राजनांदगाँव का रियासतकालीन जैतखाम
डॉ. दादूलाल जोशीलिहाजा कालान्तर में सारी सम्पत्ति राजसात करके राजगामी सम्पदा में तब्दील कर दी गई। राजा दिग्विजयदास ने अपने जीवन काल में ही पुराने किले को महाविद्यालय संचालित करने के लिए राजनांदगाँव शिक्षण समिति को दान कर दिया था। कालेज के पूर्व प्राचार्य पं. किशोरीलाल शुक्ल के मध्यप्रदेश शासन में राजस्व मंत्री बनने के बाद उनके ही प्रयासों से कालेज को शासकीय घोषित किया गया और तब से वह शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है। ऐतिहासिक जैतखाम अब इसी कालेज के परिसर में स्थित है।

प्रस्तुत लेख को मैंने सन् 2012 में लिखा था किन्तु छपवाने के लिये कहीं नहीं भेजा था। इसलिये यह लेख मेरी फाईलों में दबा हुआ था। फाईलों की छानबीन करते वक्त यह मिला तो मेरे मन में विचार आया कि इसे प्रकाशित करने के लिये प्रेषित किया जावे। इस लेख को लिखने के लिए मैं क्यों प्रेरित हुआ? इसकी एक वजह थी। मैं सन् 1968 में कक्षा आठवीं उत्तीर्ण करने के उपरान्त आगे की शिक्षा के लिये राजनांदगाँव गया और वहाँ के स्टेट हाई स्कूल में कक्षा नवमीं में भर्ती हुआ। मेरे रहने की व्यवस्था नंदई के सतनामी पारा में स्थित अनुसूचित जाति छात्रावास में की गई थी।
उस काल में उस मुहल्ले में सतनामी समाज की बहुत बड़ी आबादी रहा करती थी। छात्रावास के आसपास रहने वाले बुजुर्ग गण विद्यार्थियों के हाल चाल जानने के लिये छात्रावास में प्रायः आते रहते थे। उनसे बहुत सी जानकारियाँ मिलती थी। वे लोग अक्सर राजमहल के प्रांगण में स्थापित जैतखाम की चर्चा किया करते थे। हमारे सहपाठी मित्रों के साथ हम लोग उसे देखकर भी आये थे। आज की युवा पीढ़ी को जान कर हैरानी होगी कि उस समय तक जैतखाम की आज जैसी पूजापाठ करने का रिवाज नहीं था।
फलस्वरूप किला परिसर में स्थापित जैतखाम उपेक्षा का शिकार बना रहा। यह भी संभव है कि वह रजवाड़े की सम्पति-सीमा में स्थित होने के कारण लोग बाग उसके देखरेख करने की रूचि न लिये हों! रियासत के अंतिम राजा दिग्विजय दास की असमय मृत्यु हो जाने के बाद रियासत की चल-अचल सम्पत्ति का कोई उत्तराधिकारी नहीं था क्योंकि राजा साहब की एक भी सन्तान नहीं थी।
लिहाजा कालान्तर में सारी सम्पत्ति राजसात करके राजगामी सम्पदा में तब्दील कर दी गई। राजा दिग्विजय दास ने अपने जीवन काल में ही पुराने किले को महाविद्यालय संचालित करने के लिए राजनांदगाँव शिक्षण समिति को दान कर दिया था। कालेज के पूर्व प्राचार्य पंडित किशोरीलाल शुक्ल के मध्यप्रदेश शासन में राजस्व मंत्री बनने के बाद उनके ही प्रयासों से कालेज को शासकीय घोषित किया गया और तब से वह शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है। ऐतिहासिक जैतखाम अब इसी कालेज के परिसर में स्थित है।
जब मैंने सन् 2012 में उस जैतखाम का चित्र अपने मोबाइल से लिया था तब वह एक लकड़ी के बेलनाकार खम्भे के रूप में बेतरतीब खड़ा था। उसके आसपास जमीन में ढले हुए सीमेंट और टूटे हुए ईंटों के टुकड़े बिखरे हुए थे। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उसे उखाड़ने का भी प्रयास किया गया होगा।
