झारखण्ड के 21 वर्ष: एक आधी-अधूरी विकास-यात्रा का पूरा सच और आदिवासी समाज

झारखंड स्थापना दिवस पर जनमत शोध संस्थान द्वारा जारी विशेष रिपोर्ट

अशोक सिंह

 

अब बात जहाँ तक 21 सालों में झारखण्ड के विकास की दशा-दिशा और आदिवासी समाज की है, तो झारखण्ड अलग राज्य की स्थापना के पीछे कई महत्वपूर्ण उद्देश्यों और सपनों में एक मूलभूत उद्देश्य और सपना यहाँ के आदिवासियों का विकास था, जिस बात से हमें इनकार नहीं करना चाहिए। लेकिन पिछले 21 वर्षोंं में झारखण्ड का उसमें भी खासकर यहाँ के आदिवासियों का कितना और कैसा विकास हुआ यह सर्वविदित है।

सवाल है कि आखिर किन कारणों से आदिवासी समाज अपने ही राज्य में, अपनी ही सरकार और अपने ही जाति समुदाय के जनप्रतिनिधियों की बहुलता के बाबजूद आज तक अपेक्षित विकास नहीं कर पा रहा है, जिसमें वर्तमान की हेमंत सोरेन की देशज सरकार भी एक है?

राज्य स्थापना के बाद के इन 21 वर्षों का हमारा अनुभव यह रहा कि जो सामाजिक घटक जनतांत्रिक राजनीति के स्तर पर संगठित होकर दबाव समूह के रूप में उभर कर व्यवस्था में सकारात्मक हस्तक्षेप कर सके, उन्होंने अपनी प्राथमिकता के क्षेत्र में लाभ उठाने में सफलता प्राप्त की।

जो पीछे रह गये, वे पीछे ही रह गये। इस पिछडे़पन में आदिवासी समूह सर्वाधिक दयनीय दशा में रहे। लाभ न उठा पाने से भोैतिक स्तर पर यथास्थिति को भी न बचा पाये। भरपाई न होने का कारण ‘स्वीकार्य विकल्प’ का अभाव रहा।

समाज के स्तर पर ‘साधन सम्पन्न’ और ‘साधनहीन’ अर्थात वर्ग की अवधारणा अपनी जगह महत्वपूर्ण है। लेकिन जब हम सामाजिक घटकों की तुलनात्मक स्थिति पर चर्चा करते हैं। तो पाते हैं कि जो घटक जीवन और भविष्य के प्रति खुला दृष्टिकोण विकसित कर सके, उन्होनें प्रगति की। इसके लिए वे अपने मूल स्थानों से अन्यत्र तक जाते रहे। मारवाडी वणिक जातियाँ एवं पंजाब के सिख इसका बेहतरीन उदाहरण हैं, जो देश के अन्य प्रांतों ही नहीं बल्कि विश्व के विभिन्न देशों तक में चले गये और भौतिक दृष्टि से समृद्ध हो सके।

इस दृष्टिकोण से यदि हम आदिवासियों के बारे में विचार करें तो पायेंगे कि आदिवासी समूह अपने इलाकों में ही रहने की बंद मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। इसके बहुत सारे कारण हो सकते हैं। प्रश्न उन कारणों को खोजने का अपनी जगह महत्वपूर्ण है। फिलहाल यहाँ आदिवासी के वर्तमान और भविष्य की चिन्ता के साथ-साथ उनके विकास का विषय केन्द्र में है। 

थोड़ी देर के लिए हम आदिवासियों और समाज की मुख्यधारा में अछूतों का जीवन जीते चले आ रहे दलितों पर तुलनात्मक दृष्टि से बात करें तो पायेंगे कि कि अछूत दलित यह बात आसानी से समझ पाये कि उनकी दयनीय दशा की वजह क्या रही। सर्वण मानसिकता के षड्यंत्रों को वे आसानी से जान सके, इसलिए कि वे ऐसी मानसिकता वाले व्यक्ति समूहों के इर्द-गिर्द रहे।

हर स्तर पर बंचित रहने के बाबजूद चाहे दबाव व मजबूरियों में जीवन को जीते रहे। लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि वे जानते नहीं, उनकी दुर्दशा के कारणों को या उसके स्वरूप को। इसलिए इस वर्ग में डाॅ. अम्बेदकर जैसे चेतनाकामी नायक उभर सके। यही वजह रही कि अछूत दलित हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ सके । लेकिन ठीक इसके दूसरी तरफ अलग-थलग रहते रहे आदिवासियों के साथ ऐसी परिस्थितियाँ विकसित नहीं हो पायीं। आज भी उनकी मानसिकता बंद सोच की चली आ रही है। बाहरी दुनिया से कुछ सीखने की बजाय वे अपनी परंपरागत जीवन शैली और दृष्टिकोण से ही बंधे रहे।                                            

आदिवासी समाज के साथ एक ओर दिक्कत है। वह यह कि देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग उनके अंचल हैं। इसलिए क्षेत्रीय नेतृत्वों में तालमेल मुश्किल होता है और असंभव सा रहा भी है। यह बिडम्बना ही है कि सारे आदिवासी समूहों की समस्याएँ करीब-करीब एक सी होते हुए भी उनके जो भी नायक पैदा हुए उनमें संवाद और राष्ट्रीय स्तर पर संगठन पैदा नहीें हो सका। मैं इसे व्यावहारिक कठिनाइयाँ ही कहना चाहूँगा फिर भी सूत्र हैं।

आदिवासी जागरण की प्रक्रिया और विरोध संघर्ष की रणनीति हर अंचल में एक सी रही। दूसरी ओर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यहाँ-वहाँ वनस्थलों में बिखरे आदिवासी समूहों में संवादहीनता राष्ट्रीय स्तर पर उभर सकने वाले नेतृत्व की सबसे बड़ी बाधा बनी रही । समाज के स्तर पर नहीं, बल्कि वर्तमान राजनीति के स्तर पर भी मजबूत आदिवासी राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव महसूस किया जा सकता है।

आदिवासियों में विकास की आवधारणा से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण व सूक्ष्म पहलू यह है कि आदिवासी संस्कृति के उस पक्ष को कैसे बचाया जाय जो समाज के लिए उपयोगी है एवं मुख्यधारा की संस्कृति को अधिक समृद्ध कर सकता है और यह भी कि आदिवासियों के उत्थान के अभिनव आयाम खोलते रहने के साथ-साथ। बहुत दुख और आक्रोश भरी प्रतिक्रिया होती है, जब तथाकथित उत्तर आधुनिक पाश्चात्यीकृत उच्छृंखल व अश्लील संस्कृति से सहज, भोली और नेैसर्गिक आदिम संस्कृति का साम्य बिठाने या तलाशने के प्रयास कोई करता है।

जोर संस्कृति के उस पक्ष का समर्थन कतई नहीं, जिसमें ओझागिरी, झाड़-फूक, जादू-टोना, भूत-प्रेत, डायन-जोगिनी, या आदिमता का अन्य कोई बर्बर स्वरूप है। जोर संस्कृति के उस पक्ष पर है, जहाँ प्रकृति प्रेम, वन्यजीवों के स्तर पर सह-असित्व, रोगों से मुक्ति व निखर सकने वाला जडी-बूटियों का परंपरागत व अनुभव ज्ञान, सामूहिकता, भोलापन, ईमानदारी, सहजता, श्रम का सम्मान, किसी भी प्रकार के वर्चस्व का नकार एवं ऐसे ही अनेकानेक तत्व मौजूद हैं।

जंगल पहाड़ों में रहने वाले आदिवासियों की सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि उन्हौंने बाहरी दुनिया नहीं देखी और अगर देखी भी तो अपने ही नजरिये से। जिन आदिवासी क्षेत्रों मेें ईसाई मिशनरीज की सकारात्मक भूमिका रही वहाँ शिक्षा का विस्तार और ‘एकस्पोजर’ होने से उत्थान की कुछ स्थिति बन सकी। कम्पेरेटिवली समतली आदिवासी भी बाहरी दुनिया को कुछ सीमा तक समझने में सफल हुए और उनके विकसित होने की संभावना बनीं।

ऐसे आदिवासी समूह ही सरकारी कार्यक्रमों का लाभ ले सके। आरक्षण एवं अन्य आर्थिक योजनाओं का कुछ लाभ उनको मिल सका। ऐसी सरकारी योजनाओं के लाभ जंगल पहाड़ों के इन्टीरियर इलाकों में नहीं पहुँचने का एक बड़ा कारण क्रियान्वयन में बाधाओं को ही नहीं माना जा सकता। मुख्य कारण क्रियान्वयन की आधी-अधूरी मंशा और कागजी स्तर पर खानापूर्ति रहा। इसलिए विकास की अवधारणा से जुड़ा मूलभूत नागरिक सुविधाओं का अभाव  करीब-करीब यथावत् बना रहा। झारखण्ड के  आदिवासियों पर दायित्व-बोध के साथ काम नहीं हुआ। न सरकार के स्तर पर न ही आदिवासी जनप्रतिनिधि के स्तर पर।

