मेरी सभी रिपोर्टिंग में एडसमेटा की हत्याएं सबसे भीषण राज्य कार्रवाई है
बस्तर में एडसमेटा मुठभेड़ की असलियत पर आशुतोष भारद्वाज की जमीनी रिपोर्ट
द कोरस टीमआशुतोष तल्खी के साथ लिखते हैं कि -‘लेकिन उनकी हत्याओं से पीड़ा खत्म नहीं हुई। शवों को परिवारों को सौंप दिया जाना चाहिए था, लेकिन मृत शरीर निहायत जरूरी माने जाने वाले पोस्टमॉर्टम के लिए खुले मैदान में पड़े थे। 45 डिग्री सूरज के नीचे लाशें सड़ रहे थे, शरीर के हिस्से बुरी तरह से सूज गए थे और इससे एक असहनीय गंध निकल रही थी। अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर के साथ एक्स-95 और एके-47 राइफलों के साथ सीआरपीएफ के जवानों ने अपना चेहरा ढंका हुआ था।

बस्तर में नक्सल विरोधी मुठभेड़ में सीआरपीएफ द्वारा आठ आदिवासियों की गोली मारकर हत्या करने के नौ साल बाद और तथा इससे छह माह पूर्व सितम्बर 2021 में एकल सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग द्वारा सरकार को रिपोर्ट सौंपने के बाद (स्थानीय आदिवासियों द्वारा दावा किया गया था कि निर्दोष गैर-लड़ाकू लोग मारे गए थे) यह रिपोर्ट हाल ही में छत्तीसगढ़ राज्य विधानसभा में पेश किया गया है। अब सवाल यह है कि क्या इसके बाद भी कोई न्याय हो पाएगा?
छत्तीसगढ़ सरकार ने सोमवार 14 मार्च को राज्य विधानसभा में बस्तर के एडसमेटा गांव में मई 2013 की घटना के बारे में एक जांच रिपोर्ट रखी है। जिसमें सीआरपीएफ की गोलीबारी में आठ लोग मारे गए थे। जबकि सुरक्षा बलों ने दावा किया था कि मृतक नक्सली थे।
उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश वीके अग्रवाल की अध्यक्षता वाले एकल जांच आयोग का कहना है कि मारे गए सभी लोग आदिवासी थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह आदिवासियों का एक निहत्था जमावड़ा पर जल्दबाजी में सुरक्षाकर्मियों द्वारा गोलियां चलाई गई।
आइए उस गर्मी की दोपहर को फिर से देखें-
जाने माने पत्रकार और लेखक आशुतोष भारद्वाज ने हाल ही में आउटलुक इंडिया डॉट कॉम में 17 मार्च को लिखते हैं कि -‘दंडकारण्य में क्षत-विक्षत शवों और खून से भरे गड्ढों के बारे में मेरी सभी रिपोर्टिंग में एडसमेटा की हत्याएं सबसे भीषण राज्य कार्रवाई है जिसका मैं गवाह था।’
वे अपने रोंगटे खड़े करने वाले इस रिपोर्टिंग में कहते हैं कि वह दिन 19 मई, 2013 की दोपहर थी। लाशें निर्मम धूप में जंगल में पड़ी थीं। शुक्रवार 17 मई की रात बीजापुर जिले के एडसमेटा गांव में बीज पंडुम उत्सव के मौके पर आदिवासियों पर सेना ने फायरिंग की। मरने वालों में करम जोगा और उनका 13 साल का बेटा बदरू, करम पांडु और उनका 14 साल का बेटा गुड्डू शामिल हैं।
आशुतोष तल्खी के साथ लिखते हैं कि -‘लेकिन उनकी हत्याओं से पीड़ा खत्म नहीं हुई। शवों को परिवारों को सौंप दिया जाना चाहिए था, लेकिन मृत शरीर निहायत जरूरी माने जाने वाले पोस्टमॉर्टम के लिए खुले मैदान में पड़े थे। 45 डिग्री सूरज के नीचे लाशें सड़ रहे थे, शरीर के हिस्से बुरी तरह से सूज गए थे और इससे एक असहनीय गंध निकल रही थी। अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर के साथ एक्स-95 और एके-47 राइफलों के साथ सीआरपीएफ के जवानों ने अपना चेहरा ढंका हुआ था।