खैर जो भी हो, उसके अस्तित्व के साथ दूसरा मोड़ तब आया, जब राजनांदगाँव जिले के लिटिया ग्राम निवासी, सतनामी समाज के प्रमुख समाजसेवी श्री गोपीराम गायकवाड़ जी ने सन् 2013 में एक पत्र तत्कालीन जिलाधीश महोदय को लिखा और अनुरोध किया कि दिग्विजय महाविद्यालय परिसर में स्थित ऐतिहासिक जैतखाम का पुनरूद्धार कराया जावे। उनके अनुरोध पर संज्ञान लेते हुए जिलाधीश महोदय ने कालेज के प्राचार्य को निर्देश दिया कि उसके उद्धार का कार्य शीघ्र प्रारंभ किया जावे। प्राचार्य ने समाज के चर्चित लोगों से संपर्क करके पुनर्निमाण का काम चालू करवाया। जैसा कि आम तौर पर होता है, कतिपय लोंगों के द्वारा निर्माण कार्य का सुनियोजित विरोध किया गया।
फिलहाल उसका विस्तृत विवरण देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती क्योंकि अंततः जैतखाम का पुनरूद्धार हो चुका है। अब वह आधुनिक शैली के जैतखाम के स्वरूप में आ चुका है। इतनी भूमिका के बाद अब मेरे द्वारा लिखित लेख को अक्षरशः आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।
राजनांदगाँव के प्राचीन रियासत के इतिहास का जब सिंहावलोकन करते हैं, तब अत्यन्त रोचक जानकारियाँ मिलती है। यहाँ के राजाओं ने अपने-अपने समय में जो जनहितकारी नव निर्माण कार्य किये थे, वे सभी कमोबेस आज भी मौजूद हैं। यही कारण है कि इस रियासत की जनता ने उन्हें सदैव भरपूर मान-सम्मान दिया। आजादी के चौंसठ वर्षो बाद आज भी उनकी यशोगाथा की चर्चा जन-जन में होती रहती है।
फारेन पोलिटिकल फाइल 79 पृष्ठ 1823 के अनुसार -‘‘ यहाँ का राजा घासीदास काफी सम्मानित था क्योंकि उनका स्वभाव और आचरण शुद्ध था। उसे द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट का न्यायिक अधिकार प्राप्त था। यहाँ का जमींदार अन्यों की तुलना में सभ्य था। ’’(छत्तीसगढ़ का इतिहासः डॉ. भगवानसिंह वर्मा) जाहिर है, ऐसे राजा के राज्य में जनता निश्चित रूप से सुखी रही होगी। जिस व्यक्ति में किसी तरह के दुर्गुण न हो, वह दूसरे का अहित कैसे कर सकता है? सात्विक आचार-विचार व्यक्ति के मन को पवित्र और उदात्त बनाते हैं। उसके हृदय में सबके प्रति कल्याण का भाव होना स्वाभाविक है।
‘‘ महन्त घासीदास को सन् 1865 ई0 में अंग्रेज शासन ने पहली बार नांदगाँव रियासत का प्रमुख शासक (फ्युडेटरी चीफ) स्वीकार किया। घासीदास ने बलदेव बाग तथा म्युजियम (1870) बनवाया। अफगान युद्ध में अंग्रेजों को एक लाख दस हजार मूल्य की वस्तुएँ सहायतार्थ दी। फलतः अंग्रेज शासन द्वारा दिल्ली में स्वागत। स्मृति रूप में नांदगाँव में दिल्ली दरवाजे का निर्माण किया गया। सन् 1883 ई0 में निधन ’’ (रजत जयंतिका: डॉ. गणेश खरे, शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगाँव की स्मारिका पृ018)
महन्त घासीदास के बाद राजनांदगाँव रियासत की बागडोर उनके पुत्र महन्त बलरामदास ने सम्हाली। उनके शासन काल को रियासत के इतिहास में स्वर्ण युग माना जाता है। उन्होंने अनेक जनहितकारी कार्य किये। वे मौलिक चिन्तन के धनी थे। ‘‘सन् 1887 ई0 में ब्रिटिश शासन की ओर से महन्त बलरामदास को राजा की उपाधि प्रदत्त। अंग्रेजी मिडिल स्कूल, रायपुर तथा राजनांदगाँव में नलघर, रायपुर में घासीदास म्युजियम, नांदगाँव में रानीसागर, सी.पी.मिल्स लि. (1894 ई0) की स्थापना, विद्युत व्यवस्था, नागपुर से नांदगाँव तक रेल्वे लाइन बिछाने में सहयोग दिया।
