"हॉकी की नर्सरी" राजनांदगांव
डॉ. माजिद अलीसत्तर और अस्सी के दशक में ये आलम था कि राजनांदगांव की गली मुहल्ले की टीमें राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट में हिस्सा लेती थीं। स्वस्तिक क्लब, एमसी ईलेवन, हिन्द स्पोर्ट्स इलेवन नांदगांव के मुहल्ले की टीमें थीं जो राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध थीं जवाहर जैन, कुतुबुद्दीन सोलंकी, पीटर ईमाम, जुगल जैन, बसंत बहेकर, सुधीर जैन, अशोक फड़नवीस, फ़िरोज अंसारी, अनुराज श्रीवास्तव, सैय्यद अली, नरेश डाकलिया, शकील कुरैशी, आदि खिलाड़ी न सिर्फ अपनी टीमों के अपितु शहर की जनता की आंखों के तारे थे।

आज बरसों बाद अखिल भारतीय सर्वेश्वर दास हॉकी का फ़ाइनल देखने का सौभाग्य मिल गया । अबू और आकाश के साथ ओएनजीसी तथा सिकंदराबाद के बीच रोमांचक मुकाबले के साथ राजनांदगांव की हॉकी परंपरा पर चर्चा चल रही थी। वहीं एक बुज़ुर्ग खड़े होने की तकलीफ के साथ बड़ी तन्मयता से मैच का आनंद ले रहे थे। अबू ने उन्हें कुर्सी उपलब्ध कराई तो आशीर्वाद के साथ यादों का पिटारा खुलने लगा। राजनांदगांव हॉकी के लिविंग फॉसिल ने इतिहास की किताबें खोल दी।
1935 में जन्मे मोतीपुर के भानु सिन्हा सुनहरे पन्ने पलटते हुए बताने लगे जब वो पांच-सात साल के रहे होंगे तब हमारे राजा साहब सर्वेश्वर दासजी ने ये टूर्नामेंट शुरू किया था, तब से आज तक मैंने एक भी टूर्नामेंट नहीं छोड़ा है। राजा साहब का नाम लेते हुए उनके गर्वीली मुस्कान अप्रतिम थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के सत्तर साल बाद भी राजा के प्रति भक्ति भाव आश्चर्यजनक था। भानु दादा यादों की जुगाली करते बताने लगे कि ये टूर्नामेंट पहले म्युनिस्पल स्कूल ग्राऊण्ड में होता था। जब राजा साब अपने हौदे से उतरकर मैच देखने आते थे तो उनकी शोभा देखते बनती थी।
घुंघराले बालों में दमकते चेहरे की आभा से हमारी आंखें चौंधिया जाती थी। सुंदर कोमल रानी साहिबा के ममतामयी आशीर्वाद से सारा शहर धन्य हो जाता था। मैदान के किनारे बड़े से सोफे पर राजा साहब और रानी साहिबा मैच देख रहे होते तो हम उनके पीछे या बाजू खड़े होकर मैच का मज़ा लेते और धीरे से राजा साहब को छू लेते। आगे भानु दादा खिलाड़ियों के बारे में बताते-बताते भावुक हो गए और जाली पीटर, एयरमेन आदि की ड्रिबलिंग में खो गए।
उनकी बातों से मेरे मानस पटल पर अनायास ही राजनांदगांव की गली-मुहल्लों की हॉकी (गली क्रिकेट नहीं) परंपरा चलचित्र की भांति मन को गुदगुदाने लगी। सत्तर के उत्तरार्ध दशक में जब मैं पिताजी का हाथ पकड़कर शहर में निकलता था तो राजनांदगांव की गलियों और सड़कों पर बांस की खपच्चियों और हॉकी जैसे आकार के बेशरम के डंडो से हाकी की कलाबाज़ियां करते बच्चे किसी राहगीर की या साइकिल सवार की गालियां खाकर भी अपनी "गली हॉकी" में मस्त खेलते देखता था।
1959 में "दद्दा" (मेजर ध्यानचंद) जब राजनांदगांव आए थे तो यहाँ के हर बच्चे में हॉकी का जुनून और गली में हॉकी की अलिखित दास्तान देखकर कहा था "राजनांदगांव की रगों में हॉकी दौड़ती है।" शायद यही देखकर उन्होंने राजनांदगांव को "हॉकी की नर्सरी" का था । जी हां! राजनांदगांव को यह गौरव विश्व में अद्वितीय हॉकी खिलाड़ी जिनके आगे हिटलर ने भी घुटने टेके थे उनके द्वारा प्रदान किया गया है।
सत्तर और अस्सी के दशक में ये आलम था कि राजनांदगांव की गली मुहल्ले की टीमें राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट में हिस्सा लेती थीं। स्वस्तिक क्लब, एमसी ईलेवन, हिन्द स्पोर्ट्स इलेवन नांदगांव के मुहल्ले की टीमें थीं जो राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध थीं जवाहर जैन, कुतुबुद्दीन सोलंकी, पीटर ईमाम, जुगल जैन, बसंत बहेकर, सुधीर जैन, अशोक फड़नवीस, फ़िरोज अंसारी, अनुराज श्रीवास्तव, सैय्यद अली, नरेश डाकलिया, शकील कुरैशी, आदि खिलाड़ी न सिर्फ अपनी टीमों के अपितु शहर की जनता की आंखों के तारे थे।