इन सारे संकटों का कारण यह है कि आदिवासी समाज को आज बहुत ज्यादा दबावों के नीचे जीना पड़ रहा है। आजादी के बाद पिछले सत्तर सालों से आदिवासियों के प्रति शासन की घातक नीतियों से, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवाद के बड़े पैमाने के षोषण से, बड़ी संख्या में बाहरी लोगों द्वारा आकर बसने और वहाँ की हर चीज पर अपना कब्जा जमा लेने से, आदिवासी समाज न सिर्फ तेजी से टूट रहा है बल्कि टूटकर बिखर भी रहा है।

ये बाहरी दबाव इतना ज्यादा हैं, पूँजीवादी ताकतों का हमला इतना बड़ा है और उनके समाज के टूटने-बिखरने की प्रक्रिया इतनी तीव्र और अराजक है कि आदिवासी आज किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया है। जिन ताकतों ने उन पर हमला किया है, वे ताकतें इतनी विकसित और जटिल प्रणालियों वाली हैं कि आदिवासी उनके तंत्रों को ठीक से समझने और उनका मुकाबला करने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। वे उन ताकतें के प्रभाव में इस कदर घिर गये हैं कि अपने आत्मबल और दूसरी शक्तियों को जगा नहीं पा रहे हैं।

आज झारखण्ड का आदिवासी समाज अपने इन्हीं अन्तर्विरोधों और समस्याओं में उलझकर रह गया है। इसलिए झारखण्ड अलग राज्य होने और आदिवासी सरकार व मंत्री-संत्री होने मात्र से ही झारखण्ड के आदिवासियों का अपेक्षित विकास संभव नहीं हैै। वैसे भी जब कोई समाज अपनी समस्याओं और अन्तर्विरोधों का सामना न कर सके, उसके दबाव से टूटता-बिखरता चला जाये, तो ऐसे समाज का भविष्य और विकास क्या होगा, यह कहने से ज्यादा समझने की जरूरत है।

अब ऐसा भी नहीं है कि इन 21 वर्षों में यहाँ कुछ भी नहीं हुआ। बात झारखंड राज्य के विकास का हो या फिर आदिवासी चेतना में सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक उभार का। हर स्तर पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कुछ न कुछ बदलाव दिख रहा है। स्कूल भवन बड़ी संख्या में बने, शिक्षक दोगुने हुए पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अब भी बड़ी चुनौती । साक्षरता दर में वृद्धि हुई है लेकिन महिला साक्षरता अभी भी बहुत पीछे है।

महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग व मेडिकल काॅलेज की संख्या भी बढ़ी। गाँव से शहरों तक सड़कों का जाल भी बिछा। छोटे बड़े हजारों पुल पुलिया बने, पर उसकी गुणवत्ता पर हमेशा सवाल उठते रहे। घर-घर बिजली पहुँची, व्यवस्था में बेहतरी के लिए काम भी हुआ पर जीरो पावर कट अभी भी सपना है। अस्पतालों और वहाँ बेडों की संख्या भी बढ़ी लेकिन सुविधाएँ सीमित। विभाग का दावा 39 फीसदी खेतों तक सिंचाई, फिर भी मौसम के भरोसे किसान।

38 फीसदी आबादी तक ही पहुँचा पाया है अभी पाईप लाईन से पानी बड़ी आबादी अभी भी पेयजल सुविधा से कोसों दूर। बात खाद्यान की करें तो राज्य की करीब पौने चार करोड़ आबादी के लिए जितने खाद्यान की जरूरत है उसका आधा ही हम उपजा पा रहे हैं। हाँ सब्जी और मतस्य उत्पादन में यहाँ आत्मनिर्भरता बढ़ी है। राज्य में खाद्य सुरक्षा की बात करें तो यहाँ डीलरों की संख्या 8 हजार से बढ़कर 25 हजार से ऊपर हो गई। 56 लाख कार्डधारियों तक राशन पहुँचा।

अभी भी 15 लाख नये लाभुकों के लिए कार्ड बनने की प्रक्रिया  जारी है। पहले गरीबों का अनाज सम्पन्न लोग खाते रहे लेकिन अब आॅनलाइन  सिस्टम से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है। लेकिन डीलरों के खिलाफ लाभुकों का विरोध और उनकी शिकायत जिला प्रशासन तक आये दिन पहुंचते ही रहते हैं जिसको नजरअंदाज करना भी उचित नहीं होगा। गौरतलब है कि खाद्य आपूर्ति विभाग ने राज्य भर में 763 पीडीएस डीलरों का लाइसेंस निलंबित किया है।

