उत्तर प्रदेश विधानसभा आमचुनाव: किसने क्या कहा?

सुशान्त कुमार

 

बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने यूपी विधानसभा आमचुनाव के परिणाम को लेकर आज सुबह मीडिया को सम्बोधित किया है। उन्होंने कहा कि डा. भीमराव अम्बेडकर के मानवतावादी संविधान में पूर्ण आस्था एवं उनके कर्म में अटूट विश्वास रखते हुए एक कर्म-प्रधान पार्टी होने के नाते बी.एस.पी. का परमधर्म अथक प्रयास व संघर्ष करते रहना है जो आज नहीं तो कल जरूर रंग लायेगा तथा यहां सभी विरोधी पार्टियों का मिथक तोडक़र सर्वसमाज में से ख़ासकर गरीब, असहाय व कमज़ोर वर्गों के लोगों के जीवन में ज़रूर मुस्कान लायेगा। 

मायावती ने कहा कि जातिवादी मानसिकता रखने वाली पार्टियों के साथ-साथ जातिवादी मीडिया भी, जिसमें सोशल मीडिया भी शामिल है, यह भी नहीं चाहता है कि यहां के खासकर दबे-कुचले गरीब व लाचार लोग बाबा साहेब की मूवमेन्ट (मिशन) के मुताबिक चलकर सत्ता की मास्टर चाबी खुद अपने हाथों में लें और उसके लिए वे किसी भी हद तक गिरकर अपना गंदा व घिनौना आदि खेल खेलते रहते हैं। इसीलिए यूपी का वर्तमान चुनाव परिणाम बी.एस.पी के करोड़ों लोगों की रात दिन की कड़ी तन, मन, धन की मेहनत का यह वाजिब फल कतई नहीं है, फिर भी बाबा साहेब की अनुयाई पार्टी होने के नाते इस पार्टी के लोगों को अपनी हिम्मत कतई नहीं हारना है, बल्कि पत्थर काट कर रास्ता बनाने का अपना प्रयास व संघर्ष हर हाल में आजीवन जारी रखना है। 

उन्होंने कहा कि 2017 से पहले भाजपा की स्थिति यहां कोई खास अच्छी नहीं थी और अब इसी प्रकार कांग्रेस भी लगभग उसी हालत से गुजर रही है जिस खराब हालात से पहले भाजपा गुजर चुकी है। इसीलिए कल आये चुनाव परिणाम आगे के लिए सबक जरूर है, जिसके परिपेक्ष्य में यहाँ मैं यह कहना जरूरी समझती हूँ कि इस चुनाव में पूरे यूपी से मिले फीडबैक के मुताबिक जातिवादी मीडिया अपनी अनवरत गंदी साजिशों प्रायोजित सर्वे आदि कार्यक्रमों एवं लगातार निगेटिव प्रचार के माध्यम से खासकर मुस्लिम समाज व भाजपा विरोधी हिन्दू समाज के लोगों को भी गुमराह करने में यह प्रचारित करके काफी हद तक सफल साबित हुआ है कि बी.एस.पी. भाजपा की बी टीम है तथा यह पार्टी सपा के मुकाबले कम मजबूती से चुनाव लड़ रही है, जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है क्योंकि भाजपा से बसपा की लड़ाई राजनीतिक के साथ-साथ सैद्धान्तिक व चुनावी भी थी। 

लेकिन मीडिया द्वारा इस प्रकार के लगातार दुष्प्रचार आदि किये जाने के कारण, भाजपा के अति आक्रामक मुस्लिम विरोधी चुनाव प्रचार से मुस्लिम समाज ने एकतरफा तौर पर सपा को ही अपना वोट दे दिया तथा इससे फिर बाकी भाजपा विरोधी हिन्दू लोग भी बसपा में नहीं आए। यदि ये सभी लोग इन अफवाहों का शिकार न हुए होते तो फिर यूपी का चुनाव परिणाम कतई भी ऐसा नहीं होता जैसाकि हुआ है तथा अब समय बीत जाने के बाद ये लोग दोबारा से जरूर पछताएंगे।

अपने भाषण में मायावती कहती है कि इससे यह स्पष्ट है कि मुस्लिम समाज का वोट यदि दलित समाज के साथ मिल जाता, जैसा कि बंगाल के चुनाव में टीएमसी के साथ मिलकर भाजपा को धराशायी करने का चमत्कार परिणाम दिया था, तो फिर वैसे ही परिणाम यहां भी दोहराए जा सकते थे।

साथ ही ये लोग हमेशा इस तथ्य को ऐन वक्त पर भूल जाते हैं कि केवल बसपा ही यूपी में भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकती है, सपा नहीं। इनकी इसी ग़लत सोच का ही यह नतीजा है कि भाजपा फिर से सत्ता में वापिस यहां आ गई हैं। यदि यूपी में तिकोना संघर्ष हुआ होता, जिसकी पूरी पूरी संभावना भी थी तब यहां यूपी के परिणाम बी.एस.पी की आपेक्षा के मुताबिक आते तथा फिर भाजपा को सत्ता में आने से रोक लिया जाता। 

अर्थात् कुल मिलाकर मुस्लिम समाज बी.एस.पी. के साथ तो लगा रहा किन्तु इनका पूरा वोट सपा की तरफ शिफ्ट कर गया और इनके इस गलत फैसले से बसपा को बड़ा भारी नुकसान यह हुआ कि बी.एस.पी.समर्थक अपरकास्ट व ओबीसी समाज की विभिन्न जातियों में भी यह डर फैल गया कि सपा के सत्ता में आने से दोबारा यहां जंगलराज आ जाएगा और फिर ये लोग भी भाजपा की तरफ चले गये।

इस प्रकार से भाजपा को हराने के लिए मुस्लिम समाज ने बार-बार आजमाई हुई पार्टी बी.एस.पी से ज्यादा समाजवादी पार्टी पर भरोसा करने की बड़ी भारी भूल की है जिसकी सजा बी.एस.पी. को मिली है वह काफी कड़वी व सीख लेने वाली भी है। इसीलिए इस कड़वे अनुभव को खास ध्यान में रखकर ही अब बी.एस.पी. आगे अपनी रणनीति में बदलाव ज़रूर लायेगी। 

लेकिन ऐसे हालात में भी बीएसपी मूवमेन्ट के हित में संतोष की बात यह रही है कि दलितों में से खासकर मेरे खुद के अपने समाज का वोट हमेशा की तरह इस बार भी अपनी मूवमेन्ट व पार्टी की लीडरशिप के साथ चट्टान की तरह पूरी मजबूती के साथ खड़ा रहा है, जिन पर मैं कितना भी गर्व महसूस करुं, वह कम ही होगा तथा उनका जितना भी मैं आभार प्रकट करुं, वह भी कम ही होगा। 

उन्होंने कहा कि हमें बाबा साहेब के कारवां को न रुकने देना है न झुकने देना है। साथ ही हमें यह भी मानकर चलना चाहिये कि अब बुरा वक्त खत्म होने वाला है, क्योंकि पूरा खून-पसीना बहाने के बावजूद भी जो यूपी का इस बार परिणाम आया है तो उससे बुरा और क्या हो सकता है? अर्थात पार्टी के लोगों को निराश व हताश कतई नहीं होना है और अपने स्वाभिमान व मूबमेन्ट की सफलता के लिए पहले की तरह ही पूरे जी-जान से पार्टी के कार्य में लगे रहना है।

इसके अलावा, इस बार यूपी में पार्टी के अपेक्षा के मुताबिक नतीजे नहीं आने को लेकर फिर से मैं उन्हें यह कहना चाहती हूं कि इस बार चुनाव में मुसलमानों का वोट एकतरफा सपा की ओर जाते देखकर, दलित वर्ग में से मेरे खुद के समाज को छोडक़र बाकी सभी हिन्दू समाज ने सपा के रहे गुण्डा माफिया, आतंकी व भ्रष्टराज को याद करके तथा यह सोचकर कि कहीं हिन्दूओं का वोट बंटने में सपा सत्ता में वापिस ना आ जाये। इसके डर से इन्होंने बीजेपी की नीतियों व कार्यशैली से दु:खी व परेशान होते हुये भी अपना एकतरफा वोट बीजेपी को अन्दर–अन्दर ट्रांसफर कर दिया जिसने फिर बी.एस.पी. को सन् 1977 में कांग्रेस पार्टी की हुई स्थिति की तरह यहां इस चुनाव में लाकर खड़ा कर दिया है, हालांकि इसके बाद फिर अगले हुये चुनाव में कांग्रेस पार्टी पूर्व की तरह यूपी सहित देश के अन्य राज्यों में भी पुन: सत्ता में वापिस आ गयी थी।

चुनाव परिणामों को लेकर बीबीसी की पूर्व पत्रकार और मूकनायक चैनल की संस्थापक मीना कोटवाल कहती हैं कि...

सिर्फ अपनी बात रखने और सवाल पूछने पर ट्रोल करना और गाली देना बंद कीजिए। आलोचना को स्वीकार कीजिए, एक स्वस्थ बहस कीजिए लेकिन प्लीज सर्टिफिकेट बांटना बंद कीजिए। हम महत्वपूर्ण नहीं हैं, वंचित/शोषित और पीड़ित समाज महत्त्वपूर्ण है, उनके बीच जाइए, कृपया हम पर अपनी ऊर्जा खर्च न करें।

वह है हिंदुत्व की जीत, लोकतंत्र अभी नहीं हारा है

भाजपा की जीत के मायने पर कंवल भारती लिखते हैं कि भाजपा की जीत का जो स्पष्ट मतलब दिखाई दे रहा है, वह है हिंदुत्व की जीत। लोकतंत्र अभी नहीं हारा है, पर जनता ने लोकतंत्र के हिन्दूकरण पर मुहर लगा दी है। हिंदुत्व की इस जीत को अगर गहराई से देखें, तो यह खुला खेल जातिवाद का है। इस जातिवाद के भी दो रूप हैं, और दोनों के मूल में अलग-अलग तत्व हैं। समझाने के लिहाज से मैं इसे उच्च और निम्न वर्गीय जातिवाद का नाम दूंगा। उच्च वर्ग में चार जातियां हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थ। यह वर्ग हिंदुत्व का सबसे बड़ा समर्थक है भाजपा से पहले, यह वर्ग कांग्रेस के साथ था क्योंकि कांग्रेस के शासन में सारी नीतियां और योजनाएं इसी वर्ग के हाथों में थीं। कांग्रेस कमजोर हुई, तो यह वर्ग भाजपा के साथ खड़ा हो गया। कांग्रेस में फिर भी कुछ धर्मनिरपेक्षता थी, और वहां इस वर्ग को हमेशा यह डर बना रहता था कि कहीं गैर-द्विज शासक न बन जाए। हालांकि कांग्रेस ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि शासन की बागडोर ब्राह्मणों के हाथों में ही रहे।

