झारखंड में माओवादियों के नाम पर आदिवासियों पर हो रहे हैं निर्मम अत्याचार

विशद कुमार 

 

पुलिस की पिटाई से घायल अनिल 26 फरवरी को सदर अस्पताल पहुंचा। जहां डॉक्टर अखिलेश्वर प्रसाद ने उनका इलाज किया। अनिल ने बताया कि मेरे अलावा पुलिस ने मेरे मामा रामसेवक भगत व भगिनी दमाद अजय भगत को भी उठा कर थाना ले गई थी। जहां उन लोगों की भी पिटाई की गई। 

अनिल ने बताया कि 23 फरवरी की रात हमलोग पूरे परिवार खाना खाकर सो रहे थे। इसी बीच रात्रि करीब 1:30 बजे थाना प्रभारी रंजीत कुमार यादव दल बल के साथ मेरे घर पहुंचे और दरवाजा खटखटा कर बाहर बुलाया। उसके बाद उन्होंने मुझे, मेरे मामा, भगिनी दमाद को यह कह कर तैयार होने को कहा कि तुम लोग नक्सली को ट्रेन में बैठा कर पहुंचाए हो, थाना चलो। 

इसके बाद हम लोगों को थाना ले जाया गया व जमकर पिटाई की गई। स्वयं थानेदार ने मेरे शरीर के निचले भाग में अन्धाधुन्ध लाठियां बरसाई। जिससे मेरा चमड़ा उखड़ गया। पिटाई के कारण मैं बेहोश हो गया। मेरा ब्लड प्रेशर लो हो गया। जिसके बाद ग्रामीण चिकित्सक को बुलाकर मेरा इलाज कराया गया। इसके बाद पुलिस हमलोगों को लेकर लातेहार पुलिस अधीक्षक के पास गई। हम लोगों से पूछताछ की गई। चूंकि हमलोग पूरी तरह निर्दोष थे। नतीजतन हमलोगों को शुक्रवार को किसी को यह बात ना बताने की धमकी देकर छोड़ दिया गया।

बता दें कि पुलिस द्वारा ग्रामीण जनता से संबंध प्रगाढ़ बनाने के लिए सामुदायिक पुलिसिंग के तहत सामग्रियों का वितरण किया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर बिना कारण निर्दोष ग्रामीणों पर लाठियां बरसाई जा रही है। ग्रामीण बताते हैं कि हम लोग दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं। जहां उग्रवादियों और नक्सलियों की आवाजाही होती है। उनका मतलब यह नहीं कि हम लोग किसी के समर्थक हैं।

ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि नक्सलियों व पुलिस के बीच जारी जंग में ग्रामीण जनता बेवजह पीस रही है। इस संबंध में पूछे जाने पर पुलिस अधीक्षक अंजनी अंजान ने कहा कि पीडि़त द्वारा आवेदन देने पर संबंधित पुलिस पदाधिकारी पर कार्रवाई की जाएगी।

अनिल सिंह ने साफ़ साफ़ बताया कि एक और व्यक्ति को बेरहमी से इतना पीटा गया कि वह भी कई बार होश खो दिया। 12 जून, 2021 को इसी गांव के ब्रम्हदेव सिंह (खरवार जनजाति) समेत कई आदिवासी नेम सरहुल (आदिवासी समुदाय का एक त्योहार) मनाने की तैयारी के तहत शिकार के लिए गांव से निकलकर गनईखाड़ जंगल में घुसे ही थे कि जंगल किनारे से उन पर सुरक्षा बलों ने गोली चलानी शुरू कर दी। हाथ उठाकर चिल्लाये कि वे आम लोग हैं, पार्टी (माओवादी) नहीं हैं, वो गोली न चलाने का अनुरोध करते रहे। लेकिन सुरक्षा बलों ने उनकी एक न सुनी और फायरिंग कर दी। 

इन लोगों के पास पारंपरिक भरटुआ बंदूक थी, जिसका इस्तेमाल वे ग्रामीण छोटे जानवरों के शिकार के लिए करते हैं। सुरक्षा बलों की ओर से गोलियां चलती रहीं, नतीजतन दीनानाथ सिंह के हाथ में गोली लगी और ब्रम्हदेव सिंह की गोली से मौत हो गयी। इस घटना का सबसे दुखद और लोमहर्षक पहलू यह रहा कि ब्रम्हदेव सिंह को पहली गोली लगने के बाद उसे सुरक्षा बलों द्वारा थोड़ी दूर ले जाकर फिर से गोली मारी गई और उसकी मौत हो गयी।

इस घटना के बाद इस कांड के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय पुलिस ने मृत ब्रम्हदेव सिंह समेत छ: लोगों पर ही विभिन्न धाराओं के अंतर्गत प्राथमिकी (Garu P.S. Case No. 24/2021 dated 13/06/21) दर्ज कर दी। इस प्राथमिकी में पुलिस ने घटना की गलत जानकारी लिखी और पीडि़तों को ही प्रताडि़त किया गया।

झारखंड राज्य के गठन को 21 साल हो गए, एक रघुवर दास को छोडक़र राज्य सभी मुखिया आदिवासी ही हुए हैं बावजूद राज्य में आदिवासियों पर पुलिसिया उत्पीडऩ की घटनाएं कम नहीं हो रही हैं। 

इस तरह 23 फरवरी को 26 वर्षीय गिरिडीह जिला अंतर्गत खुखरा थाना क्षेत्र के चतरो गांव निवासी भगवान किस्कू को नक्सली होने का आरोप लगाकर जिले के एएसपी गुलशन तिर्की के नेतृत्व में बनी टीम ने गिरफ्तार कर पूछताछ के बाद उसे जेल भेज दिया गया। 