सभी के खिलाफ जांच चल रही है। मजे की बात यह है कि नाक के नीचे राजधानी रांची और पड़ोसी जिला बोकारो में सबसे ज्यादा गड़बड़ी की शिकायतें मिली हैं। घरेलू गैस की उपलब्धता के मामले में स्थिति पहले से बहुत अच्छी कही जा सकती है, जिसमें उज्जवला योजना की बड़ी भूमिका रही है।

गाँवों में आवास, शौचालय और कुएँ व तालाब भी बने। सिंचाई से लेकर जल संचय पौधारोपण और फसली जमीन भी तैयार हुई। मनरेगा से काम भी मिला। कुछ हद तक पलायन भी रूका। बाबजूद झारखंड के लोग रोजी रोटी के लिए बाहर जा ही रहे हैं। कभी संकट में फंसने पर सरकार उन्हें वापस लाकर अपनी पीठ भी थपथपाती रही है। लगभग 5 लाख से ऊपर बेघरों को आवास मिला। आजीविका मिशन से गाँव की महिलाएँ कुछ हद तक स्वाबलंबी और आत्मनिर्भर भी हुई।

मिशन नवजीवन, दीदी बाड़ी और फूलो झानो आशीर्वाद योजना से उम्मीद तो थी लेकिन इस योजना से जुड़कर लाभ उठाने वाली महिलाएं आज भी चोरी छिपे हंड़िया दारु बेचने में लगी हैं। आये दिन ग्रामीण हाटों और सड़कों से गुजरते हुए यह नजारा देखा जा सकता है। इसी कड़ी में अभी हाल में हेमंत सरकार द्वारा शुरू की गई 10 रुपए में सोना सोबरन धोती साड़ी लूंगी योजना को भी देखा समझा जा सकता है। इस योजना के तहत सरकार के द्वारा राज्य के 57 लाख से अधिक लाल पीला कार्डधारी गरीब परिवारों को धोती साड़ी लूंगी देने का लक्ष्य है।

त्योहार से पहले 14 लाख से ऊपर परिवारों तक इसे पहुंचाना था लेकिन अभी तक यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका है। नाक के नीचे राजधानी रांची और संताल परगना के जामताड़ा जिले के आंकड़े इस लोक लुभावन योजना को लेकर आम जनता की उदासीनता बयां कर रही है। झारखंड के भोले भाले आदिवासी और यहां की गरीब जनता जो इस योजना से जुड़ रही है, उन्हें इस योजना की हकीकत का पता चल रहा है।

बात यहाँ की कानून व्यवस्था और अपराधिक घटनाओं की करें तो पिछले 21 सालों में पुलिस व्यवस्था में सुधार हुआ है। नक्सलियों की कमर टूटी है। लेकिन डायन, बिसाही, हत्या, रेप, मानव तस्करी और लूट-पाट की घटनाएँ पुलिस के लिए अब भी चुनौती बनी हुई है।

उद्योग धंधों की बात करें तो खनिज से परिपूर्ण झारखण्ड में नहीं आज तक औद्योगिक क्रांति नहीं आ सकी। कोयला, पत्थर हो या लकड़ी, बालू। खनन माफिया नेता पुलिस और भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से चांदी काटते रहे। भूमाफियाओं के मजबूत नेटवर्क ने तो झारखंड में जमीन की लूट मचा रखी है। नवढनाढ्य वर्ग इसका खूब लाभ उठा रहे हैं। शहर के आसपास की सारी जमीनों का धड़ल्ले से अवैध हस्तांतरण हो रहा है। शहर से सटी आदिवासी बस्तियों के लोग धीरे-धीरे पिछे खिसकते जा रहे हैं और अपना बाहरी लोग अपना पांव फैलाते जा रहे हैं। 

उद्योग एवं व्यवसाय की बात करें तो बड़ा उद्योग आज भी यहां एक सपना है। छोटे और देशज उद्योग भी लाख प्रयास के बाबजूद मजबूती से खड़े नहीं हो पा रहे हैं। हाँ इधर हाल के कुछ वर्षों में लगभग एक हजार से अधिक एसटी-एससी उद्यमी बन चुके हैं। पंचायती राज और गाँव की सरकार की बात करें तो पिछले एक दशक में दो कार्यकाल पूरा कर चुके हैं।