रेल्वे स्टेशन बनने के बाद नांदगाँव-राजनांदगाँव बना क्योंकि नांदगाँव नाम से एक स्टेशन पहले से था। राज शब्द रियासत का सूचक है। सन् 1893 ई0 में राजा बलरामदास को ‘राजा बहादुर’ की उपाधि से विभूषित किया गया। भारत में सर्व प्रथम सन् 1889 ई0 में बलरामदास ने नांदगाँव में नगर पालिका की स्थापना की। उस समय नगर पालिका सम्बन्धी नियम भी अस्तित्व में नहीं था।सन् 1897 में निधन।’’स्मारिका से।
राजा बलरामदास के शासनकाल में ही राजनांदगाँव के किला परिसर में ऐतिहासिक जैतखाम स्थापित किया गया था, जो आज भी स्थित है। इसे स्थापित करने के पीछे प्रमुख कारण एक घटना है। उस घटना की चर्चा पहले के लोग तो करते ही थे, वर्तमान में भी अनेक ऐसे लोग हैं जो रोचक तरीके से उस घटना के बारे में बताते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार सतनाम धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक गुरू बाबा घासीदास जी के तृतीय पुत्र गुरू आगरदास जी का आगमन सन् 1890 ई0 के आसपास राजनांदगाँव में हुआ था। उस काल में सतनामी धर्म गुरू हाथी में सवारी करते थे।
लिहाजा गुरू आगरदास जी ने भी हाथी पर सवार होकर राजनांदगाँव पधारे थे। उनकी यात्रा जुलूस के रूप में थी। सैेकड़ों अनुयायी साथ में थे, जिनमें राजमहंत, भंडारी और सांटीदार (छड़ीदार) काफी संख्या में शामिल थे। इसकी सूचना जैसे ही राजा को मिली, उन्होंने दीवान को सिपाहियों के साथ भेज कर गुरू आगरदास की यात्रा रूकवा दी।उन्होंने आदेश दिया कि इस रियासत में केवल राजा ही हाथी पर सवारी कर सकता है। अन्य लोग नहीं।
अतः सतनामी गुरू को हाथी पर बैठ कर राजनांदगाँव में प्रवेश नहीं दिया जा सकता। इस हुक्म को सुनकर गुरू के साथ चल रहे समस्त अनुयायी उत्तेजित हो गये ।तब राजमहंतों ने सोच विचार करके राजा से स्वयं बात करने का निर्णय लिया। उसके बाद राजमहंतों ने राजा के पास जा कर निवेदन किया -‘‘ महाराज, हाथी पर सवारी करना हमारे धर्म गुरूओं की शुरू से ही परम्परा रही है। वे अपने अनुयायियों से भेंट मुलाकात करने के लिए यहाँ पधारे हैं।
अतः उन्हें हाथी सहित राजनांदगाँव में प्रवेश करने दिया जावे।’’
‘‘तुम्हारे गुरू में ऐसी क्या खासियत है, जिसके बदौलत उन्हें मेरे रियासत में हाथी पर सवार हुए प्रवेश दे दूँ?’’राजा ने पूछा।
‘‘महाराज, हमारे गुरूओं में चमत्कारिक शक्तियाँ होती है। अतः उनकी अवज्ञा न करें!’’राजमहंतों ने समझाया।
‘‘ अच्छा ! तो क्या तुम्हारे गुरू रानीसागर के जल पर पैदल चलते हुए इस पार से उस पार जा सकता है?’’राजा ने फिर प्रश्न किया।
‘‘ महाराज, इसके बारे में तो गुरू ही निर्णय ले सकते हैं।‘‘ राजमहंतों ने जवाब दिया।
