आरक्षण कोई गरीबी उन्मुलन कार्यक्रम नहीं
सुशान्त कुमारभारत के सभी संसाधनों तथा हर चीज पर यहां के मूलनिवासियों का हक है। यहां तक कि आर्य-ब्राह्मणों की अधिकतर संपत्तियों पर भी मूलनिवासियों का ही हक है। क्योंकि पूंजीपतियों को मिलने वाला मुनाफा, नौकरशाहों को दी जाने वाली तनख्वाह, टैक्स देने की हैसियत यह संचित संपत्ति सब कुछ मूलनिवासियों के श्रम से पैदा अतिरिक्त मूल्य और उनकी खून पसीने की कमाई से आती है। प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष टैक्स लगाकर भरने वाले सरकारी खजाने की पाई-पाई इन्हीं के खून पसीने से वसूल की जाती है। उसी तरह शिक्षा तथा सारी नौकरियों में आरक्षण हासिल करना हर सामाजिक घटक यानी एससी-एसटी व पिछड़ें वर्ग का अधिकार है।

आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है। बताया जा रहा है कि यूथ फॉर इक्विलिटी ने संविधान संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि ये संशोधन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है और आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। आपको विदित हो कि मोदी सरकार की ओर से देश भर के गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाला ऐतिहासिक विधेयक नौ जनवरी को राज्यसभा में भी पास हो गया। लोकसभा और राज्यसभा से इस बिल के पास होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे सामाजिक न्याय की जीत बताया और कहा कि यह देश की युवा शुक्ति को अपना कौशल दिखाने के लिए व्यापक मौका सुनिश्चित करेगा तथा देश में एक बड़ा बदलाव लाने में सहायक होगा।
पीएम मोदी ने ट्वीट में लिखा, ‘खुशी है कि संविधान (124वां संशोधन) विधेयक पारित हो गया है जो सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को शिक्षा एवं रोजगार में 10 प्रतिशत आरक्षण मुहैया कराने के लिए संविधान में संशोधन करता है। उन्होंने कहा कि विधेयक का पारित होना संविधान निर्माताओं और महान स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति एक श्रद्धांजलि है जिन्होंने एक ऐसे भारत की परिकल्पना की जो मजबूत एवं समावेशी हो।
वास्तविक सच्चाई यह है कि देशभर में जातिगत आरक्षण की मांग कहीं थमने का नाम नहीं ले रहा है। 25 अगस्त 2015 को गुजरात में पटेल समुदाय ने जाति आधारित आरक्षण की मांग को लेकर 10 किलोमीटर लंबी क्रांति रैली निकाली, जिसे प्रदेश की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के लिए सीधी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है पटेल (पाटीदार) समुदाय के लोग 24 अगस्त की शाम से ही जुटने लगें थे। पाटीदार अनमत आंदोलन समिति (पीएएएस) के संयोजक हार्दिक पटेल ने इससे पहले लगभग 10 लाख से अधिक समर्थकों को जीएमडीसी मैदान में संबोधित किया और संकल्प लिया कि आरक्षण की मांग से कोई समझौता नहीं किया जाएगा। पटेल ने कहा यदि आरक्षण की मांग नहीं मानी गई, तो 2017 में कमल (भाजपा का प्रतीक) नहीं खिलेगा।
भारत के सभी संसाधनों तथा हर चीज पर यहां के मूलनिवासियों का हक है। यहां तक कि आर्य-ब्राह्मणों की अधिकतर संपत्तियों पर भी मूलनिवासियों का ही हक है। क्योंकि पूंजीपतियों को मिलने वाला मुनाफा, नौकरशाहों को दी जाने वाली तनख्वाह, टैक्स देने की हैसियत यह संचित संपत्ति सब कुछ मूलनिवासियों के श्रम से पैदा अतिरिक्त मूल्य और उनकी खून पसीने की कमाई से आती है। प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष टैक्स लगाकर भरने वाले सरकारी खजाने की पाई-पाई इन्हीं के खून पसीने से वसूल की जाती है। उसी तरह शिक्षा तथा सारी नौकरियों में आरक्षण हासिल करना हर सामाजिक घटक यानी एससी-एसटी व पिछड़ें वर्ग का अधिकार है।
डॉ. बीआर आम्बेडकर ने कहा है कि आरक्षण यह सुनिश्चित करता है कि सारे अधिकार शासक वर्ग के हाथों में केन्द्रित न हो जाए। भारत के सवर्ण वर्ग की दलील है कि वे मूलनिवासियों की तुलना में सबसे बेहतर है लेकिन क्या कोई बेहतर जर्मन आदमी किसी फ्रेंच आदमी के लिए भी बेहतर माना जाएगा? क्या बेहतर तुर्क ग्रीक आदमी के लिए और बेहतर पोल किसी यहूदियों के लिए बेहतर होगा? भारत में शासक वर्गों और शासित जातियों के बीच वहीं फर्क है जो फर्क फ्रेंच, जर्मन, तुर्को, ग्रीकों, पोल और यहूदियों में है। वे आरक्षण को नौकरियों तक ही नहीं बल्कि समाज के प्रतिनिधित्व का मसला मानते थे।
आईआईएम, आईआईटी, एआईआईएमएस में ओबीसी को आरक्षण देने से हल्ला मचाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय परिवेश में उन संस्थाओं का मेरिट यह है कि दुनिया के पहले 500 उच्च तथा व्यवसायिक संस्थाओं में भारत की एक भी संस्था शामिल नहीं है। दुनिया की बात तो दूर एशिया की पहली सौ संस्थाओं में भी भारत के संस्थाओं का नाम नहीं है। कुछ दिनों पहले शरद यादव ने बताया था कि संघ लोक सेवा आयोग आरक्षित जाति के उम्मीदवारों को इंटरव्यू में कम नंबर देता है क्योंकि उनकी जाति इंटरव्यू लेने वाले को पता होती है, जबकि उन्हीं उम्मीदवारों को लिखित परीक्षा में काफी अच्छे नंबर हासिल होते हैं। लिखित और मौखिक परीक्षा में हासिल होने वाले नंबरों का विश्लेषण करने पर लिखित तथा मौखिक परीक्षा में मिले मार्कों में बहुत बड़ा फर्क होने की बात सामने आई है।
एक जांच से उजागर हुई है कि 30 फीसदी आरक्षित पदों पर बोगस जाति प्रमाणपत्र के आधार पर सवर्णों ने कब्जा जमा लिया है। जब आदिवासी कल्याण मंत्री ने इस सिलसिले में एक अधिकारी को हजारों बोगस जाति प्रमाणपत्र जारी करने के लिए निलंबित किया तो मंत्री को ही इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया। नागपुर यूनिवर्सिटी में नकली डिग्रियां बांटने के बहुत बड़े रॅकेट में तत्कालीन उपकुलसचिव कोहचाड़े को साढ़े बारह साल की सजा सुनाई गई थी। अब तो आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात बेतुके तरीकों से उठाई जा रही है सवाल उठता है कि क्या आरक्षण रोजगार गारंटी योजना है? क्या कई हजारों वर्षों के जातिवाद, वर्णवाद व पूंजीवाद के आधार पर शोषण मात्र आर्थिक आधारों पर ही हल कर लिया जाएगा। सवाल उठता है कि किन लोगों की आर्थिक हालत मजबूत हुई है। क्या किसी आदिवासी, दलित व पिछड़े वर्ग के व्यक्ति का आर्थिक हालत टाटा, बिरला, हिन्दुजा, अंबानी, अडानी के बराबर हो गई है।
आम्बेडकर ने कहा कि हजारों साल की समस्या का हल एक दिन में नहीं हो सकता। कानून बदला है लेकिन जब तक लोगों के दिल व दिमाग नहीं बदलेंगे, जाति, वर्ण, धर्म व वर्ग, ईश्वर, देवी-देवता, स्वर्ग, नर्क, भाग्य, पूर्वजन्म की करनी पर वर्तमान जीवन को कोसने जैसी मनोभावना, जो हजारों वर्षों से हम भारतीयों के दिलों में और नस-नस में घर कर गई, उसे मिटाना बहुत कठिन काम है। आगे बोलते हुए आम्बेडकर ने कहा था कि इस भारतीय संविधान से समाज के बहिष्कृत और तिरस्कृत लोगों को सबसे बड़ा अधिकार वोट देने का मिला है। इसके आधार पर देश की सरकारें हर पांच साल बाद बनती रहेंगी और यह बात अछूतों व पिछड़ी जातियों के हक में है कि उनकी आबादी भारत में 75 प्रतिशत से अधिक है। 20 साल के अर्से में जब हमारा आदमी अपने वोट देने के अधिकार को अच्छी तरह समझ जाएगा तो वह स्वयं इस स्थिति में हो जाएगा कि वह बहुमत के वोटों के बल पर अपनी मनपसंद सरकार बनाने में सफल होगा अथवा वह स्वयं अपनी सरकार बना सकेगा।
आगे उन्होंने कहा कि मुझे शक है कि 20 साल बाद जब यहां का अछूत व पिछड़ी जाति का आदमी अपने बहुमत के वोट की ताकत को समझ पाने में समर्थ होगा तो उस समय तक उसके वोट देने का वह अधिकार उसके हाथों में सुरक्षित रह भी पाएगा? यह ऊंची जाति के अल्पसंख्यक 10 प्रतिशत लोग अपने बुद्धिचातुर्य से तरह-तरह के लोभ व लालच दे, धन, सत्ता व प्रचार माध्यमों का दुरूपयोग करके अछूत, पिछड़े, व कमजोर वर्ग के लोगों को बहकाकर एन-केन-प्रकारेण सत्ता पर बने रहने का अपना पुस्तैनी कब्जा बनाए रखने जैसी कूटनीतिक चाल चलते रहेंगे, नित नई तरकीबें निकालते और खोजते रहेंगे कि अछूत व पिछड़े वर्गों के लोग सत्ता में न आने पाएं और सदा उनके मोहताज बने रहें तथा अगर आरक्षित सीटों पर जीत कर या अपने बल पर जीत कर सत्ता में आ भी जाएं तो वह सत्ता में अपने बल का प्रयोग ऊंची जातियों का वर्चस्व बनाए रखने में ही करें।
पहले से चली आ रही असमानताओं के प्रचलित कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए भारत के संविधान द्वारा अपनाए गए उपायों में से एक उपाय आरक्षण है जिसका उद्देश्य विगत के भेदभावों को रोकना है। इसका मूल उद्देश्य सार्वजनिक रोजगार, शिक्षा आदि के क्षेत्र में समान अवसरों को प्राप्त करने में जो बाधाएं हैं, उन्हें समाप्त करना है और उसके द्वारा पिछड़े वर्गों के विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व में इस स्पष्ट असंतुलन को मिटाना है।दिल्ली के एम्स के दलित छात्रों को मानसिक तथा शारीरिक यातनांए दिया गया। सवर्ण छात्रों द्वारा उन्हें गालीगलौच कर होस्टल छोडक़र जाने की धमकियां दी गई। दलित छात्रों के कमरे को कई बार बाहर से ताला लगाया गया। इसकी वजह से आरक्षित छात्र अपने कमरे में बंद होने से अपने क्लासेस करने में असमर्थ रहे हैं।
बचाने को कोशिश करने वाले छात्रों को भी प्रताडि़त किया गया। लगातार उनके दरवाजे पर गालियां लिखने की वजह से कईयों ने अपने कमरे अलग होस्टल में स्थानांतरित कर लिए। होस्टल अधिकारियों ने इन घटनाओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की और गोलमोल जवाब दिया। अखबारों में हॉस्टल के दरवाजों पर लिखी आपत्तिजनक इबारतों की तस्वीरें छप चुकी है। जांच कमेटी में भी वही लोग शामिल हैं जो ‘आरक्षण विरोधी’ आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। अब क्या समझा जाएगा कि ‘आरक्षण विरोधी’ आंदोलन समाप्त हो जाएंगे? इस पर प्रोग्रेसिव्ह मेडिकोज एंड साइंटिस्ट फोरम ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निर्देशक सहित उसके कुछ अधिकारियों पर जातीय उत्पीडऩ का आरोप लगाते हुए कहा है कि ये लोग पीडि़त छात्रों को अपनी शिकायतें वापस लेने पर दबाव डाल रहे थे।
