अपना ही गिरेबां सी न सके
असग़र वजाहतअब सवाल यह है कि देश में वे लोग (मैं अपने को इनमें शामिल मानता हूं ), पिछले साठ - सत्तर साल से क्या कर रहे थे, जिनका उद्देश्य लोकतंत्र, सद्भाव, समरसता, उदारता, सहिष्णुता, समानता, भाईचारा जैसे मूल्यों को स्थापित करना है? और वे क्या कर रहे थे जिन का काम और विचारधारा इन मूल्यों से अलग है।

कभी-कभी, खासतौर से संकट के समय में अपने गिरेबान में झांकना मतलब आत्म आलोचना करना जरूरी हो जाता है क्योंकि उससे पता चलता है कि संकट किन कारणों से आया है।
मेरे विचार से आज सबसे बड़ा संकट यह है कि कम से कम हिंदी प्रदेशों में बहुत बड़े स्तर पर हर समुदाय के लोगों को कट्टर बना दिया गया है। सांप्रदायिकता अपने उफान पर ही नहीं है बल्कि हिन्दू और मुसलमानों के बीच घृणा और हिंसा की ऊंची दीवार उठाई दी गई है जो नरसंहार तक पहुंच रही है। निश्चित रूप से यह एक लंबी योजना के तहत सत्ता के लिए किया गया काम है जो पिछले साठ- सत्तर साल में किया गया है।
अब सवाल यह है कि देश में वे लोग (मैं अपने को इनमें शामिल मानता हूं ), पिछले साठ - सत्तर साल से क्या कर रहे थे, जिनका उद्देश्य लोकतंत्र, सद्भाव, समरसता, उदारता, सहिष्णुता, समानता, भाईचारा जैसे मूल्यों को स्थापित करना है?
और वे क्या कर रहे थे जिन का काम और विचारधारा इन मूल्यों से अलग है।
1. वे आम लोगों तक पहुँच रहे थे और हमारा बुद्धिजीवी समाज सरकार आश्रित होकर सिमट रहा था।
2. हम अकादमिक / वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे थे और वे छोटे-छोटे पर्चे निकालकर बहु संख्यक अधपढ़े लोगों को अपना समर्थक बना रहे थे।
3. हमारा साहित्य और कला का दायरा छोटा हो रहा था और उनका धर्म आधारित सांस्कृतिक प्रभाव बढ़ रहा था।
4. वे जनवादी और प्रगतिशील शक्तियों के केंद्रों को तोड़ रहे थे और हम टूट रहे थे
5. हमारा उद्देश्य सरकारी और अर्ध सरकारी संस्थाओं से लाभ उठाना बन गया था लेकिन वे जनता से समर्थन ले रहे थे
6. वे धर्म का एक कट्टरवादी स्वरूप प्रसारित और स्थापित कर रहे थे जिसके उत्तर में हमारे पास कुछ न था।
7. हम शायद यह समझ रहे थे कि देश के भविष्य का फैसला पढ़े लिखे समझदार बुद्धिजीवी करेंगे लेकिन वे जानते थे कि लोकतंत्र में देश के भविष्य का फैसला 'बहुमत' करेगा। उनके सारे प्रयास 'बहुमत' को अपने पक्ष में करने के लिए जारी थे।
8. हम मानते थे कि विजय सच्चाई की होगी लेकिन के जानते थे कि विजय बहुमत की होगी।
9. वे अपना प्रचार करने के लिए स्कूल बना रहे थे और हम विश्वविद्यालयों में अपने वेतन बढ़ाने की लड़ाई लड़ रहे थे।
10. वे अवसर मिलते ही सत्ता में शामिल हो कर अपना आधार बढ़ा रहे थे और हम शुद्धता वादी बने, गर्व से अलग खड़े थे।
11. वे मीडिया की ताकत को पहचान रहे थे उसे अपने वश में कर रहे थे और हम अपने को असहाय समझ रहे थे।
12.वे एक - एक ईंट या रोटी जमा करके जन समर्थन प्राप्त कर रहे थे और हम सैद्धांतिक लेख लिख कर अपने को सही और उन्हें गलत सिद्ध कर रहे थे।
13. हम साहित्य और कला के ऊंचे मानदंड स्थापित करके अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे और वे अपने विचारों पर केंद्रित सस्ता साहित्य आम लोगों के बीच बेंच रहे थे।
यह आज के सामाजिक - राजनीतिक परिवेश पर एक टिप्पणी है।निश्चित रूप से अपवाद हो सकते हैं । कोई भी असहमत हो सकता है। ये मेरे निजी विचार हैं। इन विचारों किसी संगठन या दल से कोई संबंध नहीं है।
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