जलती चिंगारिंया
इलिका प्रिय की कहानी
इलिका प्रियबासू दिल्ली गया है, जीत को उसने कह दिया है यहां का मामला वह संभाले। जीत आज जब इस आंदोलन की धरती पर बैठा है , बैठा ही नहीं है उसकी अगुवाई भी कर रहा है। आज जहां बैठे हुए उसे पुराने दिन याद आ रहे हैं। वही दिन जब उसने खेती की खस्ती हालत के कारण कर्ज लिया था, वही दिन जब वह कर्ज की रकम चुका नहीं पाया था, बेबसी ने उसके शरीर से सारी क्षमता चूस ली थी, उसके जैसे बदहाल किसान कभी खेत के पेड़ पर रस्सी से लटके मिल रहे थे, तो कभी कूएं के अंदर गीरे, उसने भी तो वही ऊपाय अपनाने की सोच रखी थी, ओह! कैसा बेबसी भरी स्थिति थी वह, जिसे सोचकर आज भी उसका दिल दहल उठता है।

फंदा भी तैयार था, कमरा भी अकेला था, ऐन मौके पर बासू न आता और अगर वह सरकार के काले कृषि कानून के खिलाफ आंदोलन वाली चर्चा उससे न करता, तब वह आज जिंदा भी न होता।
पर अब चाहे धूप में तपना पड़े, चाहे भूखा रहना पड़े, चाहे पुलिस की मार खानी पड़े, चाहे जेल जाना पड़े, अब वह खुश है, क्योंकि अब वह अपने हक के लिए लड़ाई के मैदान में है। अब तो उसे मौत का भी डर नहीं, लड़कर मरना डरकर मरना से कहीं ज्यादा अच्छा है।
जो गौरव उसे इसमें शामिल होकर मिलती है वह कभी नहीं मिल सकती थी, वह हर आंदोलन, रैलियों में शामिल होता है, कुछ लोग ने कहे भी इस आंदोलन में खतरे बहुत हैं, हाल ही में तो उसने सुना था, बस्तर में आंदोलन करने वाले पर गोलियां चलाई गई, चार मार डाले गये, हाल ही में किसान आंदोलनकारियों पर भी लाठी चार्ज हुए थे।
हाल ही में लखीमपुर में शांति से किसान आंदोलन में चल रहे आंदोलनकारियों को गाड़ी से रौंध दिया गया था, सच बड़ा भयानक था वह, पर ये चीजें उसके मन में डर पैदा नहीं करते हैं, बल्कि लड़ने के लिए और प्रेरित करते हैं, दिखाते हैं, यह व्यवस्था कितनी खराब है इसे बदलना कितना जरूरी है। और यह आंदोलन भी तो उन आंदोलनों में शहीद हुए किसानों को समर्पित था।
वह आंदोलन के बारे में सोच ही रहा था कि पुलिस की गाड़ियां अचानक से वहां आ धमकी, हथियारों से लैस पुलिस वाले धड़ाधड़ बाहर निकले और लाठियां चटकने लगी।
इस अचानक हमले के लिए कोई तैयार न था, सौ-दो सौ की किसान की वह भीड़ इधर-उधर भागने लगी। उसने माइक संभाला-कोई कहीं नहीं भागिए , "-उसने कहा ही था कि पुलिस वाले ने माइक छीन ली,- "दस मिनट में रास्ता खाली करो, वरना एक-एक को हवालात में बंद कर दूंगा, " पुलिस अॉफिसर गरजा।
उसने जीत को मंच पर से धक्का दे दिया, जीत जमीन पर आ गीरा, माथे पर चोट लगी खून बहने लगा।
" हम कहीं नहीं जाएंगे, हम यहीं रहेंगे, जुल्म के खिलाफ आंदोलन करेंगे, "- भीड़ से कोई चीखा।
"शहीद किसान जिंदाबाद! जुल्मी सत्ता मुर्दाबाद!"-किसे ने नारा लगाया।
"शहीद किसान, जिंदाबाद! जुल्मी सत्ता मुर्दाबाद!" भीड़ में नारे गूंज उठे, बिखरी भीड़ सिकुड़ने लगी,लाठियां जोर-जोर से चटकने लगी, कुछ लाठियां चटकाने वाले पर भी बेबस होकर लाठियां चटकी, पत्थर भी उछले, आंसू गैस के गोले छुटे। कुछ ही देर में कुछ सायरन की आवाजें आई, भीड़ को जानवरों की तरह, घसीटते, पीटते, ठेलते, गाड़ियों में ठूंस-ठूंस कर भरा जाने लगा।
