदर्भ में डॉ. आंबेडकर के गहन अध्येता वसंत मून लिखते हैं कि साल 1919 के करीब डॉ. आंबेडकर कोल्हापुर के महराज के निकट संपर्क में आए। यह संपर्क उन्होंने कोल्हापुर निवासी दत्तोबा पवार के मार्फत स्थापित किया था। उन्होंने मूकनायक नामक पाक्षिक पत्र प्रारंभ करने की इच्छा से महाराजा साहब से आर्थिक मदद देने का अनुरोध किया। (वसंत मून, पृ. 20) 

इस तथ्य की पुष्टि श्यौराज सिंह बेचैन मूकनायक के संपादकीय लेखों के संकलन में दो शब्द में करते हैं। (मूकनायक, संपादन, श्यौराज सिंह बेचैन, पृ.8-9)। यह पाक्षिक  मूकनायक दलित आंदोलन के मुखपत्र के रूप में आरंभ हुआ था। लेकिन फिल्म में मूकनायक को पहले प्रकाशित करते हुवे दिखा दिया जाता है और राजर्षि शाहू महराज से उनकी मुलाकात बाद में दिखाया गया है। 

पूना पैक्ट के हिस्से पर गौर करें?

जनचौक के लिये चन्द्रप्रकाश झा लिखते हैं कि आंबेडकर का राजनीतिक जीवन 1926 में शुरू हुआ। वह वायसराय की कार्यपरिषद में जुलाई 1942 से 1946 तक सदस्य थे। वह 29 अगस्त 1947 से 24 जनवरी 1950 तक भारतीय संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष और 3 अप्रैल 1952 से 6 दिसम्बर 1956 तक तत्कालीन बॉम्बे राज्य से राज्यसभा सदस्य रहे। वह 15 अगस्त 1947 से सितम्बर 1951 तक भारत के प्रथम कानून और न्याय मन्त्री रहे। वह केन्द्रीय श्रम मंत्री भी रहे। वह बॉम्बे विधानसभा में 1937 से 1942 तक विपक्ष के नेता थे।

वह विधानसभा में बॉम्बे शहर सीट से जीते थे। वह 1926 से 1936 तक बॉम्बे विधान परिषद के भी सदस्य रहे। 1925 में उन्हें बॉम्बे प्रेसीडेंसी कमेटी में सभी यूरोपीय सदस्यों के साइमन कमीशन में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध में भारत भर में प्रदर्शन हुये। इसकी रिपोर्ट की अधिकतर भारतीयों ने अनदेखी की। आम्बेडकर ने भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिश अलग से लिखकर भेजी थी। 

दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के तहत 1 जनवरी 1818 को कोरेगांव की लड़ाई में मारे गये भारतीय महार सैनिकों के सम्मान में आम्बेडकर ने 1 जनवरी 1927 को कोरेगांव विजय स्मारक (जयस्तंभ) में एक समारोह आयोजित किया। यहां महार समुदाय के शहीद सैनिकों के नाम संगमरमर के शिलालेख पर खुदवाये गये और कोरेगांव को दलित स्वाभिमान का प्रतीक बनाया। 25 दिसंबर 1927 को उन्होंने हजारों अनुयायियों के नेतृत्व में मनुस्मृति की प्रतियों को जलाया। इसकी स्मृति में आम्बेडकरवादियों और हिंदू दलितों द्वारा हर वर्ष 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस मनाया जाता है।

1931 में ब्रिटिश राज द्वारा बुलाए दूसरे गोलमेज सम्मेलन तक आंबेडकर सबसे बड़ी राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की उदासीनता की कटु आलोचना की। आम्बेडकर ने महात्मा गांधी की भी आलोचना कर उन पर अछूत समुदाय को करुणा की वस्तु के रूप मे पेश करने का आरोप लगाया। वह ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे। उन्होंने अछूत समुदाय के लिये ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की जरूरत पर जोर दिया जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश हुकूमत की दखल ना हो।

लंदन में 8 अगस्त, 1930 को प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि दुनिया के सामने रखी जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा , उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है। 1931 में लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर उनकी गांधी से तीखी बहस हुई।

धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई कि पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज को विभाजित कर देगी।1932 में अंग्रेजों ने आम्बेडकर के विचारों से सहमत होकर अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की। गांधी तब पूना की येरवडा जेल में थे जहां से उन्होंने पहले तो  इसे बदलने की मांग की। जब उनको लगा उनकी मांग पर अमल नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने आमरण व्रत रखने की घोषणा कर दी। तभी आम्बेडकर ने कहा कि यदि गांधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखते तो अच्छा होता लेकिन उन्होंने दलित लोगों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो अफसोसजनक है।

