उनका बजट

प्रेम कुमार मणि

 

इसलिए मैंने अपने गांव को, अपने परिजनों को इस बजट में ढूंढता रहा। कोई नहीं मिला। अर्थशास्त्र की कोई ख़ास जानकारी मुझे नहीं है। लेकिन इतना तो जानता ही हूँ कि कौन सी चीज हमारे पक्ष में हैं और कौन सी विरोध में। अखबारों की सुर्खियां देख रहा हूँ। पांच चीजें इस बजट में ख़ास है -

1 - डिजिटल करेंसी

2 - डिजिटल युनिवर्सिटी

3 - इ- एजुकेशन

4 - डिजिटल हेल्थ

5 - डिजिटल बैंकिंग

इसमें कौन कहाँ है? सोचना होगा। गांव - गरीब और मिहनतक़श कहाँ है? कृषि में किसानों को कोई लाभ तो नहीं मिला; हाँ, ड्रोन से उनकी देखरेख होगी। क्या देखरेख होगी इसका भी कोई खुलासा नहीं है। जैसे बीते साल सड़कों पर किसानों की छाती पर गाड़ियां चला रहे थे,वैसे ही उनके खेतों पर ड्रोन उडायेंगे। साल भर लम्बी चली किसानों की हड़ताल को बजट ने ठेंगा दिखा दिया। उनकी औकात बता दी।

युवा बेरोजगारों, महिलाओं और समाज के पिछड़े हिस्से को आगे बढ़ाने की कोई योजना नहीं है। नौकरी - पेशा मध्य वर्ग, जिनकी बंधी हुई आमदनी है, को कोई राहत नहीं है। सरकार कभी यह भी नहीं सोचती कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्स के रूप में मध्य वर्ग की आमदनी का पचास से साठ फीसद वह हड़प लेती है। टैक्स देकर बचे हुए पैसे से जब हम खरीदारी करते हैं उस पर भी हम टैक्स क्यों और कैसे देते हैं, कभी सोचा है? आप बाजार के मार्फ़त टैक्स लेते हो तो फिर स्रोत पर टैक्स लेने का क्या औचित्य है। हाँ, तय बचत से अधिक पर टैक्स के बारे में सोचा जा सकता है।

और भीतर आइए। बात तो हँसने की है ,लेकिन गंभीर भी है। असली हीरे के गहने सस्ते हो गए हैं, लेकिन नकली गहने महंगे। सरकार जानती है कि असली गहने अमीर खरीदते हैं और नकली गहने गरीब। मुझे अपने किशोरकाल के एक समाजवादी कार्यकर्त्ता की बात याद आती है।

उन्होंने मुझसे पूछा था - बतलाइए कि जब आप बाजार जाते हैं और खुदरा किलो दो किलो अनाज खरीदते हैं तो वह महंगा क्यों मिलता है और जब आप उसे ही थोक क्वींटल या मन के भाव से खरीदते हैं तो सस्ता क्यों मिलता है? यह भी कि आप जब किलो - दो किलो अनाज बेचने जाते हैं तो वह सस्ता क्यों ख़रीदा जाता है और जब आप थोक बेचते हैं तो वह महंगा क्यों खरीदा जाता है? मेरे जवाब नहीं दे पाने पर उस समाजवादी साथी ने ही जवाब दिया था कि गरीब आदमी खुदरा खरीदता है और खुदरा बेचता है।

इसलिए उसे खुदरा महंगा खरीदना होता है और खुदरा सस्ता बेचना होता है। अमीर आदमी थोक बेचता है, थोक खरीदता है। उसका थोक खरीदना सस्ता और थोक बेचना महंगा। यही है पूंजीवादी - ब्राह्मणवादी अर्थशास्त्र। इस सिस्टम को ही तोडना है साथी। यही समाजवादी अर्थशास्त्र का पहला पाठ है। इकोनॉमी को गरीबोन्मुख करना है। उसे मिहनतक़शों के पक्ष में करना है। समाजवादियों का नारा हुआ करता था -" कमानेवाला खाएगा ; लूटनेवाला जाएगा "।

लेकिन जो कल बजट पेश किया गया है, उसका नारा है ' कमाने वाला जाएगा; लूटनेवाला लूटेगा '। मोदी सरकार वेदांती सरकार है । वेदांत को मायावाद भी कहते हैं। यह मायावादी बजट है। ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या इसका सारांश हो सकता है। जगत को झूठा बता दिया गया है। जो दिख रहा है वह सब झूठ है। ब्रह्म अदृश्य है, लेकिन सच वही है। इस बजट से लाभान्वित होने वाले उद्योगपति और बड़े कारोबारी हैं।

पचीस हजार किलोमीटर सड़कें बनेंगी। ठीक हैं बने। लेकिन क्या इससे रोजगार सृजन भी होगा? आज तो सड़क निर्माण मशीनों के माध्यम से होता है। उसमे बड़ी मशीनें ठेकेदार कंपनियों के होते हैं। इनसे किनका भला होता है सब जानते हैं। आधारभूत ढांचा कृषि, लघु उद्योग और हस्तकौशल का वह क्षेत्र है, जिसमें करोड़ों को जोड़ा जा सकता है।

बजट का बीस फीसद ब्याज पर खर्च होना है और तेईस फीसद उधारी से आएगा। मतलब आने वाले वर्षों में ब्याज पर खर्च और बढ़नेवाला है। सरकार कह रही है कि यह भविष्योन्मुख बजट है। एक मुहाबरा है यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे; जो पिंड में है, वही ब्रह्माण्ड में है। जो घर में है, वही देश में है। आप बीस फीसद ब्याज देकर अपनी घरेलु इकोनॉमी को भविष्णु नहीं बना सकते।

इसे तो कम करना ही होगा। और यह भी कि आधारभूत ढाँचे का मतलब किसी घर में उसका बंगला और मोटर कार नहीं; बच्चों की बेहतर शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य होता है। ऐसी आमदनी का बंदोबस्त होता है जिससे नियमित आय होती रहे। सार्वजनिक जीवन में भी बजट का उद्देश्य सड़कें और मॉल नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के पुख्ता इंतजाम होने चाहिए। इस बजट में वह नहीं दीखता।

यह बजट अमीरों का, अमीरों द्वारा और अमीरों केलिए है।


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