पिछले दिनों दो अलग-अलग न्यायालयों ने आरक्षण को लेकर एक ही बात कही है। दोनों ही बार न्यायालय ने आरक्षण नीति जारी रखने को उचित कहा है लेकिन यह भी कहा है कि आरक्षण नीति में बदलाव, बल्कि इस पर सतत चिंतन की जरूरत है। यह राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मसला तो है लेकिन इस पर जो राजनीति होती रही है, उससे नीति का मकसद पूरा नहीं हो रहा है। वैसे, राजनीतिक दल इसे लेकर रोटी सेंकने की जब भी कोशिश करते हैं, उनके हाथ में फफोले ही पड़े हैं। यह तो सब जानते ही हैं कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने वाली वीपी सिंह सरकार लौटकर सत्ता में नहीं आई।
18 मार्च को उच्चतम न्यायालय ने जाट आरक्षण को रद्द कर दिया। मनमोहन सिंह सरकार ने जाते-जाते जाटों को आरक्षण दिया था। इसी क्रम में मराठा आरक्षण को लेकर बंबई उच्च न्यायालय की जनवरी में की गई टिप्पणियों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। महाराष्ट्र में पिछली कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मराठों के लिए 16 प्रतिशत आरक्षण दिया था। इसे हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया क्योंकि वे सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्ग में नहीं है। लेकिन कोर्ट ने शैक्षणिक संस्थाओं में मुसलमानों के लिए पांच फीसदी आरक्षण जारी रहने की अनुमति दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने जाट आरक्षण पर फैसले के क्रम में भी उन नए पिछड़े वर्गों की पहचान पर बल दिया है जो जरूरी नहीं कि जातिगत समूह हों।
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन ने कहा था कि, ‘पिछड़ापन कई स्वतंत्र कारणों की उपस्थिति के कारण प्रकट हो सकता है जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक या यहां तक कि राजनीतिक भी हो सकते हैं। पिछड़ेपन की जाति-केंद्रित परिभाषा से आगे बढ़ते हुए नए प्रयोग, तरीके और पैमाने निरंतर अपनाने होंगे। सिर्फ इससे ही समाज में नए उभर रहे समूहों की पहचान संभव होगी जिन्हें शमन करने वाली कार्यवाही की जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति एके सीकरी की खंडपीठ ने केंद्र और राज्य सरकारों को ट्रांसजेंडरो (हिजड़ा या किन्नर) के साथ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों के तौर पर व्यवहार करने और उन्हें शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश और सरकारी सेवाओं में ओबीसी की तरह आरक्षण उपलब्ध कराने को कहा। कोर्ट ने भी कोई सुझाव या निर्देश नहीं दिया है कि सरकार उन्हें धर्म या जाति से बाहर किस श्रेणी में आरक्षण दे। चूंकि यह मसला सामान्य जातिगत आरक्षण से अलग है और आने वाले दिनों में इस तरह के और मामले आ सकते हैं, इसलिए एक वृहत्तर गाइडलाइन बनाने की जरूरत आज भी है।
आरक्षण मिलने के बाद एक बहुत बड़ी आबादी उससे अलग-थलग है। सिर्फ सरकारी जटिलताओं व मात्रात्मक त्रुटि के कारण उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है। अब तो दलित जाति में उनके नेता भी जाति प्रमाण पत्र को सरल तरीके से बनाने का तर्क दे रहे हैं। एक नेता ने 50 साल के रिकार्ड के बिना प्रमाण पत्र बनवा देने का दावा किया तो दूसरे ने दलित जाति में क्रीमी लेयर की बात उछाल कर दलितों के साथ मजाक करने की कोशिश भी की है। 14 जून को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र समस्या निवारण संघर्ष समिति के प्रांतीय सम्मेलन में आल इंडिया मूल निवासी बहुजन समाज सेंट्रल संघ (एंबस) के नरेन्द्र बन्सोड़ ने सरकार को साफ शब्दों में चेताया था कि अगर जाति प्रमाणपत्र संबंधित समस्या का समाधान नहीं हुआ तो वे भी गूर्जरों की तर्ज पर गांव-गांव में सडक़ और रेल का रास्ता रोक देंगे।
वर्ण व्यवस्था व जाति-पाति भारतीय समाज में व्याप्त हजारों वर्ष पुरानी सामाजिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था को बनाए रखने में वह वर्ग जिनको हर तरह की सुविधा मिली है जिनको बिना कुछ परिश्रम किए उच्चवर्ण, जाति, धर्म, भाग्य, भगवान, स्वर्ग, नर्क व पूर्व जन्म की करनी की आड़ में अलग जन्म बनाने के नाम पर दान-दक्षिणा मंदिरों में चढ़ावे आदि मिलते हैं। सम्मान, भोग, विलास के सारे साधन घर बैठे उपलब्ध हो जाते हैं, वर्ण व जाति के नाम पर जिसका सामाजिक सम्मान, राज पाट व वर्चस्व सभी कुछ सुरक्षित है। व्यापार की मुनाफाखोरी के नाम पर जिनकी नोच, खसोट व कालाबाजारी सुरक्षित है, वह उस व्यवस्था को हर कीमत पर और हर दांव पेच से आज भी पूर्ववत् व यथावत् बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील हैं।भारत में मंदिर के पुजारी का पद पिछले सैकड़ों वर्षों से आज तक केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित है। चमार, मेहतर, धोबी, धानुक, कोरी, पासी, नाई, बारी, कहार, कुम्हार, तेली, तमोली यहां तक कि क्षत्रिय व वैश्य भी मन्दिर का पुजारी नहीं हो सकता।
विद्या पढऩा-पढ़ाना, दान-दक्षिणा लेना, जप-तप, होम, यज्ञ आदि करना राजगुरू व राजपुरोहित का पद ग्रहण करना, राजाओं को मंत्रणा देने आदि का सारा कार्य ब्राह्मणों के लिए शताब्दियों से आरक्षित चला आ रहा है। विद्या पढऩा, युद्ध विद्या सीखना, सेना में भर्ती होना, राज्य करना, राजा का पद ग्रहण करना केवल क्षत्रियों के लिए आरक्षित रहा है। इसी व्यवस्था के तहत शिवाजी का ब्राह्मणों ने राजतिलक नहीं किया क्योंकि वह क्षत्रिय नहीं थे। शुद्र होने के कारण चाहते हुए भी एकलव्य को धनुर्विद्या की शिक्षा देने से मना कर देने वाले गुरू द्रोणाचार्य ने गुरू दक्षिणा में उनके दाहिने हाथ का अंगूठा कटवा लिया। भीष्म पितामह ने यह जानते हुए भी कि महारथी कर्ण कुन्ती का पुत्र है, सारथी के यहां पलने मात्र से सूत पुत्र कह कर कर्ण को अपने जीवन काल तक कौरवों की सेना का सेनापति नहीं बनने दिया।
अंग्रेजी दासता से मुक्ति के रूप में सत्ता हस्तांतरण होतेे ही भारतीयों ने विधान निर्मात्री परिषद में खूब सोच विचार के बाद वर्ण व जाति के नाम से अधिकार वंचित रखे गए तथाकथित अछूत व जनजातियों को जाति के आधार पर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य के विधान सभा, लोक सभा, स्थानीय निकायों व नौकरियों में सन् 1950 से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330, 332, 334 व 335 के तहत आरक्षण अर्थात प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की है।
भारतीय आजादी के करीब 65 वर्ष बाद भी पिछड़ी जातियों को आरक्षण देकर इनकी सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि दशा में सुधारने का प्रयत्न नहीं किया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340, 15 (4) 16 (4) 46 आदि द्वारा सामाजिक व शैक्षणिक रूप से इन जातियों को आरक्षण देने का प्रावधान है। काका कालेलकर व मंडल पिछड़ा वर्ग आयोग गठित करके उनकी रिपोर्टो में उनके बहुमुखी विकास के लिए पहले सन् 1955 में और बाद में 1980 में संस्तुतियां भी केन्द्र सरकार को पेश की गई, पर शासन व सत्ता पर पूरी तरह आधिपत्य जमाए ऊंची जातियों के नेताओं ने उन संस्तुतियों को पिछड़े वर्ग के हितों में लागू नहीं किया।
करीब दस साल तक कांग्रेस सरकार की रद्दी की टोकरी में पड़ी मंडल आयोग की रिपोर्ट की संस्तुतियों के एक अंश को केन्द्रीय सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा प्रथम बार प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने की। स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटीज, मेडिकल व इंजीनियरिंग कालेजों में पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की बात वीपी सिंह भी गोल कर गए जो कि शिक्षा के इन क्षेत्रों में भी सन् 1950 से आरक्षण देने की व्यवस्था है और इसमें आरक्षण देना मंडल आयोग की संस्तुतियों में है। ‘वर्गहित’ निर्णय लेने में बाधक होती है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि उच्च न्यायपालिका, जिसे ‘सामाजिक परिवर्तन के एक हथियार’ के रूप में देखा जाता है कि सामाजिक रचना किसी देश में न्याय प्रदान करने में निर्णायक महत्व रखती है। न्यायपालिका का सामाजिक गठन अपरिहार्य रूप से इसके निर्णयों को प्रभावित करता है। न्यायाधीश कोई महामानव नहीं है। तथापि, किसी सामाजिक-आर्थिक मुद्दे पर निर्णय देने या विधि की व्याख्या करने में वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष रहने का वे कितना भी प्रयास करें, अनेक विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था: ‘आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर न्यायालयों के निर्णय, उनके आर्थिक और सामाजिक तत्व ज्ञान पर निर्भर करते हैं। ‘एक न्यायाधीश का दिमाग कोई यंत्रचालित विधिक स्लॉट मशीन नहीं है।’ उसका निर्णय कम से कम अनजाने में ही उसकी रूचि और अरूचि, अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों तथा उसके समस्त जीवन दर्शन से प्रभावित होता है।
देश में चल रहे सामाजिक संघर्ष के वातावरण में, उससे उत्पन्न कड़वाहट के कारण न्यायाधीश अपने निर्णयों में सामाजिक संघर्ष के अच्छे और बुरे पहलुओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। संघर्षशील समुदायों के सदस्य होने के कारण वे तरफदारी करेंगे ही क्योंकि वे अपने समुदायों की भावनाओं और अंधविश्वासों को मानते हैं। न्यायमूर्ति औ. चन्नप्पा रेड्डी के शब्दों में, ‘न्यायालय एक वर्ग से संबंधित होता है...जब वर्ग चेतना हावी हो जाती है।’ जैसा कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने टिप्पणी की कि चूंकि न्यायाधीश सम्पन्न वकीलों के वर्ग से लिए जाते हैं, वे अनजाने में ही कतिपय पूर्वग्रह पैदा कर लेते हैं।
अभी तक न्यायपालिका के सदस्यों को समाज के उसी वर्ग से लिया गया है, जो प्राचीन अंधविश्वासों से प्रभावित हैं और जीवन में अनुक्रम की अवधारण से ओतप्रोत है। ऐसे न्यायाधीशों के वर्गहितों की आंतरिक सीमा उन्हें अपनी निर्णयों में अपनी बौद्धिक ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा को पूर्ण रूप से निभाने की अनुमति नहीं देती है। अक्सर उनके निर्णय शासित वर्ग की तुलना में शासक वर्ग के लिए अधिक उपयोगी मानसिकता प्रकट करते हैं। ( #कड़िया मुंडा रिपोर्ट से)
बीपी मंडल आयोग