आमरण व्रत के कारण गांधी की तबियत बिगड़ गई तो हिंदू समाज आम्बेडकर का विरोधी बन गया। देश में बढ़ते दबाव को देख आम्बेडकर 24 सितम्बर, 1932 को येरवडा जेल पहुंचे जहां गांधी और आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ जो पूना पैक्ट कहलाता है। इस समझौते में आम्बेडकर ने दलितों को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की। लेकिन इतिहास हमें  फिर से कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को प्राप्त करने के लिये ललकार रहा है। 

विकिपीडिया कहता है कि डॉ. आम्बेडकर के पिता सुबेदार सकपाल अर्थात भीमराव आम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत रहे थे और उनके पिता रामजी सकपाल, भारतीय सेना की महू छावनी में सेवारत थे तथा यहां काम करते हुये वे सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उनकी सैनिक जीवन पर कार्य कुछ बड़ा चढ़ा कर दिखाया गया।

इस फिल्म में उनके जीवन के ऐतिहासिक घटनाओं के साथ छेड़छाड़ किया गया है। जिस समय मूकनायक पत्रिका निकलती थी तब फिल्म में दिखाई गई 'फेसिट' अंग्रेजी टायपिंग मशीन नहीं थी। जो अंग्रेजी में है उसमें हिन्दी मराठी में टाइप करते हुवे बताया गया है।  दैनिक भास्कर लिखता है कि 1881 में आई भाप से चलने वाली ट्रेन, 1978 में चला डीजल इंजन, 42 साल बाद अब इलेक्ट्रिक इंजन। फिर फिल्म में डीजल इंजन का संचालन समझ से बाहर है। जिस कार को दिखाया गया है वह भी गलत है।

फारवर्ड प्रेस में आम्बेडकर के पहले अखबार 'मूकनायक' के सौ साल और दलित पत्रकारिता में बाबसाहेब के कार को देखा जा सकता है। अर्थात कोरियोग्राफी और एडिटिंग की काफी सारी गलतियां है। पुराने काल को दर्शाने के लिये आप हाल की फिल्म 'सरदार उधम' देख सकते थे। जिस 'फेसिट' टायपिंग मशीन को दिखाया है है वह 1984 का मॉडल है। जबकि संग्रहालयों से उनके समय के टायपिंग मशीन का उपयोग दिखाया जा सकता था। रमाबाई का अभिनय जबरदस्त है लेकिन बाबासाहेब के किरदार में व्यक्ति फिट नजर नहीं आये।

संविधान पर फिल्म का नाम लेकिन इस महत्वपूर्ण ग्रंथ और वर्तमान समय में उसकी उपयोगिता पर कुछ भी नहीं। धम्मदीक्षा और दीक्षाभूमि पर और भी भव्य तरीके से दर्शाया जा सकता था। लेकिन चीजों को रखने में लेखक और निर्देशक ने जल्दबाजी दिखाई है। बहरहाल गरीबी, बहिष्करण, लांछन से भरा बचपन मन के एक कोने में दबाये हुए आंबेडकर ने देखा था कि उनके जैसे करोड़ों लोग भारत में किस प्रकार का जीवन जी रहे हैं. उनके जीवन और आत्मा में प्रकाश शिक्षा ही ला सकती है। यही उन्हें उस दासता से मुक्त करेगी जिसे समाज, धर्म और दर्शन ने उनके नस-नस में आरोपित कर दिया है।

इस दासता को दलितों को अपनी नियति मान लेने को कहा गया था। आंबेडकर इसे तोड़ देना चाहते थे। वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन गैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। इसलिए जब अक्टूबर 1956 में उन्होंने हिंदू धर्म से अपना विलगाव किया तो उन्होंने स्वयं और अपने अनुयायियों को बाइस प्रतिज्ञाएं करवाईं। और ये प्रतिज्ञायें बिना चश्में से पठन किया गया।

यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह में न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं।

हम दलित हो सकते हैं लेकिन बुद्धि और फिल्म बनाने में हमारा कोई जवाब नहीं, यह बताना जरूरी रह गया है। आपने जो फिल्म बनाया है उस पर विमर्श की जरूरत है। बाबासाहेब के जीवन से जुड़े कालक्रम, ऐतिहासिक घटनाक्रम और उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े स्कॉलर पर ऐसा शोधविहीन फिल्म गैरजिम्मेदराना कृत्य है। फिल्म बनाकर आपने हाशिये के लोगों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। जहां जहां ऐतिहासक गलतियां हुई है उस पर पुर्नविचार हो और सुधार किया जाये। अन्यथा जिस ढंग से देश में फासीवादी धामिक दक्षिणपंथी सरकार इतिहास के साथ खेल रही है आप भी उनके हाथों के कठपुतली बन बैठेंगे। 


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment