विधान सभा में न्यायिक जांच आयोग का प्रतिवेदन और आदिवासियों को न्याय?

सुशान्त कुमार

 

और यह सिलसिला आदिवासी क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की तैनाती के साथ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। हर बार ऐसे मुठभेड़ को न्यायसंगत ठहराने के लिये हड़बड़ाहट, अंधेरा और सुरक्षा कारणों की चूक और हो सके तो क्षेत्र की अनजान रूढि़ प्रथा, सांस्कृतिक और राजनैतिक कहानियों के साथ जोड़ दिया जाता है। 

एडसमेटा में फर्जी मुठभेड़ कांड को लेकर 3 मई 2019 को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच सीबीआई से कराने सरकार को कहा है। साथ ही जांच अधिकारी प्रदेश के बाहर का होने व मामले की छह माह के बाद फिर से सुनवाई करने की बात कही है।

याचिकाकर्ता डिग्री प्रसाद चौहान ने द कोरस/दक्षिण कोसल को बताया कि एडेसमेटा की घटना मध्य भारत मे आदिवासी मूलवासियों के सुनियोजित जनसंहार का महज़ एक उदाहरण है, हकीकत तो यह है कि नक्सल उन्मूलन के नाम पर आदिवासी मूलवासियों के आखेट का अभियान अपने चरम पर है, पूरे कनफ्लिक्ट जोन में प्रायोजित और फर्ज़ी मुठभेड़ के अनगिनत घटनाएं अपने न्याय की बाट जोह रहे हैं। उम्मीद है एडसमेटा जनसंहार पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश न्याय के राह में मील का पत्थर साबित होगा।

सीबीआई की टीम इस मामले की जांच कैसे कर पाती है

लेकिन इस मौके पर यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला में जब ऐसी ही एक घटना की जांच करने सीबीआई की टीम पहुंची थी तब तत्कालीन राज्य सत्ता ने जांच में रोड़ा अटका दिया था। कांग्रेस पार्टी इस मामले में सीबीआई जांच की मांग करती रही है लेकिन सत्ता में आने के बाद भूपेश बघेल की सरकार ने राज्य के मामलों में सीबीआई को दखल देने पर रोक लगा दी थी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सीबीआई की टीम इस मामले की जांच कैसे कर पाती है यह देखने वाली बात होगी। 

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एल नागेश्वर राव और एमआर शाह की बेंच ने सुनवाई करते हुए कहा कि बीजापुर के गंगलुर थाने के एडेसमेटा इलाके में जो मुठभेड़ 17 मई 2013 को हुई थी उसके लिए राज्य सरकार ने घटना के 11 दिन बाद 28 मई को एसआईटी गठित की थी। आखिरी सुनवाई में एसआईटी द्वारा इन छह सालों में जो कारवाई की गई थी उसकी जानकारी एफिडेविड़ में मांगी गई थी। इसमें बीजापुर एसपी जो जानकारी दी है। उसमें लिखा है कि इन छह सालों पांच लोगों के बयान दर्ज किए गए और माओवादियों का पकडऩे की कार्रवाई चल रही है। इस जवाब के बाद सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि वे एसआईटी की जांच से संतुष्ट नहीं है।

एसआईटी ने छह साल में बिल्कुल भी प्रभावी रूप से काम नहीं किया। एसआईटी की इसी रवैये को देखते हुए ही मामले की तेजी से जांच के लिए इस मामले को सीबीआई को दिया जाता है।

एडसमेटा की घटना

विदित हो कि 2013 में बीजापुर जिले के जगरगुंडा थाना इलाके के एडसमेटा गांव में हुई थी जिसमें 8 निर्दोष और निरपराध आदिवासियों को सुरक्षा बलों ने मार डाला था, जिनमें तीन बच्चे भी शामिल थे। इस मामले की न्यायिक जांच एमपी हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज, जस्टिस वी.के. अग्रवाल ने की है। और यह प्रतिवेदन हाल ही में छत्तीसगढ़ विधानसभा के पटल पर पेश की गई है। इस रिपोर्ट का नतीजा यह है कि त्यौहार मनाते आदिवासियों की जिस भीड़ पर सुरक्षा बलों ने आग के पास लोगों के जमाव को देखा सम्भवत: उन्होंने उन्हें नक्सली संगठन का सदस्य मान लिया जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने आड़ ली और तथाकथित आत्मरक्षा में गालियां चलानी शुरू कर दी।

इसमें सुरक्षा बलों के सदस्यों के जान को कोई वास्तविक खतरा नहीं था। आदिवासियों ने सुरक्षा बल पर हमला भी नहीं किया था। प्रतिवेदन में जोर दिया गया है कि सुरक्षा बलों द्वारा की गई गोलीबारी आत्मरक्षा में नहीं की गई थी बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि उनके द्वारा गोलीबारी उनसे पहचानने में हुई गलती तथा घबराहट के कारण हुई थी। 

जज साहेब का कहना है कि सुरक्षा बलों को ऐसे मापांक निर्मित तथा निरूपित कर इस हेतु बेहतर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि सुरक्षा कर्मी न केवल बस्तर की सामाजिक स्थितियों तथा धार्मिक त्यौहारों से परिचित हों बल्कि वहीं के पहाड़ी तथा वन्य क्षेत्रों से भी परिचित हो। क्या इस मामले में शहरी जजों की नियुक्ति सवाल खड़े नहीं करते हैं? 

इस विभत्स कत्ल पर विषेषकर पत्रकार आशुतोष भारद्वाज के रिपोर्ट का हवाला देना चाहूंगा जिसमें कहा गया है कि 19 मई, 2013 की दोपहर थी। लाशें निर्मम धूप में जंगल में पड़ी थीं। शुक्रवार 17 मई की रात बीजापुर जिले के एडसमेटा गांव में बीज पंडुम के आदिवासी उत्सव के मौके पर सेना ने फायरिंग की। मरने वालों में करम जोगा और उनका 13 साल का बेटा बदरू, करम पांडु और उनका 14 साल का बेटा गुड्डू शामिल हैं।

खुले मैदान में पोस्टमॉर्टम

लेकिन उनकी हत्याओं से पीड़ा खत्म नहीं हुई। शवों को परिवारों को सौंप दिया जाना चाहिए था, लेकिन मृत शरीर अनिवार्य पोस्टमॉर्टम के लिए खुले मैदान में पड़े थे, 45 डिग्री सूरज के नीचे, सड़ रहे थे, शरीर के हिस्से बुरी तरह से सूज गए थे और इससे एक असहनीय गंध निकल रही थी। अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर के साथ एक्स-95 और एके-47 राइफलों के साथ सीआरपीएफ के जवानों ने चेहरा ढंका हुआ था।

सरकारी डॉक्टर बीआर पुजारी ने कहा, ‘जरा पेट पर चिरा लगाओ (पेट खोलकर काट लो)।’ उसका चेहरा ढका हुआ था। एक आदिवासी सुकलू आगे आया और एक नग्न शरीर को काट दिया। आवाज के साथ पेट से लाल कीड़े निकले। ‘मृत शरीर गुब्बारे की तरह हो जाते हैं। जब आप उन्हें काटते हैं, तो वे पेट फूलने जैसी आवाज पैदा करते हैं, ‘सीआरपीएफ के एक जवान ने समझाया। जैसे ही रिश्तेदारों ने लाशों को रखा और उन्हें उल्टा और उल्टा कर दिया, डॉक्टर ने उनकी जांच की, जमीन से उठाई गई एक टहनी से थपथपाते और हिलाते हुए, और अपने रजिस्टर में एक रिकॉर्ड बनाया।

‘क्या आपके पास दूसरा ब्लेड नहीं है?’ डॉ पुजारी ने अपने साथियों से पूछा। डॉक्टर ने अभी तक किसी भी लाश को छुआ तक नहीं था। सुकलू ने अपनी फटी हरी बनियान और नीली जांघिया में दो ब्लेड से पांच लाशों में कई चीरे लगाए थे। डॉक्टर ने अचानक ब्लेड बदलने का सोचा। लेकिन कोई अन्य चिकित्सा उपकरण नहीं था। सुक्लू को पूरी प्रक्रिया के लिए केवल एक जोड़ी सर्जिकल दस्ताने दिए गए  थे। दस्ताने बदले बिना, उसने खुले शरीर को काट दिया, पेट में अपना हाथ डाला, डॉक्टर की जांच करने के लिए अंदरूनी हिस्सों को बाहर निकाला, फिर उन्हें अंदर धकेल दिया। शव आसमान की ओर थे, मुंह खुले हुए थे, दांत काले थे। ग्रामीणों ने अपने रिश्तेदारों के शवों का सार्वजनिक तमाशा देखा था।

एक लाश ने नीली जांघिया पहनी थी, उसका धड़ नग्न था। एक सरकारी अधिकारी ने कहा, जांघिया हटाओ। एक आदमी, शायद उसका भाई, आगे आया और उसे नीचे खींच लिया। एक मृतक, पूरी तरह से नग्न, उसके गुप्तांग भयानक रूप से, एक फुलाए हुए काले गुब्बारे की तरह।

सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए लोगों का पोस्टमार्टम कराना और मौत के कारणों की आधिकारिक रिपोर्ट तैयार करना कानून के तहत अनिवार्य है। एक जिला अस्पताल में दो डॉक्टरों द्वारा पोस्टमार्टम किया जाना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट का आदेश है। फर्जी मुठभेड़ों का पता लगाने के लिए वीडियो और तस्वीरें ली जानी चाहिए। पुलिस यह दावा कर सकती है कि यह एक ‘एनकाउंटर किलिंग’ थी, जो क्रॉस फायर को दर्शाती है, लेकिन पोस्टमॉर्टम से पता चल सकता है कि व्यक्ति को बहुत ही कम दूरी से सिर पर पिस्टल से मारा गया था। हत्यारा झूठ बोल सकता है, लाश चुप हो सकती है, लेकिन घाव गोली के मार को प्रकट करेगा।

बेकसूरों के कत्ल पर सुरक्षा बलों के खिलाफ कार्रवाई या सजा कभी नहीं सुना है कहा जाता रहा है कि इससेे हथियारबंद मोर्चों पर उनका मनोबल टूटेगा। ऐसे हत्याओं को न्यायसंगत ठहराना निहायत ही अलोकतांत्रिक है। जहां अपराध और दंड में दोनों के बीच एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी गई है। ऐसे मामलों पर बड़ी कू्ररता के साथ सरकार और सुरक्षा बल एक हो जाते दिखते हैं। आखिरकार यह अन्याय कब तक चलता रहेगा कि निर्दोष आदिवासी हजारों की संख्या में जेलों में सड़ते रहेंगे और नक्सल के नाम पर ऐसी हत्याओं को न्यायसंगत करार दिया जाता रहेगा। 

न्यायिक जांच आयोग का प्रतिवेदन

विधान सभा में पेश किये गये सादे पन्नों में काले अक्षरों में लिखा गया है ‘न्यायिक जांच आयोग का प्रतिवेदन’। आखिरकार ऐसे प्रतिवेदन से कितने अपराधियों को सजा हो पाई है या फिर सिर्फ निहत्थे और निर्दोष आदिवासियों के कत्लेआम पर लीपापोती के लिये ऐसे रिपोर्ट का सृजन किया जाता है। रिपोर्ट में एक बार नहीं कई कंडिकाओं में इसका उल्लेख है कि सबकुछ हड़बड़ी में गोली चल गई और आदिवासी मारे गये। कंडिका 98 में कहा गया है कि मृतक देव प्रकाश ने ही स्वयं सुरक्षा बलों द्वारा चलाई गई 44 गोलियों में से 18 गोलियां चलाई थी। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारी गोलाबारी सुरक्षा बलों के पक्ष द्वारा की गई जमाव के सदस्यों द्वारा नहीं।

अत: यह प्रतीत होता है कि एडसमेटा पहुंचते समय सुरक्षा बलों के सदस्यों को आग के इर्दगिर्द एकत्रित लोगों को देखकर संदेह हुआ तथा उन्होंंने वहां जमा सदस्यों को संभवत: नक्सली मान लिया तथा घबराहट में गोलियां चलानी शुरू कर दी। अंदाजा लगाइये 152 सुरक्षा कर्मी कितने गालियां निर्दोष आदिवासियों के ऊपर चलाई होंगी?

मोटे तौर पर यह सवाल उठता है कि वर्दीधारी सुरक्षा बलों सैकड़ों के संख्या की जत्था पूरी तैयारी के साथ जंगल जाता है, और वह रात के अंधेरे में कुछ निहत्थे आदिवासियों को आग के इर्द गिर्द देखकर इतना हड़बड़ा रहा है कि वह उन पर गोलियां चलाकर 8 लोगों को मार डाल रहा है जिनमें बच्चे भी शामिल हैं। ऐसे गैर जिम्मेदाराना कृत्य को आप क्या कहेंगे?

अगर सुरक्षा बलों की तैयारी में घबराहट क्या घूस आई तो क्या वह निहत्थे और निर्दोष आदिवासियों को गोलियां से भूनता चला जायगो? मौत का यह तांडव बताता है कि आदिवासी जिंदगी कितनी सस्ती है। क्षेत्र में सरकार बार बार लोकतंत्र की स्थापना की दुहाई देती है। क्या ऐसे कत्लेआम हमारी मंशा और सरकार की लोकतांत्रिक राज्य की पोल नहीं खोल देती है। दहशत में आकर सुरक्षा बल किसी के नक्सली होने की आशंका में इतने घबरा सकते हैं और आम लोगों की हत्या कर दें तो ऐसे सुरक्षा बल और सरकार के नीतिगत फैसलों पर दुबारा विचार करना चाहिए। 

जबसे जांच रिपोर्ट हाथ लगी है यह समझना कठिन हो गया है कि आखिरकार अपराध किसका है और रिपोर्ट की प्रतिवेदन किसको बचाने की कोशिश कर रही है। रिपोर्ट की भाषा उसके भविष्य हेतु सुझाव इस घटना की पटाक्षेप करने में लगे दिखते हैं। बार बार शिकायतकर्ताओं के तर्कों को खारिज करने और उनके प्रति सराहना और प्रशंसा के बीच सुरक्षा बलों के द्वारा किये गये अपराध और दंड के बीच सत्तारूढ़ पार्टी के लिये राजसत्ता में टिके रहने की अनुशंसा को बल प्रदान करता है। यह प्रतिवेदन हमें उलझा कर रख दिया है। यह रिपोर्ट सुरक्षा बलों द्वारा घबराहट में गोली चालन के बूते से निर्दोष आदिवासी हत्याओं से हमारा ध्यान हटाता है और इसके बाद सारकेगुड़ा और सिलगेर मामले में न्याय की गुंजाइश को खत्म करता है।

न्यायिक जांच आयोग का प्रतिवेदन में क्या कुछ है

न्यायिक जांच आयोग का प्रतिवेदन में कहा गया है कि शिकायतकर्ताओं के संस्करण के अनुसार 17 मई 2013 की रात एडसमेटा के बहुत सी निवासी ग्राम एडसमेटा के पेडमपुरा में स्थित गमन मंदिर नाम के मंदिर के आसपास उकत्रित हुए थे। ग्रामवासियों द्वारा उत्सव मनाए जाने के दौरान गांव के बुधराम, सोनू तथा लक्षु भुनी हुई मुर्गी को धोने तालाब गए हुए थे।

इस पर सुरक्षा बल वहां पहुंचे तथा गोलियां चलाना शुरू कर दिया। ग्रामीणों में से एक बुधराम के बाजू में सुरक्षा में सुरक्षा बलों द्वारा बंदूक परा लगा चाकू घोंप दिया गया। इस प्रकार हुई अफरा-तफरी से मंदिर के समीप एकत्रित हुए गांव वाले सभी दिशाओं में दौडऩे लगे। यद्यपि पुलिस बल उन पर गोलियां बरसाती रही जिसके परिणाम स्वरूप 8 व्यक्तियों की मौके पर ही मृत्यु हो गई जबकि 5 व्यक्ति घायत हो गए तथा घायत हुए व्यक्तियों में से एक की बाद में मृत्यु हो गई। घटना में सीआरपीएफ के एक सदस्य की भी मृत्यु हुई। सीआरपीएफ जवान तथा एक असैन्य के शवों को सुरक्षा बल ले गए। कुछ व्यक्तियों का दूसरे दिन अर्थात 18 मई 2013 को सुरक्षा बलों द्वारा पकड़ा गया। दोबारा एडसमेटा आए तथा शेष 7 शवों को तथा 4 घायल व्यक्तियों को अपने साथ ले गए।  

विपक्षी सुरक्षा बलों के अनुसार 152 सुरक्षा के जवान पूरी तैयारी के साथ तब उन्होंने रात लगभग 10:30 बजे कुछ दूरी पर एक चट्टान पर आग जलते देखा। उसके इर्द गिर्द 20-50 व्यक्ति एकत्रित हुए थे जिसमें से कुछ के पास हथियार थे। जिसमें से कुछ के पास हथियार थे। संभावित खतरे को भांपते हुए सुरक्षा बलों ने स्थान लिया तथा उनमें से प्रत्येक जहां था वहीं जमीन पर लेट गया। 

204 के कोबरा बटालियन के आरक्षक उसेंडी को आगे बढक़र नक्सलियों के उपस्थिति के संबंध में वस्तुतत: स्थिति पता लगाने के लिए भेजा ताकि वे नक्सलियों द्वारा घिरे जाने से बच सकें। 

इस दौरान कुछ हथियारबंद नक्सली सुरक्षा बलों की ओर बढ़े और तत्पश्चात सुरक्षा बलों की मौजूदगी का संदेह होने पर उन्होंने उनकी उपस्थिति के संदर्भ में आवाज लगाकर अपने साथियों को गोलीबारी शुरू करने हेतु उकसाया जिसके बाद नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों पर गोलियां चलाई गई। सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षा में जवाबी गोलियां चलाई जिसके परिणाम स्वरूप एक नक्सली बुरी तरह जख्मी हो गया जबकि अन्य नक्सली अंधेरे का फायदा उठाकर बचकर भाग निकले। गोलीबारी लगभग आधे घंटे चली जिसके पश्चात पैराबम दागे गये। पैरा बम की रोशनी में यह देखा गया कि एक नक्सली मृत पड़ा हुआ था उसकी पीठ पर पिट्ठू बस्ता बंधा हुआ था जबकि उसके बाजू एक भरमार बंदूक पड़ा हुआ था। बंदूक पर ‘वेस्ट  डिविजन - 19’ लिखा हुआ था। 

रिपोर्ट में मुठभेड़ की उपरोक्त घटना में 208 कोबरा बटालियन का एक आरक्षक देव प्रकाश को माथे पर गंभीर चोट आई और वह मौके पर पड़ा हुआ था। बुरी तरह जख्मी आरक्षक देव प्रकाश ने चोटों की वजह से रास्ते में दम तोड़ दिया। 

इसके बाद 13 पेज शव परीक्षण की जानकारियों से भरा हुआ है।

शिकायतकर्ताओं के साक्षियों के वृतांत मुख्यत: इस आधार पर खंडन किया है कि उन्होंने असम्यक रूप से काफी समय पर्यन्त भी मामले की जानकारी किसी अधिकारी को नहीं दी तथा सभी संबंधित व्यक्तियों से घटना के विषय में जानकारी प्राप्त करने हेतु आयोग के निरंतर और अथक प्रयासों के बावजूद उन्होंने वर्ष 2017 तक अर्थात 4 वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर भी शपथ पत्र प्रस्तुत नहीं किए।

प्रतिवेदन में करम डेंगल ने शपथ पत्र के माध्यम से कहा कि बुधराम, सोनु तथा लाखो मुर्गे को धोने गांव के तालाब गए हुए थे जब उसने गोलियां चलने की आवाज सुनी जिसके बाद वह तथा अन्य ग्रामीण भागने लगे। उसका आगे कथन है कि जब वह अपने घर की ओर दौड़ रहा था, सुरक्षा बलों ने उन्हें घर लियाऔर गोलियां चलाने लगे। उसे भी कमर के उपर गोली लगी। 

बचाव पक्ष का कहना है कि साक्षी ने 3-4 वर्ष के लम्बे समय तक न किसी को घटना की जानकारी दी और न ही किसी के समक्ष घटना को उजागर किया जो कि बहुत ही अस्वाभाविक है तथा उसके कथन को अविश्वसनीय बना देती है। इस प्रकार यह निवेदन किया गया कि यह गवाह एक सिखाया पढ़ाया हुआ गवाह है तथा उसके शपथ पत्र का कथन विश्वास किए जाने योग्य बिलकुल भी नहीं है। 

करम लाखो ने शपथ पत्र के माध्यम से कहा कि उत्सव के दौरान मुर्गा काटे जाने के बाद उसे प्यास लगी इसलिए वह सुकु तथा बुधराम के साथ गांव के तालाब पर गया जहां उन्हें पुलिस बल द्वारा पकड़ लिया गया। बुधराम को दाहिने हाथ में बंदूक पर लगे चाकू से लख्मी किया गया। तत्पश्चात गोलीबारी शुरू हुई। सोमलु को जांघ के उपरी हिस्से में गोली लगी। वह भागकर कडिय़ापार पहुंच गया जहां बुधराम भी आ गया। उसका आगे कथन है कि घटना के लगभग 6 महीने बाद बुधराम की मृत्यु हो गई।               

इसके संबंध में बचाव पक्ष द्वारा कहा गया है कि सिखाया पढ़ाया गया साक्षी है तथा वह स्वयं घटना के विषय में कुछ नहीं जानता। इसलिए उसका कथन बिल्कुल विश्वसनीय नहीं है तथा पूरी तरह निरर्थक है। अत: करम लाखों के कथन में कोई बल नहीं रह जाता तथा यह किसी तरह भी स्वीकार्य तथा विश्वसनीय नहीं है।

शिकायतकर्ताओं की ओर से साक्षी करम अयातु का कथन है कि वह गोंडी बोली बोलता है तथा हिन्दी भाषा की उसे बहुत कम जानकारी है। आगे उसका कथन है कि उसके परिवार के तीन सदस्य करम गुड्डु, करम मासा तथा करम पंडु उन आठ व्यक्तियों में से थे जो घटना के दौरान मारे गए। वह कहता है कि अचानक बुधराम चिल्लाया कि वहां पुलिस आ गई थी और उसके बाद गोलियां चलने की आवाज आई। गोलियां चलने की आवाज पहले तालाब की दिशा से आई और उसके बाद सभी दिशाओं से गोलीबारी शुरू हो गई। उसका कथन है कि लाखा भाग गया जबकि पुलिस बुधराम को चाकू घोंप दिया तथा सोनू को गोली मार दी। 

उसका कथन है कि मंदिर पर उसने देखा कि गांव के कुछ बुजुर्ग व्यक्तियों को भी पुलिस बल ने पकड़ा था। करम मासा, पैरमपारा के निवासी करम अयातु तथा गयतापारा के निवासी एक अन्य करम अयातु को लातों से मारा। बुजुर्गों को पीटने के बाद मुक्त कर दिया। गयतापारा निवासी करम लच्छु तथा बीयपारा निवासी  करम मन्गु को भी पुलिस कर्मियों ने पकडक़र अभिरक्षा में रखा था। 

करम अयातु का कहना था कि पैरा बम के रोशनी में उसने मासा तथा पुलिस बल के एक सदस्य के शवों को आजू-बाजू पड़े हुए देखा। मासा एक लाल रंग का टी शर्ट तथा हाफ पैंट पहने हुए था तथा पीठ के बल नीचे की ओर पड़ा हुआ था जबकि पुलिसकर्मी का शव वर्दी में था तथा औंधे मुंह पड़ा हुआ था। पुलिसकर्मी उसे घसीटकर पास के एक मैदान में ले गए तथा एक मौटे डंडे से दुबारा उसकी पिटाई की उसके गर्दन तथा हाथों को एक रस्सी से बांध दिया।

पीटा गया, पेड़ से बांध दिया गया, जिससे उनका खून बहने लगा

पुलिसकर्मी करम मंगु तथा करम लच्छु को भी वहां ले आए और उनके हाथों को रस्सी से बांध दिया। उसने आगे कथन किया है कि तत्पश्चात पुलिसकर्मी किसी के घर से एक खाट निकाल लाए। उसका आगे कथन है कि मासा के हाथों तथा पैरों को बांधकर उसके शव को एक बांस से बांधकर उसी तरह थाने ले जाया गया था।  उसका कथन है कि तत्पश्चात पुलिस बल उसे घसीट कर गंगालुर थाने ले आई। उसका कथन है कि उसके साथ-साथ करम मंगु तथा करम लच्छु को भी पकडक़र थाने लाया गया था। उन्हें थाने में भी पीटा गया और तत्पश्चात उन्हें एक आम के पेड़ से बांध दिया गया। बांधने के बाद उन्हें फिर पीटा गया जिससे उनका खून बहने लगा। 

हालांकि उसने उनका ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न किया यद्यपि वह ऐसा नहीं कर सका क्योंकि वह जोर से बोलने में असमर्थ था क्योंकि पुलिस द्वारा बुरी तरह पीटे जाने से वह थक चुका था। अपने शपथ-पत्र में आगे उसका कथन है कि उसके साथ-साथ लच्छु तथा मंगु को थाने के भवन के भीतर ले जाया गया तथा उससे करम मासा के शव की शिनाख्ती करवाई गई। उसका कथन है कि तत्पश्चात मासा के शव को थाने के पीछे ले जाया गया जहां कुछ व्यक्तियों ने मासा के पेट को लगभग 6 इंच काटकर उसका शव परीक्षण किया।  

इस प्रकार बताया गया कि साक्षियों द्वारा शपथ पत्रों में देर से दिया गया आंखों देखा ब्यौरा स्वयं उनका सच्चा ब्यौरा नहीं है तथा विश्वसनीय नहीं है। उनमें उल्लिखित संस्करण पर विश्वास कर उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

शेष छ: साक्षी करम सुकी, पुनेम बारी, करम लाखो, करम मंगलु, करम सोमली, करम बद्रु जो साक्षी होने का दावा नहीं करते उनके शपथ पत्रों में दिए गए संस्करण विचार में लिए जाने योग्य है।  

बचाव पक्ष ने कहा शपथ पत्र न केवल अविश्वसनीय हैं अपितु कुछ अनजान व्यक्तियों के उद्दश्यों की पूर्ति हेतु एक काल्पनिक कहानी निर्मित करने की योजना की ओर भी इशारा करता है।  

शिकायतकर्ताओं की ओर से साक्षी करम मंगलु ने कहा कि वे गांव में थे जब उन्होंने गोलियां चलने की आवाज सुनी जिसके बाद वह इस कारण जंगल की ओर भागा कि कहीं पुलिस उसे भी न पकड़ ले। अपने शपथ पत्र की कंडिका 10 में वह आगे कथन करता है कि अगली सुबह वह गांव लौटा ओर उसे घटना के विषय में बताया गया। उसने आगे स्वीकार किया है कि शपथ पत्र दंतेवाड़ा में निष्पादित किया गया था तथा कुछ अनजान व्यक्तियों ने शपथ पत्र में लेख लिखे।

वह कहता है कि वह उनसे ग्राम मट्टेनार में मिला तथा वह उनके साथ दंतेवाड़ा गया। वह कहता है कि शपथ पत्र ग्राम मट्टेनार में तैयार किए गए तथा उन्होंने उस पर दंतेवाड़ा में अपने अंगूठे के निशान लगाए। उसका आगे कथन है कि डिग्री चौहान नामक एक व्यक्ति ने शपथ पत्र के लेख लिखे थे। उसका आगे कथन है कि वह उस व्यक्ति डिग्री चौहान से परिचित नहीं है। उसका यह भी कथन है कि डिग्री चौहान ने उसे बताया कि घटना किस प्रकार घटित हुई थी। 

शिकायतकर्ताओं की साक्षी करम सोमली जो मृतक करम मासा की माता है जो स्वीकृत तौर पर घटना के दौरान मारा गया था। वह घटना के दौरान मौके पर उपस्थित होने का दावा नहीं करती तथा उसका कथन है कि घटना के समय वह रात्रि भोजन के पश्चात सोई हुई थी। उसका कथन है कि गोलियों की आवाज सुनने पर उसके पति तथा पुत्र जंगल की ओर भागे। वह मंदिर की ओर आगे बढ़ी तथा पाया कि वहां बहुत से शव पड़े हुए थे। यद्यपि उसे उसके पुत्र करम मासा का शव नहीं मिला। उसे सूचित किया गया कि करम मासा के शव को पुलिस ले गई थी। उसका आगे कथन है कि उसे उसके पुत्र करम मासा का शव अगले दिन शाम को प्राप्त हुआ। उसका कथन है कि उसके पुत्र करम मासा के सीने पर एक गोली लगने का घाव मौजूद था। 

शपथपत्र के संबंध में कहा गया है कि शपथ पत्र साथियों से अपरिचित कुछ अनजान व्यक्तियों द्वारा स्वयं के छुपे हुए उद्देश्य की योजनाबद्ध रीति से पूर्ति हेतु सुरक्षा बलों को फंसाने हेतु बनाए गए थे। ऐसा शपथ पत्र विश्वसनीय नहीं है तथा उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। वे पहले से सोचे-समझे गए उद्देश्य की पूर्ति हेतु बनाए गए प्रतीत होते हैं तथा शिकायमकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत साक्षियों ने घटना का केवल सिखाया हुआ, पूर्वनियोजित तथा बदला हुआ संस्करण प्रस्तुत किया है।

इस पर गौर किया जा सकता है कि उसमें से लगभग सभी ने अपने कुछ करीबी रिश्तेदारों को खोया है जो घटना में मारे गए थे। अत: शिकायतकर्ताओं की ओर से प्रस्तुत शपथ पत्र उनके स्वयं के संस्करण नहीं है तथा उन पर विश्वास उत्पन्न नहीं होती है तथा वे घटना की परिस्थ्तियों तथा प्रकृति के संबंध में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने तथा प्रकृति के संबंध में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में किसी प्रकार से कोई सहायता नहीं कर सकते।

प्रतिवेदन में इसके बाद हरिओम सागर बचाव पक्ष का शपथ दोहराया गया है जिसमें एक नक्सली को गोली लगी जबकि अन्य नक्सलियों ने वृक्षों की तथा एकत्रित ग्रामीणों की आड़ ले ली तथा मौके से बच निकले। नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर लगभग आधे घंटे तक गोलियां चलाई। हरिओम कहते हैं कि मौके की तलाशी लेने पर पता चला कि एक नक्सली मारा गया था। उसकी पीठ पर पिटुठ् बंधा हुआ था तथा पास ही एक भरमार बंदूक पड़ा हुआ था। 

बताते चले कि करमा लच्छु के पुत्र मृतक करम मासा का शव परीक्षण प्रतिवेदन प्रत्युत्तरदाता द्वारा प्रस्तुत किया गया है तथा उसे प्रदर्श डी 20 चिन्हित किया गया है। इस पर गौर किया जा सकता है कि घटना की रात उसके शरीर को पुलिस ले गई थी। क्या करम मासा ही नक्सली था?

यह बड़ा विरोधाभाष है मौके से बरामद जप्त सामाग्रियों की विशेषताओं का विस्तार से वर्णन नहीं है अत: कथित तौर पर मौक से की गई जप्तियों को किसी भी परिस्थिति में नक्सलियों से नहीं जोड़ा जा सकता है। 

हरिओम के कथन के अनुसार मासूम ग्रामीण तथा उनके बच्चों पर सुरक्षा बलों द्वारा न ही गोलियां चलाई गई और न ही उन्हें चोट पहुंचाया गया। हरिओम का कहना था कि पहला गोली नक्सलियों द्वारा चलाई गई उसके बाद विभिन्न दिशाओं से गोलियां चलने लगी। चूंकि वह सैनिकों का कमाण्डर था इसलिए उसने स्वयं गोली नहीं चलाई क्योंकि वैसा करने पर वह अपने सैनिकों को नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं रहता।

बेकसूर ग्रामीण मारे गए तथा घायल हुए 

शिकायतकर्ताओं की ओर से कहा गया कि नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर सभी दिशाओं से गोलियां चलानी शुरू कर दी थी तो सुरक्षा बलों के अनेक सदस्य या तो मारे गए होते या जख्मी हुए होती। यद्यपि स्वीकृत तौर पर सुरक्षा बलों से केवल एक आरक्षक देव प्रकाश को चोट लगी जबकि आठ ग्रामीण मारे गए तथा पांच ग्रामीण घायल हुए। उपरोक्त परिस्थितियां यह दर्शाती है कि सुरक्षा बल आक्रमणकर्ता थे तथा उन्होंने अपने अधिकारों का उल्लंघन किया जिससे इतने सारे बेकसूर ग्रामीण मारे गए तथा घायल हुए।  

बसप्पा उसेंडी का आचारण तथा स्पष्टीकरण अस्वभाविक है। सुरक्षा बलों के सदस्यों ने अभियान के समय स्वीकृत तौर पर हथियारों से पूरी तरह से लैश होने बावजूद गोलियां नहीं चलाई जबकि वे अपने जीवन में संकट का सामना कर रहे थे। यह स्पष्ट रूप से उनके कथनों को अविश्वसनीय बना देता है। 

नक्सलियों ने उन पर लगभग आधे घंटे तक गोलियां चलाई तथा वे आक्रमणकर्ता नही थे यद्यपि केवल आरक्षक देव प्रकाश को ही इस गोलीबारी में गोली लगी जबकि जमाव के कुछ 13 व्यक्ति घायल हुए थे जिनमें से 8 को प्राणघातक चोटें लगी थीं। उपरोक्त परिस्थितियां अपनी कहानी स्वयं सुनाती है तथा यह दर्शाती हैं कि गोलीबारी का आक्रमण सुरक्षा बलों की ओर से हुआ था।

पुरन किशोर साहू स्वीकार करता है कि अग्रि अस्त्रों को आवश्यक जांच हेतु विधि विज्ञान प्रयोगशाला  भेजा जाना चाहिए था यद्यपि वह स्वीकार करता है कि उसे इस बात की जाकारी नहीं है कि कथित तौर पर जप्त बंदूकें विधि विज्ञान प्रयोगशाला भेजी गई थी या नहीं। पंचनामा डी 19 में पंचनामा तैयार किए जाने का स्थान पुनेम लच्छु का खेत उल्लेखित है परंतु अपने प्रति परीक्षण में पुरन किशोर साहू ने स्वीकार किया है कि उसे नहीं पता कि वह खेत कहां है। साहू की आंशिक विवेचना अथवा उसके कथन विपक्ष के सुरक्षा बल के पक्ष को बल प्रदान करने में कोई सहायता नहीं करते हैं। 

शिकायतकर्ताओं के साक्ष्य को इस प्रतिवेदन में अधिकतर मौके पर उपस्थिति होने तथा घटना को देखने का दावा नहीं करते बताया गया है। मौके पर उपस्थित होते हुए घटना को देखने का दावा करने वाले केवल तीन साक्षी जैसा कि पहले भी विचार विमर्श किया जा चुका है भी सिखाए पढ़ाए तथा रटाए गए साक्षी प्रतीत होते हैं। बताया गया है। 

प्रतिवेदन में बताया गया है कि खुफिया सूचना प्राप्त होने पर सुरक्षा बलों के कुल छ: दल विभिन्न बिन्दुओं से ग्राम पीडिया की ओ बढ़े। 17 मई 2013 की रात थाना गंगालुर से रवाना हुआ। शेष पांच दल अन्य विभिन्न बिन्दुओं से ग्राम पीडिया की ओर रवाना हुए। यह भी विवादित नहीं है कि इस जांच के अधीन मुठभेड़ ग्राम एडसमेटा के पास हुई तथा दोनों पक्षों में मौते हुई।

सुरक्षा बलों के पक्ष से केवल आरक्षक देव प्रकाश को ही चोट लगी थी जबकि दूसरे पक्ष से कुल आठ मारे गए थे तथा चार आहत हुए थे। अगर आग के पास एकत्रित व्यक्तियों ने अंधाधुंन गोलीबारी प्रारंभ की होती तो सुरक्षा बल जो स्वीकृत तौर पर एक ही पंक्ति में चल रहे थे, उनमें अधिक कर्मी  मारे गए होते या आहत हुए होते। 

सुरक्षा बलों के इस संस्करण को मान भी लिया जाए कि शिकायतकताओं का पक्ष भरमार बंदूकों से लैश था तब भी कथित भरमार बंदूके आरक्षक देव प्रकाश के माथे पर गोली का चोट कारित नहीं कर सकते चूंकि यह स्पष्ट है कि यदि भरमार बंदूक को चलाया भी गया होता उससे छर्रों वाली चोट कारित होती। हालांकि सुरक्षा बलों के किसी भी सदस्य को छर्रें से कोई चोट नहीं आई। घटना में आहत हुए मारे गए व्यक्तियों को आई चोटों की संख्या तथा प्रकृति स्पष्टत: इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विपक्ष सुरक्षा बलों का उपरोक्त संस्करण सत्य नहीं है। 

44 गोलियां चलाई जिनमें से 18 गोलियां मृतक आरक्षक देव प्रकाश द्वारा चलाई

सुरक्षा बलों ने अपनी बंदूकों से 44 गोलियां चलाई जिनमें से 18 गोलियां मृतक आरक्षक देव प्रकाश द्वारा चलाई गई थी यह परिस्थिति यह भी स्पष्टत इशारा करती है कि सुरक्षा बलों ने आग के पास एकत्रित जमाव के सदस्यों पर बड़ी तीव्रता से गालियां चलाई। 

देव प्रकाश को आई चोट गोली से कारित चोट थी जो कि भरमार बंदूक से कारित नहीं हुई होगी क्योंकि उस स्थिति में उसे छर्रे से चोट लगी होती। इसके विपरीत यह प्रतीत होता है कि चूंकि देव प्रकाश को बंदूक से चोट लगी थी अत: इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उसे अपने ही सहकर्मी द्वारा क्रांस फायरिंग में चोट लगी होगी। 
प्रतिवेदन बचाव करते दिखते हैं कि -8 मारे गये और 4 घायल हुवे। यह प्रतीत होता है कि आग के पास लोगों के जमाव को देखकर सुरक्षा बलों के सदस्य ने संभवत: भूलवश उन्हें अराजक/नक्सली समझ लिया और उन पर गोलियां चलाने लगे। इस प्रकार गोलीबारी सुरक्षा बलों द्वारा घबराहट में हुई प्रतिक्रिया का प्रमाण होना प्रतीत होती है आत्मरक्षा में की गई प्रतीत नहीं होती है जैसा कि विपक्ष सुरक्षा बलों की ओर से दावा किया गया है। 

किसी भी व्यक्ति का नक्सली संगठन का सदस्य होना प्रमाणित नहीं

प्रतिवेदन में कहा गया है कि शिकायतकर्ताओं द्वारा मारे गए किसी भी व्यक्ति का नक्सली संगठन का सदस्य होना प्रमाणित नहीं किया गया है। आगे यह निवेदन किया गया कि विपक्ष सुरक्षा बलों की ओर से किया गया यह निवेदन कि नक्सली आग के इर्दगिर्द एकत्रित हुए थे तथा ऐसा कर उन्होंने असैन्यों का एक घेरा तैयार किया था, केवल एक पश्चातवर्ती विचार है तथा वसतुत: यह निवेदन बहुत बाद में बड़ी संख्या में लोगों की हत्या तथा उन्होंने चोट पहुंचाए जाने को न्यायोचित ठहराने हेतु किया गया। 

विचारार्थ विषय में सुरक्षा बलों के संचलन दल के पास यह अनुमान लगाने हेतु अथवा विश्वास करने हेतु कोई विश्वसनीय सूचना नहीं थी कि आग के इर्द गिर्द बैठे व्यक्ति नक्सली संगठनों के सदस्य थे। 

इस पर भी गौर किया जाना है कि पहले विचार किया जा चुका है कि अभिलेख पर ऐसा कोई विश्वसनीय साक्ष्य मौजूद नहीं है कि जमाव के सदस्य खतरनाक हथियारों तथा बंदूकों से लैश थे। जप्ती संदेहास्पद तथा अविश्वसनीय है। विवेचना ठीक से नहीं की गई थी तथा स्पष्ट है कि बड़ी जल्दबाजी में की गई थी। पुरन किशोर साहू पुलिस उप अधीक्षक जो सुसंगत समय पर थाना गंगालुर में निरीक्षक के पद पर तैनात था तथा जिसके द्वारा कुछ विवेचना भी की गई थी का कथन है कि विवेचना के दौरान वह उसे सूचना देने वाले सखाराम मंडावी के साथ मोटर सायकिल से ग्राम एडसमेटा गया था। उसका कथन है कि विवेचना हेतु वह ग्राम एडसमेटा में मौके पर 15-20 मिनट तक रूका। यह समझा जा सकता है कि ऐसी गंभीर घटना के संबंध में इतने अल्प समय में विवेचना कैसे की जा सकती थी। 

तारीख इत्यादि के संबंध में कुछ काट-छांट देखे जा सकते हैं। केस डायरी, ड्यूटी रजिस्टर जैसे सुसंगत दस्तावेज जो पुरन किशोर साहू के कथन का समर्थन कर सकते थे जांच में पेश नहीं किए गए हैं। 