लेकिन भाजपा पूरी तरह हिंदुत्ववादी है, और घोर मुस्लिम-विरोधी भी है, इसलिए उच्च वर्ग को वह डर अब बिल्कुल नहीं है, जो कांग्रेस में रहता था, कि गैर-हिंदू यानी मुसलमान सत्ता में आकर उन पर हावी हो जायेंगे। अब यह वर्ग भाजपा का अंधा वोट-बैंक है। यह किसी भी स्थिति में भाजपा के खिलाफ नहीं जा सकता। यह वर्ग सामाजिक रूप से सम्मानित और आर्थिक रूप से मजबूत है। इसलिए इस वर्ग की न कोई सामजिक समस्या है और न आर्थिक समस्या। सर्वाधिक नौकरियां और संसाधन इसी वर्ग के पास हैं, और जब मोदी सरकार ने सवर्णों के लिए दस परसेंट आरक्षण अलग से दिया, तो यह वर्ग भाजपा से और भी ज्यादा खुश हो गया। दलित-पिछड़ी जातियों की आरक्षित सीटों पर भर्ती न करने की नीतियों से भी यह वर्ग भाजपा से खुश रहता है। यह वर्ग भाजपा के खिलाफ सपने में भी नहीं जा सकता। इस वर्ग से भाजपा का रिश्ता वैसा ही है, जैसे साड़ी का नारी के साथ—साड़ी बिच नारी है कि नारी बिच साड़ी है। 

भारती कहते हैं कि निम्न वर्गीय जातिवाद में दलित-पिछड़ी जातियां आती हैं। किसी समय ये जातियां कांशीराम के सामाजिक-परिवर्तन आंदोलन से बहुत प्रभावित थीं, और बसपा की ताकत बनी हुईं थीं। एक बड़ी ताकत मुसलमानों की भी इनके साथ जुड़ी हुई थी। यह एक विशाल बहुजन शक्ति थी, जिसने भाजपा को उत्तरप्रदेश में सत्ता से बाहर रखा था। लेकिन बाद में कांशीराम ने ही भाजपा से हाथ मिलाकर इस शक्ति को छिन्नभिन्न कर दिया। परिणाम यह हुआ कि भाजपा को सत्ता से बाहर रखने वाली बसपा अब खुद ही सत्ता से बाहर हो गई। यह अकस्मात नहीं हुआ, बल्कि इसे बसपा और भाजपा-गठजोड़ ने धीरे-धीरे अंजाम दिया। बसपा से गैर-जाटव (और चमार) नेतृत्व को हटाने की शुरुआत कांशीराम के समय में हो गई थी। और मुसलमानों को भी बसपा से अलग करने की कार्यवाही खुद कांशीराम करके गए थे। काफी संख्या में यादव भी बसपा से जुड़े थे।

वे भी मुलायम सिंह यादव और मायावती के बीच हुए संघर्ष में टूट गए। बसपा से टूटे मुसलमान मुलायम सिंह से जुड़ गए। और वे यादव और मुस्लिम समाज के एकच्छत्र नेता बन गए। पर गैर-यादव पिछड़ी जातियों को वे भी अपनी पार्टी से नहीं जोड़ पाए। उत्तरप्रदेश की यह एक विशाल जनशक्ति थी, जिसे सपा और बसपा दोनों ने उपेक्षित छोड़ दिया था। इसी उपेक्षित वर्ग में आरएसएस और भाजपा ने महादलित और महापिछड़ा वर्ग बनाकर अपना राजनीतिक खेल शुरू किया। उनमें नेतृत्व उभारा और उनके लिए जाटव-चमारों तथा यादवों से पृथक आरक्षण की नीति बनाकर उन्हें पूरी तरह से न केवल चमार और यादव वर्ग के विरुद्ध खड़ा किया, बल्कि मुस्लिम विरोधी भी बना दिया। इस महादलित और महापिछड़े वर्ग में शिक्षा की दर सबसे कम और धर्म के आडम्बर सबसे ज्यादा हैं। भाजपा ने इन्हीं दो चीजों का लाभ उठाया, और वे उसके हिंदू एजेंडे से आसानी से जुड़ गए। 

उच्च वर्गीय जातिवादी वर्ग का तो कोई इलाज नहीं है, वह संपन्न वर्ग है, जो कभी नहीं चाहेगा कि किसी दलित-पिछड़ी जातियों की सरकार बने। यह भाजपा का हिंदू दौर है, जिसमें लोकतान्त्रिक विचार-प्रचार की उतनी गुंजाइश नहीं है, जितनी उनके दौर में थी। पिछड़ी जातियों को उनकी अस्मिता से जोडऩे का मतलब है, हिंदू अस्मिता का खंडन करना, जो हिंदुत्व का खुला विरोध होगा। भाजपा सरकार उच्च वर्ग में हिंदुत्व का विरोध सहन कर भी सकती है, पर दलित-पिछड़े वर्गों में कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। क्योंकि भाजपा की सारी राजनीतिक शक्ति और हिंदू राष्ट्र का सारा दारोमदार इसी अशिक्षित और उन्मादी वर्ग पर टिका है। इस वर्ग को शिक्षित करने का मतलब है हमेशा अपनी जान हथेली पर रखकर चलना। और देश-द्रोह के जुर्म में जेल में सडऩा। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह प्रचार करेगा कौन? क्या सपा-बसपा? बिल्कुल नहीं। यह काम कोई सामजिक संगठन ही कर सकता है, जिसकी बस सुंदर कल्पना ही कर सकते हैं। 