राजा के द्वारा तय की गई शर्तो की बात गुरू आगरदास जी के पास पहुँचा दी गई। उन्होंने राजा की शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। रानीसागर को पार करने के लिए दूसरे दिन प्रातः 10:00 बजे का समय तय कर दिया गया। इस शर्त की जानकारी सामान्य लोगों तक पहुँची तो देखते ही देखते रानी सागर में हजारों की भीड़ इकट्ठी हो गई। नियत समय पर गुरू जी रानीसागर में अपने भक्तों के साथ उपस्थित हो गये। उनके हजारों अनुयायी उनकी जय का उद्घोष कर रहे थे।
गुरूजी स्वेत वस्त्र धारण कियक हुए थे। माथे पर चन्दन का टीका था। पैरों में काष्ठ पादुकाएँ (खड़ाऊ) थे। उन्होंने हाथ जोड़कर सतनाम -सतपुरूष तथा गुरू बाबा घासीदास जी का स्मरण किया और रानीसागर में उतर गये। गुरू के द्वारा जल में प्रवेश करते ही वहाँ की अगाध जलराशि दो भागों में विभक्त हो गई। गुरूजी चलते हुए सकुशल दूसरे किनारे पर पहुँच गये। ठीक उसी तरह तुरन्त वापस भी हो गये। इस दृश्य को देखने के लिये स्वयं राजा साहब अपने समस्त अमले के साथ उपस्थित थे। उन्होंनं अपने दातों तले उंगली दबा ली।
गुरू आगरदास जी के इस चमत्कार से राजा साहब बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने गुरूजी से माफी मांगी और तत्काल तीन महत्वपूर्ण फैसले लिए-
1. भविष्य में सतनामी गुरूओं की यात्रा को राजनांदगाँव रियासत में रोका नहीं जावेगा। उन्हें हाथी पर बैठ कर भ्रमण करने की सदा अनुमति रहेगी।
2. राजनांदगाँव के किला परिसर में सतनाम के प्रतीक जैतखाम स्थापित किया जावेगा।
3. दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष रावण वध हेतु राजा की सवारी निकलने के पूर्व उद्घोषक के रूप् में सतनामी समाज का काई व्यक्ति नगाड़ा बजाता हुआ एक बैल गाड़ी पर सबसे पहले निकलेगा। उसके बाद ही राजा का जुलूस रावण वध के लिए प्रस्थान करेगा। इस सम्बन्ध में प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि ग्राम मचानपार (तुमड़ीबोड़ के समीप का गाँव) निवासी सतनामी परिवार यह काम कई पीढीयों तक किया है। उस घटना के कुछ दिनों बाद राजा ने 21 हाथ लम्बी सरई की लकड़ी मंगवा कर किला प्रांगण के दक्षिणी हिस्से में जैतखाम स्थापित करवाया था, जो आज भी जीर्णशीर्ण अवस्था में विद्यमान है। (अब उसका पुनर्निर्माण हो चुका है।)
उस घटना का जिक्र मेरे पिता जी ने सबके सामने अनेक बार किया था। वे राजनांदगाँव के राजाओं के परम प्रशंसक थे। उनके कार्यो की चर्चा बहुत सम्मान के साथ किया करते थे। उनसे सम्बन्धित अनेक किंवदंतियाँ और कथाएँ उनकी जुबान पर रहती थी, जिन्हें वे अक्सर गाँव वालों के बीच सुनाया करते थे। मेरे पिता जी का जन्म सन् 1915ई0 में हुआ था। वे उस समय के चौथी हिन्दी पास थे। इस चर्चा प्रसंग में मेरे पूर्वजों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है। मेरा गाँव -‘‘फरहद’’ जी.ई. रोड पर स्थित ग्राम सोमनी के उत्तर दिशा में मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर है।
दोनों गाँव की सीमा लगी हुई है। यह गाँव बहुत छोटा सा है। आज से चालीस वर्ष पूर्व यहाँ की आबादी बहुत कम थी। आजादी के पूर्व पिछले तीन पीढि़यों से हमारे पूर्वज यहाँ के गौंटिया (मालगुजार) थे। राजनांदगाँव के राजाओं द्वारा आयोजित प्रायः सभी कार्यक्रमों में हमारे यहाँ से भेंट या नजराना पहुँचाया जाता था।इस तरह हमारे पूर्वजों का आना-जाना राजदरबार में किसी न किसी रूप में होता रहता था। लिहाजा राजाओं से सम्बन्धित घटनाओं की जानकारी उन्हें कमोबेस रहती ही थी। अतः उनके द्वारा बताये गये घटना-प्रसंग काफी महत्व रखता है। इतना ही नहीं मैंने पच्चीसों लोगों से इस घटना के बाबत् चर्चाएँ सुनी है।
