गुरू घासीदास जी की विश्व-चेतना
डॉ. दादूलाल जोशी ‘फरहद’गुरू घासीदास जी के सात उपदेशों और बयालिस रावटियों में जीवन और जगत का यथार्थ समाया हुआ है। ये सभी, सकल धर्मो के सार कहे जा सकते हैं। इनसे सभ्य और सम्मुन्नत समाज की पहचान कायम होती है। वास्तव में ये सूत्र वाक्य हैं, जिनकी विस्तार से व्याख्या की जा सकती है। उनके सात उपदेशों और बयालिस रावटियों में दिये गये सूत्र वाक्यों (संदेश या उपदेश) में से दो मुझे विशिष्ट रूप से प्रभावित करते हैं। मैं बार-बार मनन करता हूँ और चकित हो जाता हूँ कि छत्तीसगढ़ के सुदूर आरण्यक ग्राम में जन्में एक कृषक पुत्र किस तरह अपनी चेतना को विश्व - चेतना बना कर प्रस्तुत कर देता है।

ऐसी परिस्थितियों में जबकि उन्हें अक्षर ज्ञान न मिला हो, नगरीय जीवन शैली से दूर हो, फिर भी संसार के मानव समाज को महान संदेश देते हैं। उनकी दोनों रावटियाँ द्रष्ट्व्य है-
1. करिया हो कि गोरिया हो, छोटका हो या बड़का हो, इंहा के हो चाहे उंहा के हो, मनखे ह मनखे आय।
2. मोर संत मन मोला कखरो ले बड़का झन कहिहू, नई ते मोर बर येहा हुदेसन म हुदेसन आय।
प्रथम रावटी संसार के समस्त मानव को एक समान मानने का संदेश है। मनुष्य ,मनुष्य में प्राकृतिक रूप से कोई भेद नहीं है। भले ही उसका रंग काला या गोरा हो, बौना हो या ऊँचा हो, वह किसी भी देश का हो वह मूल रूप से मानव है। अतः जाति, सम्प्रदाय, धर्म और देश के आधार पर किसी को भी छोटा या घृणा के योग्य मानना सही दृष्टिकोण नहीं है।
हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि उन्नत विज्ञान ने समस्त विश्व की मानव जाति के रक्त को चार समूहों में खोज किया है। जिसे ब्लड ग्रूप कहा जाता है। यदि किसी मनुष्य के जीवन रक्षा के लिए खून की जरूरत पड़ती है तब उस पीड़ित के रक्त समूह को जाँच कर उसी समूह के किसी भी व्यक्ति का खून देकर उसे बचाया जाता है। इससे यह निकर्ष निकलता है कि मनुष्य की पहचान उसके रक्त समूह के आधार पर होनी चाहिए न कि जाति, धर्म और क्षेत्र विशेष के आधार पर।
दूसरी गौरतलब बात यह है कि मनुष्य जन्म लेता है तब वह अपने साथ भौतिक सम्पत्ति लेकर नहीं आता। उसे जो कुछ दौलत मिलती है तो इस धरती पर आने के बाद ही मिलती है। कुछ लोग अकूत सम्पत्ति बनाने के फेर में बहुत से लोगों को वंचित और अकिंचन बना देते हैं जोकि प्राकृतिक कृत्य नहीं कहा जा सकता है। इस धरती के संसााधनों में सभी मानव का बराबर का हिस्सा है।
अतः किसी को भी वंचित और अभावग्रस्त की हालत में रखा जाना अमानवीयता की श्रेणी में आता है। इस सृष्टि का यही अटल नियम है कि जो आया है वह जायेगा। मनुष्य चाहे कितना भी प्रयास कर ले अधिकतम सौ वर्ष से अधिक जीवित नहीं रह सकता। यह सब जानते हुए भी मनुष्य अपनी प्रजाति के जीवों से घृणा करता है, उन्हें असमय मृत्यु की गोद में सुला देता है।
अनेक किस्म के वर्ण, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय और धर्मो में विभक्त करके एक दूसरे से बहुत दूर कर देता है। सत्ता और सम्पत्ति में एकाधिकार की अदम्य भूख से ग्रसित व्यक्ति अन्य मनुष्यों को कीड़े मकोड़ो की तरह नष्ट करने में तनिक भी नहीं हिचकता। गुरू घासीदास जी इन सभी तथ्यों को सूक्ष्म रूप से जानते - समझते थे। इसीलिए उन्होंने कहा कि संसार के सभी मनुष्य एक बराबर हैं। अतः सबको सह-अस्तित्व के साथ रहना चाहिए।
चीन में एक महान संत हुए थे - कन्फ्युसियस। उनके बारे में एक रोचक प्रसंग है। उनके समय के चीन के राजकुमार की एक कीमती तलवार, जिसमें हीरे -जवाहरात आदि मूल्यवान रत्न जड़े हुए थे, वह कहीं गुम हो गई। सिपाहियों ने बहुत ढूंढा पर तलवार नहीं मिली। तब राजकुमार ने कहा - कोई बात नहीं, तलवार देश की सम्पत्ति है, किसी देशवासी के पास ही होगी।