संजय राऊत कहते हैं कि यह भाजपा का राज्य था, अब भी है, लेकिन अखिलेश की सीटें तीन गुना बढ़ी हैं। सपा 42 से 125 पर पहुंची है। मायावती व ओवैसी ने भाजपा की जीत में योगदान दिया, इसलिए उन्हें पद्म विभूषण व भारत रत्न देना चाहिए। 

दलित दस्तक के सम्पादक अशोक दास कहते हैं कि चुनाव-दर-चुनाव हारते जाने के बावजूद अगर किसी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में बदलाव न हो, पार्टी के नेता उसको लेकर सवाल न उठाएं, उसके समर्थक बदलाव के लिए आंदोलन न करें तो वो पार्टी खत्म हो जाती है। 

बीएसपी को एक करोड़ 17 लाख 86 हजार 425 वोट मिले हैं 

प्रोफेसर विवेक कुमार ने लिखा है कि कोसने से या कमिया निकालने से काम नहीं चलेगा। यह सबसे सरल काम है। बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश के चुनाव में एक करोड़ 17 लाख 86 हजार 425 वोट मिले है (11786425)। अगर इतने लोगों को समझाने में कामयाब हो सकते हैं तो, उसके नेताओं  को  लगभग 2 करोड़ और लोगों को अपनी विचारधारा समझाने की आवश्यकता है। हमारे पास जनबल है पर बिखरा हुआ है। बस मनोबल को ऊंचा रख कर यह किया जा सकता है। जो कैडर लगा कर विचारधारा के आधार पर किया जा सकता है।

एचएल दुषाद कहते हैं कि नई सदी में चुनाव परिणामों का यह खास ट्रेंड है कि जिस पार्टी को जनता सत्ता में लाती है, उसे इतनी सीटें दे देती हैं कि विजेता पार्टी खुद हैरान रह जाती हैं! पंजाब में यही हो रहा है: यूपी भी खूब पीछे नहीं रहेगा!

दुषाद कहते हैं कि काश! अखिलेश यादव चुनाव को योगी के 80 बनाम 20 के मुकाबले स्वामी प्रसाद मौर्य के 85 बनाम 15 और खुद के समानुपातिक भागीदारी के मुद्दे पर लडऩे का ईमानदार प्रयास किए होते। लेकिन ऐसा करना मुमकिन नहीं था, क्योंकि उन्होंने उनके साथ ही भाजपा को जीताने की सुपारी ले रखी थी!

देश और बहुजन सामाज का घनघोर सर्वनाश करने के बाबजूद यूपी में भाजपा की विजय एक ऐसा राजनीतिक विस्मय है, जिसके बाद यहां के बहुजन नेत्रित्व को राजनीति से चिरकाल के लिए विदा ले लेना चाहिए, लेकिन इनकी चमड़ी इतनी मोटी है कि वे पूर्व की भांति बेशर्मी से अपने काम में जुटे रहेंगे!

क्या उस समय तक सचमुच भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा? 

पांच राज्यों के चुनावी नतीजे पर प्रेमकुमार मणि कहते हैं कि जो लोग उत्तरप्रदेश के आधार पर 2024 के लोकसभा चुनावों का पूर्वानुमान लगा रहे थे, वे अब यह सोचने के लिए विवश होंगे कि 2024 में भाजपा को केंद्र से हटाना आसान नहीं होगा। राष्ट्रीय स्तर की पार्टी को यूपी में केवल दो फीसद वोट मिले हैं। पंजाब से वह सत्ताच्युत हो गई है। गोवा में वह पहले के मुकाबले बहुत कम हो गई है। इस तरह बड़े परिप्रेक्ष्य में वह और कमजोर हो गई है। उत्तरप्रदेश में प्रियंका की मिहनत का कोई असर नहीं हुआ। कुल मिला कर भाजपा ने न केवल चार प्रांतों में स्वयं को लाया, बल्कि कांग्रेस को पहले से अधिक कमजोर भी कर दिया। यह उसकी दोहरी सफलता है। कुल मिला कर भाजपा की पौ - बारह है।

मणि कहते हैं कि मैंने कुछ समय पहले लिखा था कि यह चुनाव तय कर देगा कि 2024 में क्या होगा। शायद तय हो चुका। 2025 में आरएसएस का शताब्दी समारोह है। क्या उस समय तक सचमुच भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा? कुछ भी हो सकता है। 

