आज तीन ऐतिहासिक घटनाओं का स्वर्णिम दिन
सुशान्त कुमारआज का दिन इतिहास में शिक्षा दिवस, भीमा कोरेगांव शौर्यदिवस तथा गुलामी प्रथा का अंत के रूप में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। इन घटनाओं के साथ जश्न मनाने और याद करने में गर्व महसूस होना चाहिए। यदि आपको भी यह सही लगता है तो बेफिजूल के बगीचों, सिनेमाघरों, बार, ऊर्जा पार्क, माल, होटलों, रेस्टोरेंटों और अन्य जगहों में ना जाकर, दिमाग को कुंद करने वाले नशों में लिप्त न होते हुए इन ऐतिहासिक दिनों के आधार पर अपना भविष्य को तलाशेंगे।

ज्योतिबा फुले पर थामसपेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मेन’ एवं ‘दी एज ऑफ रीजन’ पढ़ी, जिसका उन पर काफी असर पड़ा । स्कूल के अपने एक ब्राह्मण मित्र की शादी में एक बार ज्योतिबा गये थे, तो उन्हें वहां पर अपमानित होना पड़ा था । बड़े होने पर उन्होंने इन रूढिय़ों के प्रतिकार का विचार पक्का किया। एक जनवरी 1848 में उन्होंने अछूतों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला। यह भारत के तीन हजार साल के इतिहास में ऐसा पहला स्कूल था जो दलितों के लिए था। 1948 में यह स्कूल खोल कर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज कर दिया था।
इतिहास में शूद्रों के लिए पहला स्कूल किसने खोला?
शिक्षा दिवस
‘विद्या बिन गई मति,
मति बिन गई गति,
गति बिन गई नीति,
नीति बिन गया वित्त।
वित्त बिन चरमराए शूद्र,
एक अविद्या ने किए कितने अनर्थ।।’
ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे । इस कारण उनके पिता पर काफी दबाव पड़ा तो उनके पिता ने उनसे आकर कहा कि या तो स्कूल बंद करो या घर छोड़ दो। तब ज्योतिबा फुले एवं उनकी पत्नि ने 1849 में घर छोड़ दिया। उस स्कूल में एक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ाते थे। उनको भी दबाव में अपना घर छोडऩा पड़ा। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। 1855 में उन्होंने पुणे में भारत की प्रथम रात्रि प्रौढ़शाला और 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना।
ज्योतिबा ने भारत का पहला लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला। जिसमें पढ़ाने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। तो उनकी पत्नी सावित्री ने ही स्वयं यह जिम्मेदारी उठाकर उस लड़कियों के स्कूल मे पढ़ाना आरंभ किया। इस तरह सावीत्री घर से बाहर आ पढ़ाने का काम करने वाली पहली शिक्षिका थीं। उन्हें तंग करने के लिए शुरू में उन पर गोबर और पत्थर फेंके जाते थे। पर वे पीछे नहीं हटी। जब 1868 में उनके पिताजी का देहान्त हुआ तो ज्योतिबा ने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया।
मुम्बई सरकार के अभिलेखों में ज्योतिबा फुले द्वारा पुणे एवं उसके आस पास के क्षेत्रों में शुद्र बालक-बालिकाओं के लिए कुल 18 स्कूल खोले जाने का उल्लेख मिलता है। अपने समाज सुधारों के लिए पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य ने अंग्रेज सरकार के निर्देश पर उन्हें पुरस्कृत किया और वे चर्चा में आए। इससे चिढक़र कुछ अछूतों को ही पैसा देकर उनकी हत्या कराने की कोशिश की गई पर वे उनके शिष्य बन गए। सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया। और इसी वर्ष उनकी पुस्तक ‘गुलाम गिरी’ का प्रकाशन हुआ। महात्मा फुले एक समता मूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है ।
पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है । गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत जोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमद नगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया। स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे।
मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को गलत बताया। फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था।
आगे स्वामी दयानंद ने जब मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की तो सनातनियों के विरोध को देखते हुए उन्हें ज्योतिबा की मदद लेनी पड़ी। ज्योतिबा ने शराब बंदी के लिए भी काम किया था एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्म हत्या करने से रोक उन्होंने उसके बच्चे को गोद ले लिया। जिसका नाम यशवंत रखा गया। अपनी वसीयत ज्योतिबा ने यशवंत के नाम ही की। सन् 1890 में ज्योतिबा के दांए अंगों को लकवा मार गया। तब वे बाएं हाथ से ही सार्वजानिक सत्य धर्म नामक किताब लिखने में लग गए। 28 नवम्बर 1890 में उन्होंने संसार से विदाई ली। इसी साल उनकी मृत्यु के बाद यह किताब छपी।
महात्मा जोतिबा फुले महान विचारक, समाजसेवी तथा क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे। महिलाओं, दलितों एवं शुद्रो के उत्थान के लिय उन्होने अनेक कार्य किए। समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे। डॉ. अम्बेडकर तो महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे। वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्ररेणा का स्त्रोत मनाते थे।
28 अक्टूबर 1954 को पुरूदर स्टेडियम, मुम्बई में भाषण देते हुए उन्होंने महात्मा बुद्ध तथा कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरू माना है। डॉ. अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा (अर्थात् मेरे तृतीय गुरू ज्योतिबा फुले हैं । केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढ़ाया । प्रारंभिक राजनीतिक आन्दोलन में हमने ज्योतिबा के पथ का अनुसरण किया, मेरा जीवन उनसे प्रभावित हुआ है ।)
डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘शूद्र कौन थे’ को 10 अक्टूबर 1946 को महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा- ‘जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को, उच्च वर्णो के प्रति उनकी गुलामी की भावना के सम्बंध में जागृत किया और जिन्होने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना अधिक महत्पुर्ण है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित ।
क्या शूद्र शासक थे ?
इतिहास में लिखा है कि दो सौ साल पहले 500 महार सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए पेशवाओं की 25,000 की सेना को हराकर मराठा साम्राज्य को खत्म करने में अहम भूमिका निभाई थी।
कहा जाता है कि एक जनवरी 1818 में साल के पहले दिन ईस्ट इंडिया कंपनी के 500 सैनिकों ने भीमा नदी को पार करके भीमा कोरेगांव में अपने से कहीं ताकतवर और सुसज्जित पेशवा की 25,000 सैनिकों की टुकड़ी को धूल चटा दी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के ये सैनिक अंग्रेज कर्नल एफएफ स्टॉन्टन की अगुवाई में लड़े थे।
पेशवाओं के शासनकाल में जब कोई महार नगर में प्रवेश करता था तो उसे अपने पीछे झाडू बांधकर चलनी पड़ती पड़ती थी ताकि उसके कदम जहां पड़े हैं वह धूल साफ होती जाए।