"शर्म करो नालायकों हमारा ही उगाया अनाज पेट भरता है तेरा, इन लूटेरों के दूमहिले कूत्ते बनते शर्म करो, शर्म करो, बेशर्मों अपने काका-काकी समान पर लाठी चलाते, वर्दी ने तेरी सारी शर्म चूस ली है, छ:छ: "-एक बूढ़ी आवाज जोर-जोर से बदुआएं दे रही थी।
गाड़ी चल पड़ी, पुलिस चौकी। और फिर सारे लोगों को लॉकअप के अंदर डाल दिया गया जहां सोने तक कि जगह न थी, रात-भर मच्छरों की भन भन और अंदर के टायलेट की दुर्ग़ध ने जीत के मन को अशांत किये थे। जाने लोगों पर अब क्या असर होगा। बासू रहता तो बात दूसरी थी। मार के बाद चोट खाए लोग दर्द से भी कराह रहे थे।
"जाने यह दर्द और जेल आपलोगों को फिर से आंदोलन में जाने देगा या नहीं , मगर इससे निकलने के बाद अकेला ही यदि जाना पड़े, मैं आंदोलन पर बैठूंगा, वह हमारे शोषण के खिलाफ लड़ कर मर गये किसान भाईयों की शहादत को सलामी है।
"-जीत लोगों के हौसले बनाए रखना चाहता था, क्या फर्क पड़ता है यह जेल हो या आंदोलन का मैदान, -" वैसे भी भाईयों, उस दिन की कल्पना करिए जब गले में फंदा डालने का ख्याल आने लगता है, अगर हमें मरना ही है तो लड़ते हुए मरे। लड़ते हुए शहीद हुए भाईयों के न्याय के लिए मरें।"
"सही कहा बेटा!मैं तेरे साथ हूं।"-उसी बूढ़ी काकी ने कहा जो उस पुलिस वाले को बददुआएं दे रही थी।
"हम भी"
"हम भी"
कई आवाजें गूंज उठी, जीत को मालूम चल गया वह अकेला नहीं है। बस उसे सुबह का इंतजार था।
" सुबह तुमलोगों को छोड़ दिया जाएगा, पर यह कंफर्म करो, फिर उस रास्ते पर आंदोलन करते नजर नहीं आओगे।"-थानेदार बोला।
"हम तो फिर वहीं आंदोलन करेंगे।"-ढेर सारी आवाज आईं।
" सड़ा दूंगा जेल में ही"-थानेदार ने धमकाया, पर बात नहीं बनी।
सुबह जब थानेदार वहां आया, उसके चेहरे पर हवाईयां उड़ी हुई थी।
"सबको गिरफ्तार करो"-वह हवलदार पर चीखा।
"पर सर!आज वहां हजारों लोग हैं, हमारी पूरी चौकी इतनी बड़ी नहीं है कि हजारों लोगों को गिरफ्तार कर रखें।"-
अभी वे जूझ ही रहे थे कि बाहर हलचल मच गई।
"क्या हुआ?"
"सर बाहर हजारो लोग गिरफ्तारी देने आए हैं,"
"क्या?"
तभी फोन की घंटी बजी, " क्या कुछ लोग सड़कों पर कल की गिरफ्तारी के विरोध में जूलूस निकाल रहे हैं?"-थानेदार ने फोन पटका।
सहसा उसकी नजरें लाॅकअप पर पड़ी, उसे लगा वह जेल नहीं धरना स्थल है, जिसके आंदोलनकारियों के खाने का बिल भी उसे भरना है।
"छोड़ दो इन लोग को!" थानेदार चीखा।
"क्या सड़कों पर उतरे लोंगों को गिरफ्तार करवाऊं?"
"अरे! नहीं, "
लाॅकअप खुला और सारे लोग बाहर निकल आए, जब वे वापस धरना स्थल पर जा रहे थे तो जीत ने देखा सड़कों पर कुछ लोग आंदोलन का झंडा लेकर जा रहे है, अब जब वे उस जगह पर पहुंचे, तो कल की सौ-दो सौ की भीड़ आज हजारों में बदल चुकी थी।
कल जो डंडे की चोट से उसे दर्द हो रहा था, उसपर इस नये दृश्य ने जीत का मलहम लगा दिया था।सारे लोग जो कल की घटना से हताश हुए थे।
उनकी हिम्मत इस भीड़ ने लौटा दी थी, संभव हो आज भी लाठियां चटकाई जाए, पर तय था यह काफिला रूकने वाला न था, तय था अगर एक जगह चिंगारी बूझ भी जाए, तो दूसरी जगह जल ही उठेगी। फिर से एक बार साबित हो गया था, शोषण चाहे कितना ही ज्यादा क्यों न हो उसके खिलाफ लड़ाईयां कभी बेकार नहीं जाती।
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