विपक्ष की विफलताओं का ठीकरा राहुल गांधी परिवार पर फोडऩे में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। मुझे यह नहीं लगता कि राहुल, उनकी मां सोनिया जी या उनकी बहन प्रियंका राजनीति से संन्यास ले लें तो कांग्रेस का भला हो जाएगा और वह ताकतवर हो जाएगी। क्या कोई बतला सकेगा कि कौन हैं दूसरा कांग्रेसी जो कांग्रेस को संभाल ले। भाजपा और उसके नेता बार - बार कांग्रेस पर परिवारवाद चलाने का आरोप लगाते रहे हैं। लेकिन कांग्रेस जैसी हो गई है, क्या कोई दूसरा इसे संभाल सकता है? एक लम्बे समय तक राहुल गांधी परिवार इस पार्टी से अलग रहा। राजीव गांधी की मौत के बाद से 1999 के आरम्भ तक कांग्रेस की जो दुर्गति हुई थी, उससे सब परिचित हैं। एक गिरी हुई कांग्रेस को सोनिया ने संभाला और 2004 में उसे फिर से सत्तासीन किया। इन बातों की चर्चा मोदी नहीं कर सकते। वह यह भी बतलाना नहीं चाहेंगे कि कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक क्यों होती चली गईं। उनके यहां तो न परिवारवाद था, न ही कोई अयोग्य नेतृत्व। केरल,त्रिपुरा और बंगाल में आज सीपीएम कहां है? उनके नेताओं पर तो भ्रष्टाचरण के कोई आरोप भी नहीं लगे थे।

भाजपा इसलिए नहीं सत्ता में है कि वह पवित्रों की पार्टी है और उसके मुकाबले दूसरे लोग भ्रष्ट हैं। बल्कि वह इसलिए बनी हुई है कि मध्य वर्ग उसके साथ है। यही मध्य वर्ग कभी कांग्रेस के साथ था। आज उसने अपना जुड़ाव भाजपा की तरफ शिफ्ट कर लिया है। इस मध्य वर्ग में पुराने कांग्रेसी, समाजवादी और साम्यवादी सब शामिल हैं। मध्यवर्ग ने अपनी चालाकियों के साथ हिंदुत्व की विचारधारा पर अपनी सहमति दे दी है। इस मध्यवर्ग के साथ समाज का एक बड़ा तबका भी उसका अनुगामी होता है।क्योंकि वे मानते हैं कि रास्ता वही है जिस पर बड़े लोग चलते हैं। 'महाजनो येन गत: स: पन्था।' भाजपा ने इस रहस्य को समझ लिया है। हमें यह मान कर चलना चाहिए कि हिंदुत्व समकालीन समाज की केंद्रीय विचारधारा या तो हो चुकी है या बहुत जल्दी होने वाली है। इसी का असर है कि कभी राहुल गांधी, कभी प्रियंका पूजा स्थलों पर माथा झुकाते देखे गए हैं। हिंदुत्व पर दावे की राजनीति शुरू हो चुकी है।

इस प्रतियोगिता में भाजपा नेताओं को कोई कैसे पीछे छोड़ सकता है। आप एकबार जब अपने शत्रु के अखाड़े में उतर जाते हैं तो फिर उसका काम बन जाता है। विपक्ष में दूसरे दल और नेता भी हैं। इन नेताओं पर भी यही बात लागू होती है। समाजवादी घराने के दल वे चाहे यूपी के समाजवादी पार्टी के हों, या बिहार के राजद के, उन्हें तय करना होगा कि क्या वे मौजूदा कार्यशैली के साथ भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं। शायद कभी नहीं। विचारधारा की उनके पास कमी नहीं है। हिंदुत्व से अधिक मजबूत और आकर्षक विचारधारा उनके पास है। समाजवाद, भाईचारा और दुनिया के प्रति एक वैज्ञानिक नजरिया उन्हें पुरखों से विरासत में मिला है। लेकिन सबको ताक पर रख कर जात-पात को ही उन्होंने अपनी विचारधारा मान लिया है। पिछले चार दशकों से इसी में डूब -उतरा रहे हैं। सेकुलरवाद के नाम पर उन्होंने असामाजिक प्रवृत्ति के लोगों को बढ़ावा दिया। अपनी कोई नैतिकता बनाई नहीं। इन सबका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है।

इन सब पर विचार किए बिना, आत्मसुधार किए बिना वे भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। पहले उन्हें इस बात पर विचार तो करना ही होगा कि वे लगातार अप्रासंगिक क्यों होते जा रहे हैं। यूपी के इस चुनाव में विपक्ष के लिए उत्साहित करने वाली अनेक चीजें हैं। पिछले चुनाव के मुकाबले उनकी सीटें भी बढ़ी हैं और वोट भी। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को केवल 47 सीटें मिली थी। इस बार शायद 112 है। सहयोगी दलों की सीटें अलग हैं। वोट प्रतिशत 21 से बढ़ कर 32 हुआ है, सहयोगियों के साथ 38 फीसद। पिछली दफा भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच का फासला लगभग पंद्रह फीसद वोट का था, इस बार 4  या 5  फीसद का है। यह सब इसलिए संभव हुआ कि अखिलेश ने अपनी पार्टी को परिवारवाद से आंशिक रूप से ही सही मुक्त रखा। उनके पिता आखिरी दौर में कूद -फांद न करते तो अच्छा था। उससे नुकसान हुआ। 

