क्या प्रबलताओं से लैस बीजेपी का यूपी में मनोवैज्ञानिक प्रभाव टूट चुका है?

यूपी चुनाव का दलीय विश्लेषण

रवीश कुमार

 

गोदी मीडिया के बजट से लेकर सभी मानव संसाधन को बीजेपी का कार्यकर्ता माना जाना चाहिए। इनका बजट और इन लोगों की सैलरी भी बीजेपी के खाते में जोड़ा जाना चाहिए। सिर्फ इतना गिन लीजिए कि एक हिन्दी अखबार के मालिक ने बीजेपी के पक्ष में कितने संपादकीय लिखें हैं तो बीजेपी के यूपी प्रभारी को शर्म आ जाएगी कि उन्होंने बीजेपी में रहते हुए बीजेपी के लिए कितनी कम मेहनत की है। उससे अधिक तो गोदी मीडिया के ऐंकर कर रहे हैं। एक राजनीतिक दल के रुप में बीजेपी को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बीजेपी एक प्रबल दल है। इसकी प्रबलता मनोवैज्ञानिक रुप से भी है।

चुनाव की औपचारिक घोषणा से पहले बीजेपी ने सरकारी धन का इस्तेमाल कर सभाएं शुरू कर दीं। इनमें बसों में भर कर सरकारी योजना के लाभार्थी लाए गए।चुनाव शुरू हुआ तो बीजेपी के विधायकों और सांसदों के खदेड़े जाने के वीडियो वायरल होने लगे। बीजेपी के उम्मीदवार कहीं से भाग रहे थे तो कहीं कान पकड़ कर अपने ही कार्यकर्ताओं के बीच उठक-बैठक कर रहे थे। गोदी मीडिया के कार्यक्रमों में यूपी के युवा आगे कर भांडाफोड़ कर रहे थे। यह सब उस बीजेपी के राज में हो रहा था जिसके पास 303 सीटें हैं और अकूत संसाधान हैं। जनता ने अपने स्तर पर बीजेपी की इस ताकत का मुकाबला करना शुरू कर दिया। बीजेपी पीछे हट गई लेकिन ललकार नही सकी। इसी संदर्भ में हमने सवाल किया है कि क्या यूपी में बीजेपी अभी भी मनोवैज्ञानिकल रुप से प्रबल दल है?

पश्चिम यूपी में अकेले टिकैत और किसान आंदोलन ने मिलकर बीजेपी के हिन्दू मुस्लिम नैरेटिव को ठंडा कर दिया। भले ही इन इलाकों में बीजेपी आगे निकल जाए लेकिन गोदी मीडिया और बीजेपी यहां माफिया की आड़ में एंटी मुस्लिम माहौल नहीं बना पाए। बीजेपी बाकी के चरणों में भी माफियावाद पर टिकी रही। जिस प्रदेश में बीजेपी से ताकतवर कोई दल नहीं है वहां वह भय के आधार पर चुनाव लड़ने लगी। ख़ुद को एक ऐसे बाहुबली के रुप में पेश कर रही थी जैसे दूसरे बाहुबलियों से सुरक्षा की गारंटी वही दे सकती है। बीजेपी ने ज़रूर विकास का ज़िक्र किया लेकिन डर पैदा कर सुरक्षा देने का स्वर सबसे ऊपर रहा। जिस राज्य में डबल इंडन की सरकार हो, धनबल से लैस दल हो वह बैकफुट पर चुनाव लड़ रही थी।

यूपी में बीजेपी जीत रही है, ऐसा कहने वाले कम नहीं हैं। इसमें से ऐसा कहने वाले ज्यादा हैं जो कह रहे हैं कि किसी तरह से सरकार बन जाएगी। एक प्रबल दल के बारे में कहा जा रहा है कि किसी तरह सरकार बना लेगी। इसका मतलब है कि यूपी में बीजेपी मनोवैज्ञानिक रुप से प्रबल दल नहीं रही। उसकी प्रबलता समाप्त नहीं हुई है मगर कमज़ोर पड़ती दिख रही है। अब सवाल है कि क्या बीजेपी विकास के काम और भविष्य में उम्मीद के नाम पर जीत रही है ? तब फिर इस सवाल का जवाब दीजिए कि धर्म के साथ साथ दूसरे धर्म से नफ़रत पर इतना ज़ोर क्यों दिया गया? उसके नेता कभी पिछड़ों को मनाने तो कभी ब्राह्मणों को मनाने तो कभी पसमांदा मुसलमानों को मनाने के बयान देते रहे।यह सब छपा है।

