पिछले 10 सालों में दलित उत्पीड़न के मामलों में 66 फीसदी का इजाफा

सवर्ण छात्रों ने दलित महिला रसोइया के हाथों से बना मिड-डे मील खाने से किया इन्कार

विशद कुमार 

 

आज देश, काल, समाज के लिए इससे बड़ा खतरनाक और क्या हो सकता है कि देश-समाज का भविष्य गढ़ने वाले विद्यार्थी मिड-डे मील की रसोइया 'भोजनमाता' के हाथों से बना खाना खाने से इसलिए इन्कार कर दें कि, भोजन बनाने वाली महिला दलित है।

इस मनुवादी वृति का सबसे दुखद पहलू यह हैं कि जो नई पीढ़ी विज्ञान के तमाम संसाधनों का जहां पुरजोर इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं कर रही है, वही पीढ़ी सैकड़ों साल पुरानी परम्पराओं के लबादे को छोड़ने तैयार नहीं है। आज भी दलितों के साथ ऐसा व्यवहार हो रहा जो इतिहास के पन्नों में दबे अविश्वसनीय घटनाओं की याद को ताजा कर दे रहा है। इस वृति के पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही है, यह शोध का विषय है। 

बताना जरूरी होगा कि उत्तराखंड के चंपावत जिले की अनुसूचित जाति की सुनीता देवी को हाल ही में सुखीढांग इलाके के जौल गांव के गवर्नमेंट सेकेंडरी स्कूल में भोजनमाता के तौर पर नियुक्त किया गया था। उन्हें कक्षा 6 से 8 तक के छात्रों के लिए मिड डे मील तैयार करने का काम सौंपा गया। लेकिन ऊंची जाति के छात्रों ने दलित महिला के पकाए गए भोजन को खाने से इनकार कर दिया। इस पर राज्य में सामाजिक भेदभाव और जातिगत पूर्वाग्रह को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। 

इस घटना की सबसे दुखद पहलू यह है कि जब यहां अगड़ी जाति के छात्रों ने दलित महिला के हाथ से बना मिड-डे मील खाने से इन्कार किया तो इस भेदभाव के खिलाफ छात्रों व उनके अभिभावकों पर दलित उत्पीड़न पर कार्यवाई करने की बजाय महिला को ही नौकरी से हटा दिया गया। जो इस बात का प्रमाण है कि हमारा समाज ही नहीं बल्कि देश, काल, समाज का भविष्य गढ़ने वाली हमारी शैक्षणिक व्यवस्था व प्रशासनिक अमला भी ऐसे भेदभाव को बढ़ावा देने में पीछे नहीं है।

बता दें कि इस राजकीय इंटर कॉलेज सूखीढांग में 230 छात्र पढ़ते हैं। इनमें से क्लास 6 से 8वीं तक के 66 बच्चे मिड-डे मील के दायरे में आते हैं। लेकिन सोमवार, 20 दिसंबर को केवल दलित वर्ग के 16 छात्रों ने ही मिड-डे मील खाया। वहीं सामान्य वर्ग का कोई भी छात्र नहीं आया, क्योंकि दलित वर्ग की ‘भोजनमाता’ ने खाना तैयार किया था। सवर्ण वर्ग के कई बच्चे घर से ही टिफिन लेकर आए थे।

वहीं कइयों ने खाना ही नहीं खाया। जो इस बात को प्रमाणित करता है कि इन बच्चों के अभिभावकों ने ही मना किया होगा कि दलित वर्ग की ‘भोजनमाता' के हाथ का भोजन नहीं करना है। जो प्रथम दृश्या ही दलित उत्पीड़न का मामला बनता है। तो क्यों नहीं सवर्ण अभिभावकों पर कार्यवाई की गई? क्यों महिला को भोजनमाता को नौकरी से हटा दिया गया? जो ऐसे भेदभाव को बढ़ावा ही दे रहा है। 

रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ दिनों पहले स्कूल ने भोजन माता की नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकाला था। इसके लिए 10 महिलाओं ने आवेदन किया। ग्रामीणों के मुताबिक अभिभावक संघ और प्रबंधन समिति की मौजूदगी में सर्वसम्मति से खुली बैठक में पुष्पा भट्ट को भोजनमाता नियुक्त किया गया।

