प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज की ‘जेल यात्रा’
‘दक्षिण कोसल/द कोरस’ को सुधा भारद्वाज का पहला साक्षात्कार (चौथा किश्त)
सुशान्त कुमारजून 2018 से ही प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार ने महाराष्ट्र राज्य के भीमा कोरेगांव गांव में हुई हिंसा के मामले में 16 लोगों को जेल में डाल रखा है। इनमें भारत के कुछ सबसे सम्मानित विद्वान, वकील, शिक्षाविद, राजनीतिक कार्यकर्ता और एक उम्रदराज क्रांतिकारी कवि शामिल हैं। (आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता, स्टेन स्वामी, 84 वर्ष की आयु में पिछले साल अस्पताल में निधन हो गया।) उन सभी को एक व्यापक आतंकवाद विरोधी कानून के तहत बार-बार जमानत से वंचित किया गया है।

उनकी गिरफ्तारी के बाद दूसरे दिन 29 अगस्त, 2018 को नई दिल्ली, भारत में महाराष्ट्र सदन में पुलिस की छापेमारी और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की अवैध गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ भारत में विरोध प्रदर्शन हुए हैं। उन्हें तीन मौकों पर जमानत से वंचित कर दिया गया था।
और रिहा होने से पहले उन्होंने दो जेलों में समय बिताया था। वह कहती हैं कि -‘जेल में बंदी बनाये गये व्यक्ति की गरिमा एक झटके में उतार दी जाती है।’ उन्होंंने जेल जीवन का आधा समय पुणे की उच्च सुरक्षा वाली यरवदा सेंट्रल जेल में बिताया, जिसमें बड़े पैमाने पर सजायाफ्ता अपराधियों को रखा जाता है।
कोठरी के बगल में एक लंबा गलियारा था, जहां वह सुबह और शाम सैर कर सकती थी। लेकिन कैदियों को खुले यार्ड में प्रतिदिन केवल आधे घंटे के लिए ही कोठरी की ओर जाने की अनुमति दी जाती है। बार-बार पानी की कमी होने का मतलब था कि उन्हें नहाने और पीने के लिए बाल्टी में पानी लेकर सेल में जाना पड़ता था। भोजन दाल, दो रोटी और सब्जियों से बनता था। जो कैदी खर्चा वहन कर सकते थे वे जेल कैंटीन से अतिरिक्त भोजन खरीद सकते थे।
वह कहती है कि -‘मुझे सेपरेट यार्ड में रखा गया। मेरे साथ ही प्रोफेसर सोमा सेन को भी बाजू वाली कोठरी में रखा गया था। सेपरेट यार्ड में 2 और महिलाएं थीं, जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी। बात करना उनके स्वभाव में नहीं था।’ हमें इस पिंजरे जैसी इमारत से सिर्फ 12 से 12:30 दोपहर को बाहर धूप लेने के लिए निकाला जाता। उस समय दूसरे कैदी अपनी बैरक में होते। वहां प्रोफेसर सेन को छोडक़र आपस में बात करने के लिए कोई नहीं था। हमें खाना भी सबके साथ नहीं, अपनी कोठरी में ही खाना पड़ता। जब कोर्ट जाते थे तो गाड़ी में ही हम दूसरे बंदियों से मिल पाते थे। यरवदा में मैं दिनभर कुछ ना कुछ लिखती थी।
आप अचानक छत्तीसगढ़ से दिल्ली क्यों लौट आई?
2017 में मैंने नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में एक-दो साल पढ़ाने का निर्णय लिया। शायद जीवन में पहली बार सोचा कि अपने निजी जीवन - अपनी बिटिया को, कुछ प्राथमिकता दे दूं। वह कॉलेज जाने की कगार पर थी, मेरे लिए भी उसकी शिक्षा के लायक कुछ कमाना जरूरी था। 2017'8 में मैंने विधि के छात्रों को पढ़ाने का भरपूर आनंद उठाया। उन्हें आदिवासी अधिकारों, श्रम कानूनों, जमीन अधिग्रहण के विषय में पढ़ाया। छात्रों को उनके रिसर्च प्रोजेक्ट में गाइड करने में विशेष मजा आता था जिसमें हम छात्र-शिक्षक दोनों को ही काफी सीखने को मिलता था। मुझे एक वर्ष के लिए एक्सटेंशन भी मिल गया।
आपकी गिरफ्तारी की दस्तक रिपब्लिक टीवी ने दी और केस के विषय में कोई स्टेटमेंट?
एक दिन मुझे रिपब्लिक टी.वी. से किसी ने फोन मिलाया। मैंने बिना कुछ सुने, स्पष्ट कह दिया कि, ‘माफ कीजिये, मैं रिपब्लिक टी.वी. के किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लेती हू।’ थोड़ी देर बाद मुझे पता चला कि उस चैनल पर, मेरे विषय में बेहद आपत्तिजनक बाते कही जा रही थी। मैंने चैनल और उसके एंकर अर्नब गोस्वामी को मानहानि का नोटिस भेजा। कुछ हफ्तों बाद, 28 अगस्त 2018 को, पुणे पुलिस ने मेरे घर पर छापा मारा और मुझे गिरफ्तार कर लिया। इसके आगे की कहानी तो मैं नहीं बता सकती क्योंकि मेरी जमानत की शर्तों के अनुसार मैं अपने केस के विषय में मीडिया को कोई स्टेटमेंट नहीं दे सकती हूं।
पुलिस कस्टडी और जेल प्रवेश के खट्टे अनुभव को बताएंगे?
जब आखिरकार 28 अक्टूबर 2018 को, मुझे पुणे लाकर दस दिन पुलिस कस्टडी में भेजा गया, तो लॉकअप की हालत दयनीय थी। धूल-धक्कड़, मकड़ी के जाले, थूक-पीक के दाग, खटमल वाले गंदेले कम्बल, बदबूदार टॉयलेट, डरती थी जेल तो ऐसा नहीं होगा। नहीं के बराबर पूछताछ के बाद 6 नवम्बर 2018 की रात को येरवडा मध्यवर्ती कारागृह के महिला विभाग में दाखिल हुई। वो धुंधली शाम, महिला आरक्षकों की कडक़ आवाज और तू-तड़ाक का अंदाज, बगल के रूम में चलकर कपड़े उतारने का आदेश, बैग से निकालकर सारे सामानों का लापरवाही से बिखेर दिया जाना, ट्रैक पैन्ट्स और टी शर्ट को एक तरफ फेंकते हुए कहना - ‘अरे ये सब यहां नहीं चलेगा’! तब एहसास हुआ - चलों अब अपनी पहचान एक अपराधी के रूप में हो गयी है।
येरवडा जेल के आंतरिक हालात कैसे थे?
येरवडा जेल में मुझे और प्रोफेसर शोमा सेन को फांसी यार्ड में अगल बगल की कोठरियों में रखा गया था। कोठरी में सामने सलाखें और पिछली तरफ, छाती तक की ऊंचाई के दीवार की आड़ में शौचालय था, और हमें वही बैठकर नहाना भी पड़ता था। पांच कोठरियां थी और उनके बाहर एक बरामदा। ये सब एक बड़े पिंजरा- नुमा ढांचे के अन्दर बंद था, और वह पिंजरा मैदान के एक सिरे पर था। 24 में से 7 घंटे हमें बरामदे में छोड़ दिया जाता था, लेकिन उस पिंजरे के बाहर हमें सिर्फ आधे घंटे 12 से 12:30 बजे छोड़ा जाता था, धूप लेने के लिए, क्योंकि सर्दियों में येरवडा का न्यूनतम तापमान करीब 7 डिग्री तक गिर जाता। छोड़ा भी उस वक्त जाता था, जब बाकी सारे कैदी दोपहर की बंदी (12 से 3) के लिए फिर अपने - अपने बैरक में बंद किये जाते थे।
जेल में सजायाप्ता बंदियों का व्यवहार आपके साथ कैसा रहता था?