सुरक्षा बलों के 152 सदस्य जो स्वीकृत तौर पर एक ही कतार में चल रहे थे तथा कथित तौर पर अपने अपने स्थान पर जम गए थे, उन्हें अनेक चोटें आई होती। यद्यपि उनमें सीआरपीएफ के आरक्षक देव प्रकाश के अलावा अन्य किसी को कोई चोट नहीं आई। 

इसके विपरीत इसमें कोई विवाद नहीं है कि सुरक्षा बलों द्वारा की गई गोलीबारी से आठ व्यक्ति मारे गए तथा चार व्यक्ति घायल हुए तथा एक अन्य व्यक्ति की बाद में मृत्यु हुई। मृतकों की संख्या तथा उनके चोटों की प्रकृति सुरक्षा बलों द्वारा की गई गोलीबारी की तीव्रता को दर्शाते हैं। भारी गोलीबारी सुरक्षा बलों के पक्ष द्वारा की गई जमाव के सदरूपों द्वारा नहीं। अत: यह प्रतीत होता है कि एडसमेटा पहुंचते समय सुरक्षा बलों के सदस्यों को आग के इर्द-गिर्द एकत्रित लोगों को देखकर संदेह हुआ तथा उन्होंने वहां जमा सदस्यों को संभवत: नक्सली मान लिया तथा घबराहट में गोलियां चलानी शुरू कर दी जिसके परिणामस्वरूप उपरोक्त जनहानि हुई इस बात को बार बार प्रतिवेदन में कहा गया है। 

सुरक्षा बलों के संस्करण के अनुसार सभी घायल व्यक्तियों तथा मृतकों के परिजनों को राज्य सरकार द्वारा अनुकम्पा राशि प्रदान की गई थी जब कि राज्य शासन की यह सुस्थापित नीति है कि घायल नक्सलियों अथवा मृत नक्सलियों के परिजनों को अनुकम्पा राशि नहीं दी जाती है। 

प्रतिवेदन में कहा गया है कि सुरक्षा बल न तो आवश्यक सुरक्षा उपकरणों से सुरक्षित थे और न ही उन्हें असैन्य नागरिकों का सामना करने बचने हेतु उचित जानकारियां प्रदान की गई थी। अत: यह प्रकट होता है कि संचलन अभियान प्रारंभ करने से पूर्व आवश्यक सावधनियां सम्यक अथवापूर्ण रूप से न तो बरती गई थी औन न ही उनका पालन सुनिश्चित किया गया था। 

प्रतिवेदन में तेज नियंत्रण तथा विकट परिस्थितियों में विशेषकर रात्रि में संचलन के समय अधिक संतुलित तथा तपी-तुर्ला कार्यवाही सुनिश्चत करें। नक्सलियों/आतंकवादी संगठनों द्वारा आमतौर पर अपनाए जाने वाली गुंरिल्ला पद्धति का जवाब देने हेतु सुरक्षा बलों के सदस्यों को व्यापक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

सुरक्षा कर्मियों को स्थानीय त्यौहारों तथा गतिविधियों में सम्मिलित होने की सलाह दी जानी चाहिए ताकि सुरक्षा बल उनके रहन सहन तथा रीति रिवाजों से परिचित हो सके। 

क्षेत्र में ऐसी घटनाओं की तीव्रता को देखते हुए खुफिया सूचना तंत्र को मजबूत करना तथा ड्रोन अथवा अन्य मानव रहित यंत्रीकृत उपकरणों जैसे आधुनिक उपकरणों के माध्यक से सुरक्षात्मक आवरण सुनिश्चित किया जा सकता है। 

नक्सली गतिविधियों/बैठकों के ठिकाने इत्यादि की गहरी जानकारी रखने वाले आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। 

उपरोक्त ऐसे सुझाव सवाल उठाते हैं।

बहरहाल याचिकाकर्ता डिग्री प्रसाद चौहान एवं अन्य द्वारा माननीय उच्चतम न्यायालय, नई दिल्ली में याचिका क्रामंक डब्ल्यू पी (क्रमीनल) नं. 162/2013 दायर किया गया है। माननीय न्यायालय द्वारा पारित आदेश दिनांक 3 मई 2018 के परिपालन में थाना गंगालूर, जिाला बीजापुर में पंजीबद्ध अपराध क्रमांक 14/2013 की सम्पूर्ण केस डायरी रिनांक 06/07/2019 को सीबीआई, जबलपुर को सौंपी गई है। प्रकरण में सीबीआई द्वारा विवेचना की जा रही है। जिस पर अभी कुछ कहना ठीक नहीं है, लेकिन यह अकेला मामला नहीं है जिसने बस्तर में आदिवासियों के खून से अपना हाथ लाल किया है। 

इससे पहले भी छत्तीसगढ़ की पुलिस और सुरक्षा बलों ने थोक में आदिवासियों को मारा है। उनके गांवों को जलाया है उनके मां बहनों के साथ यौन शोषण अर्थात बलात्कार किया गया है। दूसरे राज्यों में निर्वासित किया है और शिविरों में डाला है। आश्चर्य इस बात का है कि वर्तमान सरकार जो पहले विपक्ष में रहते हुवे आदिवासियों के लिये हमदर्द हुवा करती थी वह भी एक समान नीतिगत मामलों में एक समान हैं। न्याय प्राप्त करने के लिये आदिवासियों के लिये न्यायलय का रास्ता बहुत लंबा और महंगा होता जा रहा है।

न्याय और निष्पक्षता के साथ सच को उजागर किया जाये

जरूरी है कि ऐसे मामलों में न्याय और निष्पक्षता के साथ सच को उजागर किया जाये। ऐसे जांच प्रतिवेदन से निर्दोष आदिवासियों को न्याय मिलना संभव होगा बताना मुश्किल है और सीबीआई जांच के बाद कुछ लोगों को सजा मिल सके, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। खैर आदिवासियों ने अपने हक में सुकमा में कलेक्टर का हजारों की संख्या में घेराव किया है। और हजारों की संख्या में आदिवासियों ने विधान सभा घेराव के नाम पर मुख्यमंत्री से भेंट मुलाकात की है।


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