आज की स्थिति में जैतखाम
मेरे पिता जी उक्त घटना का वर्णन इस प्रकार करते थे
एक बार गुरू घासीदास जी के तृतीय पुत्र गुरू आगरदास जी रामत में राजनांदगाँव पधारे थे। वे हाथी पर सवार होकर सैकड़ों अनुयायियों के साथ राजनांदगाँव में प्रवेश किये तो राजा ने उन्हें हाथी पर सवारी करने से मना किया। तब गुरू के साथ चल रहे अनुयायियों ने यह कहकर राजा की बात पर ध्यान नहीं दिया कि हाथी पर सवारी करना हमारे गुरूओं की शुरू से प्रचलित परंपरा है। गुरू को हाथी से उतारने का आदेश गलत है। इससे हमारे गुरू और सतनामी समाज का अपमान होगा। इस तरह गुरू आगरदास जी का जुलूस राजनांदगाँव शहर में प्रवेश किया।
इससे राजा बहुत नाराज हुए और गुरू के हाथी को जप्त करने का ओदश दे दिया। राजा के सिपाहियों ने गुरू के साथ दुर्व्यवहार किया और हाथी को राजदरबार में ले गये। इससे सतनामियों में आक्रोश फैल गया और वे मरने - मारने पर उतारू हो गये, तब राजा ने गुरू आगरदास जी को दरबार में बुलवाकर कहा- ‘‘ मैंने सुना है कि आपके पिता गुरू घासीदास जी ने बहुत से चमत्कारिक कार्य किये थे। क्या आप भी कुछ चमत्कार दिखा सकते हैं? यदि आपने ऐसा कुछ चमत्कार दिखा दिया तो हम आपके हाथी को ससम्मान लौटा देंगे तथा आपको यहाँ भ्रमण करने से भविष्य में नहीं रोका जावेगा।
तब गुरू ने राजा से पूछा-‘‘ आप क्या चमत्कार देखना चाहते हैं?’’
राजा ने सुझाया -‘‘ चलो आप रानीसागर के जल पर पैदल चलकर उसे पार कर दीजिए।’’
गुरू आगरदास जी ने राजा की चुनौती स्वीकार कर लिया। इस कार्य के लिये दूसरे दिन प्रातः का समय तय किया गया। दूसरे दिन रानीसागर में हजारों की संख्या में लोग बाग गुरू के चमत्कार देखने के लिए उपस्थित हो गये। राजा स्वयं वहाँ उपस्थित थे। गुरू आगरदास जी वहाँ आये और एक पैर जल पर रखा। लोगों ने देखा कि पलक झपकते गुरू जी रानीसागर के दूसरे किनारे पर खड़े थे। उपस्थित जन समुदाय उनका जय जयकार कर रहे थे। थेड़ी देर बाद गुरू जी पुनः उसी तरह से वापस आकर अपनी जगह में खड़े हो गये। इस चमत्कार को देखकर राजा और उनके सारे अमले अभिभूत हो उठे। उन्होंने गुरू जी के आगे अपने व्यवहार के लिए खेद प्रकट किया तथा गुरू का भरपूर सम्मान भी किया।
मेरे पिता जी बताते थे कि गुरू ने राजा को श्राप दे दिया कि इस रियासत में कभी राजा का वंश राजगद्दी पर नहीं बैठ सकेगा क्योंकि इस रियासत में बेवजह उनका अपमान हुआ है और कष्ट पहुँचा है।