हमें दूसरे कैदियों से बात करने की सख्त मनाही थी, पर सलाखों के पार हमें बच्चे खेलते दिखाई देते, या औरतें धूप में बैठकर खाना खाती हुई। पर आखिर कोर्ट तो हम दूसरे कैदियों के साथ ही जाया करते थे और एक ही लॉकअप में रखे जाते थे। अक्सर पानी का संकट रहता था, और हमें दिन के चार बाल्टी पानी (नहाने, कपड़े और बर्तन धोने, कोठरी में पोछा लगाने आदि के लिए) और चार बोतल पीने के लिए भरने नल पर जाना पड़ता था जहां बाकी कैदियों की काफी भीड़ रहती थी। इस तरह थोड़ा बहुत बाकियों से मिलना जुलना हो जाता था।
फांसी यार्ड की हमारी साथी थी - दो सगी बहने, जिनकी फांसी की सजा पर स्टे लगा हुआ था। वे वहां 25 सालों से थी। छोटी - छोटी चीजों के लिए लड़ते - लड़ते, वे काफी चिड़चिड़े और गुस्सैल हो गयी थीं, उनसे बड़ा डर लगा करता। फांसी यार्ड में 24 घंटे महिला कांस्टेबल रहा करती थी (जिन्हें हम बाई कहते थे)। अगर कभी उन बहनों को लगता कि उन बाई लोगों से हमारा ज्यादा परिचय या ज्यादा दोस्ती हो रही है, तो वे चुगली करके हमें डांट खिलवा देतीं!! खैर, जेल से छूटने के बाद, मुझे बहुत खुशी हुई जब मैंने पढ़ा, कि उनकी फांसी की सजा अब कोम्यूट होकर आजीवन कारावास में बदल दी गयी है। मैं आशा करती हूं कि इतने सालों के बाद उन्हें जल्द छोड़ा जायेगा। खासकर जो छोटी बहन है - वह मात्र 19 साल की उम्र में जेल आई थी और अब करीब 45 की हो गयी है!
येरवडा जेल में बंदियों की संख्या क्या रही होगी और वे कैसे अपने दिन काटते हैं?
येरवडा 1926 का बना जेल है। सडक़ के उस पार पुरुषों का जेल था जिसमे लगभग 5500 पुरुष कैदी थे और इस तरफ महिला जेल में लगभग 350 कैदी। महिला जेल में दो कंपाउंड थे - एक सजायाप्ता बंदियों का और दूसरा विचाराधीन बंदियों का। हम लोग पहले वाले में थे। परिसर विस्तृत था, उसमें आम और इमली के पेड़ थे। सीजन में महिला कैदी, गार्डों की नजर बचाकर, पत्थर मार-मार कर आम गिराते थे। जेल में बांटे जाने वाले तेल, और कैंटीन से अपने पैसे से खरीदे हुए कांदा - लसून मसाला डाल कर आचार बनाते थे!
जेल में कैद सस्ताश्रम और जेल के निजीकरण पर कभी कुछ सूझा?
हमारे फांसी यार्ड के पीछे फैक्ट्री थी जहां सजायाप्ता वाले बंदी अगरबत्ती बनाने, या दर्री बुनने या लिफाफे चिपकाने के लिए जाते। वेतन बहुत कम था। ढाई किलो मसाले से बनी अगरबत्ती के लिए मात्र 66 रूपये मिला करते, और उसे बनाने के लिए लगभग डेढ़ दिन लग जाता। मैं सोचती थी कि गनीमत है अमरीका जैसे जेलों का निजीकरण नहीं हुआ है, वर्ना तो पूंजीपतियों को स्वर्ग ही मिल जाता। इतना सस्ता श्रम और वो भी पूरी तरह अनुशासित!! यूनियन वूनियन का चक्कर ही नहीं!!
कैसी बंदियां जेलों में सबसे ज्यादा हैं, क्या उन्हें सजा में छूट वैगरह मिलती है?
मैं देखती थी यहां अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब औरतें ही सबसे लम्बी सजाएं काटती थीं, उनमे से बहुतों के परिवारों ने उनसे नाता ही काट लिया रहता था। पैसे न होने के कारण वे अपील नहीं लगा पातीं। ऐसी औरतों के लिए उनका एकमात्र सहारा था - ओपन जेल के खेतों में काम करना। इस काम के हर दिन के लिए उन्हें सजा में एक दिन की छूट मिलती थी। यह काम मिलना भी आसान नहीं था। जिन्होंने सात साल सजा पूरी की होती, वही पात्र थे। फिर शारीरिक रूप से स्वस्थ होना जरूरी था और ‘आचरण ठीक होना’ भी, यानी जेल प्रशासन की नजर में ‘गौऊ’। यू.ए.पी.ए., मकोका आदि आतंकवादी विरोधी कानूनों के कैदियों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
सुना है जेलों में खेती होती है, अगर वे खेती करती हैं तो बदले में क्या मिलता है?
ओपन खेतों वाली दीदी लोग, जेल से लगे खेतों में सुबह 8 से शाम 4 बजे तक मेहनत करती, खेत पर ही दोपहर का भत्ता खाती। गर्मी हो या सर्दी, बरसते पानी में भी वो झिल्ली ओडक़र काम पर जाती। उन्हीं की बदौलत हमें सब्जी और भाजियां खाने को मिलती। सभी सजायाप्ता कैदी हरी साडिय़ां पहनती, और धारा 302 (हत्या) की विचाराधीन आरोपी भी!! सभी लोगों को दो जोडिय़ां दी जाती, और ओपन खेत में जाने वालों को तीन। जब साडिय़ां फट जाती तो उन्हें बदलें में साडिय़ां नहीं मिलती।
जेल में दैनिक दिनचर्या और खानपान की बड़ी दिक्कतें रही होंगी?