कोविड के कारण लगभग छह महीने का एक्सटेंशन भी पा चुके हैं लेकिन अधिकार और पैसे माँगने में ही गुजर दिए 10 साल। और अब तीसरी पारी खेलने का भी इंतजार कर रहे हैं। इन दस सालों में ग्राम पंचायतों का कितना और कैसा विकास हुआ यह तो सब जानते ही हैं लेकिन इस बीच जनप्रतिनिधियों और उसके साथ लगे बिचौलियों ने जो अपना विकास किया है, वह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। बेराजगारी और नियोजन नीति को देखें-परखें तो जहाँ एक ओर सरकारी विभागों में एक लाख से ज्यादा पद खाली हैं वहीं दूसरी ओर नियोजन नीति भी स्पष्ट नहीं है।

कई विभागों की नियुक्ति नियमावली में अभी भी पेंच है। पारा शिक्षक, स्वास्थ्यकर्मी, पोषण सखी, पंचायत स्वयं सेवक, कम्प्यूटर आपरेटर, सहिया साथी, जल सहिया  से लेकर साक्षरताकर्मी तक सभी अनुबंध कर्मी आज तक अपने हक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। ऐसे में आउट सोर्सिंग एजेंसियों की  हमारे राज्य में फल फूल रही हैं। सरकार द्वारा विभिन्न जिलों में लगने वाले रोजगार मेले की असलियत जानना हो तो, वहां सुबह हाथ में डिग्रियों की फाइल लेकर उम्मीद से जाने और शाम खाली हाथ निराश लौटने वाले सैकड़ों बेरोजगार युवकों से मिलकर उनका अनुभव जान लें।

बात झारखण्ड के शहरीकरण की करें, तो यहाँ शहरीकरण की रफ्तार बहुत धीमी है। यह अलग बात है कि अब झारखंड का हर शहर अव्यवस्थित रुप से बिना किसी टाऊन प्लान के तीव्र गति से फैलता जा रहा है जिसे डेवलपमेंट के नजरिए से शहरीकरण नहीं कहा जा सकता। अपने साथ एक साथ जन्मे तीन राज्यों में यह अन्य दो राज्य उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ के मुकाबले शहरीकरण को लेकर बहुत पीछे रहा। वर्ष 2000 में यहाँ शहरी क्षेत्र करीब 22 प्रतिशत था जिसमें अभी तक मात्र 2 प्रतिशत का ही इजाफा हुआ है। हाँ पर्यटन के मामले में झारखण्ड काफी समृद्ध हुआ है। पहले लगभग 24 हजार पर्यटक आते थे अब यह साढ़े तीन करोड़ हो गई है जो इस क्षेत्र में बड़ी संभावनाओं का संकेत देती है। 

कुल मिलाकर इन 21 सालों के सफर में जहाँ राज्य ने कई कीर्तिमान बनाये हैं वहीं कई स्तर पर कई तरह की चुनौतियाँ आज भी मौजूद हैं। यह सच है कि कोविड जैसी वैश्विक महामारी ने पिछले डेढ़ दो सालों में जान माल का भारी नुक़सान तो किया ही, विकास की गति को भी अवरुद्ध किया है। जिसकी वजह से राज्य के कुल बजट की राशि का अभी तक लगभग 31 प्रतिशत ही खर्च हो पाया है जबकि वित्तीय वर्ष समाप्ति के मात्र चार पांच महीने ही शेष बचे हैं। लेकिन कोविड की आड़ लेकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती।

कुछ सरकार की अपनी  कमियां, खामियां व कमजोरियां भी हैं, जो प्रायः गठबंधन सरकार में होती भी हैं। और कुछ केन्द्र और राज्य सरकार के बीच के अपने आपसी सतह पर न दिखने वाले अंतर्कलह भी। इसके अलावा कुछ पिछली और वर्तमान सरकार  के आपसी द्वेष और मतभेद भी। आये दिन विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले जुलूस धरना प्रदर्शनों में जहां एक ओर पक्ष विपक्ष के नेताओं की आपसी जुबानी जंग और भिन्न भिन्न संगठनों द्वारा सरकार पर लगने वाले वादाखिलाफी के आरोपों को भी इस परिप्रेक्ष्य में देखा समझा जा सकता है।

हां कुछ हद तक यह भी सही है कि कई मोर्चों पर अच्छे काम हुए हैं जिसमें न सिर्फ वर्तमान सरकार का बल्कि पिछली सरकारों का भी कमोबेश योगदान रहा है, पर अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है, जिसको लेकर झारखण्ड की जनता की ढेर सारी अपेक्षाएँ सरकार से जुड़ी हैं। अब देखना है कि यह देशज सरकार अपनी देशज जनता के लिए कितना कुछ कर पाती है और अबुआ दिसोम, अबुआ राज का सपना कितना सफल व सार्थक कर पाती है।


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