भगवान दास किस्कू पर लैंड माइन, आइईडी लगाने, मधुबन क्षेत्र में मोबाइल टावर उड़ाने, डुमरी के लुरंगी के पास बराकर नदी पर बने पुल को केन बम से उड़ाने के अलावा कई मामले दर्ज किए गए।  

झारखंड में बढ़ती पुलिसिया जुल्म कहानी की अगली कड़ी में पिछले महीने बोकारो जिला अंतर्गत गोमिया के चोरपनिया गांव का एक आदिवासी बिरसा मांझी (पिता बुधु मांझी)को दिसम्बर 2021 में जिले के जोगेश्वर विहार थाना बुलाकर थाना इंचार्ज द्वारा कहा गया कि वह एक 1 लाख रुपये का इनामी नक्सली है और उसे सरेंडर करना होगा। 

जबकि बिरसा ने थाना में इस बात को बताया कि उसका माओवादी पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं है,  फिर भी उसे सरेंडर करने को कहा गया था। बिरसा व इसके परिवार की आजीविका मज़दूरी पर निर्भर है। परिवार के सभी व्यस्क सदस्य अशिक्षित है। बिरसा व इसका बड़ा बेटा मजदूरी करने ईंटा भट्टा जाते हैं या बाहर पलायन करते हैं। इसके अलावा बिरसा व परिवार के अन्य सदस्य गांव में ही रहते हैं, परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर है।

बिरसा मांझी व गांव के कई लोगों पर 2006 में इनके एक रिश्तेदार ने डायन हिंसा सम्बंधित मामला (काण्ड से 40/2006 पेटरवार थाना) दर्ज करवा दिया था। इन पर लगे आरोप गलत थे। उस मामले में अधिकांश लोग आरोपमुक्त हो चुके हैं। बिरसा के अनुसार पिछले कुछ सालों में इस पर माओवादी घटना से सम्बंधित आरोप लगाया गया, लेकिन मामले की जानकारी उसे नहीं थी। 3-4 साल पहले इसकी कुर्की जब्ती भी की गयी थी। लेकिन आज तक बिरसा को पता नहीं चला कि किस मामले में कुर्की जब्ती की कार्यवाई हुई थी। 

इस मामले में बोकारो एसपी को 4 जनवरी 2022 को एक पत्र देकर मामले की निष्पक्ष जांच की मांग की गई थी, जो अभी भी अधर में लटका है। इसी तरह 9 जून, 2017 को गिरिडीह जिला के पारसनाथ पर्वत पर एक डोली मजदूर मोतीलाल बास्के की सीआरपीएफ द्वारा माओवादी बताकर हत्या कर दी गई। इस घटना का सबसे घिनौना पहलू यह रहा कि राज्य के तत्कालीन डीजीपी डीके पांडेय ने इस हत्या में शामिल सुरक्षा बलों को एक लाख रुपए जश्न मनाने के लिए दिया था। वहीं इनाम के तौर पर 12 लाख रुपए देने की घोषणा की थी।

इस घटना के विरोध में जोरदार आंदोलन चला था, जिसमें राज्य के पहला मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी सहित हेमंत सोरेन और शिबू सोरेन भी शामिल हुए थे। हेमंत ने कहा था कि उनकी सरकार बनते ही मोतीलाल के परिवार को मुआवजा और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। लेकिन हेमंत सरकार के एक साल गुजर जाने के बाद भी अभी तक मामले पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया है। 

सबसे चर्चित घटना जून 2021 का है जब पश्चिम सिंहभूम जिले के चिरियाबेड़ा गांव में 20 आदिवासियों को सीआरपीएफ के जवानों ने सर्च अभियान के दौरान बेरहमी से पीटा था, जिनमें तीन लोग बुरी तरह से घायल हुए थे। ग्रामीणों का दोष यही था कि वे जवानों को हिंदी में जवाब नहीं दे पा रहे थे।

उन्हें माओवादी कहा गया और डंडों, जूतों, कुंदों से पीटा गया। पीडि़तों ने पुलिस को अपने बयान में स्पष्ट रूप से बताया था कि सीआरपीएफ ने उन्हें पीटा था, लेकिन पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी में कई तथ्यों को नजरअंदाज किया गया और इस हिंसा में एक की भी भूमिका का कोई उल्लेख नहीं किया गया। 

एक अन्य मामला में हजारीबाग जिले विष्णुगढ़ थाना निवासी बलदेव मुर्मू को बिना किसी मामले के 54 घंटे तक थाना हाजत में रखा गया। इस पर क्षेत्र के मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जमकर आलोचना की गई जिसके बाद बलदेव को छोड़ा गया। यह खबर सोशल मीडिया में सुर्खियों में रही थी।

बहरहाल झारखंड में आदिवासियों, गरीबों व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर माओवादी होने का फर्जी आरोप लगाने का सिलसिला जारी है। पिछले कई सालों यूएपीए के मामलों में लगातार वृद्धि हुई है। यह दु:खद है कि पुलिस द्वारा यूएपीए का बेबुनियाद इस्तेमात कर लोगों को परेशान करने के विरुद्ध हेमंत सोरेन सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है। 

लिहाजा बोकारो के ललपनिया के कई मजदूर - किसान जो आदिवासी-मूलवासी अधिकारों के लिए संघर्षत रहे हैं, के खिलाफ माओवादी होने का आरोप लगाकर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया है। वे पिछले कई सालों से बेल एवं अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन दिन-रात आदिवासी-मूलवासी जनता के हितैषी होने का दावा करते नहीं थकते, लेकिन उनके दावे के ठीक विपरीत उनकी पुलिस आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं को ही झूठे मुक़दमे दर्ज कर जेल भेज रही है। 


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