रास्ता इधर से है
प्रेमकुमार मणिखबर है कि छात्र नेता कन्हैया कुमार 28 सितम्बर को कांग्रेस पार्टी में शामिल हो रहे हैं। वह अभी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में हैं। कम्युनिस्ट उम्मीदवार के रूप में उन्होंने 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा था। मेरी जानकारी के अनुसार वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य भी हैं। पिछले चुनाव के वक़्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बिहार इकाई के सचिव ने उन्हें अपनी पार्टी का भविष्य बताया था। तो, कम्युनिस्टों का भविष्य अब कांग्रेस में समाहित होने जा रहा है। यह खबर को देखने -समझने का एक कोण हो सकता है।

मैं नहीं जानता कन्हैया का यह कदम क्रान्ति है या प्रतिक्रान्ति या कुछ और; लेकिन उन्होंने शहीद भगत सिंह के जन्मदिन को अपनी इन्ट्री की तारीख रख कर इसे क्रान्तिकारी बनाने की चालाकी जरूर की है ।
कन्हैया खुशनसीब हैं कि वह रातों - रात नेता बन गए। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष रहे। 2016 में वह विवादों में आए और कुछ समय तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा। मैंने भी उनके संघर्ष को समर्थन दिया था। 2019 में जब वह लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे, तब भी मैंने अपना व्यक्तिगत समर्थन उनके लिए व्यक्त किया था।
मुझे इस बात का थोड़ा यकीन था कि इस नौजवान में ईमानदारी और सच्चाई है। इस युवा स्वर को संसद में होना चाहिए। हालांकि मैंने इस बात पर चिंता भी व्यक्त की थी कि अभी संसद में जाने की जल्दीबाज़ी नहीं करते तो बेहतर था। लेकिन जब उम्मीदवार हो गए हैं, तब मैं उनका समर्थन करूँगा। मैं समझता हूँ मेरी तरह हजारों लोग थे।
लेकिन डेढ़ वर्षों के भीतर ही इस युवा कॉमरेड को क्या हो गया कि वह अपनी पार्टी छोड़ रहे हैं और एक ऐसी पार्टी में जा रहे हैं जिससे उनके बुनियादी सिद्धांत टकराते हैं। वह कह सकते हैं कि आज प्रगतिशील विचारों केलिए राष्ट्रीय राजनीतिक संकट है और इससे संघर्ष केलिए कांग्रेस बेहतर मंच है। लेकिन क्या ऐसा सचमुच है?
कन्हैया यदि यह कहते हैं तो उन्हें यह भी कहना चाहिए कि अब तक वह भटकाव में थे। मुझ जैसे लोग समझ रहे थे कि वह सिद्धांतों की राजनीति कर रहे हैं। वह केवल सत्ता की राजनीति कर रहे हैं, तब तो फिर कहीं भी जा सकते हैं। मुझ से कई लोगों ने यह प्रश्न किया है कि कन्हैया के जाने से क्या कांग्रेस को राजनीतिक लाभ होगा? यह उलझा हुआ सवाल है और मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ कि भविष्यवाणी करूँ। लेकिन मुझे सामान्यतया तो यही लगता है कि इस नौजवान के होने से कम्युनिस्ट पार्टी को जब कोई लाभ नहीं हुआ ,तो कांग्रेस को क्या होगा।
पूरे देश की तरह बिहार में भी कांग्रेस खस्ता -हाल है। 2010 के विधानसभा चुनाव में उसके केवल चार सदस्य थे। 2015 के चुनाव में कांग्रेस के कंधे पर बन्दूक रख कर नीतीश कुमार ने कुटिल राजनीति की थी। यह तब के अपने सहयोगी दल राष्ट्रीय जनता दल के विरुद्ध एक छुपी रणनीति थी। नीतीश ने जोर देकर चार विधायकों वाले दल को दस गुनी चालीस सीटें दिलवा दी।
गठबंधन की आंधी में 27 जीत कर आ गए। कांग्रेस को नीतीश ने अपनी बी टीम बनाए रखा। 2017 में नीतीश ने जब पलटी मारी तब भाजपा के साथ कांग्रेस अपने अखिल भारतीय चरित्र और दलबदल कानून के कारण नहीं जा सकती थी। बावजूद इसके कांग्रेस के प्रांतीय अध्यक्ष कोई चार विधान परिषद् सदस्यों के साथ नीतीश कुमार के दल में चले गया ।
2020 के चुनाव में सत्तर सीटों पर लड़ कर कांग्रेस को केवल 19 सीटें मिलीं। गठबंधन के अन्य सहयोगियों ने पचास फीसद से अधिक सीटें जीतीं। इस हिसाब से कांग्रेस को कम से कम छत्तीस सीटें जीतनी चाहिए थीं। जीतीं 17 कम। इतनी ही बढ़त पर एनडीए सत्ता में आ गई। बिहार में महागठबंधन की पराजय की यही गुत्थी थी।
क्या देश और प्रदेश में कांग्रेस को कन्हैया के आमद से कोई लाभ होने जा रहा है?