ट्रिब्यून अखबार में ऑनिंद्यो चक्रवर्ती ने लिखा है कि 2016 की नोटबंदी में भयंकर तबाही आई थी, लोगों के हाथ से पैसे छिन गए, इसके बाद भी 2017 में यूपी में बीजेपी को बंपर वोट मिला। उस दौरान बीजेपी ने नोटबंदी के साथ-साथ ध्रुवीकरण के एजेंडे को टॉप पर रखा। पश्चिम यूपी के दंगे के बाद बने माहौल की लाभार्थी बीजेपी ही थी। सवाल यह है कि जब नोटबंदी जैसा फालतू और सनक से भरा फैसला इस समाज में सही साबित किया जा सकता है तो उस समाज में ऐसा क्या हो गया है कि वह महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर जाग जाएगी? ज़रूर जनता बदलती है लेकिन नोटबंदी के समय भी तो आज के समय की तरह आर्थिक बर्बादी हुई थी। क्या इन बातों को भूल कर बीजेपी की हार की घोषणा की जा सकती है?

2017 के बाद से इस देश में बहुत कुछ बदला भी है। कोरोना की दूसरी लहर में पूरे देश में और खासकर यूपी में भयंकर तबाही आई। यूपी की राजधानी लखनऊ में हाहाकार मचा और पूर्वांचल की नदियों में लाशें तैरने लगीं। क्या आपने सुना कि जनता ने इसे याद रखा हो? यही नहीं चुनाव शुरू होने से पहले कई महीने तक यूपी की जनता 110 रुपये लीटर पेट्रोल और डीज़ल खरीद रही थी। आज भी 95 रुपये लीटर खरीद ही रही है। इस दौरान भयंकर रुप से उत्पाद शुल्क के नाम पर जनता की वसूली हुई। उसकी आर्थिक कमर टूट गई। सरसों तेल का दाम डबल हो गया और गैस का सिलेंडर खरीदने की औकात खत्म हो गई। उस प्रदेश की 15 करोड़ जनता को सरकार मुफ्त अनाज दे रही है। ई-श्रम कार्ड बनवा कर लाखों लोगों के खाते में हज़ार-पांच सौ रुपये डाले गए।

आनिंद्यों कहते हैं कि ध्रुवीकरण के अलावा बीजेपी योजना वितरण पर ज़ोर देती है। लोगों को ग़रीब करती है और फिर उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए मुफ्त आटा देती है। पांच सौ से लेकर एक हज़ार रुपये उसके खाते में जाते हैं। एक ही ज़िले में अलग अलग योजनाएं अलग अलग लोगों को टारगेट करती हैं। लेकिन इस भयंकर महंगाई का सामना क्या मुफ्त अनाज और पांच सौ से किया जा सकता है? क्या जनता अपनी आर्थिक ग़रीबी से त्रस्त है? दस मार्च को पता चलेगा।

मुफ्त अनाज, तरह तरह के आइटम और पैसे देने की योजना कई राज्यों में रही है। इस तरह के स्कीम के ज़रिए ममता ने बंगाल में अपना गढ़ बचाया तो नवीन पटनायक आसानी से जीतते रहे हैं। तमिलनाडु में इसका खेल अलग ही लेवल पर चलता है फिर भी वहां सत्ता परिवर्तन हो जाता है। छत्तीसगढ़ में रमण सिंह ने चावल बांटने की योजना चलाई थी जिसके चलते उन्हें चाउर वाले बाबा कहा गया और तीन तीन चुनाव में वोट भी मिला। चावल योजना पर आश्रित जनता को अपनी हालत समझ आने में पंद्रह साल लग गए। तब जाकर रमन सिंह को हराया। क्या यूपी में लाभार्थी तबका तमिलनाडु की तरह सत्ता परिवर्तन करेगा या छत्तीसगढ़, ओड़िशा की तरह पंद्रह साल से लेकर बीस साल तक इंतज़ार करेगा? दस मार्च को पता चलेगा।

