''मानव अधिकारों की लड़ाई''

‘दक्षिण कोसल/द कोरस’ को सुधा भारद्वाज का पहला साक्षात्कार (तीसरा किस्त)

सुशान्त कुमार

 

बाद में भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने इस अभियान को गैर संवैधानिक करार देते हुवे इसे भंग करने का आदेश दिया। इस अभियान के दौरान सरकारी सशस्त्र बलों द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार, निर्दोष आदिवासियों की हत्या तथा शेष को जेलों तथा कैंपों में ठूंस दिया गया।

ऐसे भयानक स्थिति में सुधा भारद्वाज ने पीडि़त आदिवासियों की मदद की तथा उनके मुकदमें मुफ्त में लड़े। सुधा भारद्वाज देश भर में घूम - घूम कर आदिवासियों पर सरकारी दमन, पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों की श्रम की लूट और मानवाधिकार हनन के बारे में बातें लगातार करते रही। उन्हीं के पहल पर ‘बिनायक सेन’ की रिहाई ‘सारकेगुड़ा मुठभेड़’ मामले में गति आई। लेकिन न्याय अब भी कोसों दूर है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुशंसाओं के बाद भी आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं किया गया है।

वे छत्तीसगढ़ के श्रमिकों के मुकदमें अदालतों में लड़ती थीं और उनको जीने लायक वेतन मिले तथा निकाले गये श्रमिकों को काम में बहाली के कई मुकदमों में उन्होंने श्रमिकों को जीत दिलवाई। वह पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबिर्टिज (लोक स्वातंत्रय संगठन-छत्तीसगढ़) की महासचिव भी हैं। इन सब मानवाधिकार से जुड़े कामों की वजह से सुधा पूंजीपतियों की आंख की किरकिरी बन गई थीं। राजनैतिक गलियारा इन्हीं पूंजीपतियों के बलबूते चुनाव जीतते हैं।

इसलिए पूंजीपतियों की गुलाम मोदी सरकार ने रिपब्लिकन टीवी के माध्यम से सुधा के खिलाफ साजिश की और अंतत: उन्हें जेल में डालने का षड्यंत्र कर भीमा कोरेगांव मामले में फंसा कर जेल में डाल दिया गया। वे बिलासपुर से बस में बैठ कर लम्बा सफर तय कर बस्तर तक आती थीं और आदिवासियों की तकलीफें सुनती थीं उनके मुकदमों में कोर्ट में पैरवी करती थीं।

सुधा भारद्वाज जैसे लोग इस देश के युवाओं के प्रेरणा स्रोत हमेशा रहेंगे। जिस महिला को राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा जाना था। इस देश की फासीवादी सरकार ने उसे जेल दी।

 

छत्तीसगढ़ में आप मानवाधिकार आंदोलन और पी. यू.सी.एल. से जुड़ी रहीं हैं उस पर कुछ बताएंगे?

मैं काफी दिन पहले ही छत्तीसगढ़ लोक स्वातंत्र्य संगठन (छत्तीसगढ़ पी.यू.सी.एल) की सदस्य बन चुकी थी, पर इस संगठन में मेरी सक्रियता 2007 के बाद बढ़ी। तब मैं बिलासपुर उच्च न्यायलय में प्रैक्टिस कर रही थी और वहीं रहती थी। पी.यू.सी.एल देश का, कई दशकों पुराना, संपूर्णत: स्वैच्छिक मानव अधिकार संगठन है, जिसकी अलग-अलग राज्यों में शाखाएं हैं।

इसका गठन 1977 में, आपातकाल के दौरान, लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने किया था। पी.यू.सी.एल, किसी भी राजनैतिक दल से जुड़ा नहीं है, और वह हर शासन में, चाहे किसी भी पार्टी का क्यों न हो, नागरिकों के संविधान प्रदत्त ‘फंडामेंटल राइट्स’ - अर्थात बुनियादी अधिकारों की रक्षा करता है।

वह कौन सी कड़ी थी, जिसके बाद  ‘सलवा जुडूम’ अभियान को रोकना पड़ा?

2007 में डॉ बिनायक सेन छत्तीसगढ़ पी.यू.सी.एल के महासचिव थे। उन्होंने बहुत बड़ी हिम्मत करते हुए, देश भर के तमाम मानव अधिकार संगठनों के साथ मिलकर, बस्तर में  ‘सलवा जुडूम’ नामक एक सरकार प्रायोजित मुहीम की जांच की थी जिसमें, नक्सलियों को भगाने के लिए, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, करीब 644 आदिवासी गांवों को खाली किया गया था। वहां की करीब 3.5 लाख की आबादी में से 50,000 आदिवासियों को जबरन सडक़ किनारे के कैम्पों में लाया गया था। बाकी लोग जंगलों में भाग गए थे।

जाहिर है कि यह प्रक्रिया बहुत हिंसात्मक थी जिसमें सैंकड़ों हत्याएं, बलात्कार, और आगजनी की घटनाये हुई। इन्हीं सब बातों को इन कार्यकर्ताओं ने अपनी संयुक्त रिपोर्ट ‘व्हेन द स्टेट मेक्स वार ओन इट्स ओन पीपल’ (‘जब राज्य अपने ही नागरिकों पर हमला करता है’) में पेश किया। बाद में चलकर,  2011 में,  सुप्रीम कोर्ट ने भी ‘सलवा जुडूम’ को गैर कानूनी करार देकर उसे भंग करने का निर्देश दिया था। 

 

मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. बिनायक को जेल क्यों जाना पड़ा?

सरकार को यह भी मानना पड़ा कि ‘सलवा जुडूम’ की क्रूर रणनीति के कारण नक्सलियों की संख्या घटी नहीं, बल्कि अनेक गुना बढ़ गयी। बहरहाल इस गंभीर मानवीय त्रासदी को पहली बार सार्वजनिक करने की सजा डॉ. बिनायक सेन को भुगतनी पड़ी। उस समय डॉ. सेन, छत्तीसगढ़ की सिविल सोसाइटी के एक जाने माने और लोकप्रिय व्यक्ति थे। जिस मितानिन कार्यक्रम का छत्तीसगढ़ सरकार  तारीफ करते नहीं थकती, वह बहुत हद तक उन्हीं का योगदान था। धमतरी में दवाखाना चलाते हुए उन्होंने दर्जनों आदिवासी टी.बी. मरीजों की जाने बचाई थी।

उनकी जीवन साथी (स्व) प्रोफेसर इलीना सेन स्त्रीवादी शिक्षाविद थी, जिन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा में प्राथमिक शिक्षण की पाठ्य पुस्तकें तैयार की थी। उन्होंने प्रदेश की स्त्री नीति का मसौदा भी तैयार किया था। डॉ. सेन पर आरोप था कि वे, जब जेल अधिकारियों से परमिशन लेकर, एक वयोवृद्ध राजनैतिक कैदी से, जेलर के सामने मिला करते थे, तब वे कुछ ‘षड्यंत्र’ करते थे!! 

डॉ. बिनायक के गिरफ्तारी के बाद के परिस्थितियों का मूल्यांकन कैसे करती हैं?

डॉ. सेन की गिरफ्तारी के साथ, मानों पूरा प्रगतिशील समाज ठिठक गया। एक खौफ सा छा गया था। जिस दिन वे गिरफ्तार हुए, उस दिन कोर्ट में मेरे साथ सिर्फ छत्तीसगढ़ पी.यू.सी.एल. के अध्यक्ष दिवंगत डॉ. लाखन सिंह और सुश्री जुलेखा जुबीन ही खड़े थे।  

उस समय केवल भिलाई - रायपुर के वे मजदूर ही थे, जिन के बीच डॉ. सेन नि:शुल्क सेवा दिया करते थे, जिन्होंने लगातार उनके लिए साप्ताहिक सत्याग्रह किया। जिस समय वे रिहा हुए उस समय इस सत्याग्रह में भाग लेने वालों की संख्या बढ़ते बड़ते 750 - 800 हो गयी थी।

 

डॉ. लाखन सिंह के नेतृत्व में मानवाधिकार हनन के किन - किन मामलों की जांच की?

डॉ. लाखन सिंह के जोशीले और निडर नेतृत्व में, किस प्रकार हमने पी.यू.सी.एल को एक एक ईंट जोडक़र, इस डर के माहौल को खत्म किया, यह भी एक रोचक दास्तान है। ईसाई समुदाय पर जगह - जगह हिंदुत्ववादी ताकतें हमला कर रहे थें, इसको लेकर रिपोर्ट तैयार किये और राज्य तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों में भेजा; रायगढ़ जिले के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर मानव तस्करी के मामलों की न केवल पड़ताल की, बल्कि कुछ मामलों में थाने के घेराव से लेकर आईजी को ज्ञापन देते हुए, पीडि़तों को उनके घरों तक पहुंचाया; बालोद और रायगढ़ जिलों में बालिका आश्रमों में हो रहे यौन शोषण को उजागर किया और पीडि़तों को कानूनी सहायता दी। 