यह पिछड़े वर्गों के लिए दूसरा आयोग था। एक जनवरी 1979 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (पूर्व मुख्यमंत्री) की अध्यक्षता में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 (1) के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया उसने अपनी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 को इंदिरा गांधी सरकार को दे दी। 30 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी 1989 तक कांग्रेस पार्टी के प्रधानमंत्री रहे। इन दस सालों में कांग्रेस सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को अलमारी में बंद रखा। 15 अगस्त 1990 को जब राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल पिछड़ा वर्ग आयोग की संस्तुतियों के आधार पर सारे भारत में 3743 पिछड़ी जातियों की 52 प्रतिशत आबादी के लिए मात्र केन्द्रीय सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की घोषणा की।
सभी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों, जिनमें कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों आदि के चोटी के नेताओं ने उस आरक्षण का विरोध किया और इन नेताओं ने उसे विश्वनाथ सिंह द्वारा जल्दबाजी में और राजनीतिक स्वार्थ से पे्ररित बताया गया कदम बताते हुए और उनकी सरकार गिरा दी। यहां भी आयोग ने जाति की श्रेणी में निम्न स्तर को पिछड़ापन का मुख्य आधार माना था। विवाह के समय कम आयु, काम में महिलाओं की अधिक भागीदारी, स्कूल छोडऩे का अधिक दर, पीने के पानी तक कम पहुंच, परिवार का कम और आय/पूंजी, कच्चे घरों की अधिक संख्या आदि को आयोग ने अन्य महत्वपूर्ण तत्वों के रूप में स्वीकार किया था।
संविधान के अनुच्छेद 25 (4), 16 (4) तथा 340 (1) में अन्य पिछड़े वर्गों के संबंध में जाति के स्थान पर वर्ग शब्दावली के प्रयोग ने कई कानूनी नोक-झोंक और विवादों को जन्म दिया है। दो आयोगों सहित कई उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय समाज में जाति को वर्गीकरण का आधार माना है और कहा है कि वर्ग लोगों की उनकी जाति के आधार पर बनाया गया एक समूह है। बालाजी बनाम मैसूर राज्य प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तक निर्धारित की है। प्रसिद्ध इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने जाति एवं वर्ग शब्दावलियों के अर्थ को और अधिक स्पष्ट किया है। न्यायालय के अनुसार ‘भारत में कई बार जाति एक सामाजिक वर्ग होता है तथा जाति ही आरक्षण का सरल और महत्वपूर्ण आधार हो सकता है।’ गैर हिन्दू समुदायों में पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए परंपरागत रोजगार/व्यवसाय को आधार माना गया है।
मुस्लिम समुदाय सबसे अधिक पिछड़ा
रिपोर्ट के अनुसार अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और मजबूत संख्यावार उपस्थिति के बावजूद भारत में मुस्लिम समुदाय सबसे अधिक पिछड़ा समुदाय है। रिपोर्ट में मुस्लिमों की परिस्थिति, एससी/एसटी को छोडक़र अन्य सभी धार्मिक-सामाजिक समूहों की तुलना में खराब है। आर्थिक, सामाजिक तथा शिक्षा के कई क्षेत्रों में मुस्लिमों की परिस्थितित एससी/एसटी से भी खराब है। रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा, रोजगार तथा सामाजिक आधारभूत सुविधाओं के मामले में मुस्लिम हासिए पर पहुंच चुके हैं। रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद मुस्लिमों के पिछड़ेपन को आधिकारिक मान्यता मिल चुकी है। रिपोर्ट का एक सकारात्मक पहलू यह है कि केवल मुस्लिम ही नहीं, बल्कि अधिकांश भारतीय नागरिक यह महसूस करने लगे हैं कि मुस्लिमों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है और सरकार द्वारा इस दिशा में रचनात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है। (सच्चर रिपोर्ट)
दलितों का दलन
पूणे पैक्ट के अनुसार उच्च जातीय हिन्दुओं के साथ मिलकर वोट करने से दलित जातियों में से उन्हीं लोगों के जीत पर केन्द्रीय व प्रान्तीय विधान सभाओं में पहुंचने की अधिक सम्भावना हुई जो उच्च जातियों द्वारा उनके वोट व धन का पूर्ण समर्थन पावें और ऐसे ही चुनाव नतीजे भविष्य में भी होने की संभावना हुई है। भारत के आम चुनाव में इस पैक्ट के परिणाम के रूप में डॉ. बीआर आंबेडकर को हराने का फैसला किया और उन्होंने अपना वोट दसवीं तक पढ़े कांग्रेस के दलित उम्मीदवार कजरोलकर को देकर उसे जिता दिया और आंबेडकर हार गए।
पूणे समझौता के कारण ही यह दशा सारे भारत में है कि राजनीतिक पार्टियों के उच्च जातियों के नेता अपनी पार्टी के उन्हीं दलित उम्मीदवारों को अपना पार्टी टिकट और फिर चुनाव में समर्थन देते हैं जो उनके पिछलग्गू, झोला उठाऊ हों और पार्लियामेंट व विधान सभाओं में भी जीत जाने पर उन उच्च जातीय नेताओं की गलत से गलत व अनुचित बातों में भी बिना सोचे-समझे उनकी हां में हां मिलाएं और जरूरत पड़े तो अपने दलित वर्ग के हितों के खिलाफ अपने पार्टी बॉस की गलत बातों का समर्थन करें। ऐसा राजनीति में आज रोज देखने को मिलता है। (पुणा पैक्ट से)
काका कालेलकर पिछड़ा वर्ग आयोग