यूक्रेन में भारतीय छात्र फंसे हैं। जिस वक्त वे पानी को तरस रहे थे उस वक्त प्रधानमंत्री डमरू बजा रहे थे। अब प्रधानमंत्री के बयान आग की तरह नहीं फैलते इसलिए मोदी कोशिश करते हैं कि उनका वीडियो वायरल हो जाए। वीडियो भी एक सूचना तो है ही। इसके लिए वे काफ़ी मेहनत कर रहे हैं। यहाँ आप सवाल कर सकते हैं कि एंटी मुस्लिम नफ़रत के प्रचंड उभार और लाखों करोड़ रुपये लाभार्थियों को देने के बाद भी बीजेपी की ये हालत है कि प्रधानमंत्री को वायरल होने लायक़ वीडियो बनवाने के लिए रात में स्टेशन पर घूमना पड़ रहा है, चाय की दुकान में जाकर सामान्य दिखना पड़ रहा है और युद्ध में बच्चों को छोड़ बनारस में डमरू बजाना पड़ रहा है? इतना समय है कि वे बनारस में रोड शो कर रहे हैं और डमरू बजा रहे हैं? हमने अतीत में ऐसे कई मुख्यमंत्री देखें हैं जो अपने क्षेत्र में एक दिन प्रचार करते हैं या करते ही नहीं हैं, उनका काम होता है तो जनता आसानी से जीता देती है। लेकिन प्रधानमंत्री को अपने क्षेत्र से चिपके रहना पड़ा।

बुद्दीजीवियों को बुलाकर फर्ज़ी टाइप की बैठके करनी पड़ी। यह सब बता रहा है कि जीत भले जाएँ चुनाव लेकिन जीत के लिए उन्हें वायरल होने तक की हरकत करनी पड़ी। उसी यूपी में यह प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व की मनोवैज्ञानिक हार है। कम से कम बनारस को लेकर तो इतना भरोसा होना चाहिए था कि वे दिल्ली में दिन रात जुटे रहते और उनके काम से कृतज्ञ जनता आराम से वोट दे रही होती।

यह सब बता रहा है कि एक प्रबल पार्टी के प्रचंड नेतृत्व में यूपी के चुनाव को लेकर क्या चल रहा है। ऐसा लगता है कि जनता ज़ोर ज़ोर से डमरू बजा रही है और शोर से बचने के लिए प्रधानमंत्री भी डमरू बजा रहे हैं। हिन्दी अखबारों में विधानसभा क्षेत्रों की खबरों की हेडलाइन देखिए। बीजेपी रैलियों की हेडलाइन से काफी अलग है। ऐसी ज़्यादातर ख़बरों में लिखा है कि कांटे की टक्कर है या सीधी टक्कर है। हो सकता है कि अखबारों की रिपोर्टिंग का यह घिसापिटा रवैया हो लेकिन जिन अखबारों के सारे पन्नों पर बीजेपी के पक्ष में संपादकीय हैं, यहां तक की घटनाओं और खबरों के प्रसंग इस तरह से रखे गए हैं कि बीजेपी की छवि बने, उन्हीं अखबारों में तीन तरह के टक्कर हैं, टक्कर, सीधी टक्कर और कांटे की टक्कर। यह भी बीजेपी के लिए एक मनोवैज्ञानिक हार है। उसका मनोवैज्ञानिक वर्चस्व दरका है। मैं नहीं कहूँगा कि क्षीण हो गया है लेकिन जिस स्तर पर 2014, 2017, 2019 में था, उस स्तर से सरका है।


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