बीजेपी बेबी रानी मौर्य (जाटव) को डिप्टी सीएम बना सकती है

पत्रकार दिलीप मंडल कहते हैं कि बीजेपी बेबी रानी मौर्य (जाटव) को डिप्टी सीएम बना सकती है। उसने चुनाव प्रचार के दौरान ये प्रॉमिस किया था। बीएसपी के बचे हुए 12 प्रतिशत वोट पर बीजेपी की नजर है। 

बीएसपी को अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिये। विचारधारा ही बीएसपी की ताक़त है। प्रतिनिधित्व तो कोई भी दे सकता है। दे रहा है। 2019 लोकसभा चुनाव में बीएसपी के 10 एमपी जीते थे। वह उम्मीदों का गठबंधन था। उसे एकतरफ़ा तोडऩा बीएसपी का ग़लत फ़ैसला साबित हुआ। सपा के वोट बीएसपी को ट्रांसफऱ हुए थे। तभी बीएसपी के 10 सांसद जीते थे। 2022 में सपा गठबंधन और बसपा का साझा वोट 49 प्रतिशत है। एनडीए का वोट 44 प्रतिशत है।

कांशीराम का सपना खा गई अपने घमंड में... 

स्वतंत्र लेखिका श्वेता यादव अपने फेसबुक दीवार पर लिखती हैं कि हां तो बसपा वालों और अब गाली दो... इस पोस्ट पर जम कर गालियां देने वाले कहां हो अब? 

तब पूरी बात नहीं कही थी अब कह रही हूं, एक समय था जब मायावती मुझे एडमायर करती थी भयानक तरीके से... अब नहीं करती। क्यों? क्योंकि आज वह जमीन पर नहीं, बेहद घमंड़ी महिला है। कांशीराम का सपना खा गई अपने घमंड में... आज ये महिला सत्ता की दलाल है (कोई नहीं थोड़ी गालियां और सही चलेगा)। यूपी में सबसे ज्यादा किसी ने नुकसान अखिलेश को किया तो, वह यही है। जमीन खा गई ये सत्ता की दलाल... 

नरेश कुमार साहू ने लिखा है कि मायावती के बसपा को कितने प्रतिशत सवर्ण वोट मिला, बसपा को सवर्ण वोट साधना था, कृपया बसपाई अपना बयान दर्ज कराएं।सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाए को तो पूरी तरह से फेल होना ही था भक्तों।

रतनलाल कहते हैं कि भीड़ और वोट में अंतर होता है। जनवरी में मेरे फेसबुक और ट्वीटर पर जितने दलित और पिछड़ों ने गाली दिया था, हाजिर हों। वे लिखते हैं कि भीड़ को ड्रीम देना पड़ता है, तब वोट में कन्वर्ट होता है।

हम भी पत्रकारिता करते रहेंगे!

मीना कोटवाल लिखती हैं कि हम ठीक हैं, परेशान आप लग रहे हैं! सत्ता कोई भी हो हाशिए में खड़े लोगों की पीड़ा दिखाते रहेंगे, उनकी आवाज उठाते रहेंगे।

मुझे राजनीति से ज्यादा सामाजिक परिवर्तन पर भरोसा है। सावित्रीबाई फुले खुद पर गोबर/पत्थर झेलती रहीं लेकिन उन्होंने पढ़ाना नहीं छोड़ा, हम भी पत्रकारिता करते रहेंगे!

और मेरी चिंता तो बिल्कुल भी ना करें क्योंकि ‘मैं घास हूँ, मैं अपना काम करुंगी और मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगी...’

वैसे भी स्त्री को मारने की रीत या इसकी कामना करना आप लोगों का शगल है!

सदियों से गाली/दुत्कार सुनते आ रहे हैं तो अब फर्क नहीं पड़ता, एक काम करो, ...श्राप ही दे दो, सदमा-वदमा तो बिल्कुल भी नहीं है!

हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे लगाने लगे

जून 2016 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रोफेसर रहे तुलसीराम ने दलित राजनीती का पोस्टमार्टम करते हुवे जीवन के आखिरी दिनों में स्वतंत्र मिश्र से कहा था कि जाति-व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक आंदोलन चलाए गए थे। वह बुद्ध, ज्योतिबा फुले से लेकर आंबेडकर तक चलता चला आ रहा है। आंबेडकर के बाद जो भी दलित आंदोलन हुए उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि सभी दलित नेतृत्व अपनी-अपनी अलग-अलग डफली पीटते चले गए। खुद आंबेडकर द्वारा खड़ी की गई रिपब्लिकन पार्टी भी बाद के दिनों में चार भागों में बंट गई। उसका एक भाग रामदास अठावले के नेतृत्व में पहले शिवसेना और बाद में भाजपा में शामिल हो चुका है। आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल हो गए। एक भाग में योगेंद्र कबाड़े थे, वे अब भाजपा में हैं।

रिपब्लिकन पार्टी के एक भाग के नेता आरएस गंवई थे जो कांग्रेस में शामिल हो गए। कुछ दिनों तक वे केरल के राज्यपाल भी रहे। आंबेडकर के बाद उनकी पार्टी विखंडित हुई और उसका अधिकांश हिस्सा दक्षिणपंथी पार्टियों में शामिल होता चला गया। निश्चित तौर पर इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई कमजोर हुई। दलित राजनीति में निर्वात-सा बन गया। उसका फायदा निश्चित तौर पर कांशीराम को मिला।

कांशीराम ने शुरू में यह तय किया कि दलितों को सबसे पहले सामाजिक तौर पर चेतना संपन्न किया जाए। 1960-80 तक उन्होंने चुनाव लडऩे की बात नहीं की थी। इस दलित राजनीति का मूलाधार बामसेफ रही।

कांशीराम ने सामाजिक जागृति के लिए बहुत मेहनत की। वे गली-गली साइकिल पर घूमते थे। उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का असर बहुत पड़ा। उन्होंने दलितों को अपने आंदोलन से बड़ी संख्या में जोड़ा। दलितों को संगठित करने के बाद उन्होंने राजनीति में उतरने की बात की जिसके चलते बामसेफ भी कई भागों में बंट गया। कांशीराम से अलग हुए दूसरे दल सामाजिक जागृति फलाने की बात पर जोर देने की बात कर रहे थे। आंबेडकर ने सामाजिक बदलाव, कोई मंत्री पद पर रहते हुए नहीं किया था। सामाजिक आंदोलनों के जरिए जो परिवर्तन समाज में आता है, वह स्थायी भाववाला होता है।

तुलसीराम ने कहा था कि सामाजिक परिवर्तन पीछे ही नहीं छूटा बल्कि उलटी दिशा में चल पड़ा। कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी और राजनीति में पूरी तरह उतर गए। सामाजिक आंदोलन से जो दबाव समाज में बनता था, वह दबाव बनना खत्म हो गया और जिसके चलते दलित उत्पीडऩ की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ, इसे साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। गांधी और आंबेडकर की जब बातचीत हो रही थी तब उन्होंने साफ-साफ कहा था कि सामाजिक आंदोलनों का राजनीतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए। राजनीतिक आंदोलन के चलते सत्ता तो मिल जाएगी लेकिन समाज में बदलाव नहीं आ पाएगा इसलिए यदि समाज बदलना है तो सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं।

उन्होंने साक्षात्कार में कहा था कि आज दलितों की स्थिति कई गुणा ज्यादा बेहतर होती। मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि दलितों को राजनीति में नहीं आना चाहिए। मैं यह कहना चाह रहा हूं कि सामाजिक आंदोलन से मानस में बदलाव आता है और इसका असर दलित ही नहीं बल्कि गैर-दलितों पर भी देखा जा सकता है। कांशीराम के राजनीति में आने के फैसले से दलितों की सामाजिक स्थिति में जो सुधार दर्ज किया जा रहा था, वह उलटी दिशा में चल पड़ा।

इस साक्षात्कार में तुलसीराम कहते हैं कि कांशीराम-मायावती ने जब तक सामाजिक आंदोलन छेड़े रखा था तब तक हर राजनीतिक पार्टी इस दबाव में काम करती थी कि बिना दलित को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा। लेकिन मायावती के राजनीति में आते ही ब्राह्मण सत्ता के केंद्र में आ गए। ब्राह्मणों के बारे में यह गुणगान होने लगा कि वे हाशिये पर चले गए हैं। उनकी स्थिति खराब हो गई है। मैं यहां किसी खास व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहा हूं। ब्राह्मण का मतलब व्यवस्था से मानता हूं। कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार...’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे लगाने लगे। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के खिलाफ आंबेडकर पूरा जीवन लड़ते रहे। कांशीराम और मायावती ने इसे उलट दिया।

कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के निर्माण के बाद एक और खतरनाक कदम उठाया था। उन्होंने कहा कि अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो और इसी से कल्याण होगा। इसके बाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों की अलग-अलग जातियों के सम्मेलन होने लगे। लेकिन कांशीराम और मायावती भूल गए कि जातियों के मजबूत होने से जाति-व्यवस्था कैसे टूटेगी? इससे हरेक जाति का गौरव भडक़ उठा और सामाजिक बदलाव और जाति-व्यवस्था के खिलाफ चल रहे आंदोलन को जोरदार झटका लगा। राजनीति में जातीय धुव्रीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा। जातियों के नाम पर अलग-अलग जाति के गुंडे ध्रुवीकरण की वजह से जीतकर नगरपालिका से लेकर विधानसभा और संसद तक में पहुंचने लगे। आज राजनीति का चेहरा जातीय ध्रुवीकरण की वजह से ज्यादा विद्रूप हो गया है। इसकी वजह से देश में लोकतंत्र नहीं जातियां फल-फूल रही हैं। अब पार्टियां नहीं जातियां सत्ता में आने लगी हैं।

कांशीराम-मायावती ने सभी जातियों के लोगों से मंत्री पद देने का वायदा किया। सत्ता में आने के बाद मायावती ने ऐसा किया भी लेकिन सभी सुख-सुविधा पाने के बाद भी उन जातियों के लोगों ने पांच साल के भीतर ही इन्हें लात मारकर किनारा कर लिया। मतलब यह है कि आप जाति-व्यवस्था खत्म करने की लड़ाई को मजबूत नहीं करेंगे और जातियों को मजबूत करने की बात करेंगे तो इससे दलित विरोधी शक्तियां ही मजबूत होंगी। बसपा के शासनकाल में तमाम जातियां दलित विरोधी शक्तियों के रूप में खड़ी हो गईं।