मुझे लगता है उसकी मुश्किलें और बढ़ेंगी । कमसे कम बिहार में तो बढ़ेगी ही। कांग्रेस पार्टी आज गंभीर राजनीतिक एनीमिया ( रक्ताल्पता ) से ग्रस्त है। हालांकि ऐसा संकट उसके पास पहले भी आया है। 1967 के चुनाव के बाद कांग्रेस की स्थिति काफी पलीद हो चुकी थी। इंदिरा गांधी साधारण बहुमत से प्रधानमंत्री तो थीं, लेकिन आठ प्रांतों में उसकी सरकार चली गई थी।
ऐसे में प्रभुनारायण हक्सर की रणनीति इंदिरा गांधी के काम आई। इंदिरा ने साहस के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ,कुछ अन्य समाजवादी तत्वों और सब से बढ़ कर समाजवादी नीतियों से अपना तादात्म्य स्थापित किया। बैन्कों के राष्ट्रीयकरण, शाहीथैली की समाप्ति और आंशिक भूमिसुधारों से गरीबों में उसके प्रति विश्वास विकसित किया।
इन्दिरा अपनी ही पार्टी के बूढ़े - झक्की नेताओं से अलग- थलग हो गईं। भाषणबाज और तेजतर्रार कहे जाने वाले अनेक नेताओं को अपनी पार्टी या गुट से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया। बिहार स्तर पर देखें तो केबी सहाय, सत्येंद्र नारायण सिंह, महेशप्रसाद सिंह, तारकेश्वरी सिन्हा, रामसुभग सिंह जैसे दर्जनों नेता इंदिरा कांग्रेस से अलग हो गए। लेकिन राजनीति मुद्दों से होती है, थोबड़ों से नहीं।
इतिहास साक्षी है क्या हुआ था। इंदिरा गांधी ने संसद भंग कर दी और उपचुनाव करवाए । 1971 में कांग्रेस को दो तिहाई सीटें मिली। अगले साल तक लगभग सभी प्रांतों में भी कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी। मैं किसी व्यक्ति विशेष पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। कन्हैया या कोई कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र है। उनमें गुण है कि वह अच्छा भाषण दे लेते हैं।
लोग उन्हें राजनीति के कुमार विश्वास के रूप में देखते हैं। लेकिन ऐसे भाषणों से राजनीति होती तो अटल बिहारी वाजपेयी 1971 में ही प्रधानमंत्री हो जाते। इसी बिहार के महामाया प्रसाद सिन्हा और तारकेश्वरी सिन्हा मजेदार भाषण देते थे। उन्हें राजनीति में कितना याद किया जाता है, बतलाने की जरुरत नहीं है। राजनीति केवल भाषणों से नहीं होती। प्रोग्राम और मुद्दे उसके केंद्रक होते हैं।
भविष्यवाणी करना कोई अच्छी बात नहीं, लेकिन जिस इलाके से कन्हैया आते हैं, उसका इतिहास यही है कि कम्युनिस्ट नेता पहले कांग्रेस में जाते हैं और अंततः भारतीय जनता पार्टी में। भोला सिंह का उदाहरण देखिए और महान कम्युनिस्ट नेता कार्यानन्द शर्मा जी के परिवार का।
इस आधार पर कोई भी कह सकता है कि कन्हैया का अगला राजनीतिक पड़ाव भारतीय जनता पार्टी होगा। सुनने में आया है कि कांग्रेस में जाने के पूर्व उन्होंने जदयू में जगह तलाशी थी। भाजपा ने यह संभव नहीं होने दिया। भाजपा को मालूम है यह बंदा इधर को ही आएगा। कांग्रेस तो बस इधर आने का रास्ता है।
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