वकील शाहिद आज़मी की हत्या के बारह साल बाद
द कोरस टीमअब तक 107 गवाहों में से केवल तीन से जिरह की गई है और जिरह की गई है। 11 साल हो गए हैं जब वकील शाहिद आज़मी को उनके कार्यालय में उन मुवक्किलों का प्रतिनिधित्व करने के लिए मार दिया गया था, जिनके बारे में उन्हें विश्वास था कि उन्हें आतंकवादी अपराधों में झूठा फंसाया गया था। हालांकि, 107 में से केवल तीन गवाहों से पूछताछ की गई है और उनकी खुद की हत्या के मुकदमे में जिरह की गई है।

सोनम सहगल, मुंबई, 10 फरवरी, 2021, द हिंदू के लिये लिखती है कि 11 फरवरी 2010 को रात करीब 8 बजे आजमी घर पर थे। जब उनके ऑफिस बॉय ने उन्हें बताया कि उनके ऑफिस में कुछ क्लाइंट उनका इंतजार कर रहे हैं। अपने कार्यालय पहुंचने पर, उसने देखा कि दो व्यक्ति उसके केबिन के अंदर इंतजार कर रहे हैं और दो अन्य बाहरी क्षेत्र में इंतजार कर रहे हैं। आज़मी ने अन्य दो को अंदर बुलाया और उन्होंने उसे गोली मार दी। ऑफिस का लडक़ा तुरंत दौड़ा और अपनी मां को ऑफिस बुलाया। वह, दूसरों के साथ, आज़मी को एक अस्पताल ले गई जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया।
आरोपी देवेंद्र जगप्तप, पिंटू दगले, विनोद विचारे और हसमुख सोलंकी को उसी दिन गिरफ्तार किया गया था। जबकि जगतप्तप और सोलंकी जेल में हैं, अन्य दो आरोपी जमानत पर बाहर हैं।
आजमी 7/11 ट्रेन विस्फोट मामले, मालेगांव 2006 बम विस्फोट मामले, औरंगाबाद हथियार बरामदगी मामले और घाटकोपर विस्फोट मामले में कई आरोपियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। राजकुमार राव अभिनीत हंसल मेहता की 2013 की फिल्म शाहिद आज़मी के जीवन और कार्य पर आधारित है
उनके भाई, वकील खालिद आज़मी ने कहा, ‘शाहिद को कॉल पर कई जान से मारने की धमकियां मिलीं, और उन्होंने कुर्ला पुलिस स्टेशन और तत्कालीन महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट कोर्ट के जज को भी इसके बारे में लिखा था। उन्होंने तत्कालीन पुलिस आयुक्त से मिलने और सुरक्षा मांगने की भी कोशिश की थी। लेकिन मेरे भाई की बात नहीं सुनी गई।’
मुकदमे के बारे में बात करते हुए, लोक अभियोजक वैभव बागड़े ने द हिंदू को बताया, ‘न्यायाधीश यू.एम. पड़वाड़। शिकायतकर्ता, एक प्रत्यक्षदर्शी और दो पंच गवाहों से पूछताछ की गई है और हम जिरह की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हालाँकि कोविड '9 के कारण परीक्षण को रोकना पड़ा, अगली तारीख 15 फरवरी है। ’
खालिद आजमी ने कहा कि मुकदमा चलाने में देरी हुई है क्योंकि आरोपी जमानत के लिए आवेदन करते रहे।
सभी चार आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 120बी (आपराधिक साजिश), 452 (चोट, हमले की तैयारी के बाद घर-अतिचार) के साथ धारा 3 (आग्नेयास्त्रों के अधिग्रहण और कब्जे के लिए लाइसेंस) के तहत आरोप लगाए गए हैं। और गोला-बारूद), 25 (कुछ अपराधों के लिए सजा) और 27 (हथियारों का उपयोग करने की सजा, आदि) शस्त्र अधिनियम।
कौन था एडव्होकेट शाहिद
लेखक मसीहुद्दीन संजरी लिखते हैं कि 11 फरवरी 2010 को कानून और साम्प्रदयिक सदभाव का खून करने वालों ने शाहिद आदमी को शहीद कर दिया। शाहिद आतंकवाद के नाम पर फंसाए जा रहे बेकसूर मुस्लिम युवकों के मुकदमें देखते थे और कई बार उन ताकतों के मंसूबों का खाक में मिला दिया था जिनकी साजिश की वजह से सैकड़ों मुस्लिम नौजवानों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया था। शाहिद ने बेकसूर युवकों की कानूनी लड़ाई को अपनी जिन्दगी का मकसद बना लिया था। एलएलएम करने के बाद उनके मामू उन्हें एक मशहूर वकील के पास लेकर गये ताकि उनका भांजा अच्छा प्रशिक्षण लेकर खूब पैसा कमाए लेकिन आदमी का इरादा कुछ और था। इस रास्ते पर चलने में आने वाले सम्भावित खतरों से भी शायद वह वाकिफ थे। इसीलिए उनकी मां जब उनसे शादी करने की बात करतीं तो वह मुस्करा कर टाल देते थे।
शाहिद आजमी मूल रूप से आजमगड़ के इब्राहीमपुर गांव का रहने वाले थे। उनके पिता अनीस अहमद पत्नी रेहाना अनीस के साथ मुम्बई के देवनार क्षेत्र में रहकर अपनी अजीविका कमाते थे। बचपन में ही पिता अनीस अहमद का देहान्त हो गया। शाहिद आजमी ने पंद्रह साल की आयु में दसवीं की परीक्षा दी। अभी नतीजे भी नहीं आए थे कि कुछ राजनितिज्ञों को कत्ल करने की साजिश के आरोप में उन्हें टाडा के तहत गिरफतार कर लिया गया। जेल में भी अपनी पढ़ाई जारी रखी और कानून की डिग्री हासिल की। उन्हें पांच साल की सजा भी हुई परन्तु बाद में सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए।
मुम्बई के 18 आरोपियों में से 9 को डिस्चार्ज करवा लिया
जेल से रिहा होने के बाद एक साल का पत्रकारिता का कोर्स करने के साथ ही एलएलएम भी किया। कुछ समय एडवोकेट मजीद मेमन के साथ रहने के बाद अपनी प्रेक्टिस करने लगे। शाहिद आजमी का नाम उस वक्त उभर कर सामने आया जब उन्होंने 2002 के घाटकोपर बस धमाका, मुम्बई के 18 आरोपियों में से 9 को डिस्चार्ज करवा लिया बाद में बाकी 8 आरोपियों को भी अपर्याप्त साक्ष्यों के कारण टाडा अदालत ने बरी कर दिया। इस घटना के एक आरोपी ख्वाजा यूनुस की पुलिस हिरासत में ही हत्या कर दी गई थी।
उनकी कानूनी मदद ने उन्हें मौत दिया
शाहिद आजमी 11 जूलाई 2006, मुम्बई लोकल ट्रेन धमाका, मालेगांव कब्रस्तान विस्फोट और औरंगाबाद असलेहा केस के आरोपियों के वकील थे। यही वह जमाना था जब देश में एक साम्प्रदायिक-फासावादी शक्तियों द्वारा यह सघन अभियान चलाया जा रहा था कि कोई अधिवक्ता आतंकवादियों का मुकदमा नहीं देखेगा। इस समय तक आतंकवादी होने का अर्थ होता था मुसलमान होना। देश के कई भागों में ऐसे अधिवक्ताओं पर हिंसक हमले भी हुए थे। बेंगलुरू में सैयद कासिम को शहीद भी कर दिया गया था। ऐसे वातावरण में यह साहसी नौजवान महाराष्ट्र के बाहर बंगाल समेत देश के कई भागों में जाकर अपनी कानूनी मदद देता रहा।
अपनी योजना पर काम नहीं कर सकें
अपनी शहादत से कुछ दिनों पहले ही बहुत गम्भीर मुद्रा में अपने परिजनों और मित्रों से शाहिद ने कहा था कि वह एक ऐसी योजना पर काम शुरू करने जा रहा है जिसके नतीजे में बेकसूरों पर हाथ डालने से पहले एजेंसियों को सौ बार सोचना पड़ेगा।
2006 और 2007 के बीच एडव्होकेट शाहिद आजमी को अज्ञात लोगों की तरफ से धमकी के फोन मिले थे। उन्होंने स्थानीय पुलिस में इसकी शिकायत दर्ज करवाई थी। उन्हें सेक्योरिटी भी दी गई थी लेकिन कुछ ही दिनों बाद वापस ले लिया गया।
शाहीद सीडीपीआर के मानवाधिकार कार्यकर्ता थे
लेखक मसीहुद्दीन संजरी लिखते हैं कि 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई पर हुए आतंकी हमले में जब पहले से ही जेल में बन्द फहीम अंसारी और सबीहुद्दीन अंसारी को घसीटा गया तो शाहिद आजमी उनके वकील हुए। इस हमले के पाकिस्तानी अभियुक्त अजमल कसाब के वकील केपी पवार को जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई परन्तु इसी मुकदमें से जुड़े दूसरे अधिवक्ताओं की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई। शाहिद आजमी कमेटी फार प्रोटेक्शन आफ डेमाक्रेटिक राइट्स (सीडीपीआर) के सदस्य होने के साथ ही इंडियन एसोसिएशन आफ पीपुल्स लाएर से भी जुड़े हुए थे।
शाहिद आजमी खुशमिजाज स्वभाव का था। यही कारण था कि उनके विरोधी भी उनका सम्मान करते थे। मुम्बई की सरकारी वकील रोहिनी जो कई मुकदमों में शाहिद के खिलाफ वकील थीं, ने इसकी कड़े शब्दों में निन्दा करते हुए अपनी संवेदना व्यक्त की थी। शाहिद नहीं रहा, पर देश में वो युवाओं का एक आइकन है। अक्सर युवा मिलते हैं जो कहते हैं कि हम शाहिद बनना चाहते हैं।
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