कार्ल मार्क्स और उनकी कृति ' कम्युनिस्ट घोषणा - पत्र ' 

प्रेमकुमार मणि

 

" यह कृति प्रतिभाशाली स्पष्टता और भव्यता के साथ एक नई दुनिया के निर्माण, सुसंगत भौतिकवाद - जिसकी परिधि में सामाजिक जीवन का क्षेत्र आता है, विकास के सबसे व्यापक तथा गहन सिद्धांत के रूप में द्वंद्ववाद, वर्गसंघर्ष, सर्वहारा और सबसे बढ़कर एक नए कम्युनिस्ट समाज के निर्माण हेतु क्रान्तिकारी भूमिका के सिद्धांत का प्रारूप प्रस्तुत करती है ." - लेनिन

जिन कुछ किताबों ने दुनिया के इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी है, उनमें एक कम्युनिस्ट - घोषणापत्र भी है. कुल जमा 36 या 38 पृष्ठों का, यह एक राजनीतिक निबंध है, जो पहली बार फरवरी 1848 में, यानि आज से 172 साल पूर्व लंदन स्थित कम्युनिस्टों के एक अंतर्राष्ट्रीय संघटन कम्युनिस्ट लीग द्वारा जारी किया गया था. इसे कार्ल मार्क्स और उनके मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स ने मिलकर तैयार किया था.

थोड़ी भूमिका एक अन्य कम्युनिस्ट मोजेज हेस की भी थी. मूल रूप से यह जर्मन भाषा में लिखा गया और फ्रांसीसी भाषा के अनुवाद के साथ पहली बार प्रकाशित हुआ था. दो वर्ष बाद 1850 में इसका अंग्रेजी अनुवाद लंदन से प्रकाशित पत्रिका " रेड रिपब्लिकन" में छपा. अगले पचास वर्षों में दुनिया की प्रायः सभी मुख्य भाषाओँ में इसका प्रकाशन हो गया.

पृष्ठभूमि जानने केलिए थोड़ी गहराई में जाने की जरूरत होगी. 1840 का दशक मार्क्स के जीवन का महत्वपूर्ण दशक था. उनके विचार लेखों के रूप में लगातार आकार ले रहे थे. जर्मन विचारधारा शीर्षक महत्वपूर्ण लेख की रचना के अलावे भी विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में वह निरंतर लिख रहे थे. इससे प्रभावित हो ब्रुसेल्स में कार्यरत जर्मन अप्रवासी मजदूरों की संस्था कम्युनिस्ट लीग से जुड़े साथियों ने मार्क्स से संपर्क किया.

वे मार्क्स को अपनी जमात से जोड़ना चाहते थे . मार्क्स भी संगठन के महत्व को समझते थे. वह मानो ऐसे किसी न्योते या पहल का इंतज़ार ही कर रहे थे. 1847 के आरम्भ से ही वह लीग की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे. लीग के सदस्य साप्ताहिक बैठकें करते थे. इसमें अनेक प्रतिबद्ध और प्रतिभाशाली लोग थे, जो विभिन्न पेशों से जुड़े हुए थे, लेकिन बुद्धिजीवी भी थे.

ये सब एक दूसरे को प्रभावित करते थे. लीग के साथियों ने मार्क्स और एंगेल्स से मेनिफेस्टो लिखने का आग्रह किया. उनके आग्रह पर नवंबर 1847 से जनवरी 1848 के बीच यह लिखा गया. फरवरी के आखिर में इसे मेनिफेस्टो ऑफ़ द कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में जारी किया गया. इसके प्रकाशन के पूर्व अथवा मेनिफेस्टो लिखे जाने की प्रक्रिया में ही, अक्टूबर-नवंबर 1847 के बीच, एंगेल्स ने "कम्युनिज़्म के सिद्धांत " शीर्षक से एक लेख प्रश्नोत्तरी रूप में लिखा है. इसमें पच्चीस प्रश्न और उनके उत्तर हैं. घोषणापत्र की सभी मुख्य बातें इसमें शामिल हैं.

घोषणापत्र के चार हिस्से हैं. इनके उपशीर्षक इस प्रकार हैं-

1. पूंजीपति और सर्वहारा

2. सर्वहारा और कम्युनिस्ट

3. समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य

4. वर्तमान काल की विरोधी पार्टियों के बारे में कम्युनिस्टों की स्थिति.

घोषणापत्र का मुख्य उद्देश्य अपने संगठन के मुख्य विचारों और उद्देश्यों को सार्वजनिक करना था. " अब समय आ गया है कि कम्युनिस्ट खुले आम तमाम दुनिया के सामने अपने विचारों, उद्देश्यों और अपनी प्रवृतियों को प्रकाशित करें और कम्युनिज़्म के भूत की इस नानी की कहानी का एक घोषणापत्र द्वारा ख़ात्मा कर दें." (पृष्ठ 1 )

पहले हिस्से, जिसका शीर्षक पूंजीपति और सर्वहारा है, में काव्यात्मक शैली में दुनिया के इतिहास पर एक विहंगम नज़र डालते हुए बतलाया गया है कि आखिर वे कौन -  सी स्थितियां थीं, जिसमे पूंजीपति और सर्वहारा का प्रादुर्भाव होता है. घोषणापत्र के दूसरे हिस्से में सर्वहारा वर्ग के साथ कम्युनिस्टों के संबंधों की व्याख्या है. इसी हिस्से में कम्युनिस्टों के प्रमुख उद्देश्यों की घोषणा भी है. इसलिए यह दूसरा भाग मेनिफेस्टो का केन्द्रक जैसा है. तीसरे हिस्से में समाजवादियों के विभिन्न सम्प्रदायों की विवेचना है. समाजवादियों की तीन मुख्य श्रेणियां की यहां विशद चर्चा है -

1. प्रतिक्रियावादी समाजवाद - इसके अंतर्गत सामंती समाजवाद, निम्नपूँजीवादी समाजवाद और जर्मन समाजवाद की व्याख्या है.