अनुच्छेद 340 (1) के अन्तर्गत 1953 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने काका कालेलकर की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया। उसने अपनी रिपोर्ट 1955 में भारत सरकार को अपनी संस्तुतियों सहित दे दी। उस पर तत्कालीन गृहमंत्री पं. गोविन्द वल्लभ पंत ने लोक सभा में भारत सरकार की तरफ से स्पष्टीकरण देते हुए कहा था कि रिपोर्ट के अनुसार भारत की करीब 35 करोड़ 69 लाख आबादी में पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा घोषित 2399 पिछड़ी जातियों में केवल 913 जातियों की जनसंख्या ही 11 करोड़ 50 लाख है। शेष पिछड़ी जातियों की जनसंख्या को जोडऩे से इनकी तादात और बढ़ जाएगी।
पिछड़े वर्ग के उत्थानार्थ इतनी बड़ी जनसंख्या वाले पिछड़े वर्ग के लिए आयोग की सिफारिशों को लागू करने हेतु भारत सरकार के पास पर्याप्त साधन नहीं हैं। अत: काका कालेलकर के पिछड़ा वर्ग आयोग की संस्तुतियां भारत सरकार लागू करने में असमर्थ है। पं. पन्त ने यह जरूर कहा कि अगर प्रदेश सरकारें चाहें तो अपने-अपने राज्य में अनुच्छेद 15 (4) व 16 (4) की व्यवस्था के अंतर्गत पिछड़ा वर्ग आयोग गठित करके सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति की जांच कराकर इनके उत्थान की व्यवस्था कर सकती हैं।
इस प्रकार सन् 1956 में पिछड़े वर्गों के उत्थान का मामला केन्द्र सरकार में ज्यों का त्यों अपनी जगह पड़ा रह गया। सत्रह अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर रेमजे मेकडानल ने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व (कम्युनल एवार्ड) की घोषणा की और मुसलमानों व दलित वर्गों को प्रथम निर्वाचन का अधिकार दिया। इस घोषणा के द्वारा अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानों और दलितों को केन्द्रीय व प्रान्तीय असेम्बलियों में हिन्दुओं से अलग प्रतिनिधित्व दिया। गांधी द्वारा आमरण अनशन के बाद 24 सितम्बर 1932 में पारित पूणे पैक्ट की शर्ते के बदौलत भारतीय राजनीति में दलितों को स्वतंत्र व स्वावलंबी बनकर जीने का अधिकार छिन गया। पैक्ट के पहले ही शर्त में भारत में दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन के हक में आम चुनावों में ‘दो वोट’ के दलितों के अधिकार को खत्म कर दिया गया और उसके स्थान पर चुनावों में आम हिन्दुओं के साथ ही एक वोट देने के हक को कायम रखा गया।
सच्चर की सिफारिशों के अनुसार एनएसएसओ के आंकड़ों के अनुसार भारत की मुस्लिम आबादी में 40.7 प्रतिशत मुस्लिम ओबीसी है, भारत की कुल जनसंख्या में 6.4 प्रतिशत मुस्लिम ओबीसी है तथा देश की कुल ओबीसी में मुस्लिम ओबीसी की भागीदारी 15.7 प्रतिशत है। मुस्लिम समुदाय का अत्यंत कम हिस्सा उच्च आय की श्रेणी में आता है। इस समुदाय के अंदर मुस्लिम ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा (मुस्लिम सामान्य की तुलना में) निम्न आय की श्रेणी में आता है। रोचक बात यह है कि मुस्लिमों की तुलना में अनुसूचित जाति एवं जनजाति (एससीएसटी) का एक बड़ा हिस्सा उच्च आय की श्रेणी में आता है। अनुसूचित जाति के विपरीत, सभी धर्मों के अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण के लिए उपयुक्त माना गया है। इस सूची में काफी कम संख्या में मुस्लिम जातियां है। सभी मुस्लिम जनजातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल नहीं किया गया है। आदिवासी मूल की अनेक मुस्लिम जनजातियों के दावे/निवेदन अभी भी लंबित हैं और इन आवेदनों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
आरक्षण को बेअसर बनाने के लिए सरकार इसमें नए-नए वर्ग व समुदायों को शामिल करती जा रही है और जब मर्जी उसे निकाल बाहर कर रही है। आरक्षण की वास्तविक लगभग 49.5 प्रतिशत की सीमा को वैसे रखा जा रहा है जैसे उच्च शिक्षा में 15 प्रतिशत अनिवासी भारतीयों को दिए जाने से मूलनिवासियों का आरक्षण और भी घट गया है। मुस्लिमों को आरक्षण देने के बाद ओबीसी, दलित, आदिवासियों का आरक्षण अपने आप घट जाएगा। बहरहाल 85 प्रतिशत पीडि़त समुदाय को मात्र 49.5 प्रतिशत आरक्षण जबकि 15 प्रतिशत सवर्णों को 50.5 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के मुताबिक अब नहीं भरे गए पदों के बॅकलाग को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा इसलिए अगर वे नहीं भरे जाते तो बाद में खुली श्रेणी से भरी जाएगी। आरक्षण को राज्य सरकारों की मर्जी पर छोडऩे से आरक्षण को नकारने और विकृत करने का अवसर राज्य सरकारों को हासिल हो जाएगा। (#महानायक, 22 अक्टूबर 2006)
राष्ट्रपति का अनुसूचित जाति/जनजाति आदेश, 1950 भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण सुविधाएं प्रदान करता है। इस आदेश को 1956 तथा 1990 में संशोधित करके क्रमश: मजहबी सिखों और नव बौद्ध समुदायों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया है। परंतु मुस्लिम समुदाय में उपस्थित समान तबकों अर्थात ‘अरजाल’ को इस लाभ से वंचित रखा गया है। कई विद्वानों का मानना है कि संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 अनुच्छेद 14, 15, 16 और 25 का उल्लंघन करता है।