इसमें अफसोस की कोई बात नहीं है। इस घटना की जानकारी संत कन्फ्युसियस को दी गई। लोगों ने कहा कि उनके देश के राजकुमार की सोच कितनी ऊँची है? यह सुन कर संत कन्फ्युसियस ने कहा - ‘‘ राजकुमार यदि यह कहते कि मानव की सम्पत्ति मानव के पास है तो अधिक सही होता।’’1 यह कथन सिद्ध करता है कि संसार के सभी मनुष्य बराबर है।
गुरू घासीदास जी ने भी अपनी रावटी में - मानव - मानव एक समान कह कर विश्व-चेतना को प्रकट किया है। अपने सूत्र वाक्य से वे सम्पूर्ण विश्व को एक धागे में बांधने का संदेश देते हैं। गुरू घासीदास जी ने अपने समय में देखा कि सब तरफ मानव -मानव में ऊँच - नीच, घृणा और नृशंसता, अमीर-गरीब, आदि के अप्राकृतिक विभेद कायम है, जिसके कारण एक व्यक्ति दूसरे के खून का प्यासा बना हुआ है। अनैतिकता और अज्ञानता का सर्वत्र बोलबाला है। अतः उन्होंने इनकी समाप्ति के लिए उद्घोष किया कि मनुष्य के साथ मनुष्य जैसा ही व्यवहार होना चाहिए। जैसा कि आमतौर होता है।
ज्ञानी लोग बहुत ऊँची-ऊँची बातें कहते हैं। बड़े-बड़े उपदेश देते हैं किन्तु फकत दूसरों के लिए ही। स्वयं उनका पालन वे नहीं करते हैं। गुरू घासीदास जी जो उपदेश दिये उनका वे स्वयं भी पालन करते थे। इसका प्रमाण है - उनकी दूसरी रावटी। उन्होंने कहा कि ‘हे मेरे संतो (अनुयायियों ) मुझे किसी से भी बड़ा मत कहना। यदि कहोगे तो यह मेरे लिए जलती हुई लकड़ी से जलाने जैसी बात होगी।’
यह संदेश प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है। इसमें अहंकार और दंभ का लेस मात्र भी स्थान नहीं है। इसमें विनम्रता और सत्यानुभूति की पराकाष्ठा है। इसी तरह के विचार गौतम बुद्ध के भी है। गुरू घासीदास जी की इस रावटी को यथार्थ रूप में समझने के लिए बुद्ध पर डॉ. भीमराव आम्बेडकर जी द्वारा प्रस्तुत खोज परक चिन्तन पर ध्यान केन्द्रीत करना होगा।
डॉ. आम्बेडकर जी चार धर्मो पर विमर्श करते हुए लिखते हैं -‘‘ कई धर्म संस्थापकों में से ऐसे चार धर्म संस्थापक हैं, जिनके धर्मों ने न केवल भूतकाल में विश्व को प्रेरणा दी थी बल्कि आज भी कतिपय लोगों को वैसे ही प्रभावित कर रहे हैं। वे हैं बुद्ध, ईसा मसीह, मोहम्मद और कृष्ण। इन चारों के व्यक्तित्व की और अपने धर्म के प्रचारार्थ उन्होंने अपनाए हुए ढंगों की एक ओर बुद्ध से और दूसरी ओर बाकी सब के साथ तुलना करने पर ऐसी कुछ भिन्नताओं का रहस्योद्घाटन होता है, जो महत्वहीन नहीं है।’’2
बाबा साहेब डॉ. भीम राव आम्बेडकर जी चारों धर्मों के संस्थापकों के कृतित्व और व्यक्तित्व का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए आगे लिखते हैं- ‘‘ पहली बात जो बुद्ध को शेष सभी से निराला ठहराती है, वह है उनके व्यक्तिगत महात्म्य का त्याग। बाइबल की पूरी किताब में ईसा मसीह ने जोर देकर इस बात को कहा है कि वे साक्षात् ईश्वरपुत्र हैं और जो लोग ईश्वर के राज्य - स्वर्ग में प्रवेश करना चाहते हैं, उनके सभी प्रयास विफल ही होंगे अगर उन्होंने ईसा मसीह को ईश्वरपुत्र के रूप में स्वीकार नहीं किया।
मुहम्मद इससे भी एक कदम आगे बढ़े। ईसा मसीह के समान उन्होंने भी ऐसा दावा किया कि वे धरती पर खुदा के पैगंबर याने दूत बनकर आये हैं। लेकिन उन्होंने आगे इस बात को जोर देकर कहा कि वे खुदा के आखरी पैगंबर हैं। इसी कारण से उन्होंने यह घोषणा की, कि मुक्ति चाहनेवालों को न केवल उन्हें खुदा का पैगंबर मानना पडेगा बल्कि यह भी स्वीकार करना होगा कि वह आखरी पैगंबर हैं। कृष्ण तो ईसा मसिह और मुहम्मद से भी एक कदम आगे बढ़े। केवल ईश्वरपुत्र अथवा खुदा का पैंगंबर बनने से संतुष्ट होना उन्हें स्वीकार नहीं था।