2. बुर्जुआ -पूंजीवादी समाजवाद.

3. कल्पनावादी समाजवाद और कम्युनिज़्म.

घोषणापत्र का चौथा और आखिरी हिस्सा दूसरी विरोधी पार्टियों से कम्युनिस्टों के सम्बन्ध परिभाषित करता है. और अततः आता है वह आखिरी उदबोधन जो अपनी काव्यात्मकता केलिए प्रसिद्ध है. इसे बिना किसी जोड़ -तोड़ के सीधे - सीधे रखना ही बेहतर होगा.

" कम्युनिस्ट अपने विचारों और उद्देश्यों को छुपाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. वे खुले आम एलान करते हैं कि उनका लक्ष्य मौजूदा पूरे सामाजिक ढांचे को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने से ही सिद्ध किये जा सकते हैं. कम्युनिस्ट क्रांति के भय से शासक तबका काँपता है, तो काँपे! सर्वहारा जनों के पास खोने केलिए गुलामी की बेड़ियों के सिवा और कुछ नहीं है, और पाने केलिए पूरी दुनिया है. दुनिया के मज़दूरों, एक हो! "

आज जब हम इस मेनिफेस्टो की चर्चा कर रहे हैं, तब मानों अतीत की एक ऐसी दुनिया में उतर रहे हैं, जो अब बहुत दूर की, कुछ - कुछ रहस्य्मयी - सी है. मार्क्स तब तीस की उम्र के थे और एंगेल्स तो अट्ठाइस के ही. कह सकते हैं कि दो युवाओं का यह एक गद्य - काव्य है, जिसमे उन्होंने मिहनतक़श तबकों के सपने बुने हैं. समाजवाद का सपना. वैज्ञानिक समाजवाद का सपना. उन्होंने इसमें अपने वर्तमान दौर की तबाही देखी है और भविष्य की कठिनाइयों व दुखों का आकलन किया है.

उनका सारा ध्यान मिहनतक़श तबके पर है, जिसकी पीठ पर पूंजीवादी दुनिया का जगमग विकास अठखेलियां कर रहा था. सामंतों का जमाना विदा हो गया था, लेकिन उसके स्थान पर औद्योगिक दुनिया का जो वर्चस्वकारी पूंजपति तबका आया था वह कहीं अधिक अमानवीय और क्रूर था. इसके विरुद्ध मिहनतक़शों को एकजुट होने का उनका आह्वान आज भी प्रासंगिक है, बल्कि तब से कुछ अधिक है.

इतने लम्बे समय में मार्क्सवाद पर बहुत से सवाल उठे हैं. कतिपय विद्वानों ने कहा है कि मार्क्सवादी विश्लेषण में मानव समाज का अध्ययन कम है, उसके उत्पादन प्रणाली और उत्पादन के संबंधों की अधिक व्याख्या की गई है. मुझ जैसे लोग इस पर विचार करने के हिमायती हैं. यदि मार्क्सवाद विज्ञान है तो वहां गलतियां हो सकती हैं और उनका परिष्कार होना ही चाहिए. उन्नीसवीं सदी के विचार दर्शन को इस इक्कीसवीं सदी में ज्यों का त्यों स्वीकारना मूर्खता ही कही जाएगी. लेकिन इतना तो सच है कि मिहनतक़श उत्पादक जमातें दुनिया भर में आज ज्यादा सर्वहारा हुई हैं.

पूंजीवादी लफ्फाजी ने अपने ही सभी पुराने रिकार्ड ध्वस्त कर दिए है. विकास के इस पूंजीवादी ढांचे ने जनतंत्र को विकृत बना कर रख दिया है. मनुष्य अपनी प्राकृतिक और पारम्परिक गरिमा से निरंतर दूर होता जा रहा हैउसकी आज़ादी लगातार छिनती जा रही है. जितना असहाय और विवश वह आज है, उतना इतिहास के किसी दौर में नहीं था. स्वयं मार्क्स के अनुसार एक जमाने में धर्म ने उसे टूटने से बचाया था, एक आभासी सुख देकर ही सही, अफीम की प्रशांतिकरणता के माफिक. लेकिन आज तो मनुष्य के पक्ष में कुछ भी नहीं है, न धर्म, न साहित्य, न कुछ और.

इसलिए दो सौ साल बाद भी, आज मार्क्स कुछ अधिक याद आ रहे है. हम उन्हें कैसे भूल सकते हैं. जब तक दुनिया में उत्पीड़न, शोषण, गैरबराबरी और बेगानापन होगा मार्क्स प्रासंगिक रहेंगे. हम उनसे सीखते रहेंगे.

14/3 2020


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