मैं लाशों के सामने एक नोटबुक और कैमरे के साथ खड़ा था
आशुतोष उस विभत्स दृश्य पर लिखते हैं कि-‘सरकारी डॉक्टर बीआर पुजारी ने कहा -‘जरा पेट पर चिरा लगाओं (पेट खोलकर काट लो)।’ उसका चेहरा ढंका हुआ था। एक आदिवासी सुकलू आगे आया और एक नग्न शरीर को काट दिया। आवाज के साथ पेट से लाल कीड़े निकले।’ ‘सीआरपीएफ के एक जवान ने समझाया कि मृत शरीर गुब्बारे की तरह हो जाते हैं। जब आप उन्हें काटते हैं, तो वे पेट फूलने के बाद फूटने जैसी आवाज पैदा करते हैं।
जैसे ही रिश्तेदारों ने लाशों को रखा और उन्हें उल्टा कर दिया, तो डॉक्टर ने उनकी जांच की। जमीन से उठाई गई एक टहनी से लाशा को थपथपाते और हिलाते हुए और इसके बाद अपने रजिस्टर में डॉक्टर ने एक रिकॉर्ड लिखा।
आशुतोष एडसमेटा पर आगे लिखते हैं कि -‘क्या आपके पास दूसरा ब्लेड नहीं है?’ डॉ पुजारी ने अपने साथियों से पूछा। यह भी कि डॉक्टर ने अभी तक किसी भी लाश को छुआ तक नहीं था। सुकलू ने अपनी फटी हरी बनियान और नीली जांघिया में दो ब्लेड से पांच लाशों में कई चीरे लगाए थे। डॉक्टर ने अचानक ब्लेड बदलने का सोचा।
लेकिन उस वक्त वहां कोई अन्य चिकित्सा उपकरण नहीं था। सुकलू को पूरी प्रक्रिया के लिए केवल एक जोड़ी सर्जिकल दस्ताने दिए गए थे। दस्ताने बदले बिना उसने डॉक्टर के निर्देश पर खुले शरीर को काट दिया, पेट में अपना हाथ डाला, डॉक्टर की जांच करने के लिए अंदरूनी हिस्सों को बाहर निकाला, फिर उन्हें अंदर धकेल दिया।
शव आसमान की ओर मुंह किये पड़े थे, मुंह खुले हुए थे, दांत काले थे। विडंबना देखिये ग्रामीणों ने अपने रिश्तेदारों के शवों का सार्वजनिक तमाशा देखते रहें।
एक लाश ने नीली जांघिया पहन रखी थी, उसका धड़ नग्न था। एक सरकारी अधिकारी ने कहा-‘ जांघिया हटाओ। एक आदमी, शायद उसका भाई, आगे आया और उसे नीचे खींच लिया।’ एक मृतक, पूरी तरह से नग्न, उसके गुप्तांग भयानक रूप से, एक फुलाए हुए काले गुब्बारे की तरह नजर आ रहा था।
सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए लोगों का पोस्टमार्टम कराना और मौत के कारणों की आधिकारिक रिपोर्ट तैयार करना कानून के तहत अनिवार्य है। एक जिला अस्पताल में दो डॉक्टरों द्वारा पोस्टमार्टम किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि फर्जी मुठभेड़ों का पता लगाने के लिए वीडियो और तस्वीरें ली जानी चाहिए।
पुलिस यह दावा कर सकती है कि यह एक ‘एनकाउंटर किलिंग’ थी। जो क्रॉस फायर को दर्शाती है, लेकिन पोस्टमॉर्टम के बाद ही पता चल सकता है कि व्यक्ति को बहुत ही कम दूरी से सिर पर पिस्टल से मारा गया था। हत्यारा झूठ बोल सकता है, लाश चुप हो सकती है, लेकिन घाव गोली के मार को प्रकट करेगा।
पुजारी ने स्वीकार किया कि खुले में पोस्टमार्टम करना कानून के खिलाफ है और पुलिस की मौजूदगी में ऐसा कभी नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने समझाने की कोशिश की, ‘कुछ शर्तों के तहत एसडीएम और उससे ऊपर के रैंक वाला अधिकारी इस तरह के कार्य को संचालित करने की अनुमति दे सकता है।’