खुदा का आखरी पैगंबर बनने में भी उन्हें कोई तृप्ती नहीं थी। इतना ही नहीं बल्कि अपने आप को ईश्वर कहलाने से भी वे तृप्त नहीं हुए। उन्होंने दावा किया कि वे खुद साक्षात् ‘परमेश्वर’ हैं या उनके भक्तगण की मान्यता के अनुसार ‘देवाधिदेव’ हैं। इस प्रकार अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को बलात प्रस्थापित करने की अहंकार भरी चेष्टा बुद्ध ने कभी नहीं की।
उन्होंने एक मनुष्य के पुत्र होने के नाते जन्म पाया था, और एक साधारण पुरूष बने रहने में तथा एक साधारण पुरूष के नाते अपनी धम्मदेसना देने में वह संतुष्ट थे। उन्होंने कभी अपने जन्म अलौकिक होने की या तो अपने पास कोई अलौकिक शक्ति होने की बात नहीं की, ना ही अपनी अलौकिक शक्ति के प्रदर्शन हेतु कोई चमत्कार दिखाए। बुद्ध ने मार्गदाता और मोक्षदाता में स्पष्ट भेद किया। ईसा मसीह, मुहम्मद और कृष्ण ने अपने आप को मोक्षदाता की भूमिका में कायम किया। मात्र बुद्ध मार्गदाता की भूमिका निभाने से संतुष्ट थे।’’3
उपर्युक्त कथन में डॉ. आम्बेडकर ने गौतम बुद्ध की महान विनम्रता तथा जीवन और जगत के यथार्थ ज्ञान को उद्घाटित किया है। गुरू बाबा घासीदास जी बुद्ध से एक कदम आगे बढ़ कर कहते हैं कि ‘ मुझे किसी से भी बड़ा मत कहना’ तब इस सृष्टि का अटल सत्य उद्घाटित हो जाता है।
उन्होंने अपने आप को केवल मनुष्य का पुत्र होने तक सीमित न करते हुए मनुष्य, मनुष्य में बराबरी का दर्जा बताते हुए स्वयं को भी सभी मनुष्य के बराबरी में रखना पसंद किया। उनके इस रावटी से एक ओर उनकी महान विनम्रता और मानव , मानव को एक बराबर मानने का संदेश उजागर होता है तो दूसरी ओर वे भी बुद्ध की तरह मार्गदर्शक के रूप में स्वयं को स्थान देते हैं।
वे स्वयं को ईश्वर या मुक्तिदाता नहीं कहते बल्कि एक सामान्य मनुष्य की श्रेणी में रख कर मानव समाज के कल्याण हेतु मार्ग बताने वाला कहलाना पसंद करते हैं। इसी भाव को संत कबीरदास जी अपनी साखी में कहते हैं -
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूरि।
अंडा ले चींटी चले , हाथी के सिर धूरि।।4
अर्थात् जो अपने आप को लघु मानता है उसे ही महानता हासिल होती है। जो स्वयं को महान मानता है, उससे प्रभु अर्थात् ईश्वर दूर ही रहता है। छोटा जीव चींटी अपने सिर पर अंडा लेकर चलता है जबकि विशाल प्राणी हाथी के सिर पर धूल दिखाई देती है।
गुरू घासीदास जी स्वयं को छोटा नहीं कहते बल्कि एक मनुष्य के रूप में समस्त मनुष्य के बराबर मानते हैं। यहाँ समानता का संदेश है। बन्धुता का भाव है। उन्होंने न तो प्रभुता को स्थान दिया है न ही लघुता को। वास्तव में उन्होंने समानता को स्थान दिया है जो कि नैसर्गिक विचार है।
इस तरह हम अनुभव करते हैं कि गुरू घासीदास जी की चेतना क्षेत्र, प्रान्त और देश की सीमा में न रह कर विश्व स्तरीय दिखाई देती है। उनकी चेतना विश्व चेतना बन कर उभरी है। छत्तीसगढ़ी समाज के लिए छत्तीसगढ़ में गर्व करने योग्य अनेक चीजें और व्यक्तित्व मौजूद हैं लेकिन गुरू घासीदास जी उनमें सर्वथा विलक्षण और विशिष्ट हैं। उनके इन दोनों रावटियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे जाति, क्षेत्र, पंथ, सम्प्रदाय और धर्म की सीमाओं से ऊपर हैं तथा विश्व स्तरीय नूतनतम विचारक और संत हैं।
उनकी गुरूता श्लाघनीय हैं। छत्तीसगढ़ी समाज निश्चित रूप से अपनी धरती पर अवतरित ऐसे प्रकृतिवादी संत के व्यक्तित्व और कृतित्व को सामने रख कर कहीं भी और कभी भी गर्व का अनुभव कर सकते हैं।
संदर्भ:
1. संकलित
2. डॉ. भीमराव आम्बेडकर, बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य, (अनुवाद - धम्मचारी विमल कीर्ती)
प्रकाशक- दि कार्पोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्धा एज्युकेशन फाउंडेशन ताईपेई, ताईवान - 1997
3. उपर्युक्त
4. संत कबीरदास जी की साखी
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