इस घटना के कुछ दिनों पश्चात् राजा ने किला परिसर में सरई लकड़ी का जैतखाम स्थापित करवाया। इससे सम्बन्धित अन्य बातों का उल्लेख पहले हो चुका है।उपर्युक्त घटनाओं का कोई लिखित विवरण नहीं है। कई कारणों से लोग जन-जन में प्रचलित ऐसे प्रसंगों पर यकायक विश्वास नहीं करना चाहते। इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे देश में मान्य विद्वान डॉ. विनय कुमार पाठक का विचार द्रष्टव्य है -‘‘ हमारे यहाँ कहा गया है कि वेदों में जो बात कही गई है, पोथी में जो बात कही गई है, वो भी सच है लेकिन मौखिक परंपरा में जो बात कही गई है, वो ज्यादा सच है। उसकी उपेक्षा आप नहीं कर सकते। लोक में जो बात रच-बस गई है, आप उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।’’(सत्यध्वज त्रैमासिक पत्रिका संपादक - दादूलाल जोशी ‘फरहद’)
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने भी लिखा है-‘‘ इतिहास में उक्त घटना का कहीं उल्लेख नहीं किया गया, लेकिन किंवदंतियाँ, जो इतिहास से अधिक विश्वसनीय है, उसकी सत्यता की साक्षी है।‘‘ (कहानी ‘राज्यभक्त’ का समापन वाक्य ‘विचार विन्यास’ त्रैमासिक पत्रिका)
वास्तव में विश्व का कोई भी प्राचीन साहित्य हो, पहले मौखिक परम्परा में या श्रुति परंपरा में ही था। बहुत बाद में वह लिखित रूप में सामने आया। यह तथ्य भी विचारणीय है कि अठारहवी और उन्नीसवीं सदी में छत्तीसगढ़ में आम जन में शिक्षा का प्रतिशत लगभग शून्य था। ऐसी अवस्था में किसी घटना विशेष को लिपिबद्ध करना असंभव था।
यदि हम चमत्कारों पर विश्वास न करके तार्किक ढंग से विचार करें तो ऐसा भी हो सकता है कि राजा बलरामदास जी ने स्वेच्छा से किला परिसर में जैतखाम स्थापित किया हो क्योंकि प्राप्त जानकारी के अनुसार उनके व्यक्तित्व और कृतीत्व उदात्त गुणों से परिपूर्ण परिलक्षित होते हैं। दूसरी बात यह भी हो सकती है कि उस युग में राजनांदगाँव रियासत में अनेक सतनामी मालगुजार थे, जो राजा के न्यायालय में आमंत्रित होते थे और किसी संगीन अपराध में निर्णय के पूर्व उनसे राय ली जाती थी। राजा किसी न किसी रूप में सतनाम संस्कृति से प्रभावित रहा हो जिसके कारण जैतखाम स्थापित किया था। हकीकत क्या थी इसे व्यक्त कर पाना तो अब मुश्किल है किन्तु अभी हमारे पास केवल किंवदंतियाँ ही है।
एक अन्य द्रष्टव्य तथ्य यह है कि सतनामी धर्म गुरूओं के द्वारा हाथी और ऊँट की सवारी करने की बात वर्तमान पीढ़ी को अविश्वसनीय लग सकती है परन्तु यह इतिहास की शत प्रतिशत सच्ची घटना है। इस संदर्भ में लगभग दर्जन भर अंग्रेज अधिकारियों ने अपने गजेंटियर और ग्रथों में स्पष्ट उल्लेख किया है। पी. एन. बोस ने सन् 1890 ई0 में लिखा था कि जिन गाँवों में सतनामी अल्प संख्या में होते हैं, वहाँ के सामंत सतनामी गुरू को उनके पारंपरिक सवारी हाथी पर बैठने के लिए अनुमति नहीं देते हैं और न ही अपने गाँव के भीतर से वे गुरू की शोभा यात्रा निकालने की अनुमति देते हैं।
गुरू जब शोभा यात्रा के लिये निकलते हैं तो दर्शनीय दृश्य उपस्थित हो जाता है। अनेक हाथियों, ऊँटों और अनुयायियों से घिरे हुए गुरू की भव्य शोभा यात्रा किसी राजकीय समारोह से कम नहीं होती है।(पी.एन. बोस- 1890ई0) ‘‘ कोई भी सामंत हाथी पर सवार गुरू को अपने गाँव से होकर नहीं जाने देता था। उस समय हाथी राजाओं की सवारी थी। शेष लोग उस पर बैठ नहीं सकते थे।’’(भटगाँव जमींदारी का इतिहास-अप्रकाशित)
छत्तीसगढ़ की घरती पर सम्पन्न गुरू घासीदास जी का सतनाम आन्दोलन विश्व का सर्वथा अनोखा मौलिक और जबर्दस्त आन्दोलन था। ‘‘ आधुनिक युग में गुरू घासीदास एक सशक्त क्रांतिदर्शी तथा आध्यात्मिक गुरू थे। वे राजा राम मोहन राय से बहुत पहले नव जागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए थे। राजा राममोहन राय पश्चिमी विचार धारा और जीवन पद्धति से अनुप्राणित होकर ही नव जागरण के सन्देश वाहक बने थे, जबकि गुरू घासीदास ने निरक्षरता तथा हलवाहे की स्थिति में ग्रामीण परिवेश से जुड़ कर ‘‘विशुद्ध’’ भारतीय विन्तन ही प्रस्तुत किया था।
यही कारण है कि चार्ल्स ग्राण्ट (1870 ई0) ने गुरू घासीदास को मध्यप्रदेश का आश्चर्य माना था - ‘‘ इस अंचल के असल आश्चर्य अभी तक धरती के नीचे दबे हुए हैं। (गुरू) घासीदास उनमें से एक हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ के भूमिदासों को जगाया और जाति प्रथा को समाप्त कर समतावादी समाज की रचना की।’’(गुरू घासीदासः संघर्ष, समन्वय और सिद्धांत- डॉ. हीरालाल शुक्ल,भूमिका से)
विश्व के प्रायः अधिकांश सुलझे हुए मस्तिष्क वाले आध्यात्मिक गुरूओं और विचारको ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि पूरे ब्रह्माण्ड का कोई एक ही सुप्रीम पावर है, एक ही सर्वशक्तिमान है। चाहे वह किसी भी रूप में हो। लोग अपनी-अपनी श्रद्धा, मान्यताओं और परम्पराओं के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया है और भक्ति करते हैं। इसमें किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए। एक दूसरे की धार्मिक परम्पराओं और आस्थाओं से घृणा करना, उन्हें नीचा दिखाना तथा विनष्ट करने की कुचेष्टा करना वस्तुतः उस सुप्रीम पावर का अपमान करना है। ऐसा करके मनुष्य सच्चा ईश्वर भक्त या ईश्वर पुत्र नहीं बन सकता।
राजनांदगाँव रियासत में वैष्णव (बैरागी) राजाओं का राज था। इतिहास में उनकी धार्मिक प्रवृत्ति और साधु चरित्र की प्रशंसनीय चर्चाओं का उललेख मिलता है। अतः उनके द्वारा स्थापित ऐतिहासिक जैतखाम का जीर्णाद्धार करना, उसका सम्मान करना तथा उसकी रक्षा करना निश्चित रूप से उन महान राजाओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने जैसा कार्य माना जा सकता है। ऐसा करके हम संस्कारधानी राजनांदगाँव की श्रेष्ठ साँस्कारिक परम्पराओं का निर्वाह तो करेंगे ही साथ ही समरसता, सद्भाव और विश्व बन्धुत्व के उदात्त भावों के हम धनी हैं, ऐसी पहचान भी हम सारे जहाँ को दे सकेंगे।
यह लेखक के निजी विचार और जानकारी से संबंधित हैं।
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28/12/2021
मणिशंकर अंचल
सहमत हूं। परन्तु चमत्कारी तथ्यों में असहमति है
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28/12/2021
विष्णु बंजारे सतनामी
बहुत सुन्दर और सारगर्भित जानकारी.... सतनामी समाज का सम्पूर्ण जानकारी जिसे लोग इतिहास कहते है... वह सभी आँखों देखा प्रमाणित जानकारी हैं.... जिसे हमारे तीसरे या चौथे पीढ़ी के वंशज.. अपने आँखों से देखें है... जय सतनाम
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28/12/2021
KUMAR LAHARE
बहुत सुन्दर ऐतिहासिक जानकारी दिए हैं सर जी सतनाम!!
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