वहां के रसोई घर को बीसी कहा जाता था। इसमें भी करीब 12 - 13 औरतें काम करती जो सभी बैरक न.1 में रहती। उन्हें सुबह 5 बजे खोल दिया जाता ताकि वे सुबह की चाय और नाश्ता तैयार करते। बाकी सबका ‘टोटल’ गिनने के बाद 7 बजे बंदियों को खोल दिया जाता है। हम अपने बरामदे में निकलते, तो बाकी औरतें बाहर बने शौचालयों और नहाने के हौजों की ओर दौड़ लगाया करती। रोज बैरकों में झाड़ू - पोछे और भत्ता लाने के ‘नंबर’ लगाये जाते। भत्ता लाने वाले बीसी जाकर अपने सर पर चावल, दाल, सब्जी और रोटी के भारी भगोने अपने बैरक के सामने ले आते और उन्हें बांटते।
सात बजे सुबह नाश्ता, करीब 10:30 बजे भत्ता, 3 बजे चाय और रात का भत्ता 4:30 बजे लेकर रखते हैं और इच्छा अनुसार रात में खाते हैं। भत्ते में 2 रोटी, एक मुट्ठी चावल, दाल और सब्जी। येरवडा का खाना जिसे औरतें बनाती थी, भायखला से कहीं अच्छा था, खासकर सब्जी। खैर, शाम के भत्ते के साथ साथ नाईट शिफ्ट की बाई लोग आ जाती। 5:30 बजे बंदियों की गिनती कर सारे ताले बंद कर दिये जाते हैं। हर कैदी को एक पट्टी (एक 2.5 x 5.5 की दर्री), एक घोंघरी (मोटा खेस) और एक चद्दर (सब किसी न किसी जेल में बने हुए) मिलते थे, उन्हें बिछाना और सो जाना ही शेष रहता। जेल का एक और दिन गुजर जाता।
जेल से रिहाई के बाद सुधा भारद्वाज ने ‘दक्षिण कोसल/द कोरस’ से लंबी बातचीत की है। इस कड़ी में बातचीत के चौथे किश्त में कहा कि साल 2017 में उन्होंनेे नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में एक-दो साल पढ़ाने का निर्णय लिया। एक दिन रिपब्लिक टी.वी. से किसी ने फोन मिलाया। उन्होंने बिना कुछ सुने, स्पष्ट कह दिया कि, ‘माफ कीजिये, मैं रिपब्लिक टी.वी. के किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लेती हू।’ थोड़ी देर बाद उन्हें पता चला कि उस चैनल पर उनके विषय में बेहद आपत्तिजनक बातें कही जा रही थी। उन्होंने चैनल और उसके एंकर अर्नब गोस्वामी को मानहानि का नोटिस भेजा। कुछ हफ्तों बाद, 28 अगस्त 2018 को, पुणे पुलिस ने उनके घर पर छापा मारा और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। वह कहती है कि-‘मैं देखती थी यहां अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब औरतें ही सबसे लम्बी सजाएं काटती थीं, उनमे से बहुतों के परिवारों ने उनसे नाता ही काट लिया रहता था। पैसे न होने के कारण वे अपील नहीं लगा पातीं। ऐसी औरतों के लिए उनका एकमात्र सहारा था - ओपन जेल के खेतों में काम करना।’ उनसे इस महत्वपूर्ण बातचीत की चाथी कड़ी में ‘मेरी जेल यात्रा ’ से आप सभी सुधी पाठकों को रूबरू करवा रहे हैं। आप तमाम सुधी पाठकों से आग्रह है कि आप इस साक्षात्कार के माध्यम से सीधे सुधा भारद्वाज जी से जुड़ सकते हैं। अपको करना इतना है कि अपनी प्रतिक्रियाओं को हमारे वेबपेज में इस साक्षात्कार के नीचे कमेंट बॉक्ट में भेज दें अथवा हमें ईमेल-abhibilkulabhi007@gmail.com तथा व्हाट्सएप नं 7828046252 के द्वारा हमें प्रेषित करें। हम कोशिश करेंगे कि आपके प्रतिक्रियाओं का जवाब भी हम सुधा भारद्वाज से पूछ सकेंगे।
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