"छत्तीसगढ़ में क्रांतिकारी परिवर्तन के वास्तविक सूत्रधार : दाऊ रामचंद्र देशमुख"

आज जन्म-जयंती पर विशेष

अरुण कुमार निगम

 

दाऊ जी के पिता श्री गोविंद देशमुख पिनकापार के मालगुजार थे। उनकी संपन्नता किसी छोटी मोटी रियासत से कम नहीं थी तथापि वे न्यायप्रेमी होने के साथ ही आम जन की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते थे।

पिता से प्राप्त सद्गुणों के कारण ही धन संपदा से संपन्न परिवार के दाऊ रामचंद्र देशमुख के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हुआ और उनमें निर्भयता और अन्याय के प्रति आंदोलित हो उठने की उदात्त प्रवृत्ति और प्रबल होती गई।

उन्हें माता का अत्यंत स्नेह मिला जिसके कारण उनमें नारी-समाज को मातृ-शक्ति के रूप में देखने की प्रवृत्ति जाएगी और वे नारी जाति के शोषण और तिरस्कार के प्रति सदैव सजग रहे। शायद इसीलिए "चंदैनी गोंदा" के "पूजा के फूल" के मूल में हम  चाँद बी और सुमन को पाते हैं।

"देवार डेरा" के मूल में नारी के दर्शन करते हैं। "एक रात का स्त्री-राज" अपने शीर्षक से ही स्वयं को स्पष्ट करता है और लोक-नाट्य "कारी" तो छत्तीसगढ़ की आत्मा का पर्याय बन गया।

फिल्मी गीतों के प्रभाव से जब नाचा अपनी मूल पहचान लगभग खो चुका था और वह सभ्रान्त लोगों के योग्य नहीं रह गया था उस दौर में दाऊ जी पृथ्वीराज कपूर के नाटक "दीवार" के एक लोकनृत्य से बहुत प्रभावित हुए।  

उन्होंने नाचा के परिष्कार और उसे सामाजिक दायित्व बोध से जोड़ने की चेष्टा करने का निश्चय किया और देहाती कला विकास मंडल की स्थापना की जिसने नाचा को गरिमामय बनाते हुए लोकप्रियता के शिखर तक पहुँचाया।

इसी दौरान कुछ सामर्थ्यवान पूँजीपतियों ने अपने राजनैतिक प्रभाव का प्रयोग कर भोलेभाले कलाकारों को महानगरीय प्रदर्शन के इंद्रधनुषी स्वप्न के मायाजाल में फँसा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए छत्तीसगढ़ में अच्छे कलाकारों की शून्यता पैदा कर दी। देहाती कला विकास मंडल के कलाकारों के चले जाने से मंडल की प्रस्तुतियाँ बन्द हो गईं। 

लगभग दो दशकों में जब कलाकारों का महानगरीय मोह भंग हुआ और उन्हें लगा कि उनकी प्रतिभा का मात्र दोहन हुआ है तब वे लौट कर छत्तीसगढ़ आ गए। उनके आते ही दाऊ जी में नयी शक्ति का संचार हो गया और उन्होंने "चंदैनी गोंदा" की स्थापना की। चंदैनी गोंदा कोई नाचा या गम्मत नहीं था। वह सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद था। छत्तीसगढ़ियों में स्वाभिमान जगाने का मंत्र था।

छत्तीसगढ़ी भाषा को परिष्कृत करने का उद्यम था। जन-जन में सामाजिक दायित्व बोध जागृत करने की चेष्टा थी। इस प्रकार 07 नवंबर 1971 को अपने प्रथम प्रदर्शन के साथ ही चंदैनी गोंदा एक क्रांतिकारी आंदोलन बन गया और लगभग दस-बारह वर्षों में अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हो गया। 

चंदैनी गोंदा वस्तुतः एक ऐसा बैनर है जिसमें "पूजा के फूल", "देवार डेरा" और "एक रात का स्त्री राज" का एक पवित्र संगम है। उद्देश्य पूर्ति के बाद दाऊ जी ने अपने उस चंदैनी गोंदा का विसर्जन 22 फरवरी 1983 को कर दिया जिसमें उनका दिवा-स्वप्न साकार हुआ।

स्वाभिमान को जगाने का प्रयास सफल रहा। छत्तीसगढ़ी भाषा ऐसी परिमार्जित और परिष्कृत हुई कि छत्तीसगढ़ की सीमाओं से देश के अनेक नगरों से होती हुई विदेशों में भी अपना परचम लहराने में सक्षम हो गई।

हिन्दी के स्थानीय कवि छत्तीसगढ़ी में कविताएँ  और गीत लिखने लगे। लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत और खुमानलाल साव के संगीत में स्वयं लक्ष्मण मस्तुरिया, भैयालाल हेड़ाऊ, संगीता चौबे, कविता वासनिक, अनुराग ठाकुर आदि के मधुर कंठों की स्वर लहरियाँ जादू की तरह जनमानस के सिर चढ़ कर बोलने लगा। ऑर्केस्ट्रा से आये कलाकारों की पहचान लोक कलाकारों के रूप में स्थापित हो गई।

छोटी-बड़ी अनेक सांस्कृतिक संस्थाएँ बन गईं जिनसे न केवल कलाकारों को नई पहचान मिली बल्कि बहुत से कलाकारों के लिए आजीविका का साधन तैयार हो गया। अनेक महान कवियों की कविताएँ उनकी कापियों से निकल कर संगीत से सुसज्जित हुईं और जनमानस तक पहुँचीं। "कारी" ने छत्तीसगढ़ की नारी को सम्मानित किया। 

जन्म से ही वैभव और संपन्नता में पलने वाला व्यक्ति यदि दीन-हीन, शोषित, दमित और तिरस्कृत आम-जन की पीड़ा को महसूस कर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हुए उनके उत्थान हेतु जुट जाए तो वह बुद्ध ही हो सकता है। फिर वह साधारण व्यक्ति न होकर एक अवतार-पुरुष बन जाता है। छत्तीसगढ़ के लिए दाऊ रामचंद्र देशमुख को अवतार-पुरुष कहना किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं होगी। 


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