तुलसीराम कहते हैं कि बाबा साहेब ने अपने आंदोलन के जरिए यह कोशिश की थी कि दलित महिलाएं आगे आएं। वे दलित महिलाओं के साथ हिंदू महिलाओं को भी आगे लाने की बात कर रहे थे। इसलिए 1951 में वह 'हिंदू कोड बिल' लेकर आए। 'हिंदू कोड बिल', सवर्ण महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार देने और दहेज प्रथा आदि जैसी कुरीतियों के खिलाफ लाया गया। लेकिन उस समय बनारस, इलाहाबाद और देश के दूसरे हिस्सों के साधू-संन्यासी गोलबंद होकर बिल के विरोध में उठ खड़े हो गए। बिल को स्वीकृति नहीं मिल पाई।

दलित पुरुष नेता तो कई उभरे लेकिन महिला नेतृत्व नहीं उभर पाया। बाबा साहब की मृत्यु आजादी के चंद वर्षों बाद ही हो गई। उसके बाद जगजीवन राम आए तो उन्होंने भी दलित महिलाओं को नेतृत्व दिलाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी मीरा कुमार राजनीति में आईं जरूर लेकिन उन्हें यह विरासत में मिली। उन्हें राजनीति संघर्ष के रास्ते से नहीं मिली है। रिपब्लिकन पार्टी के चारों धड़े जिसका मैंने पहले जिक्र किया उसमें से कोई महिला नेतृत्व सामने नहीं आया। मायावती ने तो हद ही कर दी। उसके नेतृत्व में कोई दलित पुरुष तो छोडि़ए, कोई दलित महिला भी आगे नहीं आ पाई। दलित राजनीति में मायावती को छोडक़र कोई दूसरी महिला नजर नहीं आती हैं।

मायावती खुद चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन किसी दूसरी दलित महिला को उन्होंने आगे नहीं आने दिया। मायावती की सामंती सोच देखिए कि उन्होंने पांच-छह वर्ष पहले अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की बात की थी। उन्होंने यह भी कहा था, -‘मैं अपने उत्तराधिकारी का नाम एक लिफाफे में बंद करके जाऊंगी। मेरे मरने के बाद लिफाफा खोला जाएगा।’ मैं इस बात का जिक्र सिर्फ इसलिए कर रहा हूं ताकि आनेवाली पीढ़ी दलित राजनीति में महिलाओं की स्थिति को समझ सके और उसे दुरुस्त करने की कवायद में लगे।

दलित राजनीति में सफल पुरुष ने अपनी पत्नी को गृहणी बनाकर रखना पसंद किया। यह स्त्रीविरोधी मानसिकता है और यह भी उसी धर्म व्यवस्था की देन है। इसकी शिकार दूसरी पार्टियां भी रही हैं। महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का मामला दसियों साल से लटका पड़ा है। स्त्री विरोधी मानसिकता को मीडिया और सिनेमा भी बढ़ावा दे रहे हैं। पतियों की पूजा कीजिए और यह इच्छा कीजिए कि वह आपको बराबरी का दर्जा देगा, परस्पर विरोधी बातें हैं। कर्मकांडी व्यवस्था को खत्म किए बगैर स्त्रियों का कभी भी भला नहीं हो सकता है।

बहरहाल चुनाव विश्लेषण के सभी तरीकों को तोड़ते हुए आंकड़ों में उलझाना गलत होगा। और ना ही बेतुका तर्क देना जायज होगा।। हम शिक्षित, संघर्ष और संगठित होने के नाम पर टूटते चले गए और जो टूटा हुआ था वह आज हमें संगठित होने का सबक सिखा रहे हैं। और बता रहे हैं कि जब तक टुकड़ों में बंटे रहोगे हम जीतते रहेंगे। हम जिस चुनावी पद्धति में मैदान में हैं वह लड़ाई विचारधारा और भावनाओं से नहीं जीता जा सकता है सबसे बड़ी बात यह है कि 'अप्रतिनिधिक' चुनाव प्रणाली का अंजाम सामने  है।

जो लोग चाहते हैं चुनाव परिणाम वैसे नहीं निकलते हैं बल्कि 'पहले आओ और पहले पाओ' के इस चुनावी प्रणाली में जो पहले मतदाताओं को अपने जनविरोधी नीतियों से तहस नहस कर सकता है वहीं विजेता है। नोटबंदी के बाद गैस सिलेंडर के दामों में वृद्धि कर सकता है, बाजार में आवश्यक वस्तुओं के दरों में उछाल ला सकता है। और अब उक्रेन रूस युद्ध के बाद तेज सहित अन्य वस्तुओं में मूल्यवृद्धि हो सकती है!

किसानों और मजदूरों को मौत और आत्महत्या के लिए प्रेरित कर सकता है, जो संविधान की दुहाई देकर दलितों आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के ऊपर लगातार हमले कर सकता हो, अपशब्दों का उपयोग कर सकता है, आतंकवादी के रूप में मुसलमानों को मौत के घाट उतार सकता हो, चुनाव में अपराधिक हथकंडा अपना सकता हो, चुनाव आयोग के सारे नियमों को ताक पर रखकर उसके नियम और कायदों को तोड़ सकता हो, मुर्गा भात पैसों व उपहारों से मतदाताओं को रिझा सकता है, न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और पत्रकारिता को अपना अनुषांगिक संगठन बना सकता है उसके कदम जीत चूमते हैं। 


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