बिलासा नाम की कोई बाई थी भी या नहीं? 

राजेश अग्रवाल


‘पद्मावती’ या ‘पद्मावत’ फिल्म आई थी तो खिलजी के साथ उनके प्रेम के दृश्य हैं या नहीं इस पर बड़ा विवाद खड़ा हुआ था। जो गहराई में गये उन्होंने अनेक दस्तावेजों के हवाले से कहा कि पद्मावती एक काल्पनिक चरित्र है। इतिहास के किसी किताब में उनका जिक्र नहीं मिलता। कुछ ऐसी ही बात बिलासा के बारे में लोग कह सकते हैं। 

आम धारणा है कि बिलासा थीं और उनके नाम पर ही इस नगर का नामकरण हुआ। मेरा मानना है कि लोक गाथायें, लिखित ऐतिहासिक प्रसंगों से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। जरूरी नहीं कि व्हेनसांग आये और बिलासा या पद्मावत पर कोई पांडुलिपि तैयार कर दे। 

राजा-महाराजाओं के इतिहास लिखे जाते थे। क्योंकि उनके आश्रय और संरक्षण में बहुत से लेखक, कवि हुआ करते थे। ऐसी दशा में हमें लोक गाथाओं, जनश्रुतियों को भी प्रामाणिक मानना चाहिये। दूसरी बात, लोक गाथायें तभी लोगों को प्रिय होती हैं जब वह आपका सम्मान बढ़ाती है, आपको गौरव का एहसास कराती है।

एक कान से दूसरे कान तक बात पहुंचते तक आज भी तथ्य बदल जाते हैं इसलिये बिलासा पर कही, लिखी गई बातें कुछ सच्ची भी हो सकती है, कुछ बाद में बनाई गई भी। 

छंद और व्याकरण में समानता के साथ अनेक दोहे प्रचलित हैं। दरअसल वे कबीर के हैं नहीं। पर लोग मानकर चलते हैं कि यह उन्होंने ही लिखा होगा। इस जिले का नाम मुख्यालय बिलासपुर पर पड़ा है। यह कहा जाता है कि इस नगर की स्थापना लगभग 400 वर्ष पूर्व बिलासा केंवटिन नामक एक मछुआरिन द्वारा की गई थी, जिसके आधार पर यह नाम पड़ा है।

इस संबंध में यह कथा कही जाती है कि बिलासा एक विवाहित महिला थी। एक बार इसी भू-भाग के राजा ने उसे पाने की इच्छा व्यक्त की और उसके समक्ष स्वतः को समर्पित करने से बचने के लिये उसने आत्मदाह कर लिया। उसके पति ने भी स्वच्छया ऐसा ही किया।

मेरे पास उपलब्ध बहुत पुराने बिलासपुर के गजेटियर (शासकीय दस्तावेज) के पृष्ठ 2 का यह अंश है, जिसमें बिलासपुर के नामकरण पर बात की गई है। 

पर बिलासपुर को लेकर यही एक कहानी नहीं है। सीएमडी कॉलेज बिलासपुर से सेवानिवृत  इतिहास के एक प्रोफेसर रामगोपाल शर्मा हुआ करते हैं । उनके अज्ञेयनगर निवास पर अक्सर मैं जाया करता था। उन्होंने आलेख लिखकर दावा किया कि बिलासा नाम पलाश का अपभ्रंश है। अंग्रेज यहां से पलाश फूलों का संग्रह करते थे, इसलिये पलाशपुर कहा गया। बाद में वह बिलासपुर हो गया। 

अपने बिलासपुर के ही इतिहासकार व कवि, हमेशा छत्तीसगढ़ी में बात करने वाले, स्वर्गीय प्रो. पालेश्वर शर्मा ने एक कहानी लिखी है। उनसे भी अक्सर मिला करता था।  कहानी का शीर्षक है- ‘नाव के नेह मां ’। इसमें उन्होंने बताया  कि एक कुटिया पर अरपा नदी के किनारे बिलासा रहा करती थी। गोंड राजा उस पर मोहित हो गया और उसके साथ वह दुष्कर्म कर देता है। ग्लानिवश वह आत्महत्या कर लेती है। 

नेहरूनगर, बिलासपुर में 75 वर्षीय डॉ. विजय सिन्हा हैं। इतिहासकार तो नहीं कहेंगे, साहित्यकार और वक्ता मंझे हुए हैं। काव्यभारती (स्व. मनीष दत्त की संस्था) से जुड़े होने के कारण हमारी अक्सर मुलाकात हो जाया करती है। उन्होंने लिखी है एक बड़ी मोटी किताब। नाम है ‘छत्तीसगढ़ की समग्र लोक गाथा।

छत्तीसगढ़ की ज्यादा से ज्यादा लोकगाथाओं को उन्होंने इसमें समेटने की कोशिश की है। इसके एक अध्याय को तैयार करने में उनकी मदद की रेखा देवार ने। रेखा देवार को हम आप बहुत अच्छे से जानते हैं। गीत- मोला जान दे न रे सना ना ना रे। और भी कई। 

रेखा देवार ने अपनी मां से डॉ. सिन्हा को मिलवाया। रेखा देवार की मां ने गोपल्ला गीत गाकर बताया। गोपल्ला गीत रतनपुर (छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी, अपने बिलासपुर के करीब), में किसी समय बहुत प्रचलित रहा। उनके लोक गीत में बिलासा का अलग ही तरह का वर्णन है। 

रोचक है, सुनिये- राजा कल्याण सिंह के सेनापति थे गोपाल राय। इनके नाम पर ही इसे गोपल्ला गीत कह रहे हैं। रतनपुर पर सम्राट जहांगीर के सैनिकों ने हमला किया। रतनपुर के राजा कल्याण सिंह को धोखे से उन्होंने बंधक बना लिया और अपने साथ दिल्ली ले गये।

राजा के सेनापति गोपाल राय दिल्ली जाने की योजना बनाते हैं। राजा को छुड़ाने के लिये कौन-कौन दिल्ली जाये? यह बात हुई। दिल्ली दल में तीन लोग शामिल थे, उनमें बिलासा बाई केंवट भी थीं। उसी की प्रमुख भूमिका रही, राजा कल्याण सिंह को छुड़ाने में। वह वीर रही होंगी तभी पुरुषों के साथ उनको दिल्ली ले जाया गया।

तो.., इस तरह से अलग-अलग किस्से, कहानियां हैं। और भी कुछ निकल सकते हैं। मेरा फिर मानना है कि साधारण लोगों, समुदायों के बारे में ज्यादा लिखा नहीं गया। लोक गाथाओं में ही वे जिंदा रहे। 

रानी लक्ष्मीबाई का इतिहास लिखा गया तो उसकी वीर सेवक झलकारी बाई के योगदान को ज्यादातर इतिहासकारों ने भुला दिया।  

कुछ मित्रों ने पूछा है कि बिलासा बाई कोई विभूति थीं, इसका प्रमाण है क्या?  सोचता हूं, प्रमाण तो ईश्वर के होने का भी नहीं है। हम कोई चरित्र गढ़ लेते हैं जो हमें गौरवान्वित करे। गलत क्या है?


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