इसलिए मुस्लिमों में मौजूद दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देकर उन्हें भी आरक्षण देना चाहिए। सच्चर समिति ने सिफारिश की है कि यदि ऐसा करना कठिन या असंभव हो तो उन्हें अति पिछड़ा वर्ग की एक विशेष श्रेणी में रखकर विशेष आरक्षण देना चाहिए। अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने में मुस्लिमों के साथ भेदभाव किया गया है। कई मुस्लिम जनजातियों को एसटी की सूची में नहीं रखा गया है। एक पृथक सर्वेक्षण के द्वारा सभी मुस्लिम जनजातियों की पहचान की जाए तथा उन्हें एसटी की सूची में शामिल किया जाए।
आज न्याय की मान्यता में उस काल की बहुत-सी बातें अपराध बन गई हैं। अनुच्छेद 17 व अन्टचेबलिटी एक्ट 1955 व प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट्स एक्ट के अंतर्गत जाति के नाम पर अछूतपन बरतना अपराध बन चुका है। अत: समानाधिकार के इस युग में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14, 15(1)16(1) आदि के बावजूद समाज की तथाकथित अछूत व पिछड़ वर्ग की शताब्दियों तक अधिकार वंचित जातियों को अनुच्छेद 15 (3), 15 (4), 16 (4), 32, 39, 39(ए), 43, 46, 226, 330, 332, 334, 335, 340, 341, 342 आदि को जोडक़र समाज के निर्बल, कमजोर, अनुसूचित जाति व जनजाति एवं पिछड़े वर्ग, महिला, बच्चों आदि को समाज की मुख्यधारा में लाने की व्यवस्था की है ताकि विभिन्न प्रकार के आरक्षण द्वारा मानव जीवन के बहुमुखी विकास को विशेष अवसर पाकर वह भी समाज के आगे बढ़े हुए लोगों के समान आगे आ सकने में समर्थ हो सकें।संविधान निर्माताओं ने सिद्धांत प्रतिपादित किया कि विधान मंडल में निम्न जातियों के लिए स्थान सुरक्षित किए जाएं, उनका विश्वास था, और सही भी था कि उच्च जातियां निम्न जाति के हितों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती।
न्यायपालिका में इन जातियों का प्रतिनिधत्व प्राय: शून्य होने से, इनको उच्च वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि युगों युगों से शूद्र, खामोशी से निरन्तर मशीन की तरह देश की सारी सम्पत्ति का उत्पादन करते चल आ रहे हैं और सवर्ण जातियां अपने बुद्धि-चातुर्य से उनके परिश्रम के फल का अधिकांश भाग स्वयंभोग करती चली आ रही हैं। अब शूद्रों ने इस शोषण जनित तथ्य को जान लिया है। और वे संगठित होकर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए कमर कस कर खड़े हो गए हैं। उच्चवर्गीय लोग चाहे जितना भी प्रयास क्यों न कर लें, इन शूद्रों को वे अब और अधिक दिन तक दबाकर नहीं रख सकते हैं। उच्चवर्ग की बुद्धिमानी इसी में है कि वे शूद्रों को उनके वैध वंचित अधिकार तुरंत दे दें वरना जब वह जागेंगे और एक दिन अवश्य जागेंगे और उच्च वर्ग द्वारा अपने ऊपर किए गए शोषण को समझेंगे तो वे अपनी एक फूंक से उच्चवर्ग को पूरी तरह उड़ा देंगे।
मीमांसा का विषय यह है कि जातिवादी समाज छह हजार जातियों में बंटा है और यह छह हजार जातियां लगभग ढाई हजार वर्षों से मौजूद है जो वर्गबद्ध है। इस वर्गबद्ध सामाजिक व्यवस्था के कारण अनेक समूहों जैसे दलित, आदिवासी एवं पिछड़े समाज को सत्ता एवं सभी संसाधनों से दूर रखा गया और इसको धार्मिक व्यवस्था घोषित कर स्थायित्व प्रदान किया गया। इस वर्गबद्ध सामाजिक व्यवस्था को तोडऩे के लिए सभी समाजों को बराबर-बराबर प्रतिनिधित्व प्रदाने करने के लिए संविधान के अनुच्छेदों के तहत प्रतिनिधित्व दिया गया।
सवर्णों द्वारा तर्क दिया जाता है आरक्षण का अधिकार आर्थिक होना चाहिए इस विषय में यह तथ्य जानने की आवश्यक है कि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। आरक्षण हजारों सालों से सत्ता एवं सभी संसाधनों की संस्थाओं से वंचित किए गए समाज के स्वप्रतिनिधित्व की प्रक्रिया है। आंबेडकर ने स्पष्ट किया था कि भारत के लोगों में समग्र वर्ग की चेतना का अभाव है। लोग यहां पर अपनी-अपनी जातियों के स्वार्थ से पे्ररित होकर सत्ता की संस्थाओं में बैठे हुए हैं और जब भी वंचित जातियों के अधिकारों की बात होती है तो वह नि:स्वार्थ भाव से उनके उत्थान एवं विकास की नीतियां नहीं बनाते। वे वंचित समाजों के दुख-दर्द एवं शोषण की चेतना से परे हैं।
इसमें अहम बात यह कि यदि वंचित समाजों का प्रतिनिधित्व नहीं हो तो कुछ जातियां हमेशा ‘राजा’ बनी रहेंगी और दूसरी जातियां ‘रंक’। आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए है यह एक और भ्रांति है जिसे सवर्ण बुद्धिजीवी हमेशा फैलाते रहते हैं जब उनसे पूछा जाता है कि आखिर कौन सा आरक्षण दस वर्ष के लिए है तो वह चुप हो जाते है। इस संदर्भ में केवल इतना जानना चाहिए अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए राजनैतिक आरक्षण जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 में निहित है, उसकी आयु और उसकी समय सीमा दस वर्ष निर्धारित की गई थी। नौकरियों में दलितों के आरक्षण की कोई समय सीमा सुनिश्चित नहीं की गई थी।इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर देश को समृद्धशाली बनाना है तो देश के सभी वर्गों का सौहार्दपूर्ण सहयोग लेकर ही विकास व निर्माण कार्यों में लगना होगा और उसके लिए जरूरी है कि देश के उत्पादन, आय, शासन, सरकार, राजनीति व हर क्षेत्र में आबादी के अनुपात से सब की बराबर-बराबर की भागीदारी होनी चाहिए।