एसडीएम वीरेंद्र बहादुर पंचभाई ने कहा- ‘पोस्टमार्टम के लिए केवल पर्याप्त रोशनी की जरूरत है। विशेष परिस्थितियों में अन्य चीजों में ढील दी जा सकती है।’
आशुतोष ने अपने रिपोर्ट में बताया कि -‘एक घंटे बाद शवों को कुछ किलोमीटर दूर गंगालुर पुलिस स्टेशन में खाट पर अपने गांव ले जाने वाले रिश्तेदारों को सौंप दिया गया।’
आशुतोष ने परिजनों की दिली हालातों का उल्लेख करते हुवे कहते हैं कि -‘मृतक की महिला रिश्तेदार थाने में विरोध प्रदर्शन कर रही थीं। उनके फेफड़े घंटों तक चिल्लाए जाने और रोने से बुरी हालात बना ली थी। इसके बावजूद उन्होंने पुलिस स्टेशन और पास के सीआरपीएफ कैंप पर पथराव किया।
वे केवल गोंडी और हल्बी जानते थे लेकिन कुछ हिंदी गालियां भी देते रही। वह लगातार ‘वापस जाओ ... वापस जाओ ..’ नारा लगा रही थी तथा सीआरपीएफ कैंप पर चिल्ला रही थी और उसके दरवाजे का ताला तोडऩे की असफल कोशिश कर रही थी।
अंत में उनके आदमियों ने किसी तरह उन्हें वापस लौटने के लिए मना लिया। आखिर जो छूट गए थे उन्हें विदाई देनी ही पड़ेगी। और फिर खाट से बंधी लाशों के साथ कठिन इलाके के लिये कई घंटे की यात्रा शुरू हुई।
अन्य ग्रामीणों ने एडसमेटा के बाहरी इलाके में चिताएं बना रखी थीं। पिता और पुत्र, जोगा और बदरू, एक चिता पर रखे गए। बताया गया कि ‘आदिवासियों के बीच यह असामान्य नहीं है।’ एक ग्रामीण ने आशुतोष को बताया कि जब कोई व्यक्ति किसी से बहुत प्यार करता है, तो हम उसका एक साथ दाह संस्कार करते हैं।’
आशुतोष ने घटना के तुरंत बाद हत्याओं के बारे में लगातार श्रृंखलाबद्ध खोजी रिपोर्टें प्रकाशित करते रहे। इसके बाद तत्कालीन भाजपा सरकार ने एक न्यायिक आयोग के गठन का आदेश दे दिया था। इससे पहले सितंबर 2021 में राज्य सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट अब आखिरकार विधानसभा में पेश कर दी गई है।
रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि सुरक्षा बलों ने आदिवासियों को नक्सली समझ लिया था और इस रिपोर्ट में आयोग ने रेखांकित किया है कि ‘सुरक्षा कर्मियों के जीवन को वहां कोई आसन्न खतरा नहीं था।’ और इसलिए वह वक्त चलाई गई गोलीबारी आत्मरक्षा में नहीं थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्होंने गलती से जल्दबाजी में और दहशत में आकर गोलियां चला दी।
इस घटना के दौरान सीआरपीएफ के एक जवान की मौत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि ऐसा कोई सबूत नहीं है जो यह दर्शाता हो कि आदिवासियों के पास आग्नेयास्त्र थे और कांस्टेबल को शायद अपने ही दस्ते के सदस्यों द्वारा क्रॉस फायरिंग के कारण चोट लग गई थी।
आशुतोष यह भी कहते हैं कि -‘यह रिपोर्ट उन ग्रामीणों की लंबी प्रतीक्षा के बाद आई है, जिन्हें जांच आयोग के समक्ष अपनी गवाही दर्ज कराने के लिए कई सौ किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी थी। अब देखना होगा कि सुरक्षा बलों के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाती है।
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