लेकिन आरोप है कि इस बीच दूसरी महिला को भोजनमाता नियुक्त कर दिया गया। हालांकि स्कूल प्रबंधन समिति खुली बैठक में सामान्य वर्ग की महिला की नियुक्ति को सिरे से खारिज कर रहा है। उनका कहना है कि शासनादेश के अनुरूप ही भोजन माता की नियुक्ति की गई। लेकिन कुछ लोगों को ये पसंद नहीं आय़ा। जिसके कारण लोग विरोध किया।

स्कूल के प्रिंसिपल प्रेम सिंह की माने तो सुनीता देवी की नियुक्ति सभी सरकारी मानदंडों के हिसाब से किया गया था। उन्होंने बताया, 'हमें भोजनमाता के पद के लिए 11 आवेदन मिले थे। दिसंबर के पहले सप्ताह में आयोजित अभिभावक शिक्षक संघ और स्कूल प्रबंधन समिति की ओपन मीटिंग में उनका चयन किया गया था।'

मालूम हो कि सरकारी स्कूलों में स्टूडेंट्स की अटेंडेंस बढ़ाने और उन्हें पौष्टिक आहार देने के लिए मिड डे मील की व्यवस्था की गई है। सुखीढांग हाई स्कूल में रसोइयों के दो पद हैं। शकुंतला देवी के रिटायर होने के बाद सुनीता देवी की नियुक्ति हुई।

भोजन का बहिष्कार करने वाले छात्रों के अभिभावकों ने इसे लेकर मैनेजमेंट कमेटी और प्रिंसिपल पर आरोप लगाया है। उनका कहना है कि ऊंची जाति के योग्य कैंडिडेट को जानबूझकर नहीं चुना गया। स्कूल के अभिभावक शिक्षक संघ के अध्यक्ष नरेंद्र जोशी ने कहा, "25 नवंबर को हुई ओपन मीटिंग में हमने पुष्पा भट्ट को चुना था, जिनका बच्चा स्कूल में पढ़ता है। वह भी जरूरतमंद थीं, लेकिन प्रिंसिपल और स्कूल मैनेजमेंट कमेटी ने उसे दरकिनार कर दिया और एक दलित महिला को भोजनमाता नियुक्त किया।"

इतने खुले बयान के मायने क्या है? यह बताने की जरूरत नहीं है। सबकुछ साफ है बावजूद उनपर कार्यवाई की बजाय सुनिता देवी को ही नौकरी से हटा दिया गया, जो कई सवालों को जन्म देता है।

हमेशा हाशिए पर रहे दलित समुदाय को पिछले 10 साल में काफी बुरे हालात का सामना करना पड़ा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 10 साल (2007-2017) में दलित उत्पीड़न के मामलों में 66 फीसदी का इजाफा हुआ है। इस दौरान रोजाना देश में छह दलित महिलाओं से दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए, जो 2007 की तुलना में दोगुना है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर 15 मिनट में दलितों के साथ आपराधिक घटनाएं हुईं। 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी आंकड़े देश में दलितों की समाज में स्थिति और उनकी दशा की कहानी बयां करते हैं। आंकड़ों के मुताबिक, पिछले चार साल में दलित विरोधी हिंसा के मामलों में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। 2006 में दलितों के खिलाफ अपराधों के कुल 27,070 मामले सामने आए जो 2011 में बढ़कर 33,719 हो गए। वर्ष 2014 में अनुसूचित जाति के साथ अपराधों के 40,401 मामले, 2015 में 38,670 मामले और 2016 में 40,801 मामले दर्ज किए गए।

एनसीआरबी के आंकड़ों से चौंकाने वाली बात सामने निकलकर आई है. 2014 से 2016 के दौरान जिन राज्यों में दलित उत्पीड़न के सबसे मामले दर्ज हुए, उन राज्यों में या तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार है या फिर उसके सहयोगी की। बात करें दलित उत्पीड़न में सबसे आगे रहे राज्यों की तो मध्यप्रदेश दलित उत्पीड़न में सबसे आगे रहा। 2014 में राज्य के अंदर दलित उत्पीड़न के 3,294 मामले दर्ज हुए, जिनकी संख्या 2015 में बढ़कर 3,546 और 2016 में 4,922 तक जा पहुंची. देश में दलितों पर अत्याचार के कुल प्रतिशत में मध्यप्रदेश का हिस्सा 12.1 फीसदी रहा। 

वहीं, राजस्थान दलितों पर अत्याचार के मामले में दूसरे नंबर पर रहा। हालांकि यहां उत्पीड़न के मामलों में कमी आई है. राज्य में 2014 में दलित उत्पीड़न के 6,735 मामले, 2015 में 5,911 मामले और 2016 में 5,136 मामले दर्ज हुए। इसके बाद बिहार, जहां भाजपा और जदयू के गठबंधन की सरकार है, वहां 2016 में अनुसूचित जाति के लोगों पर अत्याचार के 5,701 मामले दर्ज हुए। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, इसके बाद नंबर गुजरात का है, जहां 2014 में दलित उत्पीड़न के 1,094 मामले, 2015 में 1,010 मामले और 2016 में 1,322 मामले दर्ज किए गए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में अनुसूचित जाति पर हमलों का राष्ट्रीय औसत जहां 20.4 फीसदी था, उसमें गुजरात का हिस्सा 32.5 फीसदी रहा।

देश में दलित उत्पीड़न के मामलों में वृद्धि पर विख्यात दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने अमेरिका में अश्वेतों का उदाहरण देते हुए कहा, "अमेरिका में 1618 से दासता की शुरुआत हुई और एक जनवरी 1863 में खत्म हुई. जब अश्वेत लोग इस दासता से आजाद हुए तो वहां अश्वेतों के साथ लिंकिंग की घटनाएं सामने अने लगी. सड़कों पर उन्हें पीटा जाने लगा, उनके ऊपर अत्याचार किए जाने लगे। ठीक उसी तरह जब आज भारत में दलित समुदाय जातिवाद से आजाद हो रहा है तो उनपर हमले हो रहे हैं। उन्होंने कहा, "बदलते दौर में दलित समाज में नेता उभर कर सामने आने लगे हैं जो आजादी के लिए आवाज उठाते हैं। पहले दलित जवाब देने में संकोच करता था लेकिन अब दलित जवाब दे रहा है। पहले लोग दलित के प्रति सुहानभूति दिखाते थे लेकिन अब लोगों ने उनके प्रति ईष्यालु रवैया अपना लिया है। इसी कारण उन्हें अब ज्यादा से ज्यादा निशाना बनाया जा रहा है, और आने वाले वक्त में उनके ऊपर हमले और बढ़ेंगे।" 

देश में बीजेपी शासित राज्यों में दलित उत्पीड़न के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए चंद्रभान प्रसाद ने कहा, "इसमें सरकार की गलती नहीं है, जहां-जहां बीजेपी की सरकारें बनी हैं वहां के ऊंची जाति के लोगों ने समझ लिया है कि अब उनकी सरकार आ गई है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन लोगों पर कार्रवाई नहीं हो रही है। जो वर्ग पहले दूसरी सरकार के शासन में दुबका हुआ बैठा था वह अब बाहर आने लगा है।"

यह पूछे जाने पर कि बीजेपी के 'सबका साथ-सबका विकास' नारे में दलितों के लिए अहमियत कम दिखाई देती है? इस पर उन्होंने कहा, "जी हां, बीजेपी के 'सबका साथ-सबका विकास' में ईमानदारी की कमी दिखाई देती है।" वर्ष 2016 में अनुसूचित जाति पर हमलों के मामले में उत्तर प्रदेश (10,426) शीर्ष स्थान पर रहा। यहां दलित महिलाओं के साथ दुष्कर्म के 1065 मामले दर्ज हुए, जिसमें से अकेले लखनऊ में 88 घटनाएं (40 दुष्कर्म, जयपुर, (43 दुष्कर्म) मामले) महिलाओं के साथ घटी हैं।


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment