मन्नू जी नहीं रहीं 

प्रेमकुमार मणि

 

नयी कहानी आंदोलन 1950 के दशक में उभरा था। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर की त्रयी तो थी ही ,लेकिन इसके इर्द - गिर्द भी बहुत कुछ था। मन्नू जी ने नयी कहानी को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया था। 

3 अप्रैल 1931 को मध्यप्रदेश के भानपुरा में जन्मी महेंद्र कुमारी उर्फ़ मन्नूजी का परिवार साहित्यिक था। पिता सुखसम्पात राय भंडारी प्रतिष्ठित साहित्यकार और भाषाविद थे। मन्नू जी की पहली कहानी 1954 में छपी, लेकिन वह पाठकों में चर्चित हुईं ,' कहानी ' पत्रिका में छपी कहानी ' मैं हार गई ' के बाद।

फिर तो लिखने - छपने का सिलसिला ही बन गया। इस बीच 22 नवम्बर 1959 को राजेन्द्र यादव के साथ उनका कलकत्ता में विवाह हुआ और उसके बाद यह नवदम्पति दिल्ली में आ बसा। तब से दिल्ली ही उनका ठौर - ठिकाना रहा।

राजेन्द्र जी और मन्नू जी से मेरा व्यक्तिगत इतना सघन सम्बन्ध रहा कि आज निजी तौर पर एक अजीब खालीपन महसूस कर रहा हूँ। पुरानी बातें चलचित्र की तरह मानस पटल पर तैर रही है। बस एक का जिक्र करना चाहूंगा। 1990 के पहले की बात है। मार्च का महीना था। अगले रोज ही होली का त्यौहार था।

' हंस ' के दरियागंज स्थित दफ्तर में राजेन्द्र जी से मिलने गया तो वहीं  से मन्नू जी को प्रणाम कर लेने केलिए फोन किया। वह उल्लास से बात करती रहीं और आखिर में उनका आदेशनुमा निमंत्रण आज शाम के भोजन केलिए हुआ।

राजेन्द्र जी उन दिनों अलग मयूर विहार में रह रहे थे। उन्होंने इशारा किया कि मैं भी चलूँगा । शायद यह भी चाहते थे कि उन्हें भी आमंत्रित किया जाय। मैंने मन्नूजी से कहा तो उन्होंने झिड़की दी - उसका तो घर ही है। कुछ समय बाद हमलोग चले।

हौजखास वाले घर पर पहुँच कर चाय पीते समय मन्नूजी ने पसंद के भोजन का प्रसंग छेड़ दिया, जिसके सिलसिले में मैंने कहा मुझे तो दाल चावल और चोखा बहुत पसंद है, साथ में धनिये की चटनी हो तो फिर क्या कहने। बात आई - गई हो गयी।

लेकिन भोजन की मेज पर बैठा तो धनिये की चटनी और चोखा दोनों थे। बाद में किशन ने बतलाया मैंने कई किलोमीटर दूर जाकर धनिया लाया। माँ जी का आदेश था कि हर हाल में धनिया लाना ही है। वह स्मृति आज इतनी ताज़ा हो गई, मानो मैं उसी वक़्त में लौट गया हूँ। लेकिन आज न राजेन्द्र जी हैं, न मन्नूजी। जैसे एक समय, एक युग की विदाई हो गई है।

मन्नू जी ने अपने स्त्री नजरिए से जीवन को देखा। 1950 और 60 के दशक में पुरुष लेखक ही स्त्री जीवन को बांचते थे। ' यही सच है ' जब लिखा गया तब पाठकों ने पाया यह एक नयी स्त्री का स्वर है। इसी कहानी के बाद उन्हें एक नया साहित्यिक व्यक्तित्व मिला।

' आपका बन्टी ' और महाभोज जैसी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने बताया कि स्त्री के पास कहने के लिए बहुत कुछ है। उसके आँचल में दूध और आँखों में पानी ही नहीं, उसके मगज में कुछ विचार, कुछ बातें भी होती है। अपने पारिवारिक जीवन में भी कभी वह लिजलिजी नहीं रही।

किसी की किसी से तुलना तो नहीं की जा सकती, लेकिन राजेन्द्र - मन्नू जी की जोड़ी कुछ - कुछ फ्रांसीसी लेखक ज्यां पाल सार्त्रे - सिमोन द बोउआ की तरह थी। विवाह संबंध ने दोनों में से किसी को भी एक दूसरे के अधीन नहीं बनाया था। छोटे -मोटे मतभेद रहते होंगे, लेकिन दोनों ने एक दूसरे के व्यक्तित्व का हमेशा सम्मान किया।
मन्नूजी ने अपनी शादी का दिलचस्प ब्यौरा बयान किया है।

उन्हीं के शब्दों में -' मैं उस समय इन्दौर गई हुई थी... मुझे तुरंत बुलाया गया और लौटते ही सुशीला ने शादी केलिए 22 नवम्बर की तारीख तय कर दी --- मुहूर्त देख कर नहीं, बस यह देख कर कि इतवार है तो लोगों को आने में सुविधा होगी। ठाकुर साहब - भाभीजी जुटे हुए थे राजेन्द्र की ओर से, क्योंकि राजेन्द्र ने अपने घर वालों को आने केलिए बिलकुल मना कर दिया था।

सुशीला - जीजा जी, भाई - भाभी, मित्र और सहकर्मियों की एक पूरी टोली जुटी हुई थी मेरी ओर से। प्रतिभा बहिनजी, नारायण साहब, प्रतिभा अग्रवाल, मदन बाबू, जसपाल, कैलाश आनंद - सब में ऐसा उत्साह था मानो यह सबका साझा कार्यक्रम है। मिसेज आनंद से तो मैंने इस अवसर पर एक मंगल सूत्र ही झटक लिया।

हुआ यूँ कि पूजा की छुट्टियां शुरू होने से पहले वे एक नया खूबसूरत - सा मंगलसूत्र पहन कर आईं। मैंने तारीफ की तो बोलीं - तू अवसर तो पैदा कर तुझे भी ऐसा ही मंगलसूत्र दूँगी ।' छुट्टियां समाप्त होते ही यह अवसर पैदा हो जाएगा, ऐसा अवसर उन्होंने शायद सोचा भी नहीं होगा पर जब हो ही गया तो बड़ी ख़ुशी - ख़ुशी उन्होंने आकर मेरे गले में मंगलसूत्र पहनाया।'

विद्रोह का एक रूप विवाह में ही दिखा था कि दोनों परिवार के अभिभावक विवाह में अनुपस्थित थे। मन्नूजी के पिता के विरोध के टेलीग्राम की भनक भी किसी को नहीं लगने दी गई । इस तरह दो लेखकों ने साथ जीवन की शुरुआत की थी। मन्नू जी से जाने कितनी मुलाकातें, कितनी बातें आज याद आ रही हैं।

बहुत समय से उनकी श्रवण शक्ति ख़त्म हो गई थी, सो इधर न कोई बात हुई थी, न वर्षों से मिलना ही हुआ था। लेकिन जब जीवित थीं तब महसूस होता था, राजेन्द्र जी भी किसी रूप में हमारे बीच बने हुए हैं। लेकिन आज से अब यह भी ख़त्म हुआ। 


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