इनमें से कईयों ने हॉकी की लोकप्रियता से स्थानीय राजनीति में नाम बनाया या हॉकी की बदौलत अपना कैरियर बनाया। सुधीर जैन का चयन राष्ट्रीय टीम में हुआ। 70, 80 तथा 90 के दशक का वो समय था जब शहर की हर गली में दो-चार नेशनल प्लेयर मिल जाते थे ।
केपी साव सर आरएन शुक्ला सर जैसे प्रशिक्षक थे जो बच्चों में हॉकी की प्रतिभा को चुन-चुनकर तराशते थे। हर स्कूल मैं अंतिम दो पीरियड हॉकी के लिए हुआ करता था और हर कक्षा की टीम होती थी। परन्तु हाय! टेनिस बॉल क्रिकेट ने सब कुछ बर्बाद कर दिया। मैं स्वयं इस घटना का गवाह हूँ। शायद 82-83 की घटना है (निश्चित सन् याद नहीं किन्तु लॉस एंजिल्स ओलंपिक 84 के पहले की घटना है) महंत सर्वेश्वरदास हॉकी टूर्नामेंट खेलने देश की बड़ी-बड़ी टीमें आई हुई थीं तब राष्ट्रीय टीम के कप्तान जफर इकबाल थे वो भी आए थे।
अशोक कुमार (मेजर ध्यान चंद के पुत्र 1960 रोम ओलंपिक में राष्ट्रीय टीम के सदस्य) ने मो. शाहिद जो इंडियन एयर लाइंस की टीम से खेलने आए थे (जो भारतीय टीम के सेंटर फॉरवर्ड थे) को साव सर से टिप्स लेने दिग्विजय स्टेडियम भेजा था। साव सर की परंपरा को उनके पुत्र भूषण साव आज भी म्यनिस्पल स्कूल के खेल प्रशिक्षक के रुप में निभा रहे हैं। जिनके प्रशिक्षण ने देश को मृणाल चौबे" और रेणुका यादव दिया। चुन्नीलाल मोहबे सर, अरूण गौतम सर, कुरैशी सर ने अपना सारा जीवन हॉकी की सेवा में सममर्पित कर दिया।
मुक्तिबोध और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की कर्मभूमि राजनांदगांव को संस्कारधानी केवल इसलिए नहीं कहा जाता कि ये साहित्यकारों की भूमि है अपितु यह छोटों का आदर, बड़ो का सम्मान, गुरू-शिष्य परंपरा का अनुगमन करने वाली पावन धरा है। अतिथि देवो भवः की इस धरती पर दिग्विजय स्टेडियम का ऐतिहासिक मैदान जसबीर सिंह, दलजीत ढिल्लन, जैसे दिग्गज सेंटर फॉरवर्ड के राष्ट्रीय टीम में चयन का गवाह है।
भारत की ओर (शायद) सर्वाधिक अंतर्राष्ट्रीय मैच खेलने वाले सदाबहार Left full back थोइबा सिंह (इंडियन ऑयल की टीम से) तथा Right full back या कभी Centre forword जलालुद्दीन (स्टेट बैंक भोपाल की टीम से) दिग्विजय स्टेडियम के प्राकृतिक हरे मैदान में खेलने को हमेशा लालायित रहते थे। सुरजीत हॉकी टूर्नामेंट में शहर के बीच म्युनिस्पल स्कूल के सफेद चटियल में बड़े-बड़े खिलाडियों की स्टिक से घूमती लाल गेंद की गति का पूरा शहर इतना दीवाना था कि दोपहर दो बजे के बाद शहर की सड़कें सूनी और स्कूल ग्राउंड खचाखच होता था।
फिर शाम को पान के ठेलों और चाय के खोमचों में खिलाड़ियों की कलाईयों की लचक और ड्रिबलिंग के चर्चे पान की पीकों और दिसंबर की सर्दियों में चाय की उठती भाप में तैरते थे। शिवनाथ नदी के पानी में घुली हॉकी की घुट्टी पीकर ही "एयरमेन सेबेस्टियन" ने रोम ओलंपिक में भारतीय हॉकी का स्वर्णिम इतिहास लिखा था। आज के टर्फ मैदान में तेज़ गति के खेल में वो कलात्मकता कहाँ जो सेबेस्टियन सर की अशोक ध्यानचंद की जुगलबंदी में थी।
अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम के बाहर लगी ध्यानचंद के साथ सेबेस्टियन सर की आदमकद मूर्ति ने सन साठ के ओलंपिक स्वर्ण पदक की याद दिला दी जिसके स्वागत के लिए स्वयं पं. नेहरू एयरपोर्ट पहुँच गए थे ।
माजिद अली असिसटेंट प्रोफेसर हैं, Zoology पढ़ाते हैं। राजनांदगांव में रहते हैं।
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