हो सकता है यह कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बात हो लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों से मिलान करें तो इसे कम करके नहीं आंका जा सकता। अंग्रेजों के तत्कालीन दस्तावेजों के हिसाब से 500 की जगह लड़ाई में 900 महार सैनिक शामिल हुए थे और दूसरी तरफ पेशवा के 25,000 नहीं बल्कि 20,000 हजार सैनिक थे। एक बात यह भी है कि उस समय तक पेशवा रक्षात्मक मुद्रा में थे। ईस्ट इंडिया कंपनी पेशवा से राजधानी पुणे छीन चुकी थी और शनिवारवाडा महल पर भी उसका झंडा लहरा चुका था।
ऐतिहासिक तथ्य जो भी हों लेकिन अंग्रेजों के लिए यह लड़ाई तीसरे मराठा-अंग्रेज युद्ध का आखिरी मोर्चा था जिसने पेशवाओं के साम्राज्य का अंत कर दिया। इस लड़ाई ने पश्चिमी भारत में अंग्रेजों के शासन की बुनियाद रखी थी। पहले मराठा शासक शिवाजी महारों को अपनी सेना में पूरी उदारता के साथ भरती करते थे लेकिन, दो दशक बाद पेशवाओं के शासनकाल में यह स्थिति पूरी तरह पलट गई। पेशवा ब्राह्मण थे और उनमें रूढि़वादिता कूट-कूटकर भरी हुई थी।
कहा तो ये भी जाता है कि उनके शासनकाल में जब कोई महार नगर में प्रवेश करता था तो उसे अपने पीछे झाडू बांधकर चलना पड़ता था ताकि उसके कदम जहां पड़े हों वह धूल साफ होती जाए। उन्हें मुंह के नीचे गर्दन से एक कटोरी बांधकर बाहर निकलना पड़ता था ताकि उनका थूक जमीन पर न गिरे. उस दौर में जाति छिपाना सजायोग्य अपराध था।
महारों के लिए अंग्रेजों का शासन भी उतार-चढ़ाव भरा रहा
महारों का सैन्य इतिहास काफी पुराना है लेकिन, 1893 में अंग्रेजों ने सेना में उनकी भरती बंद कर दी। यह 1857 के विद्रोह का नतीजा था। अंग्रेजों ने इसके बाद अपनी रणनीति बदलते हुए तय किया कि सेना में सिर्फ ‘लड़ाका जातीय’ वर्ग के लोगों को ही रखा जाएगा। ‘दक्षिण के स्त्रैण लोगों’ और ‘बॉम्बे के कथित महराट्टा’ को भी सेना से बाहर रखा गया।
जिन वर्गों को सेना से बाहर किया गया उनके लिए यह झटके से कम नहीं था. लेकिन उनमें भी महारों पर इस फैसले की सबसे ज्यादा मार पड़ी. वे हिंदू समाज में सबसे निचले तबके- ‘अछूत वर्ग’ में शामिल थे। सेना में काम करने का मौका खोने का मतलब था कि अच्छी शिक्षा और कम से कम कागजों पर ही सही बाकी समुदायों के साथ बराबरी से उठने-बैठने का मौका खोना।
हालांकि प्रथम विश्व युद्ध के समय जब अंग्रेजों को और सैनिकों की जरूरत महसूस हुई तो महार समुदाय के लोग एकबार फिर सेना में भरती किए जाने लगे। सेना में उनके नाम पर एक रेजीमेंट भी बनी लेकिन युद्ध खत्म होते ही इसे खत्म कर दिया गया। 1945 में इसे फिर गठित किया गया. फिलहाल मध्य प्रदेश के सागर में इसका मुख्यालय है। धोबले और भोसले इसी रेजीमेंट में सैनिक रहे हैं. हर साल महार रेजीमेंट के सैनिक, वर्दियों और बिना वर्दियों के भी यहां आकर स्मृति स्तंभ पर श्रद्धासुमन चढ़ाते हैं।
धोबले और भोसले 15 साल पहले सेवानिवृत्त हुए हैं। तब से वे समता सैनिक दल के प्रशिक्षक हैं. यह अर्धसैन्य संगठन बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया से संबंद्ध है और अंबेडकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा हिंदुओं के बीच सैन्यवाद को बढ़ावा देने की कोशिश के आंशिक विरोध में 1926 के दौरान इस संगठन की स्थापना की थी।
‘इस स्मारक से जुड़ी कई यादें हैं-पुणे विश्वविद्यालय की इतिहासविद् श्रद्धा कुंभोजकर बताती हैं, ‘कोरेगांव की लड़ाई इतिहास के पन्नों से गायब हो चुकी थी।
लेकिन जब 1927 में अंबेडकर यहां आए तो इस स्थान को तीर्थ का दर्जा मिल गया। उनकी मृत्यु के बाद इस आयोजन को हिंदू संस्कृति की मुख्यधारा के विकल्प के तौर पर विकसित करने की कोशिश होने लगी।’ महारों का सैन्य इतिहास काफी पुराना है लेकिन 1893 में अंग्रेजों ने सेना में उनकी भरती बंद कर दी और इससे यह समुदाय बुरी तरह प्रभावित हुआ।
गुलामी प्रथा की समाप्ति कैसे हुई?