छत्तीसगढ़ के कोने कोने में चल रहे विस्थापन विरोधी लडाइयों में सक्रीय कार्यकर्ताओं - रमेश अग्रवाल, कन्हाई पटेल, जंगसाय पोया, भगवती साहू आदि पर लगाये गए फर्जी मुकदमों के खिलाफ आवाज उठाई; 2010 में महासमुंद, राजनंदगांव, गढ़चिरोली और दुर्ग जिलों में हुए कुछ एनकाउंटर घटनाओं की जांच के लिए पुन: विभिन्न राज्यों के मानवाधिकार संगठनों के साथ मिलकर जांच रिपोर्ट पेश की।

सलवा जुडूम के दौरान पत्रकारों पर हमलों को रोकने की क्या कोशिशें की?

उस समय, कॉर्पोरेट घरानों द्वारा अंधाधुंध जमीन अधिग्रहण, तथा बस्तर में साधारण आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों  की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों  पर भी काफी दमन हो रहा था, तथा फर्जी मुकदमे लादे जा रहे थे। पी.यू.सी.एल. ने ना केवल इन पत्रकारों के मामले उठाये, बल्कि उनको ‘निर्भीक पत्रकार’ के अवार्ड से भी नवाजा। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए बनी उनकी समिति के साथ मिलकर, पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून का मसौदा तैयार किया। आगे चलकर कांग्रेस सरकार ने इस विषय पर अपना कानून पास किया।

 

छत्तीसगढ़ में पी.यू.सी.एल और उनके गतिविधियों को अब कैसे आंकती हैं?

उसी प्रकार कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ, या मानव अधिकारों के हित में काम करने वाले वकीलों को भी पी.यू.सी.एल ने सार्वजनिक रूप से पुरुस्कृत  किया तथा उन पर चल रहे उत्पीडऩ पर रिपोर्ट निकाली।

अलग -अलग जिलों (खासकर दूरस्थ) में बारी बारी से बैठके रखकर पी.यू.सी.एल. ने कोशिश की कि उन इलाकों की विशिष्ट समस्याओं को समझे और वहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को जोड़े। 

आज हम सबको खुशी है कि इस संगठन के सैंकड़ो सदस्य हैं और खौफ का माहौल काफी हद तक दूर हो चुका है। यह भी बहुत सकारात्मक बात है कि आज कार्यकर्ताओं की एक नयी पीढ़ी पी.यू.सी.एल. का बीड़ा उठाकर मानव अधिकार की लड़ाई को आगे ले जा रहा है। 

जेल से रिहाई के बाद सुधा भारद्वाज ने ‘दक्षिण कोसल/द कोरस’ से लंबी बातचीत की है। इस कड़ी में वह बातचीत के तीसरे किश्त में में उन्होंने  सलवा जुडूम अभियान, डॉ. बिनायक सेन, इलिना सेन के साथ दिवंगत लाखन सिंह का जिक्र किया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार के हनन और इन कार्यकर्ताओं के साहसगाथा को अपने साक्षात्कार में उल्लेख किया है। निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद 2005 में छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार द्वारा आदिवासियों की जमीनों को हड़प कर देशी विदेशी कंपनियों को देने के लिए कई जन जागरण अभियान के बाद एक और हिंसक अभियान चलाया, जिसे ‘सलवा जुडूम’ अभियान पर प्रमुखता से अपनी बात बेबाकी के साथ रखी है। उनसे इस महत्वपूर्ण बातचीत की तीसरी कड़ी में ‘मानव अधिकारों की लड़ाई’ से आप सभी सुधी पाठकों को रूबरू करवा रहे हैं। आप तमाम सुधी पाठकों से आग्रह है कि आप इस साक्षात्कार के माध्यम से सीधे सुधा भारद्वाज जी से जुड़ सकते हैं। अपको करना इतना है कि अपनी प्रतिक्रियाओं को हमारे वेबपेज में इस साक्षात्कार के नीचे कमेंट बॉक्ट में भेज दें अथवा हमें ईमेल-abhibilkulabhi007@gmail.com  तथा व्हाट्सएप नं 7828046252 के द्वारा हमें प्रेषित करें। हम कोशिश करेंगे कि आपके प्रतिक्रियाओं का जवाब भी हम सुधा भारद्वाज से पूछ सकेंगे।


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