10 प्रतिशत आबादी का वर्ग जाति, धर्म, वर्ग, सम्प्रदाय व अपनी साधन सम्पन्नता के नाम सदियों की भांति आज भी अपना वर्चस्व बनाए रखकर देश के 90 प्रतिशत आबादी वाले दलित, पिछड़े, शोषित, कमेरों के हिस्से को खुद खाते रहे और देश के 90 प्रतिशत आबादी वाले शोषित, पिछड़े व दलित वर्ग को 10 प्रतिशत हिस्सा भी न मिले, वह समाज में नंगा, भूखा, अपमानित, अभावग्रस्त होकर सडक़ों पर एडिय़ां घिस-घिर कर मर जाए, यह व्यवस्था अब किसी दशा में भी चलने वाली नहीं है।
मुख्य मुद्दा चह है कि नौकरियां दिन-पर-दिन घटर रही है। युवाओं में बेरोजगारी के कारण उभरते असंतोष को रोकने के लिए वर्तमान केन्द्र सरकार ने नई तरकीब सोची है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण? सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइइ) में उनके विश्लेषक महेश व्यास ने बताया है कि हमने 2018 में 11 मिलियन अर्थात 1.10 करोड़ नौकरियां गवांई है। दिसंबर, 2018 में भारत की बेरोजगारी दर 7.4 प्रतिशत थी। जो पिछले 15 महीनों में सबसे अधिक बेरोजगारी दर है। नवंबर में देखी गई 6.6 प्रतिशत की तेजी से बढ़ता वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत की चढ़ाई पर यह इंगित करती है कि नवंबर में देखी गई बेरोजगारी दर में छोटी गिरावट संभवत: एक प्रवृत्ति में गिरावट थी जो बेरोजगारी दर में लगातार वृद्धि का संकेत देती है।
आपको हैरत होगी कि पूरे देशभर में पिछले 30 दिनों की चलती औसत बेरोजगारी दर 6 जनवरी तक बढक़र 7.8 प्रतिशत पर पहुंच गई थी। बेरोजगारों की गिनती लगातार बढ़ रही है। दिसंबर 2018 को समाप्त हुए वर्ष में, इसमें 11 मिलियन की वृद्धि दर्ज की गई हुई। इसके विपरीत, नियोजित की संख्या में गिरावट आ रही है। जो नौकरी में दिसंबर 2018 में, अनुमानित 397 मिलियन कार्यरत थे। यह दिसंबर 2017 के रोजगार अनुमान से लगभग 11 मिलियन कम है। यह रोजगार में बहुत बड़ी गिरावट है। ध्यान दें कि दिसंबर 2018 का नमूना मोटे तौर पर दिसंबर 2017 के नमूने के समान है। इसलिए, रोजगार का अंतर नमूना के अंतर के कारण नहीं है।
हाल के चार महीनों (सितंबर से दिसंबर) में रोजगार के अनुमान अस्थिर रहे हैं जब महीने-दर-महीने रोजगार के अनुमान में 5-7 मिलियन की वृद्धि या गिरावट आई है। फिर भी प्रवृत्ति में भारी गिरावट है। रोजगार में गिरावट 13 महीने पहले नवंबर 2017 में शुरू हुई थी। नवंबर 2017 और सितंबर 2018 के बीच नौ महीनों में से प्रत्येक में रोजगार में गिरावट आई है। इस अवधि के दौरान रोजगार में 10.3 मिलियन की गिरावट का अनुमान है। और, पिछले चार महीनों में अस्थिरता में, यह 2.2 मिलियन से नीचे गिर गया है।
2018 में आबादी के विभिन्न गुणों द्वारा नौकरियों में इस तीव्र गिरावट का वितरण हमें नौकरियों के इस नुकसान में नजर आता है। व्यास का विश्लेषण हैं कि 2018 के दौरान, ग्रामीण और शहरी भारत दोनों में नौकरी की हानि हुई। लेकिन, ग्रामीण भारत में नुकसान शहरी भारत की तुलना में बहुत अधिक था। ग्रामीण भारत में अनुमानित 9.1 मिलियन नौकरियां खो गईं, जबकि शहरी भारत में नुकसान 1.8 मिलियन नौकरियों का था। ग्रामीण भारत भारत की दो-तिहाई आबादी के लिए है, लेकिन इसमें नौकरी के नुकसान का 84 प्रतिशत हिस्सा है।
रोजगार में गिरावट आमतौर पर महिलाओं के बीच केंद्रित है। हमने इसे विमुद्रीकरण के बाद देखा। उस पतन का पूरा खामियाजा महिलाओं को उठाना पड़ा। 2018 में, महिलाओं ने नौकरियों में गिरावट का बड़ा खामियाजा उठाया, लेकिन इस बार वह अकेली नहीं थीं। 11 मिलियन नौकरियों में से महिलाओं को 8.8 मिलियन नौकरियों और पुरुषों को 2.2 मिलियन का नुकसान हुआ। शहरी पुरुषों ने नौकरी नहीं गंवाई। इसके विपरीत, उन्होंने 2018 के दौरान आधा मिलियन नौकरियां प्राप्त कीं। लेकिन, ग्रामीण पुरुषों ने 2.3 मिलियन नौकरियां खो दीं। शहरी क्षेत्रों (2.3 मिलियन) और ग्रामीण क्षेत्रों (6.5 मिलियन) दोनों में महिलाओं ने नौकरी खो दी है। यह संभव है कि कई अशिक्षितों ने 2018 के दौरान कुछ शिक्षा में स्नातक किया और नौकरी हासिल की और अशिक्षितों की गिनती में ही गिरावट आई।
लेकिन, यह भी संभव है कि अशिक्षितों ने नौकरी खोया है। अशिक्षितों के लिए दिसंबर 2017 में सभी नियोजित व्यक्तियों का 10 प्रतिशत हिस्सा था। उनकी हिस्सेदारी तेजी से गिरी है। नौकरी के नुकसान भी दिहाड़ी मजदूरों, खेतिहर मजदूरों और छोटे व्यापारियों के बीच केंद्रित हैं। 2018 में नौकरी खोने वालों की एक और संभावित विशेषता है - वेतनभोगी कर्मचारी। 2018 में वेतनभोगी कर्मचारियों ने 3.7 मिलियन नौकरियां खो दी। मजे की बात यह है कि सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण मसले पर लिहाजा लोकसभा तथा राज्य सभा में अनुसूचित जनजाति के सदस्यों ने इस बिल का विरोध नहीं किया। यहां तक दलित पार्टियों के सदस्यों ने भी इस बिल का समर्थन किया।
दक्षिण कोसल सितम्बर 2015 के अंक में आवरण कथा में प्रकाशित ‘जातीय आधारित आरक्षण आखिरकार किनको?’
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