अमेरिका में जब 1618 से उपनिवेशिक मानसिकता जन्म ले रही थी तब अमेरिका ने 1619 में पहला अफ्रीकी गुलाम वर्जीनिया में लाया था। इसके बाद अफ्रीका से बड़े पैमाने पर गुलामों को लाना जारी रहा और मैसाच्युसेट्स पहला उपनिवेश बना। आगे गुलामों की संख्या में बढ़ोत्तरी होने के कारण 1641 में गुलामी प्रथा को कानूनी जामा पहनाया गया। जो गलत था। मानव अधिकारों के विरुद्ध था। वर्तमान समय के अमेरिका के अश्वेत 1619 से 1865 तक अमेरिका में बंदी बनाए गए गुलामों की संतानें हैं। बंदी बनाए गए अफ्रीकियों में कई जातीय समूहों के लोग थे।
अमेरिका का दक्षिण प्रांत गुलामों के व्यापार हेतु प्रसिद्ध था। वहां गुलामों की बोली लगाई जाती थी। गुलामों को जब खाने-पीने को ठीक-ठाक नहीं दिया जाता था। उनसे बहुत ज्यादा काम लिया जाता था। तब वे भाग जाते थे। तब गुलामी प्रथा का विरोध करनेवाले कुछ लोग इन्हें आश्रय देते थे। किन्तु 1850 में आश्रय देने को अपराध समझने वाला कानून लागू हुआ। इसके पहले यानी 1808 में अमेरिका के संसद ने अंतरराष्ट्रीय गुलाम व्यापार करना प्रतिबंधित किया था; गुलामी प्रथा को नहीं। अमेरिका के उत्तरी प्रांत में गुलामी प्रथा के विरोध में जनमत तैयार हो रहा था।
1808 के बाद गुलामी प्रथा विश्व के समस्त मानव समुदाय का एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया था। और इस प्रश्न को हल करने या गुलामी प्रथा को नष्ट करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हो रही थी। साहित्य लिखा जा रहा था। पत्रिकाएं निकल रही थीं। आंदोलन चलाए जा रहे थे। गुलामी प्रथा का विरोध जोर पकड़ रहा था।
गुलामी प्रथा के विरोध में लोग खड़े हो इसलिए अमेरिका के दक्षिण प्रांत में लोक चेतना हेतु एक महत्वपूर्ण साप्ताहिक पत्रिका ‘नेशनल इरा’ चलाई जा रही थी। इस पत्रिका के माध्यम से एक अमेरिकन लेखिका ‘हॅरिएट बीचर स्टोव’ गुलामों पर होनेवाले अन्याय, अत्याचार और शोषण को लगातार उजागर कर रही थी।
1852 में लेखिका द्वारा लिखे गए उपन्यास ‘अंकल टॉम्स कॅबिन’ ने अमेरिका सरकार को हिला दिया था। इसी समय गुलामी प्रथा को बनाए रखना चाहिए ऐसा मानने वाला एक समूह अमेरिका में मौजूद था। उस समूह ने हॅरिएट बीचर के लेखन को नकार कर उसकी आलोचना की। हरिएट का लेखन झूठा है यह दर्शाने का प्रयास किया। गुलामों के जीवन पर न लिखे इसलिए उन्हें धमकियां दीं, किन्तु लेखिका गुलामों के साथ उनके आंदोलन में सक्रिय रुप से खड़ी रहीं। अपने लेखनी के माध्यम से गुलामों के वास्तविक जीवन का चित्रण किया। इसी कारण लेखिका द्वारा लिखित ‘अंकल टॉम्स कॅबिन’ उपन्यास के प्रकाशन के बाद ही उसकी तीन लाख पच्चीस हजार प्रतियां हाथों हाथ बिक गई थीं।
इसी समय गुलामी प्रथा के विरोध में मुक्त गुलाम ‘फ्रेडरिक डग्लस’ अपना आंदोलन चला रहे थे। इन्होने लेखिका का उपरोक्त उपन्यास पढ़ा और वे प्रभावित हुए उस उपन्यास को वे गुलामों के समूहों में सार्वजनिक रुप से पढऩे लगे जिससे गुलामी प्रथा के विरोध में लोगों में चेतना फैल गई। 1861 में गुलामी प्रथा का विरोध करनेवाला आंदोलन काफी तेज हुआ और अमेरिका सरकार को 1 जनवरी 1863 को गुलामीप्रथा को समाप्त करने के घोषणा करनी पड़ी।
Add Comment