आदिवासी नेता कंगला मांझी

संजीव तिवारी, अगासदिया

 

कंगला मांझी का असली नाम हीरासिंह देव मांझी था। छत्तीसगढ और आदिवासी समाज की विपन्न और अत्यंत कंगाली भरा जीवन देख कर हीरासिंह देव मांझी ने खुद को कंगला घोषित कर दिया। इसलिए वे छत्तीसगढ की आशाओं के केन्द्र में आ गये न केवल आदिवासी समाज उनसे आशा करता था बल्कि पूरा छत्तीसगढ उनकी चमत्कारिक छबि से सम्मोहित था। कंगला मांझी विलक्षण नेता थे।

कंगला मांझी अपने जवानी के शुरूआती दिनों में सन 1913 से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुडे एवं एक वर्ष में ही जंगलों से अंग्रेजों द्वारा हो रहे दोहन के विरूद्ध आदिवासियों को खडा कर दिया। 1914 में बस्तर के अंग्रेज विरोधी गतिविधियों से चिंतित हो अंग्रेज सरकार ने आदिवासियों के आंदोलन को दबाने का प्रयास किया पर कंगला मांझी के अनुरोध पर कांकेर रियासत की तत्‍कालीन राजमाता ने आदिवासियों का साथ दिया अंग्रेजों को पीछे हटना पडा। कंगला मांझी लगातार जंगलों व बीहडों में अपने लोगों के बीच आदिवासियों को संगठित करने में लगे रहे।

सन 1914 में उन्‍हें अंग्रेजों के द्वारा गिरफतार कर लिया गया। कंगला मांझी के लिए यह गिरफतारी वरदान सबित हुई, इस अवधि में उनकी मुलाकात गांधी जी से हुई और वे गांधी जी के अहिंसा नीति के भक्‍त हो गये। 1920 में जेल में गांधी जी से उनकी मुलाकात पुन: हुई और इसी समय बस्तर की रणनीति तय की गयी। महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर कंगला मांझी ने अपने शांति सेना के दम पर आंदोलन चलाया और बस्‍तर के जंगलों में अंग्रेजों को पांव धरने नहीं दिया। वे मानते थे कि देश के असल शासक गोंड हैं। वे वलिदानी परंपरा के जीवित नक्षत्र बनकर वनवासियों को राह दिखाते रहे।

1947 में देश आजाद हुआ तो उन्होंने पंडित नेंहरू से आर्शिवाद प्राप्‍त कर नये सिरे से आदिवासी संगठन खडा किया इनका संगठन मांझी अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद आदिवासी किसान सैनिक संस्था एवं अखिल भारतीय माता दंतेवाडी समाज समिति के नाम से जाना जाता है।

कंगला मांझी ने आदिवासियों को नयी पहचांन देने के लिए 1951 से आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की वर्दी और सज्जा को अपने व अपने संगठन के लिए अपना लिया। सुनने में आश्‍चर्य होता है पर आंकडे बताते हैं कि सिपाहियों की वर्दी से गर्व महसूस करने वाले कंगला मांझी के दो लाख वर्दीधारी सैनिक थे, वर्दी विहीन सैनिक भी लगभग इतनी ही संख्या में थे। कंगला मांझी आदिवासियों के आदि देव बूढा देव के अनुयायी को अपना सैनिक बनाते थे जबकि लगभग समस्‍त आदिवासी समुदाय बूढा देव के अनुयायी हैं इस कारण उनके सैनिकों की संख्‍या बढती ही गयी, छत्‍तीसगढ के अतिरिक्‍त मघ्‍य प्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, बिहार, झारखंड तक उनके सदस्‍य फैले हुए हैं।

कंगला मांझी अपने सैनिकों के साथ इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी से भी मिल चुके थे एवं उनसे अपने सैनिकों के लिए प्रसंशा पा चुके थे। वे विकास के लिए उठाये गये हर कदम का समर्थन करते थे। हिंसा का विरोध करते थे। अहिंसक क्रांति के पुरोधा कंगला मांझी के सिपाही सैनिक वर्दी में होते लेकिन रास्ता महात्मा गांधी का ही अपनाते। उनका कहना था हमें मानव समाज की रक्षा के लिए मर मिटना है।

कंगला मांझी ने समय समय पर आदिवासियों को संगठित करने व अनुशासित रखने के उद्धेश्य से पर्चे छपवा कर आदिवासियों में बटवाया करते थे इन्ही में से एक -

“भारत के गोंडवाना भाईयों, प्राचीन युग से अभी तक हम शक्तिशाली होते हुए भी जंगल खेडे, देहात में बंदरों के माफिक चुपचाप बैठे हैं। भारत के दोस्तों ये भूमि हमारी है फिर भी हम भूमि के गण होते हुए भी चुपचान हांथ बांधे बैठे हैं । आज हमारे हांथ से सोने की चिडिया कैसे उड गयी।''

“आदिवासी समाज तब उन्नति करेगा जब वह राज्य और देश की उन्नति में भागीदार बनेगा और देश व राज्य तभी समृद्ध बनेगा जब उसका आदिवासी समृद्ध होगा।''

यह दर्द और घनीभूत हो जाता है जब स्थिति इतने वर्षों बाद भी जस की तस दिखती है। आदिवासियों ने कभी दूसरों का अधिकार नही छीना मगर आदिवासियों पर लगातार चतुर चालाक समाज हमला करता रहा। संस्कृति, जमीन और परंपरा पर हुए हमलों से आहत आदिवासी तनकर खडे भी हुए लेकिन नेतृत्व के अभाव में वहुत देर तक लडाई नही लड सके। प्रतिरोधी शक्तियां साधन सम्पन्न थी। आदिवासी समाज सीधा, सरल और साधनहीन था।

आज आदिवासी समाज निरंतर आगे बढ रहा है। इस विकास के पीछे कंगला मांझी का संघर्ष है। उन्होनें अपने लंबे जीवन को इस समाज के उत्थान के लिए झोक दिया। आज जबकि आदिवासी हितों की रक्षा के सवाल पर गौर करना अधिक जरूरी है, नकली लडाईयों में आदिवासी समाज को उलझा दिया जाता है।

छत्तीसगढ का आदिवासी हीरा कंगला मांझी जब तक इनके बीच रहा, नक्सली समस्या छत्तीसगढ में नही आई। कितने दुर्भाग्य की बात है कि उनके अवसान के बाद उनकी परंपरा का भरपूर पोषण नही किया गया और धीरे धीरे नक्सली गतिविधियां पूरे प्रांत में छा गई। समय अब भी है आहत आदिवासियों को उचित महत्व देकर पुन: वह दौर लौटाया जा सकता है और कंगला मांझी के स्‍वप्‍नों को साकार किया जा सकता है, बस्‍तर बाट जोह रहा है अपने सपूत कंगला मांझी का।

प्रतिवर्ष 5 दिसम्बर को डौंडी लोहारा तहसील के गांव बघमार में कंगला मांझी सरकार की स्मृति को नमन करने आदिवासी समाज के अतिरिक्त छत्तीसगढ के स्वाभिमान के लिए चिंतित जन एकत्र होते हैं। जहां राजमाता फुलवादेवी एवं जीवंत आदिवासी सैनिकों को देखकर मन कंगला मांझी के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है। धन्‍य हे मोर छत्‍तीसगढ के सपूत।


कंगला मांझी का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय आदिवासी केम्प रणजीत सिंह मार्ग, नई दिल्ली में है।


प्रस्‍तुत लेख छत्‍तीसगढ की साहित्यिक पत्रिका “अगासदिया” के क्रांतिवीर कंगला मांझी विशेषांक में प्रकाशित संपादकीय, अलग अलग लेखों, संस्‍मरणों व आलेखों को पिरोते हुए लिखा गया है द्वारा - संजीव तिवारी


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