कहां गई गौरैया

सुनीता सिन्हा


घर के आंगन में रोज आने वाली गौरैया का अचानक धीरे धीरे आना ही कम हो गया, या बंद ही हो गया, ना जाने आज कल इनका ठिकाना कहां हैं, दिन महीने साल हो गये पर ये दिखाई ही नहीं देती...

गौरैया तू तो पहले रोज घर के आंगन में, म्यार, खिडक़ी, छप्पर या मुंडेर पर, तो बाड़ी में उगाई गई छोटी छोटी झाडिय़ों में आकर बैठती तो कभी वहीं अपना घोंसला बनाकर उसी को ठिकाना बना लेती, और चीं-चीं कर चहकती रहती, सारा दिन तुम्हारे आवाज से घर गूंजता रहता, हम भी तुझे प्यार से दाना पानी देते तो कभी तेरी दिनभर की चीं-चीं की आवाज से  तंग आकर गुस्से से तुझे देखते।

ना जाने तुम सब कौन सी भाषा में बात करते,  कभी डाल पर तो, कभी कभी  तो  गोल घेरा बनाकर बहुत बड़ी झुंड में बैठे रहते तो, कभी 2- 3, 4 की ऐसा लगता मानो किसी गंभीर मुद्दे को लेकर चर्चा हो रही हो, हमारे पूर्वज तुझे धूल में लिपटते या नहाते देख मौसम का हाल पता कर लेते थे,  पता नहीं आजकल तेरा ठिकाना कहां है, तेरा आना ही कम हो गया मुझे तू तो दिखाई ही नहीं देती!

शायद अब हमारे घर तुम्हारे रहने लायक नहीं, ना आंगन हैं, ना छप्पर हैं ना ही म्यार, मुंडेर कुछ भी नहीं बचाये हैं कभी कभार तुम खिडक़ी में आकर बैठ जाती और तुझे वो जगह ठीक लगती तो घोंसला बना भी लेती है। उसे हम सफाई या घर की सुंदरता का नाम लेकर हटा देते, अब तो घर में ना बाड़ी ना ही झडिय़ा इसलिए तू नहीं आती है। मुझे पता है गौरैया अब हमारे घर तुझे पसन्द नहीं आते और नहीं हमारा बर्ताव तो तू कैसे आयेगी...

विकास के नाम पर तो हमने पहले से ही जंगल उजाड़ दिये हैं, और अब डिजिटल इंडिया के नाम पर जगह जगह टॉवर का बनना तुम सब के लिए जीना मुश्किल कर दिया है तुम कभी कभी इससे निकलने वाली किरणों को सहन नहीं कर पाती, ना ही इसकी तार की तरंगों को और इसी पर चिपक कर तो कभी वहां से नीचे गिर कर तेरी जान चली जाती है।  और इन सब का कारण हमारी दिनर्चया में आये परिवर्तन है

गौरैया हमने तो तुझे कुछ कुछ जगह बदनाम भी कर दिया है, जब हम खेतों में फसल उगाते थे तो फासलों में लगने वाली कीड़ों को खाने आती थी और हमें लगता था कि हमारे फसल को खानें या खराब करने आती हैं, जिसके कारण हम भी खेतों में रासायनिक पदार्थो का उपयोग करते गये, जिसे खा कर तुम्हारी  जान जाती गई, पर यह बात हमें बहुत देर से पता चला कि तुम तो फासलों में लगने वाले रोग, या कीड़े मकोड़ों को खाकर प्रकृति की पारिस्थितिकी तंत्र की क्रिया जारी रख इसका संतुलन बनाये रखती हैं!

जिसके कारण तुझे चहकता हुआ पास देखना, सुना तो दूर हम तुझे दूर से भी उड़ते नहीं देख पा रहे हैं। 20 मार्च 2010 वर्ष को पहली बार विश्व गौरैया दिवस मनाया गया पर शायद हम ये काम ढंग से नहीं कर पा रहे हैं, विश्व भर में लगभग 26 प्रजातियां गोरिया की पाई जाती हैं जिसमें से भारत में 5 प्रजातियां पाई जाती हैं।

गौरैया का धीरे धीरे हम सब से दूर जाना हमें अपने आस पास या प्रकृति में हो रही गड़बड़ी को दर्शाता है। पर हम सब ये देखकर भी अंजान बने रहते हैं, जिसका खामियाजा हमें आज नहीं तो कल सबको भुगतना पड़ सकता है क्योंकि प्रकृति की सारी रचनाएं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, जिसका हिस्सा हम सब भी हैं।

गौरैया को इसलिए भी बचाना चाहिए क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र  का एक हिस्सा के रूप पर्यावरण का संतुलन बनाने वह अपना महत्वपूर्ण योगदान देती हैं।

इन सब बातों को सोचकर मुझे महादेवी वर्मा की एक कविता चिडिय़ा याद आती हैं-  

आँधी आई जोर शोर से,
डालें टूटी हैं झकोर से।
उड़ा घोंसला अंडे फूटे,
किससे दुख की बात कहेगी!
अब यह चिडिय़ा कहां रहेगी?

हमने खोला आलमारी को,
बुला रहे हैं बेचारी को।
पर वो चीं-चीं कर्राती है
घर में तो वो नहीं रहेगी!

घर में पेड़ कहां से लाएं,
कैसे यह घोंसला बनाएं!
कैसे फूटे अंडे जोड़े,
किससे यह सब बात कहेगी!
अब यह चिडिय़ा 
कहां रहेगी?


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment